सहचर टीम – नमस्कार,आपके पास बक्सर,दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज और जे.एन. यू. और हैदराबाद के अनुभव हैं,आपने इन चार अलग – अलग जगहों को जिया है। बक्सर ठेठ भोजपुरी का क्षेत्र,दिल्ली का माहौल और इन सबसे से परे हैदराबाद की दुनिया में अभी आप हैं। वहाँ कोई समस्या आई या निरंतरता बनी हुई है?
उत्तर- आपने सवाल ऐसा किया है जिसमें आत्मकथात्मक होने का खतरा है। मेरा बचपन मेरे लिए एक गोधूलि वेला थी, गाँव में एक टर्निंग पॉइंट याद आता है ,मेरे पिता जी के मित्र थे,विद्याधर चौबे,प्रधानाचार्य थे,एक बात उनकी कही याद आती है,वे प्रेमचन्द की किसी कहानी से एक बात बोले कि शाम होते ही गाँव का रास्ता बच्चों की आँख की तरह बंद हो जाता है । मुझे यह बात इतनी अच्छी लगी,मुझे लगा कि इस तरह से मैंने कभी सोचा ही नहीं। सातवीं तक की पढ़ाई मेरी गाँव में ही हुई। वहाँ पिता जी ने पुस्तकालय खोल रखा था,वहीं से साहित्य के प्रति मेरी रुचि बनी ,यह मेरे जिंदगी का दूसरा टर्निंग पॉइंट था। गाँव में राष्ट्रीय ग्रामीण प्रतिभा छात्रवृत्ति हेतु जब मेरा चयन हुआ जो आरा का स्कूल मुझे बहुत याद आता है। वहाँ पर पढ़ने-लिखने का संस्कार विकसित हुआ ,बेचैन होने का संस्कार विकसित हुआ,शिक्षा वही जो बेचैनी पैदा कर दे। इसी बेचैनी में दिल्ली आए। दिल्ली में पहला साल देशबंधु कॉलेज में बीता,गुजरात के वर्तमान राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली जी हमारे अध्यापक हुआ करते थे।एक साल वहाँ पढ़ने के बाद मैं किरोडीमल कॉलेज आ गया। किरोड़ीमल कॉलेज ने मुझे पहले वर्ष ही एक ज़िम्मेदारी दी,हमने वसंतोत्सव व्याख्यानमाला सम्पन्न कराई।उसमे केदारनाथ सिंह जी आए और निराला पर व्याख्यान दिया। यह व्याख्यान ही मुझे खींचकर जे.एन.यू. ले गया।वहाँ जाने पर एक बड़ी दुनिया खुली।लेकिन किरोड़ीमल कॉलेज से लगाव हमेशा रहा।किरोड़ीमल कॉलेज का ही एक अनुभव है,जाड़े का समय था और मेरे पास जूते नहीं थे,एन.एस.प्रधान. वहाँ के प्राचार्य हुआ करते थे,उनके नाम पर छात्रवृत्ति दी जाती थी,ज़रूरतमन्द छात्रों की मदद की जाती थी, रिज़ल्ट की कॉपी और विवरण मैंने दिए,चन्दन जी उस घटना के साक्षी हैं,10-15 दिन बाद तत्कालीन प्राचार्य ने मुझे 1000 रुपए का चेक़ दिया,वह चेक़ मेरी ज़िंदगी में द्विवेदी जी की रज़ाई और 25 किलो चावल की तरह है। हॉस्टल के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे,चन्दन जी ने अपने पास से फीस भर कर मुझे खबर किया था। ये दो बातें हमेशा मेरी ज़िंदगी में साथ रहेंगी जो किरोड़ीमल कॉलेज का विशिष्ट अनुभव है।
सहचर टीम – अपनी इस स्मृति को काव्य के माध्यम से आपने कहीं उकेरा है या कोई प्रयास किया है?
उत्तर- किरोड़ीमल कॉलेज ने मुझे कवि भी बनाया। कॉलेज की पत्रिका आउटलुक में दोनों साल मेरी कवितायें प्रकाशित हुईं। अखिल भारतीय स्तर पर काव्य प्रतियोगिता हुआ करती थी,उस साल हिन्दू कॉलेज में आयोजन हुआ, वहाँ मुझे दूसरा स्थान मिला और पहला स्थान तुषार धवल को मिला जो एक स्थापित कवि हैं। इस तरह मेरी रचनात्म्कता उभरी।
सहचर टीम – हम एक आदर्श पिता,आदर्श अध्यापक की बात करते हैं,आपका अध्यापन का लंबा अनुभव रहा है, क्या आपको कोई आदर्श शिष्य मिला है?
