समाज में स्त्री को हमेशा पार्श्व में रखने की ही परम्परा रही है। पुरूष के समकक्ष स्त्री को खड़ा देखने की आदत आज भी हमारे भारतीय समाज में नहीं आ पायी है। ऐसी ही कुछ परम्परा साहित्य में भी दिखलाई पड़ती है जो उचित नहीं है क्योंकि एक साहित्यकार केवल साहित्यकार होता है उसमें कोई लिंग भेद नहीं होता। हिंदी के ऐसे बहुत से साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने अपने लेखन से यात्रा साहित्य का विकास किया है। किन्तु चिंतनीय बिंदु यह है कि यात्रा साहित्य के आलोचनात्मक अध्ययन के समय अधिकांशत: पुरूष साहित्यकारों को ही केंद्र में रखा जाता है। जिस कारण उन महत्त्वपूर्ण स्त्री साहित्यकारों की प्रमुख कृतियों पर हमारा ध्यान नहीं जा पाता जिन्होंने समय-समय पर अपनी लेखनी से यात्रा साहित्य को और समृद्ध किया है। इन स्त्री यायावरों ने अपने बूते और विश्वास पर ही विश्व भर की यात्रा कर तथा उस यात्रा को शब्दबद्ध करके हिन्दी यात्रा सहित्य में श्री वृद्धि की है।
हिन्दी साहित्य आलोचना के क्षेत्र में तो यात्रा साहित्य लगभग उपेक्षित सा ही रहा है। हिन्दी में यात्रा साहित्य तो विपुल मात्रा में रचा गया है। परन्तु जब बात यात्रा साहित्य की आलोचना की आती है तो बहुत खोजने पर भी कुछ चंद पुस्तकें ही हमारे सामने आती है। अब इसे यात्रा साहित्य की ओर से उदासीनता का भाव कहें या फिर वह संकीर्ण सोच जो अभी तक मध्यकाल तथा कथा-साहित्य से बाहर नहीं आ पाई है, यह एक इतर विषय है। किन्तु हम इस तथ्य की ओर से मुख नहीं फेर सकते कि हिन्दी में यात्रा साहित्य की एक बहुत समृद्ध परम्परा रही है, जहाँ साहित्यकारों ने अपनी यात्राओं के वर्णन को शब्दबद्ध करके हमारे ज्ञान में श्री वृद्धि की है। हिन्दी की अन्य विधाओं की भांति यात्रा साहित्य में भी प्रचुरता में पुरूष हस्ताक्षर दिखलाई पड़ते है। और यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है क्योंकि भारतीय समाज हमेशा से ही पुरूष अनुकूलित रहा है, पुरूष के पास हमेशा से सारे अधिकार रहे है, पुरूष जो भी कुछ करे उसे कभी जवाबदेह नहीं माना गया। पुरूष ने यात्रा करी, उसको लिपिबद्ध किया, समाज में उसको प्रशंसा का पात्र बनाया गया, उसकी कृति को सराहा गया, पुरूष का साहित्य में योगदान स्वीकारा गया, यहाँ तक सब ठीक है। किन्तु, जैसे ही यह बात स्त्री पक्ष पर आती है। तब प्रश्नों की कतार लग जाती है, कर्तव्यों का याद दिलाया जाने लगता है, ढेर सारे विकल्पों का ढेर लगा दिया जाता है। ताकि राह में रोड़ा अटकाया जा सके। स्त्री का यात्रा करना हमेशा ही बाधाओं को निमंत्रण देना जैसा माना गया जबकि राहुल सांकृत्यायन ने भी यह लिखा है कि घुमक्कड़ी करने का स्त्री को भी उतना ही अधिकार है जितना पुरूष को है। वह घुमक्कड़ी के धर्म को दुनिया को सर्वश्रेष्ठ धर्म बतलाते है। वह लिखते है- “व्यक्ति के लिए घुमक्कड़ी से बढ़कर कोई नकद धर्म नहीं है। जाति का भविष्य घुमक्कड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए मैं कहूँगा कि हरेक तरूण और तरूणी को घुमक्कड़-व्रत ग्रहण करना चाहिए, इसके विरुद्ध दिए जाने वाले सारे प्रमाणों को झूठ और व्यर्थ का समझना चाहिए ।”