‘‘बशर्ते कि बलात्कार से माँ
और बन्दूक से बच्चा
अपने को बचा ले’’
भावुक तो हर कोई हो सकता है लेकिन कसौटी तो यह है कि वह कितना संवेदनशील है। रघुवीर सहाय भावुक कवियों में नहीं अपितु संवेदनशील कवियों की श्रेणी मंे आते हैं। उनके रचनाकर्म का मात्र उद्देश्य यह नहीं है कि वह मनुष्य की कारूणिक स्थिति से परिचय कराकर या केवल अनन्त शोक मनाकर या डबडबाई सहानुभूति का लेपन कर, छुट्टी पा जाएँ। बल्कि उनकी कविता में जीवन द्वंद्व है जो हृदय को ही नहीं, दिमाग को भी संबोधित करती है। यथार्थ के साथ उनका सुलूक विह्वलवादी नहीं आलोचनात्मक है।
रघुवीर सहाय की काव्य यात्रा लगभग भारतीय स्वतंत्रता के साथ प्रारम्भ और इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध के चार दशकों तक चलती रही। उनके समय के दौरान देश को साम्राज्यवादी से मुक्ति मिली। दूसरे महायुद्ध के दौरान सोवियत रूस की बहादुर जनता ने ‘फासिज्म’ को इतनी चोट दी थी कि एशिया, अफ्रीका तथा लातीनी अमरीका के अंतर्गत साम्राज्यवादी शक्तियों की अपने उपनिवेशों में ही स्थिति लड़खड़ाने लगी थी। इस परिस्थिति के फलस्वरूप उपनिवेश राष्ट्रों के स्वाधीनता संग्राम में तजी आई। भारत इन राष्ट्रों में सबसे पहले मुक्त होने वाला उपनिवेश था। समकालीन युवा पीढ़ी के लिए एक नए युग में प्रवेश का उत्साह स्वाभाविक ही था। लेकिन अज्ञेय के शब्दों में – ‘‘युद्ध समाप्त होकर भी नहीं हुआ। जो लोग पहले इसलिए लड़े थे कि संघर्ष बंद हो, उन्हें बाद में इसलिए लड़ना पड़ा कि और कई संघर्ष चालू रखे जाएँ।’’ क्योंकि आजादी मिलने के साथ ही देश के शर्मनाक विभाजन के बाद साम्प्रदायिकता की आंधी में सामूहिक कत्ल और बलात्कार की जो घटनाएँ हुई, वे आदमी के भीतर दहशत, अविश्वास तथा अनास्था पैदा कर गई। यह आजादी के बाद के स्वप्न के साथ ही तत्काल उभर आने वाला कड़वा यथार्थ था। लेकिन गणतंत्र की घोषणा, नए संविधान के अमल में आने तथा पंचवर्षीय योजना जैसे विकास कार्यक्रमों की शुरूआत ने जनमानस में विश्वास की नई लहर पैदा की, जो जल्द ही ढ़ीली पड़ गई क्योंकि उसका सामना तेलंगाना संग्राम, प्रथम पंचवर्षीय योजना की समाप्ति, 1962 का भारत-चीन युद्ध 1975 के आपातकालीन आदि के परिणाम से होता है।
रघुवीर सहाय समाजवादी थे लेकिन उनका समाजवाद मार्क्स- ‘‘एंगेल्स का वैज्ञानिक समाजवाद न होकर वस्तुतः जनतांत्रिक समाजवाद है, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे समाजवाद को ऐतिहासिक विकास का स्वाभाविक परिणाम न मानकर समाज के सभी हिस्सों द्वारा समान रूप से स्वीकार्य एक नैतिक आदर्श मानते हैं।’’
इन सभी घटनाओं की अभिव्यक्ति रघुवीर सहाय की कविता में बखूबी देखने को मिलती है।
‘‘गाँव-गाँव में दिया जन-मन को
विश्वास
नेकराम नेहरू ने
कि अन्याय आराम से होगा आम राय से होगा नहीं तो
