सारांश: भारतीय स्वतंत्रता-आंदोलन में कस्तूरबा गाँधी के योगदान को भारतीय स्त्रियों के योगदान में शीर्ष में गिना जाता है। बा की प्रेरणा और उनके त्याग-समर्पण की भावना के परिणामस्वरूप हम भारतवासियों को महात्मा गाँधी जैसे महान व्यक्ति का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो भारत को गुलामी के बंधन से आजाद कराने के लिए मील का पत्थर साबित हुये।
बा का व्यक्तित्व अपार गुणों से युक्त था। स्वराज-प्राप्ति से लेकर महिलाओं के अधिकार के प्रति हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध वे निडरता से सामना करती थीं। उन्होंने कभी पीछे हटना नहीं सीखा, यहाँ तक कि गाँधी जी के जेल चले जाने के वक्त भी बा उनकी सभी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती थीं। अपने इन्हीं सब गुणों के कारण कस्तूरबा गाँधी भारतीय जन-साधारण की ’बा’ बन गयी।

बीज शब्द: बा, गाँधी जी, भारतीय स्वतंत्रता-आंदोलन, अंग्रेजी सरकार, सत्याग्रह आदि।

कस्तूरबा गाँधी का व्यक्तित्व किसी भी परिचय का मोहताज नहीं है। कस्तूरबा गाँधी का नाम आते ही उनको मोहनदास करमचंद गाँधी की पत्नी के रूप में याद किया जाता है, लेकिन शायद बहुत ही कम लोग जानते हैं कि भारत को गुलामी के बँधन से आजाद कराने की मुहिम में गाँधी जी का योगदान कस्तूरबा गाँधी की प्रेरणा एवं उनके त्याग तथा समर्पण का भाव है।
कस्तूरबा गाँधी स्वयं में एक महान शख्सियत थीं। वे अपार गुणों से युक्त महिला थीं। निरक्षरता के कारण उन्होंने कभी भी अपने को कमजोर एवं असहाय नहीं समझा। दृढ़-शक्ति को हथियार बनाकर उन्होंने सदा भारतीय स्वतंत्रता- आंदोलन में सक्रियता एवं सूझबूझ का परिचय दिया। उनमें अच्छे-बुरे को पहचानने की समझ एवं विवेक-शक्ति थी, बुराई का सामना निडरता से करती थीं। गलत बात पर झुकना अस्वीकार्य था। जनहित के अधिकार के प्रति सजग थीं, विशेष रूप से महिलाओं के अधिकार के प्रति हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध डटकर सामना करती थीं। यहाँ तक कि गाँधी जी को चेतावनी देने से भी नहीं चूकती थीं। स्वयं गाँधी जी ने स्वीकारा है कि “जो लोग मेरे और बा के निकट संपर्क में आए हैं, उनमें अधिक संख्या तो ऐसे ही लोगों की हैं, जो मेरी अपेक्षा बा पर अनेक गुनी अधिक श्रद्धा रखते हैं।“1
कस्तूरबा गाँधी को प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा का अवसर सुलभ न होने का कारण भारतीय क्षीण मानसिकता थी, जिसके अंतर्गत लड़के स्कूल जाने योग्य थे तथा लड़कियों को घर के कामकाज में दक्ष बनाया जाता था। उस समय बाल-विवाह का प्रचलन भी जोरों पर था। काफी छोटी उम्र में ही अपने बच्चों का बाल-विवाह कर अभिभावक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना उचित समझते थे। ऐसा ही गाँधी जी एवं कस्तूरबा गाँधी के साथ भी हुआ। गाँधी जी के पिता करमचँद गाँधी एवं कस्तूरबा गाँधी के पिता अभिन्न मित्र थे तथा अपनी मित्रता को रिश्तेदारी में बदलते हुए उन्होंने गाँधी जी तथा कस्तूरबा गाँधी की सगाई 7 वर्ष की अवस्था में तथा 13 वर्ष की अल्पायु में उनका बाल-विवाह कर दिया। ऐसा व्यक्ति जिसने जिंदगी भर बाल-विवाह की कठोर शब्दों में निंदा की, वह स्वयं बाल-विवाह का भुक्तभोगी था।
बा निरक्षर थीं। वह स्वभाव से अत्यंत सीधी, स्वतंत्र और मेहनतकश महिला थीं। वे गाँधी जी के सामने आवश्यकतानुसार ही बातें करती थीं, अन्यथा चुप रहना ही उचित समझती थीं। गाँधी जी में बा को पढ़ाने का काफी उत्साह था, लेकिन दो जटिल कठिनाइयों के कारण गाँधी जी को इस कार्य में सफलता नहीं मिल पायी। पहला, बा के अंदर पढ़ाई के प्रति जिज्ञासा, इच्छा या यूँ कहें कि भूख नहीं थी। दूसरा, उस जमाने के रीति-रिवाज के अनुसार गाँधी जी घर के बड़े-बूढ़ों की मौजूदगी में अपनी पत्नी को नज़र उठाकर देख नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में उनको अपने पास बिठाकर पढ़ाई करवाना परिवार के विरुद्ध जाने जैसा था।
