भारत में 1990 के बाद भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण जैसी नई संकल्पनाओं का जन्म हुआ. भूमंडलीकरण की प्रकिया के चलते अर्थकेंद्री समाज में उपभोक्तावाद तथा बाजारवाद का प्रचलन बढ़ा. ‘भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा खरीदारों का बाजार है’ | ऐसी स्थिति में दुनियाभर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजरें भारत के बाजार की ओर जाए यह स्वाभाविक ही था | परिणामत: यहाँ के ग्राहक और बाजार को आकर्षित करने के लिए विश्वव्यापी विज्ञापन एजन्सियों का कारोबार तेजी से बढ़ने लगा | विज्ञापन की चकाचौंध भरी दुनिया ने ‘स्त्री जीवन’ को अधिक प्रभावित किया | इस क्षेत्र में स्त्री का उपयोग कई तरह से किया जा रहा है | स्त्री को मॉडल बनाकर उसके नग्न सौन्दर्य का प्रदर्शन करने के साथ–साथ क्लैन्ट्स को स्त्री शरीर परोसने की वृति भी इस क्षेत्र में खूब चल रही है | हिंदी उपन्यास जगत में सबसे पहले ‘विज्ञापन’ जैसे विषय को केंद्र में रखकर चित्रा मुदगल ने ‘एक जमीन अपनी’ यह उपन्यास लिखा. इस उपन्यास में चित्रा जी ने एक ओर तो बाजारीकरण के दौर में विज्ञापन का स्थान और उसके साथ जुडा झूठ, फ़रेब और छल-कपट चित्रित किया है तो दूसरी ओर स्त्री शरीर को विज्ञापनबाजी का उपकरण बनानेवाली संस्कृति का बहुत ही संजीदगी से वर्णन किया है |
विज्ञापन की दुनिया में स्त्री का प्रवेश हुआ और कालांतर में स्वतंत्रता की चाह रखनेवाली स्त्री विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया में मात्र वस्तु बनकर रह गई ‘एक जमीन अपनी’ उपन्यास में विज्ञापन कंपनियों से जुड़कर काम करनेवाली अंकिता और नीता की कथा है. दोनों पात्रों के स्वभाव और सोच में काफ़ी अंतर है. जहाँ अंकिता बिना अश्लिलता का आश्रय लिए अपनी प्रतिभा और ईमानदारी के बलबूते पर आगे बढना चाहती है ; वहीं नीता अपनी कामयाबी के लिए शरीर प्रदर्शन और उच्छंखलता का मार्ग आपनाती है.. नीता एक बिंदास लड़की है. नाम और रुतबा कमाने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार है. पारंपरिक मूल्यों को नकारनेवाली और विज्ञापन की दुनिया को पसंद करनेवाली नीता स्त्री की उच्च मर्यादा को भी लाँघ जाती है. इस संबंध में डॉ.करुणा शर्मा कहती है “नीता की पारंपरिक मूल्यों में कोई आस्था नहीं है.अपनी देह को वह कमाई का जरिया बनाती है. विज्ञापनों के लिए मॉडेलिंग वह कम से कम कपड़ों में करने को तत्पर है ’’2
