राम  के  विराट  व्यक्तित्व  की  तरह  निराला  का  भी  व्यक्तित्व  विराट है। राम केवल एक चक्रवर्ती राजा के पुत्र ही नहीं वरन् उनका व्यक्तित्व एक प्रजापालक, मर्यादित, आदर्शवादी, नैतिकता की पराकाष्ठा को आत्मसात किए हुए।  मर्यादा  पुरूषोत्तम  का  व्यक्तित्व  है  जिनके  पास  सबकी  समस्याओं  का समाधान है, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं उनका अपना सबका है। हर कठिन परिस्थियों में उन्हे जो निर्णय लेने हैं वो आदर्श के अनुरूप हों कोई

ऐसा  निर्णय  हम  न  लें  जो  एक  ऐतिहासिक  गलती  के  रूप  में  देखा  जाए अर्थात्  कहने  का  तात्पर्य  यह  है  कि  अपने  स्वार्थ  के  वशीभूत,  अपने  निजी आनंद के लिए राम कोई निर्णय लेने में असमर्थ हैं।

राजा दशरथ की मृत्यु के  पश्चात  जब  भारत  ननिहाल से  वापस अयोध्या  आते  हैं  और  सारी  स्थितियों  और  परिस्थियों  को  समझते  हुए जब यह निर्णय लेते हैं कि “मैं वन में जाकर भैया राम को अयोध्या वापस बुलाऊंगा  और  अयोध्यावासियों  समेत  यहाँ  तक  की  सभी  मातायें  भी  उनके साथ वन जाती हैं और राम के सामने प्रस्ताव दिया जाता है कि वो राज्य उनका ही था और उनका ही रहेगा। समस्त लोगों ने यह विनती की। आदर्श का रूप देखिये राम  चाहते तो इतने  अनुनय-विनय  पर अयोध्या वापस हो सकते थे। इतिहास भी इसकी व्याख्या कर देता कि पिता के वचन पालन हेतु राम  वन  गये  और  अयोध्या  के  हित  हेतु  राम  वापस  पुनः  अयोध्या  लौटे, इसमें राम को बहुत दोष नहीं लगता या वह अपने मन को समझा सकते थे लेकिन  नहीं  ;  आदर्श क्या  है?  दुनिया  सुंदर  हो,  यदि  स्वंय  को  दुःख  की पराकाष्ठा ही क्यों न झेलनी पड़े। वह जानते थे कि भरत राज्य का संचालन ठीक  ढंग  से  कर  सकता है।  गुरू  वशिष्ठ और  आर्य  सुमंत  के  सहयोग  से भरत अयोध्या के राजकाज को संभाल लेगा। यदि मैं वापस चला जाता हूँ तो

एक  न  एक  दिन  राज्य  के  लोभ  का  द्वेष  मुझे  झेलना  पड़ेगा।  इतना  बड़ा संघर्ष  जिसमें  राम  के  जीवन  के  तमाम  बड़े  उद्देश्य की  पूर्ति  हुई।  अर्थात संघर्ष जितना बड़ा उतने बड़े उद्देश्य की पूर्ति।

अब हम निराला के संघर्ष पर ध्यान देते हैं कि निराला का भी व्यक्तिव एक साधक का ही व्यक्तित्व रहा है। शादी हुई और उसके कुछ वर्षों के  बाद  पत्नी  की  असामयिक  मृत्यु  ने  निराला  को  तोड़  दिया।  निराला  ने जीवन  भर संघर्ष  किया जैसे  राम  का  संघर्ष  है  उसी प्रकार  निराला का भी संघर्ष  है।  ‘‘निराला  का  संघर्ष  काव्य  जगत  का  संघर्ष  है।  जीवन  में  आये पारिवारिक-सामाजिक  जीवन  का  संघर्ष  है।  काव्य  जगत  में  अपनी  मौलिक चीजों के लिए, नए मानक स्थापित करने का संघर्ष है और इसी प्रकार संघर्ष करते-करते हम देखते हैं कि निराला का व्यक्तित्व भी राम के व्यक्तित्व की तरह  विराट  हो  जाता  है।’’  जिस  प्रकार  जीवन  के  प्रति  अपनी  नैतिक जिम्मेदारी  का  बोध  राम  को  है  उसी  प्रकार  निराला  भी  अपनी  नैतिक जिम्मेदारियों को बखूबी पहचानते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वह कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं सरोज स्मृति में एक स्थान पर लिखा

जाना तो अर्था गमोपाय

पर रहा सदा संकुचित हाय

लखकर अर्नथ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ समर

अर्थात निराला अर्थ कमाने के तरीके जानते थे। चाहते तो कमा सकते थे लेकिन नहीं कमायेंगे क्योंकि आर्थिक पथ के अनर्थ की देखने की उनके पास दृष्टि थी। कुछ भी कर लें ऐसा सोच भी नहीं सकते थे निराला। आत्म संयम, नैतिकता व आदर्श की रेखा अपने स्वार्थ हेतु पार करना निराला के वश का नहीं।

