नारी आदिम संस्कृति का उद्गम स्थल है, नारी पुरुष की प्रेरणा है और पुरुष संघर्ष का प्रतीक है। ‘‘दोनों की भिन्न प्रकृति से ही परस्पर पूरकता और जीवन की पूर्णता संभव है।’’ याज्ञवल्क्य ने कहा है- ‘‘जिस तरह चने अथवा सीप का आधा दल दूसरे से मिलकर पूर्ण होता है उसी प्रकार पुरुष के सामने का खाली आकाश नारी के साथ मिलने से पूर्ण होता है।’’ अर्थात पुरुष और नारी दो विरोधी नहीं, वरन् एक-दूसरे के पूरक तत्व हैं।

     मानवीय गुणों की दृष्टि से विचार किया जाए तो पुरुष की तुलना में नारी अधिक मानवीय है। इसीलिए वह पुरुष का आदर्श भी है। प्रेमचंद के अनुसार – ‘‘पुरुष विकास क्रम में नारी से पीछे है। जिस दिन वह भी पूर्ण विकास तक पहुँचेगा वह स्त्री हो जाएगा। वात्सल्य, स्नेह, दया, कोमलता इन्हीं आधारों पर सृष्टि थमी हुई है और ये स्त्रियों के गुण हैं।’’ नर-नारी की पूरकता और नारी की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए महात्मा गांधी ने कहा है- ‘‘स्त्री को अबला कहना उसका अपमान है। यदि शक्ति का अभिप्राय पाश्विक शक्ति से है तो स्त्री सचमुच पुरुष की अपेक्षा कम शक्तिशाली है। यदि शक्ति का मतलब नैतिक शक्ति से है तो स्त्री पुरुष से कहीं अधिक शक्तिमान है।’’ इससे यह स्पष्ट है कि मानवता के विकास क्रम में स्त्री अधिक मानवीय है और मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में उसका स्थान पुरुष से ऊँचा है।

     वैदिक और उत्तर-वैदिक काल के पश्चात् हमारे समाज की मौलिक व्यवस्थाएं रूढ़ियों के रूप में परिवर्तित होने लगीं थी जिसके फलस्वरूप स्त्रियों में लज्जा और ममता के गुणों को उनकी दुर्बलता समझकर पुरुष ने उनका मनमाना शोषण करना आरम्भ कर दिया। पुरुषों ने शक्ति के लोभ में महिलाओं के पारिवारिक अधिकार तक छीन लिये। इन परिस्थितियों का परिणाम यह हुआ कि मध्य काल के हिन्दू समाज में महिलाओं की स्थिति एक दासी से अधिक नहीं रह गयी। सती प्रथा के प्रचलन, विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध, पर्दा प्रथा का प्रचलन एवं बहुपत्नी विवाह जैसी थोपी गयी सामाजिक व्यवस्था के कारण भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत नाजुक हो गयी। मध्ययुगीन “सामन्ती वातावरण में नारी भोग्य सम्पदा के रूप में ग्रहण की जाने लगी थी। नारी प्राप्ति हेतु युद्ध भी होने लगे थे। स्त्री किसी न किसी पुरुष के अभिभावकत्व में रहने लगी और उसके अधिकार कम होने लगे थे।“ प्राकृतिक गुणों से सम्पन्न, करुणा, ममता और त्याग की प्रतिमूर्ति नारी को समाज में कभी भी वह स्थान नहीं मिला जिसकी वह अधिकारी है। सम्पूर्ण समाज व्यवस्था का निर्माण पुरुषों द्वारा होने के कारण नारी की भूमिका दूसरे दर्जे की ही रही है। चाणक्य ने नारी को अनृत, साहस, माया, भय, चपलता, अविवेक, अशोच आदि स्वभावजन्य दोषों  से युक्त बताया, तो मनुस्मृति में उसे ‘‘पुरुष द्वारा (बचपन में पिता, युवावस्था में पति तथा बुढ़ापे में पुत्र) रक्षित बनाकर रखा।’’

     हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक कालों में नारी को अवगुणों की खान कहा गया। तुलसीदास ने नारी को अवगुणों की जड़ तथा दुःखों की खान8 कहा, तो कबीरदास ने उसे माया और मोह का प्रतीक माना तथा ‘नारी की झाई परै अंधा होत भुजंग’ कहते हुए अपना नारी विरोधी दृष्टिकोण प्रकट किया। रीतिकालीन कवियों उसे विलास के उपकरण से अधिक कुछ नहीं माना। ‘‘नारी के प्रति इन कवियों की दृष्टि सामन्तीय ही रही है। ये उसे पुरूष के समकक्ष समाज की चेतन इकाई अथवा पुरूष का अद्र्धांग न समझकर भोग्य सम्पत्ति के समान उसे भोग का मात्र उपकरण समझते हैं।….. नारी के बाह्य रूप की परिचायक अंगों की बनावट में ही इनकी दृष्टि उलझी रही है, उसके आन्तरिक गुणों तक नहीं पहुँच पायी।’’

     भारतेन्दु युगीन कवियों ने जनता की समस्याओं के निरूपण की ओर पहली बार व्यापक रूप में ध्यान दिया और नारी-शिक्षा,विधवाओं की दुर्दशा, अस्पृश्यता आदि को भी लेकर सहानुभूतिपूर्ण कविताएं लिखीं। द्विवेदी युग के कवियों ने सामाजिक कुरीतियों,रूढ़ प्रथाओं का विरोध तथा नारी-उत्थान की भावना का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन किया और कहा कि “नारी केवल कामिनी और भोग्या ही नहीं है, वह पुरुष की सम्पत्ति नहीं है, अपितु माँ, पुत्री और संगिनी भी है। उसकी भी इच्छा-आकांक्षाएँ हैं। अतः उसको भी सामाजिक-आर्थिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए।’’

     छायावादी साहित्यकारों ने नारी को एक सर्वथा नवीन दृष्टि से देखा। वह पूर्व की दृष्टियों से भिन्न होने के साथ-साथ नारी जाति को एक नवीन गरिमा और उसके अस्तित्व को एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करने वाली थी। इन कवियों ने नारी को समस्त बन्धनों से मुक्त करने तथा उसे समाज में सम्मानजनक स्थान देने का प्रस्ताव रखा। छायावादी काव्य में नारी निर्जीव सम्पत्ति मात्र नहीं रही, बल्कि इसमें उसकी इच्छा-आकांक्षाओं, सुख-दुखों की अभिव्यक्ति भी हुई। प्राचीन जर्जर मान्यताओं को समाप्त कर नवीन समतावादी धरातल पर उसकी प्रतिष्ठा की गयी उसके अधिकारों की ही चर्चा नहीं हुई, अपितु उसकी प्रणय लीला तक का खुलकर वर्णन हुआ।

     वास्तव में हिन्दी साहित्य में छायावाद से पूर्व किसी भी युग में नारी को वो गौरव नहीं मिला, जो छायावाद में आकर नारी को दिया गया। इस युग में आकर नारी को दया के स्थान पर अपने अधिकार की माँग को उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अधिकार की भावना ने स्त्री-पुरुष में समानता और स्पर्धा का भाव जगाया तथा स्त्री की शक्ति को जानने-समझने में सहयोग किया। डाॅ0 नामवर सिंह के अनुसार, ‘‘नारी के प्रति पहले जो दया का भाव था, वह बदल गया। इस युग में नारी ने पुरुष से दया के स्थान पर अपने अधिकारों की माँग की। इस अधिकार भावना ने नारी-पुरुष के बीच कहीं समानता का भाव पैदा किया, कहीं स्पर्धा का भाव और कहीं उसकी शक्ति स्वीकार का भाव। कुल मिलाकर भिखारिणी अब मानसिक रूप से स्वामिनी बनी।’’