बा में एक ऐसा गुण भी मौजूद था, जो अन्य बहुतेरी हिन्दू स्त्रियों में कम-ज्यादा मात्रा में होता है। उन्होंने हमेशा मन हो या बेमन, ज्ञान हो या अज्ञान, गाँधी जी के पीछे चलने में ही अपने जीवन की सफलता मानी है। उन्होंने कभी भी गांधी जी के किसी भी कदम, निर्णय या लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयत्न का विरोध नहीं किया, बल्कि उसे सहर्ष स्वीकार कर उस पर निःस्वार्थ-भाव से चलना ही अपना कर्तव्य समझा है। बा का सबसे बड़ा गुण बिना किसी खींचा-तानी के गाँधी जी में स्वेच्छा से समा जाना था।
गाँधी जी ने स्वयं स्वीकारा था कि बा बहुत हठीली स्वभाव की थीं। गाँधी जी ने जब-जब किसी बात पर जोर या दबाव डालने का प्रयत्न किया, तब-तब वे अपना चाहा ही करती थीं। इस वजह से दोनों के बीच कभी-कभी थोड़े समय या लंबे समय तक मौन-व्रत की जंग चलती थी। स्वयं गांधी जी के शब्दों में, “जहां इच्छा होती वहाँ मुझसे बिना पूछे जरूर जाती। मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती, और त्यों-त्यों मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालकों के बीच बोलचाल का बंद होना एक मामूली चीज बन गयी।“2 लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे गाँधी जी जन-साधारण की सेवा में अपना सर्वस्व निःस्वार्थ-भाव से समर्पित करते गए, वैसे-वैसे बा गांधी जी के इस गुण में स्वयं को समायोजित करती गयीं। इस गुण की चरमोत्कर्षतः दोनों के ब्रह्मचर्य-व्रत के पालन में दिखलायी देती है। गांधी जी ने ब्रह्मचर्य-व्रत को अपनाया और बा ने अडिगता से उसका पालन कर अपना बना लिया। फलतः दोनों का संबंध एक सच्चे मित्र-सा बन गया। बा गाँधी जी के काम से अलग भी अपनी दुनिया बना सकती थीं, लेकिन बा ने एक मित्र, एक स्त्री तथा एक पत्नी होने के नाते अपने पति के कार्य में ही समा जाना अपना सर्वोच्च-धर्म माना। गाँधी जी की निजी सेवा को बा ने अनिवार्य तथा अटल स्थान दिया। यही कारण था कि बा ने मरते वक्त तक गाँधी जी की निजी तथा सार्वजनिक सुख-सुविधाओं का हमेशा ध्यान रखा ।
बा में अपार सहन-शक्ति तथा दृढ़ता कूट-कूट कर भरी थी। एक बार का प्रसंग है, जब बा को बार-बार रक्तस्राव की शिकायत हो जाती थी। ऐसी स्थिति में गाँधी जी के डॉक्टर मित्र ने ऑपरेशन कराने की सलाह दी, लेकिन समस्या यह थी कि कमजोर हृदय होने के कारण बा का ऑपरेशन बिना क्लोरोफॉर्म सुंधाये (बिना बेहोश किए) करना था। इस लंबे ऑपरेशन के दौरान बा के मुख पर दुःख तो दिखलायी दे रहा था, लेकिन उसे प्रकट करने के लिए बा ने उफ्फ तक नहीं की। सफल ऑपरेशन होने के बावजूद बा के शरीर में जरा भी सुधार न हो पाने के कारण डॉक्टर मित्र ने माँस का शोरबा दवा के रूप में पीने की सलाह दी, लेकिन बा ने दृढ़ता-पूर्वक माँस का शोरबा पीने से मना करते हुए गाँधी जी को तर्क दिया कि “मैं मांस का शोरबा नहीं लूंगी। मनुष्य को देह बार-बार नहीं मिलती। चाहे आपकी गोद में मैं मर जाऊं, पर अपनी देह को भ्रष्ट नहीं होने दूंगी।“3 बा की अनोखी सहनशीलता और दृढ-शक्ति की प्रामाणिकता का परिचय इस प्रसंग के माध्यम से आसानी से लगाया जा सकता है ।
