भारतीय इतिहास का मध्यकाल कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। यह वही दौर है जब भारत की धरती पर मुसलमानों का विधिवत् शासन स्थापित हुआ था। इसी दौर में भक्ति ने एक अखिल भारतीय आन्दोलन का रूप लिया था। हालाँकि जनसाधारण की भौतिक स्थितियों में परिवर्तन की अपेक्षा ‘वैयक्तिक मुक्ति’ एवं ‘रहस्यात्मक मिलन’ पर जोर देने के कारण सतीश चन्द्र जैसे इतिहासकार इसे जनान्दोलन नहीं मानते। फिर भी इसकी अन्तःप्रकृति और व्याप्ति को देखते हुए इसे भारतीय साहित्य की अभूतपूर्व घटना तो कहा ही जा सकता है। उस दौर में भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में भक्ति साहित्य रचा गया। प्रेम, सौहार्द्र, करुणा, समता, देसीपन, सामन्ती मूल्यों का प्रतिकार तथा बहुभाषिकता की प्रवृत्ति इनमें समान रूप से मिलती है। मध्यकालीन समाज के सन्दर्भ में भक्ति के मानवीय आशयों को देखते हुए इसे कुछ अर्थों में आधुनिक भी कहा जा सकता है। दक्षिण के आलवार सन्तों को भक्ति का पुरस्कर्ता कहा जाता है। वहीं यह फली-फूली। बाद में चलकर उसने उत्तर भारत की यात्रा की। जब हम मध्यकालीन इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो मालूम पड़ता है कि उस समय का समाज वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता और ऊँच-नीच के भेदभाव से आक्रान्त था। निचले पायदान पर अवस्थित समुदायों का जीवन अनेक प्रकार के शोषण एवं दमन के कारण दयनीय स्थिति में था। यह भी उल्लेखनीय है कि देश में मुसलमानों का शासन स्थापित हो जाने के बाद भी यहाँ के सामाजिक ढाँचे में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ। अछूतों के लिए मन्दिर में प्रवेश वर्जित बना रहा। उन्हें तो जन्म से ही भेदभाव की पीड़ा सहन करनी पड़ती रही है। ऐसी स्थिति में भक्ति का उदय किसी चमत्कार से कम नहीं था। भक्ति ने ईश्वर की उपासना का द्वार सबके लिए खोल दिया। उसके सामने न कोई ब्राह्मण था, न कोई शूद्र; न कोई ऊँचा था और न ही कोई नीचा। भक्ति के सामने सभी बराबर थे। भक्ति की इस लोकतान्त्रिक प्रवृत्ति ने समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित किया। जिनके लिए वेद-शास्त्र पढ़ने की अनुमति नहीं थी और जो देवस्थानों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, उनके लिए भक्ति से अच्छा और सहज-सुलभ मार्ग दूसरा क्या हो सकता था? जातिगत श्रेष्ठता, कट्टरता, अस्पृश्यता, विषमता और पाषण्ड के लिए इसमें कोई जगह नहीं थी। इसका नारा था ‘जात-पात पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’। इसलिए निचली जाति के लोगों पर अपेक्षाकृत इसका अधिक प्रभाव पड़ा। तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में जब भरत कहते हैं कि ‘अरथ न धरम न काम रुचि, पद न चहौं निर्वान। जनम-जनम मोंहि राम पद, यह वरदान न आन।’ तो वे भक्ति की विचारधारा में निहित आशय को ही अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे होते हैं। तुलसी ने यह भी लिखा है कि ‘कलिजुग केवल नाम अधारा, सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा’। भक्ति के लिए न किसी धर्मग्रन्थ की आवश्यकता है, न कर्मकाण्ड की और न ही पुरोहित की। भक्त और भगवान् के बीच अगर तीसरे की जगह है तो वह है गुरु, जिसका काम अपने शिष्य को रास्ता दिखाना भर है। बाकी काम भक्त को खुद ही करना पड़ता है।
भक्ति मार्ग में भक्त और भगवान के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध बतय गया है। सरलता एवं सहजता भक्ति की अनिवार्य शर्त है, कुछ-कुछ घनानन्द के ‘अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं’ की तरह। कोई भी भक्त रैदास के ‘प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी’ की तरह ईश्वर की निकटता प्राप्त कर सकता है। भक्त की सार्थकता इस बात में निहित है कि वह अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को ईश्वर के समक्ष समर्पित कर दे। इसमें उसका अहंकार भी शामिल है। सबसे