     छायावाद से पूर्व नारी पराजित एवं शोषित रूप में ही चित्रित की गई, उनकी मुक्ति की कामना एवं पीड़ा का यथार्थ चित्रण छायावाद में ही पाया जाता है। सुमित्रानन्दन पंत ने नारी के प्रति समाज में हो रहे शोषण का विरोध किया और उसे मुक्त करने की आवाज उठायी। उनके काव्य में नारी में विश्वकल्याण की भावना पुरुषों से अधिक है। नारी का त्यागमय जीवन पुरुष की अपेक्षा अधिक प्रशंसनीय है। पंत समस्त जड़ परम्पराओं से नारी को मुक्त करना चाहते थे। उन्होंने मुक्त स्वर में कहा है-

‘‘मुक्त करो नारी को, मानव चिर बन्दिनी नारी को,

युग युग की बर्बर कारा से जननी, सखी, प्यारी को।’’

     स्वामी विवेकानंद ने विकास की प्रक्रिया में स्त्री की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहा था कि जिस प्रकार एक पंख से चिड़िया उड़ान नहीं भर सकती, उसी प्रकार महिलाओं की सहभागिता के बिना कोई राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। इन्हीं भावनाओं का पोषण करते हुए युग-युग से उपेक्षित नारी को छायावादी कवियों ने अपनी कल्पना के माध्यम से ऊँंचे स्थान पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। पंत के मतानुसार नारी को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त नहीं होंगे तो मानव-जीवन के विकास का रथ आगे नहीं बढ़ेगा-

“नर-नारी दो भवनों में, हो बंटे क्षुद्र जिस जग में,

प्राणों के स्वप्न पथिक को, रुकना पड़ता पग-पग में।”

     सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ नारी को शक्ति के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि नारी में ही वह क्षमता है जिसकी भैरवी नृत्य से समस्त जड़ पुरातन परम्परा समाप्त हो जायेगी व मुक्ति के द्वार खुलेंगे-

‘‘तोड़ो, तोड़ो, तोडा़े कारा

पत्थर से निकले फिर, गंगा-जल की पार्वती

पुनः सत्य-सुन्दर शिव को संवारती

उर-उर की बनी आरती।’’

     निराला ने नारी में जहाँ पुरुष के मन को बरबस अपने आकर्षण में बाँध लेने की क्षमता देखी है वहाँं उसे लज्जा, शील,सामाजिक विभीषिकाओं की कारा में स्वयं बंद पाया है। वह स्वाभिमान से भरी प्रेयसी भी है और पथ प्रदर्शिका भी।

     छायावादी नारी मुक्ति का स्वरूप परम्परा की अपेक्षा स्वस्थ-सात्विक मनोवृत्ति का परिचायक है। आज के संघर्षशील यथार्थवादी युग में जीने वाली शिक्षित नारी को कवि भावना के प्रवाह में बहने वाली नहीं मानता। वह स्वाभिमान और समता की चाह में उद्वेलित नारी का मानसिक विश्लेषण भी करता है।

     छायावादी कवियों ने नारी की दीनता, शोषण, कठोर श्रम का मानवीय धरातल पर वर्णन कर नारी मुक्ति की आकांक्षा व्यक्त की है। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ इलाहाबाद के सड़कों पर पत्थर तोड़ती अभागी युवती को बिम्ब के माध्यम से मजदूर स्त्री के कठोर एवं थका देने वाले श्रम की कारुणिक अभिव्यक्ति देकर उसके श्रम के महत्व को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं-

‘‘वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,

श्याम तन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार।’’

     वहीं सुमित्रानन्दन पंत ने नारी-श्रम की महत्ता को निम्नवत् प्रतिष्ठा प्रदान की है-