सन् 1913 की बात है, जब दक्षिण-अफ्रीका की सरकार ने एक विवाह- कानून पास किया, जिसके अंतर्गत ईसाई-धर्म के अनुसार जो विवाह हुए हों तथा जो विवाह सरकारी अदालत के रजिस्टर में दर्ज हुए हों, उन्हें छोड़कर सभी धर्मों के विवाह गैर-कानूनी तथा रद्द माने जाएंगे। इस कारण सभी विवाहित हिन्दुस्तानी स्त्रियों का दर्जा अपने पतियों की धर्मपत्नी का न होकर उनकी रखैल स्त्रियों जैसा हो गया। यह बात न तो हिन्दुस्तानी पुरुषों को स्वीकार्य थी, न ही हिंदुस्तानी स्त्रियों को। जब इस बात की जानकारी गाँधी जी को प्राप्त हुई, तो वे तत्काल वहाँ की सरकार से इस कानून को बातचीत के माध्यम से रद्द करना चाहे, लेकिन मुलाकात बेनतीजा सिद्ध हुई। ऐसी स्थिति में गांधी जी ने अपनी बात को मनवाने के लिए सत्याग्रह करने का निश्चय किया। इस लड़ाई में स्त्रियों को भी शामिल करने का निश्चय किया। लेकिन गाँधी जी ने इस लड़ाई में बा को शामिल होने के लिए न उकसाया, न ललचाया। यहाँ तक कि बा से इस सत्याग्रह को लेकर न उन्होंने कोई चर्चा की, क्योंकि गाँधी जी नहीं चाहते थे कि बा किसी दबाव में आकर इस सत्याग्रह का हिस्सा बनें। गाँधी जी इस बात को भली-भाँति जानते थे कि इस लड़ाई का विकराल स्वरूप स्त्रियों के जेल जाने तक का हो सकता है। ऐसे खतरनाक काम में स्त्री को अपनी स्वेच्छानुसार ही कदम उठाना बेहतर होता है, पुरुष का दबाव उचित नहीं है। बा ने जब देखा कि गाँधी जी ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो वह बड़ी दुःखी हुयीं और गांधीजी को उपालंभ दिया। फिर वह स्वेच्छानुसार सत्याग्रह में सम्मिलित हुईं और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गयीं। जेल में खाने के लिए जो भोजन दिया जाता था, वह अखाद्य था स अतः उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया। लेकिन जेल के अधिकारियों ने उनकी इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं की, अतः दूसरा रास्ता न होने की स्थिति में बा ने उपवास का सहारा लिया। पाँचवें दिन सरकार को झुकना पड़ा और बा को फल खाने की इजाजत मिली। लेकिन फल इतनी कम मात्रा में मिलते थे कि बा ने तीन महीने तक आधा उपवास करके ही समय व्यतीत किया। जब वे जेल से छूटकर बाहर आयीं तो उनका शरीर हाड़-पिंजर मात्र-सा रह गया था।
बा की स्वाभाविक और सुघड़ता-भरी सादगी के कायल स्वयं गांधी जी भी थे। किसी भी यात्रा के दौरान उनकी मंडली में सबसे छोटे-से-छोटा बिस्तर बा का ही रहता था। यहाँ तक कि उनकी छोटी-सी पेटी न तो कभी अव्यवस्थित रहती थी, न कभी उसमें सामान ठूस-ठूसकर भरा रहता था। अत्यन्त संयमी होने के बावजूद गाँधी जी का सामान बा के सामान से दोगुना रहता था। वह अपनी सादगी से सबको हरा देती थीं।
बा को हरिजनों के प्रति उदारता, प्रेम तथा लगाव आने में थोड़ा समय लगा, क्योंकि इसके पीछे उनके पुराने संस्कार थे। लेकिन विचारों के परिवर्तन के साथ बा हरिजनों की बा बन गयीं। उनका मानना था कि “ईश्वर ने सब मनुष्यों को एक जैसा बनाया है, फिर कोई मनुष्य ऊँचा तथा कोई नीचा कैसे हो सकता है? यह भावना ही गलत है।“4 यहाँ तक कि गाँधी जी तथा बा ने लक्ष्मी नामक हरिजन लड़की को अपनी पुत्री की तरह अपना लिया था।
गाँधी जी ने जब-जब सत्याग्रह के लिए उपवास किया, तब-तब बा उनका सहारा बनी। ऐसे समय पर बा स्वयं एक वक्त का फलाहार लेती थी। इसके पीछे कारण यह था कि बा यदि गाँधी जी के साथ उपवास करतीं तो वे स्वयं को गाँधी जी की सेवा करने में शारीरिक एवं मानसिक रूप में असमर्थ पातीं। इस प्रकार उन्होंने देश-सेवा और पति-सेवा-दोनों ही जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया। सत्याग्रह के दौरान जब कभी गाँधी जी जेल गये। तब उनके स्थान पर बा ने गांधी जी के अधूरे कार्य को पूर्ण किया। स्वयं गाँंव-गाँव घूम-घूमकर गाँववासियों को जागरूक किया तथा सहारा दिया। बा आश्रम की व्यवस्था के साथ-साथ प्रत्येक आश्रमवासी का भी पूरा-पूरा ध्यान रखती थीं, आश्रमवासियों की समस्या को वे स्वयं अपनी समस्या समझती थीं, जिस प्रकार घर में माँ अपने बालकों की सुख-सुविधा का हमेशा ध्यान रखती है, उसी प्रकार आश्रम में बा आश्रमवासियों की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती थीं। यहाँ हम कह सकते हैं कि वह आश्रम की जीवन- प्राणदायिनी थी।