.1. राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि केवल पुरूष सत्ता ही नहीं अपितु प्रकृति भी हमेशा स्त्री के प्रति कठोर ही बन कर रही है। उसने पुरूष को जितनी सहूलियतें दी है उतनी ही जटिलताएं स्त्री जीवन में दी है। स्त्री यदि शारीरिक बल में पुरूष से कम हुई तो उससे आगे बढ़ कर उस पर ब्याह, मातृत्व, गृहस्थी इत्यादि के बंधन डाल दिए गए । जिनको यदि वह अपनाती है तो जीवन भर संबंधों के बंधन में कैद होकर रह जाती है और यदि उन्हें नकारती है तो तब भी जीवन भर के लिए अपमान और घृणा का पात्र बनती है। दोनों ही सूत्रों में स्त्री का अस्तित्व ही पिसता है।
यात्रा मनुष्य की मूल वृति है और स्त्री और पुरूष में यह एक जैसी ही होती है बेशक कम या अधिक मात्रा में हो। परन्तु स्त्री को हमेशा से कर्तव्यों और परम्पराओं के बन्धनों में जकड़ कर रखा गया जिससे कि वह अपनी परिधि से बाहर ही नहीं निकल सकी और चार-दीवारी में ही सिमट कर रह गयी। यही कारण रहा होगा कि हिन्दी यात्रा-साहित्य में हमें स्त्री हस्ताक्षरों की कमी दिखलाई पड़ती है। परन्तु इस बात का सुकून है कि स्त्री ने अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज करायी है और यात्रा-साहित्य में प्रमुख योगदान दिया है। यह प्रमुख योगदान ही है कि यात्रा-साहित्य की सर्वप्रथम मुद्रित कृति एक स्त्री लेखिका की है। “…यात्रा साहित्य का सर्वप्रथम ग्रन्थ जो हमें देखने को मिल सका है वह ‘लन्दन-यात्रा’ नाम से है। इसकी लेखिका हरदेवी जी है। इनकी यह पुस्तक ओरिएंटल प्रेस, लाहौर से सन 1883 ई. में प्रकाशित हुई थी। सन 1883 ई. से ही यात्रा-ग्रंथों की परंपरा का विकास हुआ ज्ञात होता है, जिसके बाद पुस्तककार यात्रा-साहित्य प्रकाशित होने लगा ।”2. हिन्दी साहित्य के विभिन्न युगों में प्रचुर मात्रा में यात्रा वृत्तांतों की रचना हुई जिसमें समय-समय पर स्त्री लेखिकाओं के यात्रा वृत्तान्त भी हमारे सामने आते रहे है जो विभिन्न देशों पर आधारित है, हर यात्रा वृत्त की विषय वस्तु भिन्न है तो उद्देश्य भी अलग-अलग है। किसी ने अपनी यात्रा का वर्णन निबंध रूप में प्रस्तुत किया है तो किसी ने डायरी विधा का सहारा लिया है। किसी ने संस्मरण रूप में अपने यात्रा के अनुभवों को अभिव्यक्त किया तो किसी ने रिपोतार्ज शैली का प्रयोग कर उसे गंभीरता प्रदान की है। परन्तु एक चीज़ जो समान है वह है अपनी यात्रा के अनुभवों को दूसरों तक पहुँचाना, लोगों का मनोरंजन तथा उनके ज्ञान में वृद्धि करना।
हरदेवी जी ने ‘लन्दन-यात्रा’(1883) यात्रा वृत्तान्त में अपनी जहाज द्वारा की गयी लन्दन-यात्रा का सविस्तार वर्णन किया है। यात्रा के दौरान इन्होनें जो कुछ भी देखा, महसूस किया उन सभी भावों की सहज रूप में अभिव्यक्ति की है। इसके पश्चात लम्बे समय तक पुस्तक रूप में स्त्री रचनाकारों द्वारा कोई यात्रा वृत्तान्त नहीं दिखलाई पड़ता। कुछ छिटपुट यात्रा वृत्त साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में जरूर दिखलाई पड़ते है जैसे कि- ‘चाँद’ पत्रिका में 1911 में श्रीमती रामदेहली द्वारा ‘जगन्नाथ’ की यात्रा का वृत्तान्त। 