भाषा एक समाज सापेक्ष प्रतीक व्यवस्था है। वह समाज के सापेक्षता में ही जीवित रह सकता है तथा उसका विकास भी समाज के भीतर ही होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मनुष्य द्वारा विशेष सामाजिक संदर्भों में भाषा प्रयोग के जो नियम अपनाए जाते हैं, उसे जानना ही सही अर्थ में भाषा तथा उसके व्याकरण को जानना है। भाषा का समाज से संबंध स्वीकारते हुए भाषा के अध्ययन के पफलस्वरूप ही समाज भाषाविज्ञान का जन्म हुआ। यह भाषाविज्ञान की एक नवीन शाखा है। पाश्चात्य भाषाविद् आर.ए.हडसन के अनुसार- ‘‘समाज के संदर्भ में भाषा का अध्ययन ही समाज भाषाविज्ञान है। अंतर्राष्ट्रीय तौर पर इसे भाषा के अध्ययन का एक अंग माना गया है। इस प्रकार समाज भाषाविज्ञान का सिद्धांत सामान्य रूप में भाषा की प्रकृति अथवा किसी निश्चित भाषा के गुणों को प्रकाशित करना है।’’1 यहाँ ‘भाषा की प्रकृति’ (Nature of Language) से तात्पर्य सामाजिक संदर्भ में भाषा को स्पष्ट करने से है। व्यक्ति अपने विभिन्न प्रयोजनों के लिए एक ही समय में विभिन्न भाषा का प्रयोग कर सकता है जिसे हम सामान्य रूप से व्यक्ति की बहुभाषिक स्थिति कहते हैं। बहुभाषिकता (Multilingualism) समाज भाषाविज्ञान की एक महत्वपूर्ण संकल्पना है। यहाँ बहुभाषिकता का समाज भाषावैज्ञानिक अध्ययन से तात्पर्य बहुभाषिकता को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखने से है। आधुनिक मान्यता के अनुसार समुदाय परक प्रयोग के अन्तर्गत दो से अधिक भाषाओं का प्रयोग ही बहुभाषिकता की वास्तविक स्थिति है। डाॅ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के अनुसार- ‘‘समुदायपरक बहुभाषिकता एक बहुभाषी देश के समाज की व्यापक संचार व्यवस्था का एक उपांग बनकर सिद्ध होती है।’’2
आम तौर पर बहुभाषिकता के प्रयोग के दो स्तर माने जाते हैं-
(क) व्यक्तिपरक (ख) समुदायपरक। व्यक्तिपरक बहुभाषिकता उस भाषा समुदाय में देखने को मिलता है जहाँ प्रायः एक भाषा का प्रयोग होता है। इसमें कोई व्यक्ति अपने ज्ञान या अन्य व्यक्तिक प्रयोजनों के लिए अन्य भाषा को सीखता है। कोई जापानी या चीनी व्यक्ति अपने देश में जब हिंदी भाषा सीखता है तो उसका प्रयोजन हिंदी के माध्यम से अपने समाज में भावों एवं विचारों का संप्रेषण करना नहीं होता, बल्कि उसका प्रयोजन व्यक्तिक होता है। इसके विपरित समुदायपरक बहुभाषिकता में कई भाषाएँ समाज की संप्रेषण व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में उपस्थित रहती हैं। इसमें किसी निश्चित सामाजिक संदर्भ में विभिन्न भाषाओं का प्रयोग होता है। उदाहरण के तौर पर हम भारत के हिंदी प्रदेश को देख सकते है। दिल्ली में रहने वाला कोई पंजाबी व्यक्ति अपने परिवार में पंजाबी भाषा बोलता है। घर से बाहर समाज में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वह हिंदी का व्यवहार करता है तथा इसी प्रकार विभिन्न संदर्भों में व्यवहार हेतु वह अंग्रेशी भाषा का भी ज्ञान अर्जित कर लेता है। पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी एक शिक्षित व्यक्ति को कम से कम तीन भाषा का ज्ञान लोगों का होता है। इन्हें अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का ज्ञान होता है। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क साधने के लिए अंग्रेजी भाषा को भी ये लोग सीख लेते है। भारत में अंग्रेजी केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क करने का ही साधन नहीं है। भारतीय संविधन में यह राजभाषा के रूप में भी स्वीकृत है। समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए भी लोग अंग्रेजी की ओर प्रवृत होते हैं। यह किसी व्यक्ति का शिक्षित तथा उच्चवर्ग से होने का भी संकेत देता है। इस प्रकार से बहुभाषिकता के संदर्भ में हम यह देख सकते हैं कि बहुभाषी समाज में एक भाषा हर प्रकार के प्रयोजन में सिद्ध नहीं हो सकती है और न ही एक संदर्भ के लिए कई भाषाओं का प्रयोग होता है। अतः विभिन्न भाषाओं का प्रयोग क्षेत्र अपने सामाजिक संदर्भ के अनुसार निश्चित होता है।