पहले उसे अपने अहंकार का ही समर्पण करना होता है। भक्ति की यह पहली शर्त है। भक्त न तो स्वयं को श्रेष्ठ मानता है, न ही किसी दूसरे के सामने सिर झुकाता है। उसका सिर अगर झुकता है तो सिर्फ़ अपने आराध्य के सम्मुख। उसके लिए सब कुछ आराध्य ही होता है। ऐसी ही भावदशा के साथ भक्ति की भावधारा प्रवाहित हुई थी जिसने न जाने कितने टूटे-बिखरे-विषण्ण हृदयों को सम्बल प्रदान किया। उनमें अलौकिक अनुभूति का संचार किया। भक्तकवियों ने ईश्वर को बालक, दास, सखा और पत्नी आदि संज्ञाओं से सम्बोधित किया है। भक्तिकाव्य जब एकाधिकारवादी सत्ता और विलासिता में आकण्ठ डूबे सामन्तवाद का विरोेध करता है तो उसकी यह मुद्रा उसे आधुनिकता के निकट खड़ा कर देती है। किसी भी भक्तकवि ने किसी राजा के दरबार में कोर्निश नहीं बजायी, सधुआई का डंका नहीं पीटा, महन्त बनकर विलासिता का जीवन नहीं बिताया। भक्तकवियों ने जीवन एवं कर्म में एकता रखते हुए सरल और सहज बने रहने का प्रयास किया। उसने संवेदना एवं भाषा के धरातल पर जनसाधारण तथा उपेक्षित-वंचित समुदायों से जुड़ने को ही प्राथमिकता दी। तुलसी के राम जब समाज के उपेक्षित-अभावग्रस्त जनों, यथा निषादराज गुह, केवट, शबरी, जटायू आदि को आत्मीयता एवं महत्व देते हैं; तो वे भक्ति की विचारधारा को रचना के धरातल पर मूर्त कर रहे होते हैं। भक्तिकाव्य ईश्वर के नाम को महत्व देता है। प्रेम और विश्वास इसका सारतत्व है। कबीर ने जब कहा कि ‘प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय।।’ तो यह सीस और कुछ नहीं, अहंकार ही है जिसे भक्तकवियों ने ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग की सबसे बडी बाधा बताया है। इसके विसर्जन को सभी ने आवश्यक माना है। चाहे ईश्वर की भक्ति हो अथवा सन्तमिलन की इच्छा, अहंकार का परित्याग पहली शर्त है। यह अहंकार मध्यकालीन समाज में प्रभुवर्ग के भीतर गहरे तक समाहित था। इसे निकाले बिना ऊँच-नीच के भेद को कम नहीं किया जा सकता था। भक्तिकाव्य ने इस भेद को मिटाने की भरसक कोशिश की। आज के समाज में जब लोगों की महत्वाकांक्षाओं का आकाश निरन्तर विस्तृत होता जा रहा हो, अहंकार के निर्लज्ज प्रदर्शन की होड़ लगी हुई हो; ऐसे कठिन समय में भक्तिकाव्य हमारे लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है। इसके लिए हमें संवेदनशील एवं विनम्र बनकर उसके निकट जाना पड़ेगा। भक्ति के साथ प्रेम का अभिन्न सम्बन्ध है। यह प्रेम कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रसखान समेत सभी कवियों की बानियों में गूँजता है। यही प्रेम कबीर को ‘राम की बहुरिया’ बना देता है। जायसी के यहाँ ‘प्रेम की पीर’ के रूप में व्यक्त हुआ है। इसी प्रेम के वशीभूत होकर सूरदास ‘अब हौं उघरि नच्यौ चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं’ तक कहने का साहस जुटा पाते हैं। तुलसी भी इस प्रेम में अलौकिकता की अनुभूति करते हैं। राजराणी मीरा तो स्वयं को ‘मैं तो प्रेम दिवाणी’ कहते-कहते ‘कुलबोरनी’ होने का कलंक धारण करने में भी संकोच नहीं करतीं और रसखान हैं कि बारम्बार उसी ब्रजभूमि की पवित्र धूल में पैदा होने की इच्छा प्रकट करते हैं। भक्तिकाल के सभी कवियों में प्रेम की घनीभूत इच्छा व्यक्त हुई है। जायसी के यहाँ प्रेम के लौकिक तथा अलौकिक दोनों का उदात्त रूप मिलता है। ‘पिउ सो कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा हे काग। सो धनि विरहै जरि मुई, तेहि क धुआँ हम्ह लाग।।’ लिखकर जायसी ने प्रेम की सर्वाेच्चता को स्थापित कर दिया है।