1914 ‘गृहलक्ष्मी’ पत्रिका में प्रकाशित श्रीमती उमा नेहरू का ‘युद्धक्षेत्र की सैर’ नामक यात्रा वृत्तान्त। आदर्श कुमारी यशपाल द्वारा ‘हमारी मोटर यात्रा’ यात्रा वृत्त सन 1942 में ‘मधुकर’ नामक पत्रिका में प्रकाशित। सन 1949 में ‘नया समाज’ नामक पत्रिका में प्रकाशित श्रीमती मनसा पंडित की ‘बुडापेस्ट यात्रा’ का वृत्तान्त ।3. यह कुछ ऐसे उदाहरण है जो यह दिखलाते है कि साहित्य में स्त्री रचनाकारों की क्या स्थिति रही होगी। 1883 से 1949 तक के समय अंतराल में स्त्री रचनाकारों द्वारा पुस्तक रूप में यात्रा वृत्तान्त न के बराबर ही उपलब्ध है। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि हो सकता है इस अंतराल में यात्रा की गयी हो, किन्तु साहित्यिक रूप में वह प्रकाश में न आ सकी हो।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे सामने जो यात्रा वृत्तान्त सामने आता है वह है श्रीमती सत्यवती मलिक द्वारा रचित ‘कश्मीर की सैर’ जिसका प्रकाशन सन 1950 में होता है। सत्यवती मलिक एक प्रसिद्ध साहित्यकार होने के साथ-साथ संगीत तथा विविध ललित कलाओं की जानकार तथा एक समाज सेविका भी थी। उन्होंने कहानी, निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा वृत्तान्त इत्यादि में रचना कर हिंदी साहित्य में श्री वृद्धि की है। अपने यात्रा वृत्तान्त ‘कश्मीर की सैर’ में उन्होंने कश्मीर की प्राकृतिक सुषमा, नदी-झीलों का बहुत ही सहज-स्वाभाविक, सुंदर और सांगोपांग वर्णन किया है। वही दूसरी और 1955  में प्रकाश में आया विमला कपूर द्वारा कृत ‘अजाने देशों में’ में उनकी यूरोप यात्रा का वर्णन है, उन्होंने यह यात्रा बर्लिन सम्मलेन के उत्सव में शामिल होने के लिए सन 1951 में जहाज द्वारा की थी जिसमें उन्होंने इटली, लन्दन, स्विटज़रलैंड, जर्मनी, हंगरी, पोलैंड, वारसा आदि देशों की यात्रा का बहुत सुंदर वर्णन किया है। विमला कपूर अपने यात्रा वृत्त की अभिव्यक्ति हेतु पत्र शैली का प्रयोग करती है। सुरेन्द्र माथुर उनकी इस कृति के सन्दर्भ में लिखते है- “जहाजी यात्रा का यह सुंदर वर्णन बड़ा ही सुंदर है। कहीं-कहीं पर उनका यह वर्णन कविता का रूप ले लेता है। विमला कपूर की लेखन शैली अत्यंत आत्मीयतापूर्ण है। देशों का भ्रमण करते हुए उन्होंने साहस, निष्ठा एवं कर्त्तव्यपूर्ण जीवन की मनोरम कल्पनाओं के साथ उन्हें लिपिबद्ध किया है। उनकी अभिव्यंजना में नारी-हृदय साकार दृष्टिगत होता है।”4. थोड़े अंतराल के पश्चात पश्चिम के प्रभाव से निकल कर 1965 में पद्मा सुधि का यात्रा वृत्तान्त ‘अलकनंदा के साथ-साथ’ सामने आता है। इसमें उन्होंने अलकनंदा नदी और उसके संगम का बहुत ही मनोरम चित्रण किया है तथा साथ ही कुछ धार्मिक स्थलों की यात्रा की बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति की है। “पद्मा सुधि ने अपनी इस पुस्तक में सहज, यथार्थ एवं निष्पक्ष यात्रा-वर्णन प्रस्तुत किया है। उन्होंने ऋग्वेद, भागवत, महाभारत, मेघदूत आदि का उल्लेख किया है। ‘ऋषिकेश’ अथवा ‘हृषीकेश’ और ‘हरद्वार’ अथवा ‘हरिद्वार’ इस संज्ञाओं पर लेखिका ने तर्क-वितर्क प्रस्तुत किये है।”5. 1980 में प्रकाशित ‘यात्रिक’ यात्रा वृत्तान्त में शिवानी ने अपनी इंग्लैण्ड यात्रा के अनुभवों को व्यक्त किया है। शिवानी की यह यात्रा दरअसल में उनके पुत्र की बारात की यात्रा है जो इंग्लैण्ड गयी थी। अपनी इस यात्रा में लेखिका ने जो कुछ देखा और जाना उसी का वर्णन उन्होंने अपने यात्रा वृत्तान्त में किया है।