बहुभाषिकता और द्विभाषिकता में अंतर है। द्विभाषिकता दो भाषाओं के वैकल्पिक प्रयोग की स्थिति है तथा बहुभाषिकता दो से अधिक भाषाओं के वैकल्पिक प्रयोग की स्थिति है। इसी प्रकार से बहुभाषिकता और भाषाद्वैत की स्थिति में भी अंतर है। यदि कोई हिंदी भाषी क्षेत्रिय स्तर पर किसी अन्य भाषा ;बंगला, मराठी, उड़िया आदि से जुड़ता है तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी से जुड़ता है तो वह बहुभाषिकता की स्थिति मानी जायेगी। किंतु यदि कोई व्यक्ति एक स्तर पर हिंदी का तथा दूसरे स्तर पर हिंदी की विभिन्न बोलियों अथवा शैलियों का प्रयोग करता है, तो वह भाषा की स्थिति मानी जाती है। कई विद्वानों ने भाषाद्वैत की स्थिति को बहुभाषिकता या द्विभाषिकता के अंतर्गत रखने का भी आग्रह किया है। इस संदर्भ में प्रो. रमाकान्त अग्निहोत्राी ने कहा है कि- ‘‘बहुभाषी होने का एक अर्थ यह है कि मैं अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन बोलने वालों से इन्हीं भाषाओं में बात करता हूँ। लेकिन बहुभाषी होने का अर्थ यह भी है कि मैं अपनी एक ही भाषा में ऐसी ‘फाइन ट्यूनिंग’ करना जानता हूँ कि उसी भाषा में अपने पिता से एक तरह से बात करता हूँ, अपनी माँ से दूसरी तरह से बात करता हूँ, अपने बच्चों से तीसरी तरह से बात करता हूँ और जब लिखता हूँ या विद्वानों की सभा में बोलता हूँ, तो पाँचवी तरह से बात करता हूँ। यह भी बहुभाषिकता है।’’3
विभिन्न भाषाओं तक तो ठीक है किंतु किसी एक भाषा के वैकल्पिक प्रयोग की स्थिति को हम बहुभाषिकता या द्विभाषिकता नहीं कह सकते हैं। यह भाषाद्वैत के अंतर्गत आएगा। विभिन्न भाषाओं का ज्ञान एवं किसी एक भाषा के विभिन्न रूपों या शैलियों का ज्ञान समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से दो अलग स्थितियाँ है। यह सत्य है कि द्विभाषी अथवा बहुभाषी समाज में भी भाषाद्वैत की स्थिति देखी जा सकती हैं। किंतु इसे यदि बहुभाषिकता के अंतर्गत रखा जायेगा तो वह समाज जहाँ केवल एक भाषा का प्रयोग होता है, वहाँ उपस्थित भाषाद्वैत को हम क्या कहेंगें? निश्चित तौर पर उसे हम बहुभाषी या द्विभाषी समाज नहीं कह सकते।
समाज में बहुभाषिकता की स्थिति के साथ-साथ उसके सामाजिक प्रभाव को लेकर समाज में कई भ्रांतिपूर्ण धारणाएँ बनी हुई है। प्रसिद्ध समाज भाषावैज्ञानिक फिशमैन का कहना है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था में भाषा के स्तर पर विषमरूपता तथा कई भाषाओं का प्रयोग उसके सामाजिक-आर्थिक विकास पर नकरात्मक प्रभाव डालता है। उनका मानना है कि जिस देश में केवल एक भाषा का प्रयोग होता है, वह देश आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक दृष्टि से अधिक विकसित एवं संतुलित होता है। अतः भाषाई स्तर पर प्रत्येक देश या समाज को एकभाषी होना चाहिए। किंतु यदि हम तथ्यों पर विचार करें तो पायेंगे कि ऐसे कई देश है जो भाषा की दृष्टि से विषमरूपी होने के बावजूद विकसित है। उदाहरण स्वरूप कनाडा, स्विटजरलैण्ड, सोवियत संघ, बेल्जियम आदि देश को देखा जा सकते हैं। इसी प्रकार ब्राजील, उत्तर कोरिया, लीबिया, यमन आदि ऐसे देश है जो भाषाई स्तर पर समरूपी होने के बावजूद विकसित नहीं है। अतः इस आधर पर यह मानना गलत है कि भारत, पाकिस्तान, नाइजीरिया, युगान्डा, इंडोनेशिया आदि देशों के अविकसित अथवा विकासशील होने का कारण उसका बहुभाषी होना है।