भक्तकवियों की एक दूसरी विशेषता है लोकजीवन एवं जनभाषा से गहरा जुड़ाव। कहा जा सकता है कि भक्तकवियों की लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण कथ्य एवं भाषा के सम्बन्ध में इनकी जनतान्त्रिक चेतना का होना रहा है। जायसी ने रतनसेन, नागमती और पद्मावती की कथा कही, तो सूरदास ने कृष्ण एवं गोपियों के प्रेम और गोचारण संस्कृति को वर्णन का विषय बनाया। तुलसी ने राम को समाज के सामने आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया, तो कबीर ने उपेक्षित जनसमुदाय की पीड़ा को सार्वजनिक अनुभूति का विषय बना दिया। कबीर में वर्ण- व्यवस्था, पाषण्ड, विषमता, रूढ़ियों और सामाजिक विसंगतियों के प्रति जितना प्रबल प्रतिकार का भाव व्यक्त हुआ है, उतनी ही गहराई एवं सादगी के साथ मानवीय प्रेम का आग्रह भी निहित है। भक्ति के उद्भव के कारणों को लेकर विद्वान् एकमत नहीं हैं। दक्षिण और उत्तर में लोकप्रिय ‘भक्ति’ आन्दोलन अपनी-अपनी विशेष परिस्थितियों में उत्पन्न और विकसित हुए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसे ‘हतदर्प पराजित जाति की सम्पत्ति’ और मुस्लिम आक्रमण की ‘प्रतिक्रिया’ मानते हैं, जबकि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति काव्य में किसी प्रकार के प्रतिक्रियावादी भाव-विचार की उपस्थिति को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने भक्ति के प्रादुर्भाव के लिए मुसलमानों के शासन के प्रभाव को तो स्वीकार किया है, किन्तु वे इसे प्रतिक्रिया नहीं मानते। उन्होंने इसे अँगरेज़ इतिहासकारों द्वारा फैलाया गया भ्रम कहा है। ऐसा हो सकता है कि भक्ति का उदय हिन्दू-इस्लाम के पारस्परिक टकराव के कारण नहीं, तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण हुआ हो। भारतीय समाज पर इस्लाम का कुछ न कुछ प्रभाव तो पड़ा ही होगा। एक तो यही कि जाति-व्यवस्था में कुछ हलचल हुई, हालाँकि मूल ढाँचा पहले जैसा ही बना रहा। भारतीय समाज में संस्थागत धर्म के साथ-साथ लोकधर्म की धारा निरन्तर बहती रही है। लोकधर्म का लोकसंस्कृति से गहरा सम्बन्ध है। लोकसंस्कृति ने भक्तिकाव्य के उद्भव में योगदान दिया। भक्तिकाव्य में वर्णवादी व्यवस्था के विरुद्ध किसानों, शिल्पकारों तथा अस्पृश्य जातियों के क्षोभ की मुखर अभिव्यक्ति हुई है। भक्ति आन्दोलन के अधिकांश कवि निचली जातियों के बीच से ही आये थे। उन्होंने जो उपदेश दिये, उसने भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित किया। यह अकारण नहीं कि समाज की निचली जातियों ने बढ़-चढ़कर भक्ति मार्ग को अपनाया। भक्तकवियों की वाणी समतामूलक एवं भेदभाव -रहित है। उसमें समाज का व्यापक यथार्थ बोलता है। उनकी बानियों में आत्मीयता एवं अपनी मिट्टी-पानी का खाँटीपन झलकता है। जनसाधारण की पीड़ा की अनुगूँज सुनायी पड़ती है। भक्तिकाव्य ने धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को लाँघकर समूची मानवता को अपनी संवेदना में समेट लिया था। उसकी निर्गुण धारा में असंगठित किसानों, कारीगरों और अन्य निचली जातियों की मिली-जुली भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। इन कवियों की कविताएँ यदि कहीं अटपटी, खुरदुरी एवं अव्यवस्थित लगती हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। उनकी पृष्ठभूमि समाजार्थिक रूप से दुर्बल थी। वे शास्त्रीय ज्ञान की ‘सुव्यवस्थित तर्क प्रणाली’ के अध्येता नहीं थे। इसके बावजूद भक्तकवियों में असहमति का जो विवेक जाग्रत हुआ, उसने उनकी प्रतिरोध की चेतना को सुदृढ़ और उन्नत बनाया। भक्ति आन्दोलन ने सामन्ती निरंकुशता और पुरोहितों की कर्मकाण्डप्रधान पूजा-पद्धति को चुनौती देते हुए उच्चवर्णीय आचारसंहिता की अवहेलना की। मानववादी मूल्यों-मान्यताओं के प्रति आग्रह व्यक्त किया। भक्तिकाव्य में समूची मानवता के प्रति स्वीकृति का भाव निहित है।