इंदु जैन कृत जापान-प्रवास पर आधारित यात्रा वृत्तान्त ‘पत्तों की तरह चुप’(1987) काव्यात्मक गद्य का एक श्रेष्ठ उदहारण है। किन्तु लेखिका स्वयं अपनी इस पुस्तक को यात्रा वृत्तान्त मानने से इंकार करती है। यह एक तरह से जापान प्रवास पर आधारित उनकी डायरी का रूप माना जा सकता है। “यह न यात्रा वृत्तान्त है न जापानी जीवन-विधि को समझने का अध्ययनशील दावा और न ही बड़े-बड़े ‘नामों’ से मिलने का भेंट-वार्ता-परक स्मृति पट।”6. अपने सवा दो साल के जापान प्रवास में लेखिका ने जो देखा, सुना, महूसस किया, जिन लोगों से मिली, उन सभी अनुभवों को इस पुस्तक में उन्होंने बड़ी ही सहज, सरल और संप्रेषणीय भाषा में प्रेषित किया है। थोड़े ही वक़्त में पुस्तक को पढ़कर जापान का एक सुंदर-रेखाचित्र सा हमारे सामने उभर कर आ जाता है जिससे हम उन्हीं सड़कों, उन्हीं पगडंडियों पर चलते और लोगों से बात करते हुए अपने आपको महसूस करने लगते है जहाँ पर लेखिका कभी मौजूद रही होगी। इतने पर भी लेखिका ने ईमानदारी से यह स्वीकार किया है उनसे इस पुस्तक में कुछ महत्त्वपूर्ण विषय तथा ऐसे पक्ष छूट गए है जिनको उन्हें बताना चाहिए था। इस तरह से इंदु जैन ने अपनी इस पुस्तक में जापानी जन-जीवन, वहाँ की सामाजिक संरचना, लोगों के रहन-सहन, व्यवहार तथा प्रकृति की बहुत ही सहज अभिव्यक्ति की है। ‘दो तरह के लोग’ (1990) में अपनी यूरोप यात्रा का वर्णन करते हुए इंदिरा मिश्र ने यूरोपीय जन-जीवन, प्राकृतिक वातावरण के नाना क्रियाकलापों का, वहाँ की परिस्थितियों का वर्णन बहुत ही रोचक रूप में प्रस्तुत किया है। कहीं-कहीं पर लेखिका यूरोप और भारत के मध्य सामाजिक और आर्थिक रूप से तुलना करती है और उनके मध्य गहरे अंतर से विक्षोभ से भर उठती है। “लेखिका के यात्रा-साहित्य में इनकी भावुकता और संवेदना की स्थिति सर्वत्र प्रकट हुई है। इन्होनें प्रवास पर रहते हुए भी अपनी स्वजनों की चिंता एवं देश के प्रति प्रेम की भावना प्रकट की है।”7. हिन्दी में जापान केन्द्रित यात्रा वृत्तांतों की बहुलता देखने में आती है ऐसा ही एक यात्रा वृत्तान्त है प्रसिद्ध रचनाकार राज बुद्धिराजा का ‘साकुरा के देश में’(1993)। इसमें लेखिका ने जापान के सांस्कृतिक परिवेश का अद्भुत चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त लेखिका ने जापानी सांस्कृतिक परिवेश का भारतीय परिवेश तथा अन्य देशों के परिवेश से तुलना भी की है। जापान में रहते हुए लेखिका जिन व्यक्तियों के संपर्क में आई, जिनसे लेखिका का परिचय हुआ उन सभी को उन्होंने अपने यात्रा वृत्तान्त में स्थान दिया है।