नीता को जिस तरह से विज्ञापन में प्रदर्शित किया है वह भारतीय स्त्री की प्रतिमा को शर्मसार करता है. उपन्यास में विज्ञापन के एक दृश्य का वर्णन इस प्रकार है “देह पर है मात्र वक्षस्थल को ढंकता हुआ,अंगोछे सा कपडे का कोई टुकड़ा और घुटने के नीचे तक फैली हुई लहंगा स्कर्ट …लड़की की निर्वस्त्र पीठ कैमरे की आँखों में है…..”3 स्पष्ट है कि अधिकतम विज्ञापनों में स्त्री सौदर्य से अधिक उसके देह को प्रदर्शित किया जाता है. इस संबंध में डॉ.ज्योति किरण कहती भी है कि “ विज्ञापन की दुनिया में भी स्त्री आज उस वस्तु के विज्ञापन में दिखती ही जिससे उसका कोई सरोकार नहीं होता है और उस रूप में दिखती है जिस रूप में नहीं दिखनी चाहिए”4
अंकिता मानती है कि स्त्री को अपने शारीरिक सौन्दर्य से नहीं, अपनी प्रतिभा और कार्यकुशलता से प्रत्येक क्षेत्र में विजय हासिल करने की जरुरत है. अधिकाधिक पैसा कमाने की चाह और अपना नाम हो इस उम्मीद के साथ नीता इस क्षेत्र में कदम रखती है. नीता कहती है “ नौकरी और प्रतिभा दो अलग- अलग चीज़े हैं. कभी-कभी वे दोनों एक साथ,एक मंच पर होने का अवसर और सम्मान देते है लेकिन अक्सर नहीं. वे खरीदार है, उन्हें मालूम है ,वे जब चाहे, जैसे चाहे बुद्धि और प्रतिभा खरीद सकते हैं…..यह ग्लेमर की दुनिया है अंकू ..यहाँ जीने की, जी पाने की पहली शर्त है विशिष्ट दिखना, विशिष्ट करना, विशिष्ट होना, विशिष्ट बनना,जो वास्तविकता नहीं है” 5 पर अंकिता अश्लिलता का आश्रय लेकर उत्पाद को बेचने का विरोध करती है.
चित्रा जी ने उपन्यास में अंकिता के माध्यम से बताना चाहा है कि विज्ञापन की दुनिया की ओर देखने का दृष्टिकोण बदलना जरुरी है. और दृष्टिकोण तभी बदलेगा जब विज्ञापन प्रदर्शित करने का तरीका बदल जायेगा. जैसे की अंकिता हरिंद्र से कहती है “क्या तुम नहीं सोचते की छिछलें और अविवेकपूर्ण विज्ञापनों का कुप्रभाव कोमल मन-मस्तिष्क को दूषित कर रहा है? उन्हें अतिश्योक्तियों की चकाचौंध से भरमा रहा है? क्या यह आवश्यक और महत्वपूर्ण नहीं कि विज्ञापनों का प्रचलित मनोविज्ञान को बदला जाय? उन्हें स्तरीय और कलात्मक बनाया जाय? क्या यह समस्या नहीं है? समाज से इसका कोई सरोकार नहीं है ?’’6 अंकिता स्त्री मुक्ति का अर्थ मात्र अनियंत्रित स्वतंत्रता या स्वैराचार नहीं मानती. अपितु वह कहती भी है कि है “जितना अधिकार उसे अपनी तरह से जीने का है, सोचने का है, करने का है, औरों को भी है. उसे आपत्ति नहीं होनी चाहिए…अपने कमरे के भीतर आप नंगे रहिए, कौन झाकने, रोकनें आता है, किसे आपत्ति हो सकती है? मगर घर से बाहर आप मात्र एक व्यक्ति नहीं होते, समाज होते है….”7 ऐसे नग्न विज्ञापन जनहित की उपेक्ष्या ही नहीं ,उसे भटकाने में भी प्रेरक बन जाते है. लेखिका इस तरह के विज्ञापनबाजी का सख्त विरोध करती है.