बहुभाषिकता के संदर्भ में एक भ्रांत धारणा यह भी है कि यह मानव मन की सृजनात्मक क्षमता को बाधित करती है। इस मत को मानने वाले विद्वानों का कहना है कि दो अथवा उससे अधिक भाषा सीखने में व्यक्ति द्वारा जितना समय एवं श्रम लगता है, उतने में वह किसी एक भाषा पर पूर्णतः अधिकार प्राप्त कर सकता है। हेनरी स्वीट, यस्पर्सन आदि विद्वानों के अनुसार कोई भी द्विभाषी व्यक्ति महान साहित्य का सृजन नहीं कर सकता। किंतु साहित्य के इतिहास को देखने पर यह धरणा भी गलत सिद्ध होती है। हिंदी साहित्य के महान कवि तुलसीदास का अवधी, ब्रज एवं संस्कृत भाषा में समान अधिकार था। रवीन्द्रनाथ टैगोर बंगला के साथ-साथ अंग्रेजी का भी ज्ञान रखते थे। हिंदी साहित्य में रामविलास शर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ आदि का हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों पर समान अध्किार था।
रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने भी इस मत का खण्डन करते हुए कहा है कि ‘‘सैमुअल बेकेट प्रफांसीसी और अंग्रेशी दोनों ही भाषाओं के आंतरिक सौन्दर्य को सहज रूप में सार्थक अभिव्यक्ति देने में सक्षम थे, हाइने फ्रांसीसी और जर्मन दोनों ही भाषाओं में समान रूप से संवेदनशील कविता करने में अद्वितीय क्षमता रखते थे। काफ्का चेक, जर्मन और यिद्वी एक साथ तीन-तीन भाषाओं में कविता करने का दबाव महसूस करते रहें।’’4
सत्य तो यह है कि साहित्य के क्षेत्रा में एक भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषा का ज्ञान रचनाकार की सृजनात्मकता को नया आयाम देती है। वह केवल एक भाषा ही नहीं, बल्कि उसके प्रयोग करने वाले समुदाय की रीतिरिवाज, रहन-सहन, अनुभव, चिन्तन एवं संस्कृति से भी परिचित होता है। अतः अन्य भाषा का ज्ञान रचनाकार के अनुभव चिन्तन एवं कल्पना के संसार को कुण्ठित करने के बजाय और विस्तार देती है।
भारत एक बहुभाषा-भाषी देश है। यहाँ बाईस भाषाएँ संविधन में स्वीकृत है। यह भाषागत बहुलता इसकी भाषाई समृद्धि का ही बोध कराता है। डाॅ. नामवर सिंह ने इस संदर्भ में कहा है कि -‘‘हमारे यहाँ जिनको अनपढ़ कहते हैं, वे भी लम्बी परंपरा से इस देश में घूमने के कारण चाहे तीर्थाटन के लिए जाते रहे हो, भ्रमण के लिए जाते रहे हो, एक लम्बे अरसे से एक साथ कम से कम द्विभाषी तो हर आदमी है। तीन भाषाएँ, चार भाषाएँ वह बोलता है, जानता है। यह बहुभाषिकता हमारे यहाँ संस्कार में है।’’5 वहीं कुछ लोगों के विचार से यह समस्या पैदा करने वाला भी है। भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधर पर ही किया गया है। 1956 ई. में जहाँ राज्यों की कुल संख्या सोलह थी। वह आज अठाईस में अल्पसंख्यक भाषा-भाषी अपने को दूसरे से अलगाने के लिए भाषाई अस्मिता का भी सहारा लेते हैं। आज पश्चिम बंगाल से गौरखालैंड, उत्तर प्रदेश से पूर्वांचल को अलग करने की मांग के पीछे भाषा भेद की भी प्रमुख भूमिका है। किंतु अपनी भाषाई अस्मिता को सिद्ध का यह कोई सार्थक उपाय नहीं है। हर राज्य में अल्पसंख्यक भाषा समुदाय के लोग बसते हैं। बहुभाषिकता भारतीय समाज के हर छोर पर है। इसके कितने भी टुकड़े क्यों न कर दें, कोई भी राज्य नितांन्त एक भाषी नहीं हो सकता है। अतः भाषा