पुष्पा भारती द्वारा कृत ‘सफ़र सुहाने’(1994) यात्रा वृत्तान्त महाद्वीपीय यात्राओं को अपने में समेटे हुए हैं। इसमें उनके द्वारा की गयी मौरिशिस, वियतनाम, जापान, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा अपने स्वदेश की यात्राओं का वर्णन संकलित है। इस यात्रा वृत्तान्त में लेखिका का उद्देश्य उक्त देशों की ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा प्राकृतिक परिस्थितियों का वर्णन करना रहा है। लेकिन उनका मन ऐतिहासिक और प्राकृतिक परिवेश का चित्रण करने में अधिक रमा है। वह लगभग जहाँ-जहाँ गयी उन सभी स्थानों के इतिहास को उन्होंने जानने का प्रयत्न किया है और उसको अपनी इस कृति में सहज और बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत किया है। वही दूसरी ओर ‘मैं कहती हूँ आंखिन देखी’ (1995) यात्रा वृत्तान्त में पद्मा सचदेव ने लन्दन, रूस, फ़्रांस, हांगकांग, कजाकिस्तान आदि विभिन्न देशों की यात्रा के साथ-साथ स्वदेश में की जम्मू-कश्मीर, गुजरात, असम आदि राज्यों की यात्राओं का वर्णन किया गया है। लेखिका का ध्यान इन देशों के सांस्कृतिक परिवेश, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, जन-जीवन, रहन-सहन इत्यादि का चित्रण करने में ज्यादा रहा है। विदेश में प्रसारित भारतीय संस्कृति के प्रभाव को भी लेखिका ने अपने यात्रा वर्णन में वर्णित करने का प्रयास किया है। पद्मा सचदेव की लेखन शैली बहुत ही प्रभावशाली है उसमें काव्यात्मकता का रस जहाँ-तहाँ देखने को मिलता है, उन्होंने अपनी यात्रा के वर्णनों को रोचक बनाने के लिए स्थान-स्थान पर, लोकगीतों, शेरों-शायरी, फ़िल्मी-गीतों का प्रयोग किया है जो अद्भुत बन पड़ा है। इसी प्रकार काव्यात्मक शैली से युक्त कुसुम अंसल द्वारा कृत ‘सरे राह चलते-चलते’ (1998) भी संवेदनात्मक अनुभूतियों से भरपूर यात्रा वृत्तान्त है जिसमें उन्होंने विश्व के विभिन्न देशों जैसे कि- मिस्र, चीन, कोपेनहेगेन, कीनिया, जेरुसलेम, मास्को, बगदाद, जापान, पाकिस्तान, म्यांमार, कम्बोडिया, भूटान की यात्राओं का वर्णन किया है। लेखिका का यह विश्वास है कि उनका और यात्रा का एक गहरा सम्बन्ध है। दूसरे देशों को जानना-समझना, उनके भीतर की संवेदना को महसूस करना यह हमेशा से उनके जीवन और व्यक्तित्त्व का हिस्सा रहा है। लेखिका ने देशों के इतिहास की ओर अधिक ध्यान दिया है और उसको अपने यात्रा वृत्त में स्थान दिया है। मिस्र में घूमते हुए पिरामिडों के ऐतिहासिक महत्त्व का वर्णन करते हुए कुसुम अंसल की काव्यात्मक लेखनी भी गंभीर हो जाती है। “पिरामिड के भीतर की मौत जैसे हमें हमारे अस्तित्व से बाहर खींच रही है- अनन्त निद्रा की एक विधा सिखलाकर जैसे ये पिरामिड ब्यान कर रहे है कि मौत में भी आशा का एक स्फुलिंग चेतन है। मृत्यु से आगे भी एक जीवन है, नया-नकोर, इस जीवन के दुखों से परे सुखपूर्ण, शायद इसी कारण गीज़ा के इस मृत्यु-स्थल पर मिस्र के अनेक शासक, राजे-महाराजे, शहज़ादे-शहज़ादियाँ, अमीर-उमरावों के साथ दास-दासियाँ भी एक खूबसूरत रत्नजड़ित मौत की चादर लपेटे हुए आज भी (भौतिक रूप से) मौजूद है ।”