‘‘निज द्वन्द्व प्रतिष्ठा भूल, जनों के बैठ साथ,

जो बँटा रही तुम काम-काज में मधुर हाथ,

तुमने निज तन की तुच्छ कंचुकी को उतार,

जग के हित खोल दिए नारी के हृदय-द्वार।’’19

ग्रामीण नारी के साथ होने वाले इन शोषणों के विरुद्ध सशक्त स्वर छायावादी युग की कविता में सुनाई देते है। ग्राम्य युवती की दयनीय दशा का यथार्थ अंकन सुमित्रानन्दन पंत ने इस प्रकार किया है-

‘‘दुखों में पीस दुर्दिन में घीस

जर्जर हो जाता उसका तन।

ढह जाता असमय यौवन धन।

बह जाता वह तट का तिनका

जो लहरों में हंस खेला कुछ क्षण।’’20

     छायावादी काव्य में भारतीय विधवा नारी की दुर्दशा का भावपूर्ण चित्रण करते हुए उनके प्रति होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई गयी है। ‘दीपशिखा’ की इन पंक्तियों में विधवा नारी का करुण एवं हृदय विदारक चित्र द्रष्टव्य है-

‘‘वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा सी

वह दीप-शिखा-सी शान्त भाव में लीन,

वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा सी,

वह टूटे तरु की टूटी-लता-सी दीन दलित भारत की ही विधवा है।

वह दुनिया की नजरों से दूर बचाकर, रोती है अस्फुट स्वर में,

दुःख सुनता है आकाश धीर, निश्चय समीर,’’ 

     महादेवी वर्मा ने नारी के हृदय में बसी हुई पीड़ा एवं उसकी करुणापूर्ण परतंत्रता का चित्रण कर मुक्ति की आकांक्षा व्यक्त की है-

‘‘विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली।”

     छायावादी कवि नारी की सार्थकता जीवन के सुन्दर समतल में प्रवाहित होना बताते हैं। साथ ही उसे यह प्रेरणा देने हैं कि अपनी स्मित रेखा से संधि पत्र लिखे। यह आदर्श संस्कृति के रंग में रंगी हुई प्रत्येक भारतीय नारी के जीवन के लिये उपादेय है और यही नारी मुक्ति का एक रूप और नारी मुक्ति की कामना भी है-

‘‘आँसू से भीगे अंचल पर, मन का सब कुछ रखना होगा,

तुमको अपनी स्मित रेखा से, यह संधिपत्र लिखना होगा।’’

     जयशंकर प्रसाद नारी की छवि को संसार के सौंदर्य और सुख का मूल कारण मानते हैं। कवि स्थूल सौंदर्य के स्थान पर भाव-सौंदर्य की ओर अधिक झुक जाता है-

मैं भी भूल गया हूँ कुछ हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था!

प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या? मन जिसमें सुख सोता था!

मिले कहीं वह पड़ा अचानक, उसको भी न लुटा देना;

देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग, न उसे भुला देना! 

     वास्तव में छायावादी कवि की नारी कल्पना ही नैसर्गिक है। ‘‘कवि की प्रेयसी स्थूल पार्थिव रूप की राशि नहीं है वरन् प्रकृति के संचित कोष से निर्मित नैसर्गिक सौंदर्य की प्रतिमा है।’’ कवि प्रकृति की इस सुषमा में खो जाता है और तन्मय होकर समूचे प्रकृति का मानवीकरण करने लग जाता है। यह मानवीकरण छायावादी कवियों की सामान्य विशेषता है। प्रसाद के काव्य में प्रकृति का यह मानवीकरण बहुत ही उदात्त रूपों में व्यंजित हुआ है। ये तो प्रकृति से इतने अधिक तादात्म्य का अनुभव करने लगते हैं कि उसे पुकार-पुकार कर चेतावनी देने में भी नहीं चूकते-

‘‘फटा हुआ था नील वसन क्या

ओ यौवन की मतवाली।

देख अकिंचन जगत लूटता

तेरी छवि भोली-भाली!’’