 निराला  की  ‘राम  की  शक्तिपूजा’ में  बात  करते  हैं  राम  के  संघर्ष  की ।तो क्या शक्तिपूजा में केवल राम का ही संघर्ष है, जी नहीं राम के संघर्ष में निराला  का  संघर्ष  भी  मुखरित  होता  है।  निराला  का  उद्देष्य  स्पष्ट  है  मुझे साहित्य  सेवा  करनी  है।  साहित्य  में  घिसी-पिटी  परंपरा  का  विरोध  कर  नये मानक  स्थापित  करने  है।  मानव  मुक्ति  की  तरह  कविता  को  भी  बंधनों  से मुक्त करना है। जब नई स्थापनाएँ, नये मानव मूल्य, नये विचारों के सृजन करने  हों  तो  वाकई  में  बड़े संघर्ष  की  कल्पना  तो  है  उसे  पूरा  करने  में निराला अपने जीवन की इह लीला समाप्त करते हैं।

आदर्श की  धज्जियाँ  उड़ाने  वाले  निराला  इतिहास  के  एक आदर्शवादी व्यक्ति  को  अपनी  कविता  का  नायक  बनाता  है।  यह  अकारण नहीं है। राम के आदर्श पर चलें, राम के आदर्श से सीखें और राम जैसा कष्ट भोग कर भी जीवन को संचालित करें ऐसा विचार था निराला का।

निराला  ने  राम  के  संघर्ष  में  अपना  संघर्ष  देखा।  राम  के शक्तिपूजा  का  रचना  सन्  1936  ई.  है।  निराला  रचनावाली  के  संपादक नंदकिशोर नवल के साक्ष्य पर 26 अक्टूबर 1936 को इलाहाबाद के दैनिक भारत में पहला बार प्रकाशित हुई। डा0 रामविलास शर्मा ने 26 अक्टूबर के स्थान  पर  10  अक्टूबर  लिखा  है।  बहरहाल,  राम  की  शक्तिपूजा  से  पहले निराला  ‘तुलसीदास  और  सरोजस्मृति’  लिख  चुके  थे।  इसके  थोड़े  ही  दिनों बाद  उन्होने  ‘तोड़ती पत्थर और  वनबेला ’ जैसी श्रेष्ठ  समकालीन  कविताएँ लिखी।  यह  वह  समय  था  जब  प्रगतिशील  साहित्य  का  आंदोलन  तीव्र  से तीव्रतर हो रहा था। निराला इस आंदोलन से जुड़े युवा रचनाकारों के अत्यंत निकट थे, उन्हे परख रहे थे संवाद की तीव्र ललक के साथ। निराला स्वंय षोषित थे, अर्थभाव का आलम यह था कि प्यारी बिटिया सरोज का उसकी बीमारी  के  दौरान  ठीक  से  इलाज  भी  नहीं  कर  सके।  दुलारे  लाल  भार्गव सरीखे सम्पादक प्रकाषक ने उनके श्रम और सामर्थ्य का सही सम्मान नहीं किया।  अपनी  श्रेष्ठ  सर्जनात्मक  उपलब्धियों  के  दौर  में  निराला  व्यवहारिक जीवन  में  फटेहाल  परेशान  देखे  गये।  निरानंद  सम्पादक  उनकी  रचनाएँ खासतौर से उन्हे अपमानित करने के लिए लौटा रहे थे। उधर साहित्य के प्रति सर्वथा अगंभीर राजनीतिक लोग उन्हें सभाओं में अपनी बात कहने से रोक रहे थे।

कवि हृदय व्यकित जो अपनी दृष्टि से पूरी दुनिया को देखता है। क्या सही और क्या गलत की योजनाओं में दिन-रात उलझा रहता है उसे लगता है कि वह देश की समस्याओं को पहचानता है अपने तरीके से वह समस्याओं  का  निदान  भी  साहित्य  के  माध्यम  से  करता  है।  किन्तु  जब समस्याएँ जमीनी स्तर पर ज्यों की त्यों बनी रहती हैं तो उस कवि का मोह भंग होता है और यही उस कवि का आत्मसंघर्ष है। वह सोचता है कुछ और हो रहा है कुछ।

तुलसीदास और सरोज स्मृति के निराला का टूटन ‘एक और मन रहा राम का जो न थका’ जैसी पंक्तियों से स्वंय को प्रेरणा देने के साथ ही साथ भारतीय राजनीति को भी दिशा-निर्देश का काम कर रहे थे और ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ से ब्रिटिश हूकूमत की नींव हिलाने की बात करते हुए दिखाई दे रहे हैं।