कुछ नहीं होगा
गाँव का’’
लोकतंत्र अर्थात् लोगों का तंत्र। ‘अब्राहम लिंकन’ के भाषा में कहे तो- ‘लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा चलाया गया शासन लोकतंत्र कहलाता है’ क्या वाकैय में ‘लोकतंत्र’ में ‘लोग’ वर्तमान समय में महत्वपूर्ण रह गए? इस संशय भरे प्रश्न के साथ रघुवीर सहाय अपनी कविता की भूमिका तैयार कर लोकतंत्र में ‘लोक’ के स्थान पर ‘सत्ता’ के केन्द्र में आ जाने की कहानी वह जनता के समक्ष रखते है-
‘‘जिस जगह आकर विश्वास हो जायेगा कि
बीस साल धोखा दिया गया
वहीं मुझे फिर कहा जायेगा विश्वास करने को
पूछेगा संसद में भोला-भाला मंत्री
मामला बताओं हम कार्रवाई करेंगे’
हाय-हाय करता हुआ हाँ-हाँ करता हुआ हें-हें करता हुआ
दल का दल
पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होगा
जितना बड़ा दल होगा उतना ही खाएगा देश को’’
यहाँ असहाय साधारण नागरिक, धोखेबाज शासक दल और मंत्री तथा शासक दल की तरह ही लूट-खसोट के हिस्सेदार विरोधी दल एक साथ मौजूद है।
1950 में जिस लोकतंत्र की स्थापना हुई थी, उसमंे-एक तरफ कुछ व्यक्ति शानदार जिन्दगी जी रहे थे तो दूसरी तरफ आदमी पेट न भर पाने के कारण कुत्ते की मौत मर रहे थे। यही था लोकतंत्र, जो पूरा का पूरा एक ही वर्ग, पूंजीपतियों के हाथ में था। 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद ये ही देश के पुरोध बने। शासन में जनता की हिस्सेदारी, आर्थिक समानता, शोषण का अभाव, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि हो, मजाक बन कर रह गया। आजाद हुए भारत के नए प्रतिनिधिगण अस्थिर समाज को सुधारने के बजाय उसे तोड़ने मंे लग गए। रघुवीर सहाय इन सारी परिस्थितियों से भली-भाँति परिचित थे-
‘‘मुझे शक है
टूटते हुए समाज का रोना जो रोते है
उनके कल और परसों के आँसुओं का
प्रमाण मेरे पास लाओ
मुझे शक है ये टूटते समाज में
हिस्सा लेने आए हैं, उसे टूटने से रोकने के लिए नहीं।’’
इस छल से पूर्ण लोकतंत्र का खुलासा वे बिना किसी भय से पूरा खतरा उठाकर, ‘एक अधेड़ भारतीय आत्मा’ नामक कविता में करते हैं-
‘‘बांध में दरार
पाखण्ड वक्तव्य में
घटतौल न्याय में
मिलावट दवाई में
नीति में टोकरा
अहंकार भाषण में
आचरण में खोट…।’’
लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने जानेवाले प्रतिनिधि इसे रोकने के बजाय इसमें शामिल हो जाते हैं। निर्वाचन के समय तो बड़े-बड़े वायदे करते हैं, पर संसद जाने के बाद सारे वायदे भूलकर शोषणतंत्र, रावणराज में शामिल हो जाते हैं। रघुवीर सहाय ने प्रतिनिधि की इस वास्तविकता को उजागर करते हुए लिखा हैं-
‘‘सिंहासन ऊँचा है समाध्यक्ष छोटा है
अगणित परिवार के
एक पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाये बैठे है लड़के सरकार के
लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाध्यक्ष।