आज हम सभी संचार माध्यमों के प्रभाव में जी रहे है. एक तरह से माध्यम ही इस समाज को नियंत्रित कर रहे हैं. बढ़ती उपभोक्तावादी मानसिकता ने तो आपसी रिश्ते-नातों को भी बाजार के मूल्य में आँका जा रहा है. टेलीविज़न ने तो स्रियों को विशेषत:मध्यवर्गीय स्त्रियों को अपना कायल बना दिया है. इस सन्दर्भ में डॉ.शीला भास्कर कहती है “ नारी के वर्त्तमान स्थिति को वैश्विकरण न केवल बढ़ावा दे रहा है बल्कि उपभोक्तावाद के रूप में एक संस्कृति को पूरी दुनिया में प्रचारित कर रहा है. जिसमें स्त्रियाँ वस्तु में तब्दील होती जा रही है. औरत औरत न होकर एक वस्तु बन गई है “8 पुरुष समाज में अपने अस्तित्व को बनाएं रखने के लिए संघर्ष करनेवाली आधुनिक स्त्री अपने शरीर सौन्दर्य को प्रदर्शित करने में ही अब धन्यता मान रही है. लेखिका अंकिता के माध्यम से स्त्री स्वतंत्रता की भी परिभाषा देती है. वह बिल्कुल विचारणीय है. “स्त्री को स्त्रीत्व से मुक्ति नहीं चाहिए,उन रूढ़ियों से मुक्ति चाहिए,जिन्होंने उसे वस्तु बना रखा है,जो स्त्री को भोग की वस्तु मानकर उसे इस्तेमाल करती आ रही है. यह शुद्ध संबंधो की सुविधा है ”9
अर्थकेन्द्रि समाज में व्यक्ति का मूल्य अब उसके गुणों से नहीं बल्कि पैसों से आँका जाता है. जीवन की हरेक गतिविधि को अब पैसों से जोड़कर ही देखा जा रहा है. सत्ता और संपत्ति के इर्द-गिर्द ही सारी दुनिया घूम रही है. पैसों के बलबूते पर किसी स्त्री को पाना इन लोगों को सहज हो गया है. प्रेम से अधिक धन को ही सर्वस्व माननेवाली स्त्रियाँ भी समाज में देखने के लिए मिलती है. धन के नशे में चूर ये स्त्रियाँ नैतिकता की सीमा को लाँघना भी गलत नहीं समझती. ‘एक जमीन अपनी ’ में मि.गुहा की पत्नी जरीना बाबी ठाकुर के साथ अपने पति से संबंधों के चलते अपने पति से दूर होती है. लेकिन पाँच वर्ष बाबी ठाकुर के साथ रहने के बाद मि.गुहा गौरा सुधाकर से अपने संबंध बना लेते है. नारी को केवल भोगवस्तु माननेवाले पुरुषों की मानसिकता तो सर्वविदित है. पर उन स्रियों का क्या जो हमारी संस्कृति और सभ्यता में प्रेम, समर्पण और ममत्व का प्रतीक मानी जाती है. स्वछंदता के नाम पर स्वैराचार की आदि हुई यह स्त्रियाँ ’स्त्री प्रतिमा’ को मलिन कर रही है. डॉ.करुणा शर्मा का कथन है “ बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का एक सच यह भी है कि अगर पुरुष अमीर है और साथ ही खूबसूरत भी,तो लडकियाँ अपने आपको प्रस्तुत करने में हिचकिचाती नहीं.जैसे बड़े साहब मि.गुहा की प्रेमिका बनने के लिए औरतों में लड़ाई होती है ”10
बाजारवाद के रंग में रंगी यह विज्ञापन की दुनिया में कोई उत्पाद हो या मानव सब ही को केवल ‘वस्तु ‘ के रूप में ही देखा जा रहा है. संवेदनहीनता के निकट पहुंचा यह मनुष्य महज एक यंत्र की तरह जीवन जी रहा है. इस संबंध में ज्योति किरण की बात अत्यधिक महत्वपूर्ण लगती है “ विज्ञापन में मानवी संबंधो तक का बाजारीकरण होता जा रहा है.जिसके तहत दो आत्मीयता से करीब आते होठ सिर्फ इसलिए नहीं मिल पाते कि इस आत्मीयता को कोलगेट का ‘सुरक्षा चक्र ‘ उपलब्ध नहीं है “11 स्त्री की सादगी और मासूमियत में सौदर्य देखने के बजाय उसके सौदर्य को उसकी देह तक ही सीमित रखा जा रहा है.