सन् 1932 की बात है, आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेज सरकार ने बा को गिरफ्तार कर जेल के ’सी’ वर्ग में रख दिया। गाँधी जी के एक अंग्रेज साथी मिस्टर हेनरी पोलाक ने ’लीडर’ पत्र के ’लंदन लेटर’ नामक विभाग में इसके खिलाफ कड़ा पत्र लिखा। इस बात से प्रभावित होकर सरदार वल्लभभाई पटेल ने गाँधी जी से कहा कि “बा की स्थिति से तो किसी को भी दुःख हुए बिना नहीं रहेगा। बा अहिंसा की मूर्ति हैं। अहिंसा की ऐसी छाप मैंने दूसरी किसी भी स्त्री के मुँह पर नहीं देखी। उनकी अपार नम्रता, उनकी सरलता, किसी को भी आश्चर्य में डाल सकती है।“5 लेकिन उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि कारागार की सजा भुगतकर उन्होंने कोई असाधारण-सा काम किया है। उन्होंने देश के प्रति बड़े-बड़े बलिदान किए, स्वेच्छा से गरीबी को अपनाया, अपने सर्वस्व को छोड़ा, पति के साथ रहते हुए भी ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया और यह सब सहज-भाव से अपनाया, किसी के दबाव में या जोर-जबरदस्ती से नहीं।
जी. रामचंद्रन, गांधी जी एवं कस्तूरबा गांधी के बारे में लिखते हैं कि “भारत और विश्व के इतिहास पर बापू के पदचिन्ह अंकित हैं। पर इन चिन्हो के पीछे और इनकी अतल गहराई में बा की मूरत समाई हुई है। दोनों एक-दूसरे की शक्ति थे, एक-दूसरे के पूरक थे। एक-दूसरे के बिना अपने आरोहण में वे इतने ऊँचे नहीं उठ पाते, जिस कारण उनकी एक तेजोमय विरासत भारत और दुनिया को मिली है।“6
’भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान अंग्रेज सरकार ने गाँधी जी समेत कांग्रेस के सभी शीर्ष नेताओं को 9 अगस्त, 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसके पश्चात् बा ने शिवाजी पार्क से अपना भाषण देने का सुनिश्चय किया, किन्तु उन्हें वहाँ पहुँचते ही गिरफ्तार कर लिया गया। पुणे के आगा खाँ महल में उन्हें रखा गया, जहाँ गाँधी जी पहले से ही थे। उस समय वे अस्वस्थ चल रही थीं, गिरफ्तारी के बाद उनके स्वास्थ्य में संतोषजनक सुधार नहीं हुआ। जनवरी, 1944 में उन्हें जेल में दो बार दिल का दौरा पड़ा। उनके आग्रह पर अंग्रेज सरकार ने आयुर्वेद के डॉक्टर का प्रबंध भी कर दिया, जिससे उनको कुछ समय के लिए थोड़ा आराम भी मिला, पर 22 फरवरी, 1944 को उन्हें एक बार फिर भयंकर दिल का दौरा पड़ा और वह हमेशा के लिए इहलोक छोड़कर परलोक चली गयीं।
स्वयं गाँधी जी ने अपने जीवन में बा के महत्त्व को बताते हुए कहा कि “बा मेरे जीवन में ताने-बाने की तरह एकरूप हो गई थी। उसके चले जाने से मेरा जीवन बिल्कुल सूना पड़ गया है।“7
मानवता की सेवा का संकल्प लेकर जब गाँधी जी स्वदेश लौटे, तब उनकी सक्रिय भागीदारी के परिणामस्वरुप जन-मानस के मन में परतंत्र भारत को स्वतंत्र भारत के रूप में देखने का नया विश्वास जागा और इसी विश्वास के फलस्वरुप गाँधी जी ने जन-साधारण के बीच ’बापू’ के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। वहीं उनकी पत्नी कस्तूरबा, गाँधी जी की छाया बनकर हमेशा पूर्ण तत्परता तथा कर्मठता के साथ अपना सहयोग देती रहीं। उनके इसी समर्पण और तेजस्विता का कमाल था कि वह जन-साधारण की ’बा’ बन गयीं। यहाँ तक की गांधी जी भी उन्हें ’बा’ संबोधन से ही पुकारते थे।