सुनो वहाँ कहता है
मेरा प्रतिनिधि
मेरी हत्या की करूण कथा
हँसती है सभा
तोंद मटका
ठठाकर
अकेले अपराजित सदस्य की व्यथा पर
फिर मेरी मृत्यु से डरकर, चिंचियाकर
कहती है
अशिव है अशोभन है मिथ्या है।’’
रघुवीर सहाय ने जिस प्रकार संसद जो कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तम्भों में से एक है, उसका कार्यान्वित वास्तविक चित्र खींच कर कविता के माध्यम से जनता के समक्ष रखा हैं, उसी लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तम्भ पर लेनिन पहले ही कुछ कह चुके हैं कि- ‘संसद एक गपशप की दुकान है जिसमें बातचीत और बहस के जरिए आम आदमी को बेवफूक बनाया जाता है।’
यहाँ बस बहसें होती हैं, शोक मनाया जाता है, शोरगुल होता है, मारपीट होती है और सबसे बढ़कर किसी आम आदमी की हत्या की कहानी को रस लेकर सुना जाता है और इस पर छद्म दुःख प्रकट किया जाता है।
जो दल जनता को केन्द्र में रख निर्मित हुए थे और उनके लिए सत्ता के विकल्प के रूप में आए थे आज वो सभी अपने स्वार्थ के खारित एक दूसरे में मिल जाते हैं-
‘‘पाँच दल अपने में समझौता किए हुए
बड़े-बड़े स्तन हिलाते हुए
जाँघ ठोक एक बहुत दूर देश की विदेशी नीति पर
हौंकते-डौंकते मुँह नोच लेते हैं
अपने मतदाता का।’’
रघुवीर सहाय एक अन्य स्थान पर ‘संसद’ नामक मंदिर से परिचय कराते हुए लिखते हैं-
‘‘संसद एक मंदिर जहाँ किसी को द्रोही
कहा नहीं जा सकता
– – – –
हर मंत्री बेईमान है और कोई अपराध सिद्ध नहीं
काल रोग का फल है और अकाल अनावृष्टि का
यह भारत एक महागद्या है प्रेम का।’’
चारों ओर भ्रष्टाचार, अन्याय, घृणा ही घृणा है। इस घृणा भरे लोकतंत्र मंे वह अपने मन से एक मत देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता है-
‘‘देश की व्यवस्था का विराट वैभव
व्याप्त है चारों ओर
एक कोने में दुबक ही तो सकता हूँ
सब लोग जो कुछ रचाते हैं उसमें,
अपने मत नहीं दे ही तो सकता हूँ।
वह मैं करता हूँ
किसी से न डरता हूँ
अपने आप में बेकार’’
पूरे लोकतंत्र और इसमें जनता की हालत को रघुवीर सहाय ने चार पंक्तियों में उघाड़कर रख दिया है-
‘‘बीस वर्ष
खो गए भर में उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में
बेगानी हो गयी अपने ही देश में।’’
लोकतंत्र 1947- स्वतंत्रता, 1952 – आम चुनाव, 1957- दूसरा आम चुनाव, 1962- चीन युद्ध, 1967- क्यूबा पर मिसाइल तैनात, 1972- बांगलादेश, 1975- अपातकाल
डॉ. नंदकिशोर नवल ने ‘‘रघुवीर सहाय की ‘‘काव्य-यात्रा’’ शीर्षक निबंध-3 मंे लिखा है- ‘‘रघुवीर सहाय संसदीय जनतंत्र के विरुद्ध हैं और संस्थाओं को उन्होंने असफल मान लिया है। उनका दृष्टिकोण इनके प्रति नकारात्मक नहीं है और न वे ‘‘सिनिक’’ हो गये हैं। वे सिर्फ संसदीय जनतंत्र और उसकी संस्थाओं के नैतिकता पूर्ण उपयोग के पक्ष में है। संसदीय जनतंत्र जैसे जनता के द्वारा अस्तित्व में लाया जाता है वैसे ही वे जनता के हित में उसे सक्रिय देखना चाहते है स्वभावतः भारतीय जनतंत्र की विकृतियों और पाखंड को देखकर दुखी और क्षुब्ध होते हुए भी वे निराश नहीं होते।’’