के आधर पर राज्यों को बाँटने तथा एक भाषा के विभिन्न बोलियों को संविधन के आंठवीं अनुसूची में दर्ज करने की जो होड़ है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। आज भोजपुरी को भी आधुनिक भाषा विज्ञान के मान्य सिद्धांतों के आधार पर हिंदी से अलग स्वतंत्रा भाषा के रूप में सिद्ध किया जा सकता है। किंतु भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा को अलग करके देखने का आधर हमेशा से जातीय बोध रहा है। यही कारण है कि ग्रियर्सन जैसे भाषाविद बंगला तथा असमिया भाषा में व्याकरणिक समानता और परस्पर बोध्गम्यता होने के बावजूद साहित्य और जातीय बोध की भिन्नता के कारण इन्हें अलग-अलग भाषा के रूप में स्वीकार करते हैं। किंतु उनके भाषा चिंतन का यह विरोधभाष ही है कि जब वे बिहारी ; भोजपुरी, मगही और मैथिलीद्ध की बात करते हैं तो व्याकरणिक गठन और बोधगमता को भाषा-भेद का आधार बना लेते हैं तथा हिंदी ;खड़ी बोली को बिहारी के बरक्स एक ‘विदेशी’ भाषा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अपनी पुस्तक ‘ए हैण्डबुक टु द कैथी कैरेक्टर’  में उन्होंने निष्कर्ष दिया है कि बिहारी बोलियाँ हिंदी से उतनी ही अलग है जितनी की फ्रेंच भाषा से इतालवी। लगभग उसी समय बाबू राधिका प्रसन्न मुखर्जी एवं बाबू श्यामचरण गांगुली जैसे विद्वानों ने उनके इस मत का खंडन जातीय बोध के आधार पर कर दिया था। समाज की संप्रेषण व्यवस्था का प्रमुख साध्न होने के साथ-साथ भाषा सामाजिक अस्मिता का एक सशक्त माध्यम भी है। यह निश्चित समुदाय के लोगों को भावना एवं जीवन दृष्टि के धरातल पर एक सूत्रा में बाँधती है। अतः इससे उत्पन्न जातीय बोध ही भाषा और बोली के अंतर का आधार हो सकता है। यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं है कि बिहारी बोलियों के प्रयोक्त शुरू से ही अपनी जातीय अस्मिता को हिंदी के साथ जोड़ते आए हैं।
भारत में बहुभाषिकता की स्थिति सामाजिक है। इसी कारण यह कोई समस्या नहीं है। यहाँ व्यक्ति सामाजिक संरचना के विभिन्न स्तरों पर कई भाषाओं का प्रयोग सुगमतापूर्वक कर लेता है। एक बंगाली व्यक्ति विभिन्न प्रयोजनों में बंगला, हिंदी एवं अंग्रेजी का प्रयोग करता है। इससे उसकी भाषाई अस्मिता खंडित नहीं होती है। हिंदी और उसकी बोलियों के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। दरअसल हमारे देश में बहुभाषिकता आंतरिक सामाजिक संरचना तथा समाज के विभिन्न स्तरों पर संप्रेषण की अनिवार्यता से जुड़ा हुआ मामला है। अतः यहाँ बहुभाषिकता के रूप में विभिन्न भाषा प्रयोग सामाजिक द्वैष का कारण नहीं, बल्कि सहज, समन्वित और संतुलित भाषाई व्यक्तित्व का सूचक है।

संदर्भ ग्रंथ सूची –
1. सोसियोलिंग्विस्टिक्स-आर.ए. हडसन, वैंफब्रीज यूनिवर्सिटी प्रेस, द्वितीय संस्करण, 1996, पृ. 4.
2. हिंदी भाषा का समाजशास्त्र- रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, राधकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 1994, पृ. 92.
3. भाषा और भूमंडलीकरण, सं.- रमेश उपाध्याय, संज्ञा उपाध्याय, शब्द संधन प्रकाशन, नई दिल्ली-110063, प्रथम संस्करण 2008, पृ. 29.
4. भाषाई अस्मिता और हिंदी-डाॅ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण 2008, पृ. 71.
5. भारतीय भाषाएँ और राष्ट्रीय अस्मिता, सं.- डाॅ. मुकुंद द्विवेदी, हिंदी अकादमी, दिल्ली-110007, प्रथम संस्करण 2001, पृ. 4

 

बीरेन्द्र सिंह
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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