8. इसके साथ ही अपनी यात्रा के दौरान वह जिन लोगों की संपर्क में आई, जिन परिस्थितियों को उन्होंने देखा-जाना उन सभी को वह संवेदना और निष्पक्षता के साथ संप्रेषित करती है। “लेखिका लगभग सभी यात्रावृतों में तटस्थ दृष्टा नहीं है, उसका स्थितियों के साथ, परिस्थितियों के साथ, व्यक्तियों के साथ संवेदनात्मक सम्बन्ध होता है, क्रिया तथा प्रतिक्रया होती है वह भी उथली न होकर गहराई के साथ होती है। यह प्रशंसनीय है। इस तरह लेखिका ने जहाँ भी अपनी अनुभूतियां अभिव्यक्त की है वे मर्म का स्पर्श करती है, व्यापकता का द्वार खोलती, मित्रता का हाथ बढाती है।”9. लेखिका की अभिव्यक्ति शैली काव्यात्मक है, उन्होंने स्थान-स्थान पर भावों को अनुभूति और मार्मिकता के साथ प्रेषित करने के लिए कविताओं का सहारा लिया है।
2003 में प्रकाशित नासिरा शर्मा द्वारा कृत ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते है’ एक मार्मिक और जीवंत यात्रा वृत्तान्त है। यह यात्रा वृत्तान्त उनके समय-समय लिखे गए रिपोतार्जों का संकलन है जो कि ईरान, इराक, पेरिस, लन्दन, पाकिस्तान, नेपाल, जापान, फिलिस्तीन, इसराइल, कुर्दिस्तान, अफगानिस्तान, आदि देशों पर केन्द्रित है। इन यात्राओं में ईरान उनका केन्द्र रहा है यही कारण है कि वह आज भी ईरान पर लिखे हुए अपने रिपोतार्जों के लिए जानी जाती है। लेखिका ने अपने इस यात्रा वृत्तान्त में उक्त देशों की तत्कालीन  सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक परिस्थितियों का वर्णन जिस सजीवता,जीवन्तता और मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है वह कहीं अन्यत्र मिलना मुश्किल है। इसमें उन्होंने आँखों देखा और भोगा हुआ यथार्थ लिखा है। वे मानती है कि ये वे देश है जहाँ शान्ति, सुरक्षा, खुशहाली एक सपना बन गए है, जो हर वक़्त युद्ध और दहशतगर्दों के साये में डर-डर कर जी रहे है। ईरान के सामाजिक यथार्थ का एक उद्धरण- “ आज ईरानी सारे भेदभाव भूलकर केवल आज़ादी चाहते है। यह इन्किलाब न धर्म का है, न साम्यवादियों का बल्कि यह विभिन्न वर्गों के बीच पिसते इंसान की लड़ाई है जिसमें भूखा-नंगा आदमी घर, खाना, कपड़ा, नौकरी चाहता है और बुद्धिजीवी अपने विचारों की आज़ादी। इसलिए इस इन्किलाब में पिसता हर आदमी शामिल हो गया है, चाहे वह धार्मिक हो या कमुनिस्ट, मजदूर हो या कलर्क । इन सबकी लड़ाई हक की लड़ाई है। आजादी की लड़ाई है ।”10. किसी भी प्राणी का मूलभूत अधिकार है उसकी स्वतंत्रता, यदि यही उससे छीन ली जाये तो मनुष्य अपंग हो जाता है। तत्कालीन ईरान की भी यही स्थिति यही है जिसका वर्णन नासिरा शर्मा ने किया है। अभी कुछ समय पहले प्रकाशित हुई ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’(2016) ने यात्रा साहित्य में अपनी एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करायी है। इसमें लेखिका अनुराधा बेनीवाल ने अपनी यूरोप यात्रा का बहुत ही अद्भुत और रोचक वर्णन किया है। उनकी लेखन शैली को पढ़ कर ऐसा बिलकुल महसूस नहीं होता की यह उनकी पहली पुस्तक है उनकी अभिव्यक्ति शैली इतनी जीवंत है कि लगता है कि हम स्वयं उनके साथ यूरोप की गलियों में घूम रहे हो। सब कुछ बहुत