रघुवीर सहाय के मुख्य छः काव्य संग्रह है- दूसरा सप्तक में संकलित’ कविताएं, इन कविताओं में या तो प्रकृति चित्रण है या प्रेम की किसी स्थिति का आकलन।
1960 में प्रकाशित हुआ। इन कविताओं में प्रेम भी है, प्रकृति भी है, राजनीति के साथ मानवीय करुणा और सहानुभूति भी है- कवि का तीसरा काव्य संग्रह ‘‘आत्महत्या के विरुद्ध 1967 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कविताओं के केन्द्र में है राजनीति और विशेषतः राजनीति से कवि का मोहभंग।
‘‘हंसो हंसो जल्दी हंसो।’’ 1975 में प्रकाशित हुआ। बदले हुए शिल्प में यह संग्रह दहशत का दस्तावेज होने के साथ ही उम्मीद की भी किताब है।
‘‘लोग भूल गए है’’ 1982 में प्रकाशित होकर पुरस्कृत हुआ। संकलित कविताओं में कवि की सामाजिक चेतना-सामाजिक नैतिकता के रूप में पर्यवसित होकर प्रकट हुई।
‘‘कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ’’ 1989 कवि के जीवनकाल में प्रकाशित अंतिम कविता संग्रह है। व्यापक राजनैतिक और सामाजिक पतन के दौर में पतन का विकल्प प्रस्तुत करने की कारगर कोशिश इस संग्रह की कविताएँ करती हैं।
रघुवीर सहाय की कविता में तमाम खीझ और व्यंग्य विद्रूप के बीच विरोध की एक चेतना-
‘‘एक बार जानबूझकर चीखना होगा
जिंदा रहने के लिये
दर्शक दीर्घा में से
लेकर यह मैं खड़ा हूँ
भरा पूरा एक आदमी
मक्कार बूढ़ों की परिषद् में
एक खतरनाक बात
कहकर बैठ जाऊंगा।’’
साथ ही वह ‘‘आत्महत्या के विरुद्ध’ शीर्षक कविता में कहते हैं- कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा।
‘‘न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अंदर एक कायर टूटेगा टूट
मेरे मन टूट एक बार सही तरह
अच्छी तरह टूट मत झूठ झूठ अब मत रूठ’’
डॉ. नंद किशोर नवल के कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि- ‘रघुवीर सहाय’ का सम्पूर्ण राजनीतिक काव्य अंततः विरोध का काव्य है, उसमें प्रतिरोध का स्वर अलग से सुनाई दे या न दे, यह खास तौर से उल्लेखनीय बात है, वे जब राजनीति के पाखण्ड और दुराचार को उजागर करते हैं, तो अवांछनीय स्थिति को स्वीकार नहीं कर लेते बल्कि उसका विरोध ही करते हैं।
जहाँ प्राचीन काल से लेकर आजतक प्रकृति का वर्णन सुंदर और मनोरम दृश्य के लिए किया जाता रहा है वहीं रघुवीर सहाय की कविता ‘लोकतंत्र की मृत्यु’ में लोकतंत्र किस प्रकार एक भ्रम बनकर रह गया है एक झूटे प्रस्तावना के रूप में उसका चित्रण किया गया है-
‘‘मौलसिरी के बड़े से पेड़ तले छाँह का छितरा हुआ घेरा था