लगभग तीन सदी से भी अधिक समय तक भारतीय समाज में अपनी सघन उपस्थिति बनाये रखने वाले भक्ति आन्दोलन पर विचार करते हुए अधिकांश विद्वानों ने उसे एक महान् ऐतिहासिक घटना के रूप में याद किया है। धर्म, समाज एवं संस्कृति के क्षेत्र में अखिल भारतीय व्याप्ति एवं प्रभाव को देखते हुए उसे मध्यकाल के एक अभिनव सांस्कृतिक जागरण तथा जनान्दोलन के रूप में देखा जाता है। यह धारणा उचित लगती है। वर्ण-व्यवस्था से आक्रान्त, सामाजिक स्तर पर ऊँच-नीच एवं भेदभाव की भावना से ग्रस्त तथा अनेक प्रकार के धार्मिक विधि-निषेधों से भरे भारतीय समाज में भक्ति आन्दोलन की भूमिका निश्चय ही अभूतपूर्व थी। समाज के लिए यह एक नया अनुभव था। मानव-सत्य एवं उसकी गरिमा को सर्वोपरि मानने वाली भक्ति आन्दोलन की विचारधारा ने समाज में प्रचलित बद्धमूल धारणाओं का निषेध किया। एकता और समानता के इस विचारधारा में सत्ताप्राप्ति की आकांक्षा के स्थान पर उदार जनतान्त्रिक समाज के निर्माण की आकांक्षा निहित है। इसे अराजनीतिक विचारधारा भी कह सकते हैं। किन्तु यह पूरा सत्य नहीं होगा। भक्तकवियों ने अपने समय के टूटते-बिखरते समाज को गम्भीरता और दायित्वबोध के साथ सम्हाला तथा उसे सरलता एवं सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनके सरोकार अत्यन्त व्यापक थे। भक्ति आन्दोलन की चेतना में जनसाधारण के कष्ट और वेदना की जैसी अनुभूति मिलती है, वह अभूतपूर्व है। निर्गुण भक्तिधारा में निचली जातियों की सर्वाधिक भागीदारी रही। यह इस बात का प्रमाण है कि भक्ति आन्दोलन ने लिंग और जाति के अवरोधों को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया था। कबीर, रैदास, दादू, सेना, पीपा, सुन्दरदास आदि सन्त कवियों की वाणी में ईश्वर की भक्ति के साथ सामाजिक सरोकारों की जैसी अभिव्यक्ति मिलती है, उसे तत्कालीन समय और समाज के सन्दर्भ में क्रान्तिकारी ही कहा जाएगा। चण्डीदास का यह कहना काफी मायने रखता है कि ‘शुनह मानुष भाई, शबार ऊपरे मानुष शतो, ताहार ऊपरे नाई।’ सन्तों की बानियाँ ऐसे ही विचारों की अनुगूँज से भरी हैं। उन्होंने समाजार्थिक विसंगतियों, शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध निर्भय होकर अपने विचार व्यक्त किये। इससे निचली जातियों में आत्मविश्वास पैदा हुआ। भक्ति आन्दोलन पर विचार करते हुए मुक्तिबोध ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं जो निश्चय ही इसके अलक्षित पहलू की ओर ध्यान खींचते हैं। उनके मन में प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? वस्तुतः जब सन्त कवियों ने सदियों से शोषण एवं दमन का शिकार होती आयी जनता के पक्ष में काव्याभिव्यक्ति की, तो सामाजिक स्तर पर उनका विरोध भी हुआ। इससे प्रभावित हुए बिना वे जनसाधारण की पीड़ा एवं यातना को व्यक्त करते रहे। सगुण भक्ति धारा के अधिकांश कवियों का सम्बन्ध ऊँची जातियों से था। सम्भव है कि वे उन संस्कारों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त न हो पाये हों जो उन्हें जाति विशेष में जन्म लेने के कारण आरम्भ से ही मिले हुए थे। वैसे भी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होना बहुत कठिन होता है। ऐसे में भक्ति आन्दोलन की विचारधारा के व्यापक प्रभाव के बावजूद ऊँची जातियों से आये भक्तों में बद्धमूल संस्कारों के कुछ एक रेशे बाकी रह गये हों तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। मूल बात है इन कवियों की समग्र अभिव्यक्ति का सारतत्व। यह सही है कि द्विजेतर भक्तकवियों के कथ्य और काव्य-भाषा अपेक्षाकृत अधिक जनतान्त्रिकता दिखती है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सगुण भक्तकवियों का भक्ति आन्दोलन की व्यापक विचारधारा से अलगाव अथवा विरोध था। कथन की भंगिमा और अनुभव की अभिव्यक्ति में अन्तर के बावजूद दोनों धाराओं के प्रयोजन में समानता एवं सहभागिता रही है। अपने सामूहिक प्रयास से भक्ति आन्दोलन ने अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण किया तथा असंगठित, असहाय एवं चेतनाशून्य जनता को जागरूक किया। भक्तकवियों ने समाज में फैली जड़ता को समाप्त करने तथा जनता को पाषण्डों से मुक्ति दिलाने का जो अप्रतिम प्रयास किया, वह समाज को उनकी ऐतिहासिक देन है। नानक, कबीर, नामदेव, रैदास, दादू, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रसखान और शेख फरीद आदि ने भारतीय समाज के समक्ष जो समतावादी विचार प्रस्तुत किया, उससे जातिवादी कठोरता के बन्धन ढीले हुए और जनसंस्कृति के विकास को गति मिली।
