अनुक्रमणिका

संपादकीय  डॉ. आलोक रंजन पाण्डेय शोधार्थी सूरदास के काव्यलोक की प्रासंगिकता – अनिल कुमार बहुभाषिकता-एक समाज भाषावैज्ञानिक अध्ययन – बीरेन्द्र सिंह हिन्दी यात्रा साहित्य में स्त्री चेतना के स्वर – […]

संपादकीय

हमारा देश और पूरा विश्व इस समय मुश्किल परिस्थितियों से गुज़र रहा है। कोरोना ने लगभग समूचे परिदृश्य को बदल दिया है।देश की आर्थिक स्थिति लॉकडाउन बढ़ने के साथ-साथ नाज़ुक […]

सूरदास के काव्यलोक की प्रासंगिकता – अनिल कुमार

प्रासंगिकता का प्रश्न जितना सीधा दिखता है , जब उसके अंतर में उतरिये तो वह उतना ही विचित्र दिखाई पड़ता है – वह भी तब जब रचना और रचनाकार के […]

बहुभाषिकता-एक समाज भाषावैज्ञानिक अध्ययन – बीरेन्द्र सिंह

भाषा एक समाज सापेक्ष प्रतीक व्यवस्था है। वह समाज के सापेक्षता में ही जीवित रह सकता है तथा उसका विकास भी समाज के भीतर ही होता है। इस प्रकार यह […]

हिन्दी यात्रा साहित्य में स्त्री चेतना के स्वर – नीलम रानी

समाज में स्त्री को हमेशा पार्श्व में रखने की ही परम्परा रही है। पुरूष के समकक्ष स्त्री को खड़ा देखने की आदत आज भी हमारे भारतीय समाज में नहीं आ […]

भक्तिकाव्य की वर्तमान अर्थवत्ता : एक पुनर्विचार – राम विनय शर्मा

भारतीय इतिहास का मध्यकाल कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। यह वही दौर है जब भारत की धरती पर मुसलमानों का विधिवत् शासन स्थापित हुआ था। इसी दौर में भक्ति ने […]

अमृतलाल नागर के उपन्यासों में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध – आरती

मनुष्य अपने व्यापक अर्थ में स्त्री-पुरुष का योग है। सभ्यता और समाज के विकास में इन दोनों का ही सहयोग समान रूप से आवश्यक माना गया है। लेकिन भारतीय समाज […]

तस्वीर का दूसरा रुख़ – अर्चना उपाध्याय

फिल्म और साहित्य दोनों ही मानवीय सम्वेदनाओं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। पुस्तकों में स्त्रियों की दशा-दुर्दशा को हम शताब्दियों से पढ़ते-सुनते आए हैं। फिल्मी परदे के चकाचौंध […]

राकेशधर द्विवेदी की कविताएँ

बाल गीत – माँ तुम बताओ ना कोयल अब कूं-कूं नहीं करती, गौरेया अब फुदकती नहीं दिखती। न ही सुनाई देती है मैना की, मनमोहक बातें। बुलबुल के चुलबुलेपन की, […]

आज प्रकृति चीख रही है (कविता) – डॉ. दीपा

आज प्रकृति चीख-चीखकर करा रही, हमको एहसास, क्या मिला छेड़कर मुझको तुमको, जो भोग रहे हो ये परिणाम। पहले ज़हर हवा में घोला, सांसे अपनी रोक ली, और जल को […]