सामने लहराते एक हजार फूलों के रंग से डटकर
सिमते हुए लोग उसमें बैठे थे
मृत्यु की खबर की प्रतिमा में।’’
अतः आजादी तो मिली पर एक शब्द के रूप में जो ध्वनि बनकर चारो ओर गूंजती मात्र है उसका अस्तित्व है या न हि यह प्रश्न सोचनीय है। और जब उस आजादी शब्द से ‘लोकतंत्र’ का अस्तित्व जुड़ जाता है, तो वह और भी भयावह तरीके से प्रश्न के रूप में हमारे सामने आ जाता है। जिस पर ‘बेजाट’ का कथन ठीक ही है कि ‘‘ लोकतंत्र एक ऐसा माध्यम है- जिसके द्वारा जनता को सत्ता के बारे में अधिक भ्रम दिया जाता है जबकि वास्तव में उन्हें सबसे कम सत्ता दी जाती है।’’
इस प्रश्न के इतने भयावह होने का कारण आज़ादी मिली नहीं कि विभाजन और उससे उत्पन्न त्रासद पूर्ण, स्थिति जिसे नेता नहीं आम जनता भुगत रही थी, चलिए इन सत्ता के प्रेमियों की छवि जनता में और निखार के साथ बनी रही। अति तो तब हो जाती है जब भारत-चीन युद्ध का सबसे बड़ा झटका आम जनता को स्वप्न के आकाशगंगाओं से सीधे धरा पर ले पटकती है। और कोई स्थान नहीं छोड़ती उन्हें और अधिक भ्रम में रहने के लिए तब रघुवीर सहाय की कविता उनमें निराशा उत्पन्न करने के बजाय अपने जिंदा होने के साक्ष्य रूप में चीखने के लिए कहती हैं- बोलूँगा
नेहरू से मोहभंग जनता को हो चुका और उनकी मृत्यु होने के बाद जैसाकि पहले उनके स्वस्थ्य और उनकी चिंता मंे जनता अपने को भूली हुई थी लेकिन अब जैसाकि रघुवीर सहाय कहते हैं कि ‘देश पहले से ज्यादा मज़बूत है क्योंकि उसे अब अपनी चिंतना करती है।’
इसी समय की अभिव्यक्ति रघुवीर सहाय की काव्य संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में संकलित कविताएँ है। इसी प्रकार ‘हंसो हंसो जल्दी हंसो’ की काव्य की कविताएँ है-
‘‘चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था
सरपठ में लोहिया था और… और क्यूबा था
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था
हर जगह एक सूबेदार था, हर जगह सूबा था
अब बचा, महबूबा पर महबूबा था कैसे लिखूं।’’
जिन साधारण लोगों को सत्ता के कन्द्र में रख एकत्रित करना चाहिए और उनके बारे मंे सोचना था। वह पहले से भी जटिल स्थिति मंे फंसाई जा चुकी है इस पूंजीवादी समाज में, जिस कारण वह शोषण के आतंक के बीच असंगठित है, ‘सड़क पर रपट’ कविता में इसी शोषक समाज की ज्यादती के निरंतर बढ़ते जाने तथा शोषित मनुष्य की यंत्रणा के भयावह स्थिति को बयां किया गया है-
‘‘इस वर्ष मैंने देखा बल्कि एक दिन देखा
एक दिन अस्पताल एक दिन स्कूल के सामने
खड़ा हुआ एक लंगड़ा -बूढ़ा एक दिन नन्हा लड़का पार
जाने को एक घण्टे इंतजार में
कि कोई कार वाला गाड़ी धीमी करें’’
जनतंत्र की विडंबना यह है कि साधारण जनों को यह संवैधानिक अधिकार प्राप्त है कि वे प्रधानमंत्री हो सकते हैं लेकिन क्या वह प्रधानमंत्री बन सकता है यह प्रश्न वाज़िब है?