भक्तकवियों ने भक्त और भगवान में जिस समीपता की बात कही है, वह राजा एवं प्रजा, वर्तमान सन्दर्भ में शासक और नागरिक, के बीच विश्वास और सौहार्द की भावना से जुड़ी है। तुलसीदास के यहाँ यह विचार इस रूप में व्यक्त हुआ है-‘मोरे मन अस दृढ़ विस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।’ तुलसीदास जब राम के ‘दास’ को राम से अधिक महत्व देते हैं तो प्रकारान्तर से वे भक्ति आन्दोलन में निहित समानता के विचार को पुष्ट कर रहे होते हैं। भक्त कवियों ने आभिजात्य के दर्प को तिलांजलि देने वाले चरितनायकों को ही मानवता की सामान्य मनोभूमि पर उतारने में सफलता पायी थी। तुलसी यह कभी नहीं भूलते कि राम ब्रह्म हैं, किन्तु वे यह भी अच्छी तरह समझते हैं कि राम को शील और मर्यादा से सम्पन्न मनुष्य के रूप में अवतरित करके ही जनसाधारण के बीच प्रतिष्ठित किया जा सकता है। यही कारण है कि उन्होंने राम के प्रादुर्भाव को ‘भए प्रकट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी’ जैसे पदों का प्रयोग कर वर्णित किया, जिसमें ‘दीनदयाला’ शब्द पर ध्यान देना आवश्यक है। कबीरदास ने सांस्कृतिक सौहार्द, जायसी ने प्रेम मार्ग, तुलसीदास ने ग्राम समाज, सूरदास ने पशुचारण संस्कृति और मीराबाई ने वेदना की गहराई को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन सामन्ती संस्कृति से जनता को विमुख करने का प्रयत्न किया। भक्तिकाव्य में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना लोकजीवन का केन्द्र बनकर उपस्थित हुई। भक्ति ने पाण्डित्य, कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद और द्वैतवाद को निरस्त करते हुए अनुभव, सदाचार तथा कथनी-करनी की एकता पर बल दिया। कबीर का यह कहना कि ‘पण्डित वाद वदन्ते झूठा’ अथवा ‘मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी’ एक सायास रचनात्मक प्रयास है जिसमें गम्भीरता एवं दायित्वबोध दोनों की झलक मिलती है। भक्त और आराध्य में सीधा संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से लोकजीवन का सहारा लिया गया है। मध्यकाल का वर्गविभेद, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, वर्ण-व्यवस्था एवं जातिवाद ही उस समय का कलिकाल है जो तुलसीदास के अनुभव-जगत् से छनकर इस तरह व्यक्त हुआ है-‘कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।’ यह तत्कालीन समाजार्थिक यथार्थ की जीवन्त अभिव्यक्ति है। इस अर्थ में भक्तिकाव्य यथार्थपरक है। यह काव्यधारा जनसाधारण की पक्षधर तथा उसकी इच्छा-आकांक्षाओं से गहरे सम्बद्ध है। इसमें कोरी नारेबाजी और विचारधारा का मिथ्या प्रदर्शन नहीं है। भक्तिकाव्य में समाज, उसकी स्थिति एवं गति पर गहराई से विचार किया गया है। मानवता के प्रति वैसी करुणा, औदात्य और आत्मीयता अन्यत्र नहीं मिलती। वह सच्चे, निश्छल एवं संवेदनशील मानस की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के रूप में आज भी हमें प्रभावित करता है। सन्त कवियों में जो विद्रोही भाव मिलता है, वह अकारण नहीं है। सभी सन्त किसी न किसी रूप में शारीरिक श्रम एवं उत्पादन-व्यवस्था से जुड़े हुए थे। उन्होंने अनुभव किया कि न्याय-व्यवस्था जर्जर हो चुकी है और उत्पादन के साधनों पर शोषकों का पूर्ण अधिकार है। शासक वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसी आचारसंहिता का निर्माण किया था जिसके द्वारा वे साहित्य, राजनीति, समाज एवं संस्कृति को अपने अपनी वर्गीय चेतना के अनुरूप संचालित करने का प्रयास करते थे। समाज में स्थापित इन्हीं मूल्यों को ‘लोकवेद’ कहा गया है। सन्तों ने इस लोकवेद की मुखर आलोचना की।