पास और सहज महसूस होता है। अनुराधा बेनीवाल मानती है कि अगर किसी भी शहर को जानना है तो आपको उसके भीतर उतरना होगा, सिर्फ बाहर शोकेस में खड़े रहकर आप केवल टूरिस्टों वाला शहर अथवा पिक्चर पोस्टकार्ड वाला शहर ही देख सकते है। शहर के भीतरी हिस्स्से, अनजानी गलियां ही आपको असली शहर की आत्मा से परिचित करवा सकते है। वह  लिखती है- “होता यूँ है कि जब आप शहर को जान रहे होते है, शहर भी आपको जान रहा होता है। आप शहर पर काम करते है, शहर आप पर काम करता है । थोड़ा शहर आपको अच्छा लगता है, थोड़े आप शहर को अच्छे लगते है। आप शहर को अपनाते है, शहर भी लगा-जुटा होता है आपको अपना बनाने में। अब जैसे शहर मेरा था, और शहर को मैं । कुछ करने या देखने का दबाव भी अब नहीं था। अब बस निश्चिन्त चलना था। आप चले है कभी निश्चिन्त? कहीं ना पहुँचने के लिए ? किसी से ना मिलने के लिए ? बिना समय की परवाह किये ? चल के देखिये। एडिक्टिव होता है एकदम !”11. अनुराधा बेनीवाल अपनी इस पुस्तक के द्वारा लड़कियों को अपना निजी स्पेस और अपने अस्तित्त्व को खोजने के लिए प्रेरित करती है। वे मानती है कि लड़कियाँ यायावरी के ज़रिये अपने समाज की मानसिकता को बदल सकती है और आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नए रास्ते को खोल सकती है।
आज इक्कीसवीं सदी में ग्लोबलाईजेशन के कारण बहुत परिवर्तन हो गया है। इन्टरनेट के कारण आज दुनिया हमारी एक ऊँगली भर की दूरी पर है। हम जब चाहे, कभी भी दुनिया के किसी भी कोने की, किसी भी प्रकार की जानकारी घर बैठे ही पा सकते है। वैश्वीकरण के कारण ही आज हम यात्रा साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन देखते है। आज यात्रा साहित्य सिर्फ किताबों और पत्रिकाओं तक ही नहीं सिमटा है बल्कि इन्टरनेट के द्वारा ई-पत्रिका, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साईट इत्यादि पर भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध है। इन सब के ज़रिये आज लड़कियां और स्त्रियाँ अपने यात्रा के अनुभवों को व्यापक स्तर पर लोगों तक पहुँचा रही है। ऐसी बहुत सी ई-पत्रिकाएं है जिसमें स्त्रियों द्वारा की गयी यात्राओं के वृत्तान्त हमें उपलब्ध होते है। जैसे कि- वेब-दुनिया, सृजन-सरोकार, रचनाकार, समालोचन आदि। इसी प्रकार आज इन्टरनेट का एक विशिष्ट रूप ‘ब्लॉग’ बहुत ही लोकप्रिय हो गया है। ब्लॉग के जरिए आज लोग अपने भावों और अनुभवों को आसानी से अभिव्यक्त कर पा रहे है। इसके द्वारा लोग अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, साहित्यिक, संगीत-ललित कला आदि की रूचियों को शब्द दे रहे है। अभिव्यक्ति का यह बहुत आसान माध्यम है जिसकी पहुँच आज व्यापक स्तर पर है। ऐसे बहुत से ब्लॉग है जो स्त्री तथा स्त्री रचनाकारों द्वारा चालित है। इनमें वह अपने द्वारा की गयी यात्रों के अनुभवों को संजोती है। उदाहरणस्वरूप- स्वाति द्वारा ‘मेरा यात्रा ब्लॉग’, शिव्या नाथ द्वारा ‘द शूटिंग स्टार’, लक्ष्मी शरथ द्वारा चालित ‘ट्रेवल विद लक्ष्मी’, रूत्वी मेहता का ‘फोटो कथा’, मृदुला द्विवेदी का ‘गो नोमेड’तथा ‘जिंदगीनामा’ इत्यादि प्रसिद्ध ब्लॉग स्पॉट है।