राजनीतिक  लोगों  की  कार्य  प्रणाली  और  साहित्यिक  लोगों  की  कार्य प्रणाली में जमीन-आसमान का अंतर होता है। जहां एक ओर रामराज्य की कल्पना की जाती है वहीं दूसरी तरफ स्वार्थ सिद्धि से भरे वातावरण में स्वंय के  व्यक्तित्व  को  चमकाने  की  बात  की  जाती  है  और  यह  साहित्यिकों  को कभी-रास नहीं आती।

दुःख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूँ आज जो नहीं कहीं

कहने का तात्पर्य है कि इसमें कहने जैसा क्या है? सभी लोगों को  दुखी  करना,  या  अपनी  निजी  बातें  बताना  नहीं  ये  पंक्तियाँ  तो  अपने आप ही निःसरित हो जाती है और उन पंक्तियों के बाद भी कवि उठता है और शक्ति अर्जित करने की मौलिक कल्पनाओं की बात करता है।

अर्थात कबीर की भाषा में कहे तों ‘जो घर जारे आपने सो चले हमारे हमारे साथ’ की परंपरा का पालन करते हुए ही साहित्य सेवा की जा सकती है। राम का चरित्र ही साहित्य है और राम के चरित्र का चित्रण करने वाला साहित्यकार।

है अमानिशा, उगलता गगन घर अंधकार

खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तव्ध है पवन चार

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल

भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल

मशाल  का  जलना,  आसुरी  प्रवृतियों  के  लिए  एक  अखण्ड  ज्योति  है और इसी ज्योति से उनके स्वर्ण भरी लंका को जलाकर राख करना है। यह मशाल  निराला  के  अन्तस  में  जल  रही  है  और  इसी  मशाल  के  बल  पर निराला अपने जीवन को ऊर्जा से भर अपने साथ-साथ लोगों को भी ऊर्जावान बनाते हैं।

जिस  प्रकार  जीवन  जीना  एक  सार्थक  जीवन  यापन  करना  संघर्ष  से भरा होता है। हर एक क्षण कुछ न कुछ घटित होते रहता है और व्यक्ति बड़ी सावधानीपूर्वक उन तमाम समस्याओं का समाधान विवके पूर्वक खोजते हुए अपना जीवन संचालित करता है। राम की शक्तिपूजा में यें बातें बराबर देखने को मिलती है। निराला की ऊर्जा कभी बढ़ती है तो कभी नकारात्मकता के अंधकार में डूबती भी है। राम की भी यही स्थिति है पूजा में लिखते हैं

धिक जीवन को, जो पाता ही आया विरोध

धिक, साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध

पर जानकी हाय! उद्धार प्रिया का हो न सका।

राम के युग संघर्ष, जीवन संघर्ष व आत्म संघर्ष को निराला अपने युग संघर्ष, जीवन संघर्ष व आत्म संघर्ष से मिलाकर देखते हैं, और जामवंत की तरह उनके मन के विवेक ने उन्हे एक बार पुनः मार्ग दिखाया और शांति की माौलिक कल्पना करने को बाध्य किया जिसके बल पर निराला ने अपना और राम ने अपना जीवन दर्शन पाया।

मौलिक  कल्पना  करना  अर्थात  लक्ष्य प्राप्ति के  लिए दृढ़  निश्चय होना तो क्या दृढ़ निश्चय कर लेने मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी। नहीं आवश्यक कार्य व्यापार भी करना होगा और उसमें भी बाधाएँ आयेगी। उन बाधाओं को दूर करके ही फल प्राप्त होगा।

ध्यानमग्न राम 107 कमलदल देवी को अर्पित करने के पष्चात 108वाँ  कमलदल  चढ़ाते  तो  पूजा  पूर्ण  होती।  लेकिन  देखा  की  108  वाँ कमलदल नहीं है और उठते हैं तो पूजा भंग पुनः एक बार मन के विवेक ने ज्ञान कराया।

कहती या माता सदा राजीव नयन

X    X     X     X     X     X

ले लिया हस्त, लक लक करता वह महाफलक

ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर, दक्षिण लोचन

ले अर्पित करने को उद्धत हो गये सुमन

इस प्रकार निराला को राम के जैसा ही जीवन में संघर्ष करना पडा। अपना व्यक्तिगत जीवन तो कष्टमय ही था किन्तु संघर्ष से बना विराट व्यक्तित्व दोनों ही व्यक्तियों का था। सामान्य आदर्श  के नहीं विशिष्ट आदर्श के पालक थे निराला और उसी विशिष्ट आदर्श के पालक थे राम।

राजन सिंह
मगध विश्वविद्यालय, बोधगया