भक्तिकाव्य में प्रगतिशील तत्वों की प्रधानता है। यहाँ प्रगतिशीलता से अभिप्राय मानवता की रक्षा एवं विकास के लिए समर्पित उस उदात्त विचारशीलता से है जिसमें हर तरह के भेदभाव को अस्वीकार करते, सभी को परस्पर जोड़ते हुए सभी के कल्याण पर जोर दिया गया है। भक्तिकाव्य की प्रगतिशीलता अपने समय और समाज की प्रचलित चित्तवृत्ति का निषेध करती हुई वर्तमान को विसंगतिहीन बनाने के प्रयास में भविष्य की ओर भी निर्देश कर रही थी। शासक वर्ग एवं पुराहितों के पारस्परिक गठजोड़ ने शूद्रों और अन्त्यजों की जीवन-स्थिति को असहनीय बना दिया था। इसलिए भक्तिकाव्य ने जाति-पाँति और कर्मकाण्ड के प्रति तिरस्कार का भाव व्यक्त किया। भक्तकवियों ने जनता को नाम-स्मरण का जो विचार दिया, उसमें सच्चाई और सरलता के साथ लोकतान्त्रिक विचार समाहित हैं। भक्ति आन्दोलन कोई राजनीतिक आन्दोलन नहीं था, न ही उसका कोई सुनियोजित कार्यक्रम था। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि उसने अपनी अखिल भारतीय उपस्थिति से समाज की चेतना को उद्बुद्ध तो किया ही। वह एक स्वतःस्फूर्त आन्दोलन था।
तुलसीदास के राम का जीवनचरित एक निर्वासित व्यक्ति का आख्यान है। सूरदास के कृष्ण भी अन्याय के विरोध में सन्नद्ध दिखायी देते हैं। वे जनसाधारण के कल्याण हेतु इन्द्र से भी टकराते हैं। जायसी के रतनसेन को संघर्ष में ही प्रेम की सफलता एवं सार्थकता दिखायी देती है। लोक के सन्दर्भ में तुलसीदास ने रामराज्य की परिकल्पना को सामने रखा और कबीरदास ने वर्णविहीन समाज का सपना देखा। कबीर में विद्रोह का स्वर प्रखर है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भक्तकवियों की सर्जनात्मक चेतना का एक प्रमुख आधार लोकसंस्कृति रही है। उनके कथानक, भाषा और चेतना का लोक से घनिष्ठ जुड़ाव है। उन्होंने संस्कृति के जड़ एवं प्रतिक्रियावादी तत्वों को नकारते हुए उसके मानवीय सारतत्व को ग्रहण किया। मध्ययुगीन भक्तिकाव्य में सामन्तवाद के विरुद्ध किसानों, श्रमिकों, कारीगरों तथा अन्य निचली जातियों के आक्रोश एवं संघर्ष-चेतना की सामूहिक अभिव्यक्ति हुई है। मुल्ला, पाण्डे, मन्दिर, मस्जिद, वेद, पुराण एवं पुरोहित आदि के विरोध के न जाने कितने बिम्ब भक्तिकाव्य में उभारे गये हैं। भक्तकवियों ने सामाजिक उतार-चढ़ावों, यातना, शोषण, और हर्ष-विषाद को स्वयं भोगा था। इसलिए उनकी रचनाओं में उसकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक लगती है। मानवीय संवेदना की सघनता उनकी कविताओं को उदात्त बनाती है। संवेदना का यह धरातल उनकी कविताओं की शक्ति है। सुन्दर का सपना किस प्रकार व्यक्ति को अनपेक्षित ऊँचाई एवं लोकप्रियता प्रदान करता है, भक्तिकाल के कवि इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। वर्णाश्रम धर्म के समर्थक कवि तुलसीदास भी शैव-वैष्णव, ज्ञान-भक्ति और सगुण-निर्गुण के समन्वय पर बल देते हैं। वह भक्ति का ही प्रभाव था कि राजराणी मीरा ने कुल-मर्यादा के अतिक्रमण का साहस दिखाते हुए ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ का उद्घोष किया। वह स्त्री की निजता और निर्णय का अधिकार घोषित करने का साहस था। मध्यकालीन समाज में किया गया यह उद्घोष स्त्री-चेतना वह अभिव्यक्ति थी जिसने भविष्य को भी प्रभावित किया। किसी भी साहित्य की प्रासंगिकता इस बात में निहित होती है कि उसमें जीवन को कितनी ईमानदारी और गहराई से उभारा गया है और वह भावी मानवता के लिए कितना उपयोगी है? वह हमारी विवेक-चेतना को प्रखर, संवेदनशील एवं उदात्त बनाता है। इस दृष्टि से भक्तिकाव्य आज भी हमारे लिए उतना ही उपयोगी है। भक्तकवियों ने पाप-पुण्य और सत्य-असत्य के शाश्वत संघर्ष को अपने समय के यथार्थ से जोड़कर प्रस्तुत किया। जनता ने भी उन्हें समझा। राम और कृष्ण जैसे अवतारों की गाथाओं का प्रयोजन साधारण व्यक्ति के जीवन-संघर्ष की चुनौतियों एवं जटिलताओं से जनता को परिचित कराना है। राम ने रावण के साथ हुए युद्ध में विजय का श्रेय वानर-भालुओं को दिया, कृष्ण ने ग्वाल-बालों के साथ जंगल में गाएँ चरायीं तथा गोपियों के साथ रास रचाया। समाजार्थिक दृष्टि से अपने से निम्न कोटि के वानर, भालुओं और ग्वालों के साथ ईश्वर के अवतार कहे जाने वाले राम-कृष्ण ने साहचर्य का जो सम्बन्ध स्थापित किया, वह देवत्व से नीचे उतरकर मनुष्य के रूप में ही सम्भव हो सकता है। राम-कृष्ण की मानवतावादी दृष्टि उनके सामाजिक व्यवहार से आँकी जा सकती है जब वे अन्याय का विरोध करते हुए जनसाधारण के साथ खड़ा होते हैं। तुलसी के राम एक ओर अन्याय के प्रतीक रावण को पराजित करते हैं, दूसरी ओर शबरी, गीध और निषाद जैसे उपेक्षितों के साथ आत्मीय व्यवहार करते हैं। भक्ति प्रदान करना एक तरह से निर्बल लोगों के साथ खड़ा होना और अन्याय के विरोध में उनकी सहायता करना है। संवेदनशीलता और पक्षधरता का यह धरातल भक्तकवियों में प्रचुर मात्रा में दिखायी देता है।
कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने के लिए उन्हें जिस तरह से फटकार लगायी, वह भी कम साहस का काम नहीं है। आचार्य द्विवेदी ने कबीर के जिस विद्रोही व्यक्तित्व को साहित्य के इतिहास में पहली बार विधिवत स्थापित किया, जिसमें अक्खड़ता, विद्रोह, आक्रोश एवं निर्भीकता के साथ दलित-शोषित जनसमुदाय के प्रति गहरी सहानुभूति का उल्लेख किया, वह समाज के दबे-कुचले लोगों के प्रति छटपटाहट और बेचैनी के बिना सम्भव नहीं है। भक्तिकाव्य में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह भी जनपक्षधरता का ही उदाहरण है। जनसाधारण के दैनन्दिन जीवन से जुड़ी तथा लोकचेतना की वाहक भाषाओं में अभिव्यक्ति जितनी सहज सम्प्रेष्य हो सकती थी, उतनी शिष्ट साहित्यिक भाषा में सम्भव नहीं थी। यही कारण है कि भक्तिकाव्य की भाषा में जनसाधारण ने अपने सुख-दुःख, आशा-निराशा, इच्छा- आकांक्षा एवं हर्ष-विषाद को आसानी से पहचाना और उसके साथ अपने को जोड़ लिया। जनभाषा का उपयोग भक्तिकाव्य को लोकवादी स्वरूप प्रदान करता है। इससे भक्तिकाल की कविता अभिजात वर्ग की कैद से निकलकर जनसाधारण के निकट पहुँची और उसका जनतान्त्रीकरण हुआ। भक्तकवियों द्वारा लोकगाथा, लोकोत्सव, लोकोक्ति एवं लोकभाषा के प्रयोग से तत्कालीन यथार्थ को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया जा सका। तुलसी की कविता में अवध की जनपदीय संस्कृति अनेक रूपों में व्यक्त हुई है। कबीर की भाषा ‘बेमेल खिचड़ी’ भले हो, जनसाधारण को सम्बोधित करने में समर्थ है। मीरा ने राजस्थानी में अपनी वेदना को व्यक्त किया। लोकभाषा की सम्प्रेषणीयता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अशिक्षित और गँवार कहे जाने वाले लोग भी भक्तिकालीन कविता का रसास्वादन करते हुए भाव-विह्वल हो जाते हैं। भक्तकवियों के जीवन और लेखन में निहित एकताभाव के कारण ऐसा सम्भव हो पाया है। उनकी भक्तिभावना को चुनौती नहीं दी जा सकती। भक्तकवि सामन्ती व्यवस्था के विरोध में ऐसे विकल्प की खोज करते दिखायी देते हैं जो समानता एवं न्याय के सिद्धान्त पर आधारित हो। तुलसीदास की कविता में भी इसके साक्ष्य मिलते हैं-‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।’ अथवा- ‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक। पालइ पोसइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।’ यह एक कवि की लोकोन्मुखी दृष्टि है। राजा में लोकरक्षण एवं जनता के भरण-पोषण की सामथ्र्य होनी ही चाहिए। ‘कवितावली’ में तुलसी ने अपनी ही सीमाओं का अतिक्रमण करते सामाजिक भावबोध को अधिक स्पष्ट किया है। उन्होंने दुर्भिक्ष पर मार्मिक पंक्तियाँ लिखीं जिससे तत्कालीन समाजार्थिक स्थिति का पता चलता है। ‘जाके नख अरु जटा बिसाला। सो तापस प्रसिद्ध कलिकाला।’ लिखकर तुलसी ने बाह्याडम्बर पर ही चोट नहीं की, बल्कि उन्होंने भक्ति के सहज मार्ग का निदर्शन किया और अपने समकालीन समाज की विकृतियों के बहाने जनसमुदाय को भविष्य के प्रति चेतावनी भी दी।