‘‘ इस जीवन में मैं, प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं, प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज नहीं बनूं
पर होने का अधिकार हमारा है।’’
लोकतंत्र की स्थिति इतनी भयावह है कि वह खुलकर अपने मत तो क्या वह हंस भी नहीं सकता क्योंकि-
‘‘हंसो अपने पर न हंसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
ऐसे हंसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख़्श शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे’’
रघुवीर सहाय ने ‘डॉ. लोठार लुट्से’ के साथ अपनी बातचीत में कहा है कि हर हंसी के पीछे तकलीफ छिपी हुई और बहुत बार जिस बात को आदमी की भाव से समझना आसान नहीं होता, उसे हंसी में समझ लिया जाता है।
लोकतंत्र के ढहते हुए रूप को इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त किया गया है-
‘‘निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हंसे।’’
रघुवीर सहाय लोकतंत्र के ढहते हुए रूप को न सिर्फ व्यक्त करते हैं बल्कि उसके ढहते हुए रूप को बचाने के लिए अपनी आने वाली पीढ़ी को संचत भी करते है-
‘‘इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग
जो खुशामद आदतन नहीं करता
एक दिन इसी तरह आएगा- रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय- रमेश
खतरा- होगा खतरे की घंटी होगी
पर उसे बादशाह बजाएगा- रमेश’’
सारांश यह है कि रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं के माध्यम से लोकतंत्र की विसंगतियों को उजागर करने की कोशिश की है जो आज भी वर्तमान है। जिस प्रकार रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ में रामदास की हत्या तय थी और हुई भी, मूक दर्शक भीड़ के सामने, जिसमें से किसी में साहस नहीं था कि वह सामने आ कर गवाही दे सकें ठीक उसी प्रकार 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में पहुँच कर भी वही घटना दोहराई जा रही है- कर्नाटक की पत्रकार गौरी की हत्या कर। उसकी किसने हत्या की, किसलिए की इन सभी सवालों के जवाब होकर भी अभी तक जवाब प्रश्नों के घेरे में है। तथाकथित हिन्दु धर्म के नाम पर मानवता का खून, सकीर्ण मानसिकता में हावी होने के कारण स्त्रियों के शैक्षिक अधिकार पर हमला (बनारस) संभवतः हमारा भारत भी फासिज़्म के चंगुल मंे गिरफ्त होता जा रहा है।
‘‘उन्हें एक दिन करनी थी रचना।
इस वर्ष पिछले वर्ष की तरह।
इसके पहले ही वे मारे गए।’’

संदर्भ ग्रंथ सूची

1. हंसो हंसो जल्दी हंसो: अमार सोनार दिल्ली, कविता
2.रघुवीर सहाय का कविकर्म- सुरेश शर्मा, अरुणोदय प्रकाशन, संस्करण-1992
3.रघुवीर सहाय, रचनावली भाग-1, पृष्ठ 142
4.आत्महत्या के विरुद्ध, ‘एक अधेड़ भारतीय आत्मा’ कविता, पृष्ठ 9
5.रघुवीर सहाय, रचनावली भाग-1
6.आत्महत्या के विरुद्ध, एक अधेड़ भारतीय आत्मा कविता, पृष्ठ 9-10
7.आत्महत्या के विरुद्ध, मेरा प्रतिनिधि कविता, पृष्ठ 16-17
8.आत्महत्या के विरुद्ध, फिल्म के बाद चीख़ कविता, पृष्ठ 54
9.आत्महत्या के विरुद्ध, फिल्म के बाद चीख़ कविता, पृष्ठ 53
10.अपने आप में बेकार कविता
11.आत्महत्या के विरुद्ध, ‘मेरा प्रतिनिधि’ कविता, पृष्ठ 18
12.रघुवीर सहाय का कविकर्म- सुरेश शर्मा, अरुणोदय प्रकाशन, संस्करण-1992
13.आत्महत्या के विरुद्ध, फिल्म के बाद चीख़ कविता, पृष्ठ 53-54
14.आत्महत्या के विरुद्ध, पृष्ठ 20-21
15.आत्महत्या के विरुद्ध, ‘लोकतंत्र की मृत्यु, पृष्ठ 37
16.हंसो हंसो जल्दी हंसो, अतुकांत चंद्रकांत कविता, पृष्ठ 56
17.हंसो हंसो जल्दी हंसो, सड़क पर रपट कविता, पृष्ठ 31-32
18.हंसो हंसो जल्दी हंसो, ‘अधिकार हमारा है’ कविता, पृष्ठ 36
19.हंसो हंसो जल्दी हंसो, कविता, पृष्ठ 25
20.हंसो हंसो जल्दी हंसो, ‘आपकी हंसी’ कविता, पृष्ठ 16
21.हंसो हंसो जल्दी हंसो, ‘आनेवाला खतरा’ कविता, पृष्ठ 10
22.हंसो हंसो जल्दी हंसो, ‘चेहरा’, कविता, पृष्ठ 22

प्रियंका चौधरी

शोधार्थी

हिन्दी विभाग

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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