     प्रसाद ने ‘कामायनी’ में श्रद्धा के रूप में नारी का एक बहुत ही सौम्य, सरल और अकृत्रिम सौंदर्य चित्रित किया है, जिसमें कहीं कोई बनावट न होकर भी सब कुछ स्पष्ट और गंभीर है-

‘‘यों सोच रही मन में अपने, हाथों में तकली रही घूम ;

श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली, अलके लेती थीं गुल्फ चूम।

…….    ….. ….

मातृत्व-बोझ से झुके हुए, बँध रहे पयोधर पीन आज;

कोमल काले ऊनों की नवपकिा, बनाती रुचिर साज।’’

     छायावादी कवियों ने नारी को पुरुष की प्रेरक शक्ति के रूप में स्वीकार किया। उनकी नारी दया, क्षमा, करुणा, प्रेम जैसे गुणों से सम्पन्न है और श्रद्धा की पात्र भी। ‘कामायनी‘ की ये पंक्तियाँ सम्पूर्ण नारी जाति के लिए चरितार्थ हैं-

“नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में,

पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

     छायावादी अपनी भावना की मुक्ति और आकांक्षा की पूर्ति की कामना तो रखते थे, किन्तु समाज में उन्हें वह स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। कामना और निषेध की टकराहट से जो बोध पैदा हुआ, उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति प्रसाद के ‘आँसू’ काव्य-संग्रह की इन पंक्तियों में दृष्टिगोचर होती है-

‘‘चातक की चकित पुकार, श्यामा ध्वनि सरल रसीली

मेरी करुणार्द्र कथा की, टुकड़ी आँसू से गीली।’’

     मन, भावना और विचार के स्तर पर ही सही, छायावादी एक नयी समाज व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे। यह काम पूर्व की स्थापित सामाजिक व्यवस्था का विध्वंस किए बिना सम्भव नहीं था। प्राचीन रूढ़ियों का विध्वंस और नयी समाज-व्यवस्था का निर्माण इन दोनों ही बातों को हम छायावाद में पाते हैं। तभी तो पंत कहते हैं ‘दु्रत झरो जगत् के जीर्ण पत्र’। स्पष्ट है कि जीर्ण पत्रों के झरने की आकांक्षा रखने छायावादी नयेपन का आह्वान करते हैं।

     अनेक विद्वानों ने छायावाद में स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह और पलायनवाद एवं निराशावाद का प्राधान्य माना है, परन्तु डाॅ0 रामविलास शर्मा ने इस धारणा का खण्डन करते हुए कहा है- ‘‘क्या जीवन से परागमुख कोई भी व्यक्ति ऐसी सुंदर पंक्तियाँ लिख सकता है? क्या स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहने से उस ठोस जीवन-आकांक्षा की व्याख्या की जा सकती है। निराला सब कुछ नया चाहते हैं। पुराना कुछ भी उन्हें स्वीकार्य नहीं। इस नयी रोशनी में छायावादियों ने नारी को देखा, तो वह एक अपूर्व अश्रुपूरित और अर्थवत्ता से युक्त दिखी। यही नयापन चारों प्रमुख छायावादियों में अलग-अलग रूपों में दृष्टिगोचर होता है।‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद की नारी भावना की प्रवक्ता बनी श्रद्धा कहती है-