भक्ति आन्दोलन समस्त भारतीय आन्दोलनों में अपनी व्याप्ति एवं प्रभाव के लिए जाना जाता है। इस आन्दोलन ने ब्राह्मण-शूद्र, धनी-निर्धन, राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष और हिन्दू-मुसलमान आदि का भेदभाव भुलाकर सभी को एक धरातल पर लाने का जैसा प्रयास किया, वह दुर्लभ है। भक्ति आन्दोलन के नायक प्रायः अशिक्षित थे, फिर भी उनकी संवेदना का धरातल इतना ऊँचा था कि उसे देखकर विस्मय होता है। उनमें शिक्षित वर्ग की चतुराई, अवसरवादिता, निहित स्वार्थ और स्वयं को प्रस्थापित करने की महŸवाकांक्षा का सर्वथा अभाव था। उनके आचरण में शुचिता थी। इसलिए लोग उनकी बातों पर विश्वास करते थे। आज के राजनेताओं, आन्दोलनकारियों और धर्माधिकारियों को उनसे सीखना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं पा रहा है। भक्ति आन्दोलन की अन्तर्निहित चेतना ने विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक समुदायों के एकीकरण में ऐतिहासिक भूमिका निभायी। इस आन्दोलन में निहित परिवर्तन की चेतना पर पुनर्विचार करने और उसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। निर्गुण धारा के कवियों में समाजार्थिक परिवर्तन की चेतना सगुण धारा के कवियों की अपेक्षा तीव्र है। सगुण धारा के कवियों ने समन्वय पर अधिक बल दिया है, जबकि निर्गुण धारा के कवियों ने सामाजिक व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन के मुद्दे को प्राथमिकता से उठाया है। भक्ति के स्वरूप और सामाजिक ढाँचे के बारे में निर्गुण-सगुण कवियों में भले ही मतभेद हों, किन्तु वृहत्तर सन्दर्भ में दोनों धाराओं के बीच टकराव को इंगित करना अनावश्यक है। भक्तिकाव्य एक उदार एवं नितान्त मानवीय, किन्तु अराजनीतिक काव्यान्दोलन था। इसमें हिन्दू- मुसलमान, ब्राह्मण-शूद्र तथा स्त्री-पुरुष सभी के लिए अपनी-अपनी भूमिका निभाने का अवसर था। इस आन्दोलन की विशेषता यह थी कि इसमें आस्था और विश्वास के साथ प्रगतिशील मानवीय मूल्यों के संरक्षण पर भी जोर दिया गया है।
भक्तकवियों ने संश्लेषण पर बल दिया है। उसमें व्यक्ति, समाज, जाति, सम्प्रदाय, भाषा और क्षेत्र को परस्पर जोड़ने का आग्रह है। भक्तकवि वस्तुतः लोकचेतना के वाहक हैं। उनकी संवेदना का धरातल इतना ऊँचा और विस्तृत है कि वे उपेक्षित-पीड़ित जनता की वेदना को अपनी सर्जनात्मकता का हिस्सा बना लेते हैं। इसलिए उनकी कविता को सिर्फ़ एक भक्त की आस्था-विश्वास-प्रेम तक सीमित करके देचाना उचित नहीं होगा। उनके सामाजिक सरोकारों पर बात किये बिना हम भक्तिकाव्य के मर्म को नहीं समझ सकते। भक्ति आन्दोलन किसी धर्म की स्थापना का प्रयास नहीं था। यह संस्थागत धर्म में गहरे तक पैठी रूढ़ियों एवं विकृतियों के विरुद्ध मनुष्य की गरिमा को प्रतिष्ठित करने वाला ऐसा आन्दोलन था जिसकी व्याप्ति अखिल भारतीय थी। बिना किसी भेदभाव के मानवमात्र के कल्याण की कामना लेकर चलने वाले भक्ति आन्दोलन से जुड़े सभी कवियों ने एक सुर में मनुष्यविरोधी विचारों एवं कार्यों का साहस के साथ खण्डन तथा करुणा, प्रेम, सौहार्द्र एवं समता आदि मानवीय मूल्यों को समाज की चेतना में विस्तीर्ण करने का भरसक प्रयास किया। यहाँ मैं धर्मवीर भारती के शब्दों को उद्धृत करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। उन्होंने लिखा है कि ‘जब भी कोई व्यक्ति अनासक्त होकर चुनौती देता है, उसी क्षण नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।’ इसमें कोई दो राय नहीं कि भक्तकवि अनासक्त थे। उनके भीतर परिवर्तन की चेतना थी। भक्तिकाव्य ऐसी सामथ्र्य से भरा साहित्य है जिसके मूल्य कभी क्षरित नहीं होंगे। वह कालजयी साहित्य है। उसके प्रत्येक शब्द में यह अनुगूँज सुनायी पड़ती है कि ‘हम सबको साथ रहना है अन्यथा हम नष्ट हो जाएँगे’। ऐतिहासिक कारणों से कालान्तर में भक्तिकाव्य अपेक्षानुरूप अपना प्रभाव बनाये नहीं रख सका। फिर भी लगातार संवेदनहीन, लालची, संकीर्ण एवं असहिष्णु होते जा रहे समाज में भक्तिकाव्य की प्रासंगिकता पहले से अधिक बढ़ गयी है। उसकी लोकोन्मुखी परम्परा में निहित आधुनिक भावबोध वर्तमान की चुनौतियों से लड़ने में हमारी मदद कर सकता है। उसका सन्देश सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। इसलिए वह समाज के लिए सदैव मूल्यवान् और उपयोगी बना रहेगा।

राम विनय शर्मा

 

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