इस तरह हम यह देख सकते है कि स्त्रियों ने अपने यात्रा साहित्य के द्वारा समाज को एक नयी दिशा, एक नयी सोच प्रदान करने का कार्य किया है। जहाँ पहले स्त्रियों के लिए चार दिवारी ही सब कुछ थी वही आज चारदिवारी से बाहर निकल अकेले अपने दम पर न केवल अपने देश को जान रही है अपितु विदेशों की गलियों में अपने कदम बढ़ा रही है। स्त्री चेतना का यह एक बहुत बड़ा उद्धरण है कि आज की स्त्री रसोई, गृहस्थी, शादी-बच्चे आदि तक न सिमट देश और विदेश के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि पहलुओं पर अपनी बेबाक राय दे रही है, उनको जान-समझ रही है।समाज के विकास में अपना सहयोग दे रही है। इन्टरनेट ने उनके प्रयास को और व्यापक तथा विस्तृत फलक का सहयोग दिया है, यह उनकी कोशिशों का ही परिणाम है कि वह आज समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी भूमिका पुरजोर तरीके से दर्ज करा रही है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:

1. घुमक्कड़ शास्त्र, राहुल सांकृत्यायन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1949, पृष्ठ सं.- 10
2. यात्रा साहित्य का उद्भव और विकास (आलोचनात्मक अध्ययन), डॉ. सुरेन्द्र माथुर, साहित्य प्रकाशन, मालीवाड़ा दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1962, पृष्ठ सं.- 92
3. हिन्दी का यात्रा साहित्य: एक विहंगम दृष्टि, विश्वमोहन तिवारी, आलेख प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2016, पृष्ठ सं.- 42-43, 54-55
4. यात्रा साहित्य का उद्भव और विकास (आलोचनात्मक अध्ययन), डॉ. सुरेन्द्र माथुर, साहित्य प्रकाशन, मालीवाड़ा दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1962, पृष्ठ सं.- 208
5. हिन्दी यात्रा साहित्य: स्वरूप और विकास, डॉ. मुरारीलाल शर्मा, क्लासिकल पब्लिशिंग कम्पनी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2003, पृष्ठ सं.- 59
6. पत्तों की तरह चुप, इंदु जैन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1987, पृष्ठ- भूमिका से ।
7. स्वातंत्र्योत्तर यात्रा साहित्य का विश्लेष्णात्मक अध्ययन, डॉ. अनिल कुमार, हिन्दी बुक सेंटर, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2007, पृष्ठ सं.- 75
8. सरे राह चलते-चलते, डॉ. कुसुम अंसल, राजपाल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2016, पृष्ठ सं.- 24                                                          
9. हिन्दी का यात्रा साहित्य: एक विहंगम दृष्टि, विश्वमोहन तिवारी, आलेख प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2016, पृष्ठ सं.- 171-172
10. जहाँ फव्वारे लहू रोते है, नासिरा शर्मा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2003, पृष्ठ सं.- 29
11. आज़ादी मेरा ब्रांड, अनुराधा बेनीवाल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2016, पृष्ठ सं.- 97

 

नीलम रानी
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

 

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