सन्दर्भ-
1. बा और बापू, संपा. मुकुलभाई कलार्थी, अनु. सोमेश्वर पुरोहित, प्र.सं. 1962, प्रका. नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, प्रसंग: सेवाग्राम के सयाने आदमी।
2. गाँधी, मोहनदास करमचन्द: सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अनु. काशिनाथ त्रिवेदी, प्रका. नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, प्रसंग: पतित्व, पृ.सं. 16.
3. वही, प्रसंग: पत्नी की दृढ़ता, पृ.सं. 357.
4. बा और बापू, संपा. मुकुलभाई कलार्थी, अनु. सोमेश्वर पुरोहित, प्र.सं. 1962, प्रका. नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, प्रसंग: हरिजनों की बा।
5. वही, प्रसंग: बा का गुणगान।
6. बराडे, डॉ. संध्या: कस्तूरबा, . सं. 2002 वाणी प्रकाशन, पृष्ठ सं.-135.
7. बा और बापू, संपा. मुकुलभाई कलार्थी, अनु. सोमेश्वर पुरोहित, प्र.सं. 1962, प्रका. नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, प्रसंग: बापू के जीवन में बा का स्थान।

डॉ. अनामिका जैन

असिस्टेंट प्रोफेसर

हिन्दी विभाग

जैन कन्या पाठशाला पी.जी. कॉलेज

मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश

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