     छायावाद में नारी सौन्दर्य का पुंज है और प्रेरणा का स्रोत भी। जयशंकर प्रसाद कृत ‘कामायनी‘ की ‘श्रद्धा‘ तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला‘ कृत ‘तुलसीदास‘ की ‘रत्नावली‘ ऐसी ही नारियाँ हैं जो पुरुष की प्रेरक शक्ति को उजागर करती हैं। ‘‘पंत के उच्छ्वास में किसी परिणत विरही का ताप नहीं, बल्कि अनुभवहीन युवक की प्रथम विरह-व्यथा का उद्गार है। यह उच्छ्वास बाल-बादल की तरह अभी-अभी उठा है, साथ ही वह ‘सरल‘ और ‘अस्फुट’ भी है। अभी उसे अपने व्यथा का पूरा-पूरा बोध भी नहीं है। इसीलिए उसमें युवा-सुलभ प्रगल्भता नहीं है, बल्कि उसके स्थान पर किशोर संकोच है। यही वजह है कि यह प्रणय अस्फुट रूप में अभिव्यक्त हुआ है।’’ कवि ‘निराला’ कुरूपता में भी सौन्दर्य देख लेते हैं और पत्थर तोड़ती मजदूरनी का सौन्दर्य वर्णन “श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन। कह कर करते हैं। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के नारी मुक्ति की कामना पर प्रकाश डालते हुए डाॅ0 वल्लभ दास तिवारी लिखते हैं- ‘‘निराला ने नारी में जहाँ पुरुष के मन को बरबस अपने आकर्षण में बाँध लेने की क्षमता देखी है वहाँं उसे लज्जा, शील, सामाजिक विभीषिकाओं की कारा में स्वयं बंद पाया है। वह स्वाभिमान से भरी प्रेयसी भी है और पथ प्रदर्शिका भी।’’

     नारी-स्वतंत्रता का सबसे मौलिक और निर्णायक प्रदर्शन प्रेम और विवाह में उसकी अपनी इच्छा के चुनाव में प्राप्त होता है। अगर वह इस मामले में स्वतंत्र नहीं है तो वास्तव में वह स्वतंत्र नहीं है। नारी के प्रति छायावादी कवि के दृष्टिकोण का यह सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। छायावाद युग के कवियों ने अनुभव किया कि मूल प्रश्न नारी-स्वाधीनता का है। प्रश्न विवाह का नहीं, प्रेम का है, बंधन का नहीं, मुक्ति का है। यदि विवाह में बंधन है तो चाहे वह विधवा-विवाह हो अथवा कुमारी का दोनों का आग्रह व्यर्थ है।

     आधुनिक युग के प्रारम्भिक चरणों में जाति-भेद, धर्म-भेद, सम्प्रदाय-भेद अधिक था। इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य बहुत कम था। समाज के जीवन में एक ठहराव आ गया था। यही ठहराव सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में सड़न पैदा कर रहा था। छायावादी भावधारा तथा विचारधारा ने इस सांस्कृतिक स्थिति को पहचाना था। उसने समाज में वंदनीय नारी को दयनीय रूप में देखा। नारी के उत्पीड़न को भी देखा। छायावादी कवियों ने नारी के महत्व को स्वीकार किया तथा जो सदियों से तिरस्कृत थी, जिन्हें केवल भोग्या मात्र समझा जाता था, उन्हें इष्टदेव के मंदिर की पूजा सी पवित्र कहा तथा अपमान के पंक और वासना के पर्यक से ऊपर उठाया।

     छायावादी कवियों ने काव्यगत रूढ़ियाँ तोड़ीं, पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त किया और नया का सृजन किया। नैतिक मर्यादाओं और बन्धनों को तोड़ा चाहे वे सामाजिक हों या राजनैतिक या धार्मिक। पाखंड, बाह्याडम्बर के प्रति विद्रोह का स्वर फूटा और मर्यादावाद के बन्धन तोड़ दिये गये। इसके कारण काव्य अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सका। अस्तु, छायावाद ने नारी को जो गरिमा प्रदान की है, वह श्लाघ्य और काम्य है।

सन्दर्भ-ग्रंथ सूची – 

  1. भारतीय नारी: दशा, दिशा, आशारानी व्होरा, आगरा, 1991, पृ0 172.
  2. आधुनिक हिंदी काव्य में नारी, संपा0- जे0एम0 देसाई, विनोद पुस्तक मन्दिर, मेरठ, 2008, पृ0 9.
  3. कर्मभूमि, प्रेमचंद, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ0 222.
  4. महात्मा गांधी का संदेश, यू0एस0 मोहनराव, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

डाॅ0 बलजीत श्रीवास्तव
असि0 प्रोफेसर (हिन्दी विभाग)
बाबा साहेब डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय,
लखनऊ

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