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि चित्रा मुदगल जी ने 29 वर्ष पहले ही अपने एक जमीन अपनी उपन्यास के माध्यम से संकेत दिया था कि विज्ञापन के कारण बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिल रहा है. इस उपन्यास का केंद्र मुख्यत: विज्ञापनबाजी और स्त्री विमर्श ही रहा है. अपने आपको आधुनिक कहे जानेवाले समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने के साथ कीचड़ भरे विज्ञापन जगत का पूर्णत: खुलासा चित्राजी ने इस उपन्यास में किया है. स्त्री देह को मात्र भोग की वस्तु मानकर अपने स्वार्थ के लिए उसका उपयोग करना तथाकथित सभ्य समाज का स्वभाव सा बन गया है. इस प्रकार से आधुनिकता की स्वार्थ प्रेरित मानसिकता मनुष्य को कहाँ से कहाँ पहुंचा देती है इसका चित्रण नीता और अंकिता के माध्यम से उपन्यास में यथार्थ रूप में किया गया है. नारी जीवन संघर्षपूर्ण है अधिकांश जगह उसे पुरुष के कठोर अन्याय का सामना करना पड़ता है. इस संघर्ष में कहीं वह उभर जाती है तो कहीं वह अपने आपको खो देती है. नीता जैसी सुशिक्षित स्त्री भी अवसरवादी शोषित समाज से पीड़ित होकर अपने जीवन का अंत कर लेती है. परंतु अंकिता जैसी स्त्रियाँ इन संघर्षों का सामना कर जीवन की पराजय को पार कर अपने को कामयाब सिद्ध करती है. ऐसी स्त्रियाँ वाकई नारी समूह के लिए गर्व की बात है, साथ ही अनुकरणीय भी. चित्रा मुदगल जी ने उपन्यास में अंकिता जैसी पात्र की निर्मिती भारतीय नारी की प्रतिष्ठा के लिए ही की है. वो मानती है कि स्त्री के शारीरिक सौन्दर्य को नहीं, प्रतिभा को मान्यता मिलनी चाहिए. स्त्री स्वातंत्र्य तभी संभव हो पाएगा. अतं: कहा जा सकता है कि नारी स्वातंत्र संबंधी मिथ्या धारणा को दूर करने में यह उपन्यास पूर्णत: सफल प्रतीत होता है.

संदर्भ.
1. डॉ.जगदिश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह,भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया (अनामिका पब्लिशर्स एन्ड डिस्ट्रीब्यूटर,दिल्ली), पृष्ठ73
2. डॉ.करुणा शर्मा,उपन्यासों के झरोखे से चित्रा मुदगल (शिल्पायन पब्लिशर्स एन्ड डिस्ट्रीब्यूटर,दिल्ली),पृष्ठ119
3. चित्रा मुदगल,एक जमीन अपनी(सामायिक प्रकाशन,दिल्ली),115
4. ज्योति किरण,हिंदी उपन्यास और स्त्री जीवन (मेघा बुक्स,दिल्ली), पृष्ठ 30
5. चित्रा मुदगल,एक जमीन अपनी(सामायिक प्रकाशन,दिल्ली),80
6. वही,पृष्ठ 120
7. वही,पृष्ठ 106
8. डॉ.दयानंद सालुंखे,समकालीन हिंदी साहित्य में नारी (विनय प्रकाशन,कानपुर), पृष्ठ 119
9. के.वनजा,चित्रा मुदगल एक मूल्यांकन (सामयिक बुक्स, नयी दिल्ली ) पृष्ठ 28
10. डॉ.करुणा शर्मा,उपन्यासों के झरोखे से चित्रा मुदगल (शिल्पायन पब्लिशर्स एन्ड डिस्ट्रीब्यूटर,दिल्ली), पृष्ठ 101
11. ज्योति किरण,हिंदी उपन्यास और स्त्री जीवन (मेघा बुक्स,दिल्ली), पृष्ठ 30

 

डॉ.सुनील डहाळे
सहयोगी प्राध्यापक, हिंदी विभाग
विनायकराव पाटील महाविद्यालय वैजापुर,
जिला.औरंगाबाद ( महाराष्ट्र )

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