उत्तर- 20-22 साल का अध्यापन का अनुभव है, मुझे लगता है आदर्श शिष्यों की संख्या बहुत ज्यादा है। मैं इस मामले में भाग्यशाली भी हूँ। मुझे लगता है विद्यार्थियों का चयन बहुत अच्छा होता है। अभी तक जो उनसे कह पाया,बात कर पाया,जो उनको बेचैन कर सका,उनकी संख्या ज्यादा है।
सहचर टीम – प्रेमचंद लिखते हैं कि जो जहां का है यदि वहाँ का नहीं है तो जहाँ का नहीं है। लेकिन आज हम अपनी पहचान को छुपा कर जिस परिवेश में रह रहे हैं,उस परिवेश में हिंदी का विद्यार्थी अपने को साहित्य का विद्यार्थी कहने से हिचकिचाता है,ऐसे विद्यार्थियों से आपका कभी सामना हुआ ?
उत्तर- मैंने पर सोचा नहीं है और सबका दृष्टिकोण अलग-अलग है। प्रेमचंद की एक बात याद आ रही है कि रिश्तों की ईमानदारी सार्वभौम होती है। मुझे लगता है कि सारे सम्बन्धों में यह बात लागू होती है। हम राम पर बात करने के लिए एकत्रित हुए हैं,राम को ही देख लीजिये वे अपने सभी रिश्तों में ईमानदार हैं। पुत्र,भाई,पति सभी रूपों में उनकी ईमानदारी दिखाई देती है। सम्बन्धों में या आप ईमानदार होंगे या बेईमान होंगे।
सहचर टीम – आपने राम की बात की,आज हम जिस राम की बात करते हैं कबीर तो उससे बिलकुल उलट हो गए हैं। कबीर तो कहते हैं ‘पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ’,तो ऐसा नहीं लगता कि आज जिस समाज में हम रह रहे हैं उस समाज में राम के नाम पर हम बांटने का प्रयास कर रहे हैं? साहित्य का काम जोड़ना है,लेकिन आजकल ऐसे साहित्य भी लिखे जा रहे हैं जो जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम कर रहे हैं,इस पर आपका क्या विचार है?
उत्तर- लोहिया ने एक बड़ी अच्छी बात कही है,राम और कृष्ण ने इस देश को जोड़ा है।राम ने नेपाल से लेकर श्रीलंका को त्रेतायुग में जोड़ा। रामविलास शर्मा जी ने एक बात बताई कि तुलसीदास के राम भीलों से मिलते हैं,यह जुड़ाव कितना ऐतिहासिक है इसे इस रूप में देखें तो समझ आएगा कि ब्रिटिश काल तक इनका शिकार करना शेरों के शिकार करने जैसा है।लोहिया जी कहते हैं कि उत्तर से दक्षिण राम ने जोड़ा,और पूर्व से पश्चिम तक कृष्ण ने जोड़ा,यह काम द्वापर युग में हुआ।जो हमारे मिथकीय इतिहास हैं वे हमारे चिरंतन इतिहास हैं,ये हमारे राजनीतिक चरित्रों से ज्यादा भरोसेमंद हैं।लोहिया ने कहा कि एक समय आएगा जब हम अशोक को भूल जाएंगे,हर्षवर्धन को भूल जाएंगे लेकिन राम और कृष्ण हमारी चेतना में रहेंगे। इस चेतना की निर्माण प्रक्रिया जड़ नहीं है,बदलती रहती है। वाल्मीकि के राम,तुलसीदास के राम में बहुत अंतर है।हमने अपने ईश्वर को धरती पर उतारा है। वाल्मीकि से च्यवन ऋषि ने रामायण लिखी थी,वह प्रक्रिया वहीं से शुरू हो गई। वेद पुराण भी लोक की ओर देखते हैं। वाल्मीकि,भवभूति और तुलसीदास की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। बड़े प्रतीकों और बड़े मिथकों पर बात करते समय हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।आप देखिए राम से किसी को भय नहीं लगता लेकिन आज राम नवमी को राम की जो तस्वीर बनाई जा रही है उसे देखकर भय होता है।इकबाल राम को इमाम-ए-हिन्द कहते हैं,अगर राम के उस तस्वीर या मूर्ति से इमाम-ए-हिन्द का कोई भी व्यक्ति भयभीत हो रहा हो तो हमे सोचना चाहिए। मिथकों का उपयोग संभाल कर करना चाहिए। कई बार हम धर्म को छोड़ देते हैं कि इस पर बात नहीं करेंगे,क्या हुआ फिर? इसका दुरुपयोग हुआ। आप राम,कृष्ण,शिव को छोड़ देंगे तो इनका दुरुपयोग होग। हमारे सभी भक्ति कवियों ने इस विषय पर लिखा और सकारात्मक था। भक्ति काल की कविता सांप्रदायिक तो नहीं है। इस कविता पर बात करने मे तथाकथित प्रगतिशील आलोचकों को दिक्कत हो रही थी,रामविलास जी ने इसी पाखंड का विरोध किया।
सहचर टीम – आपने भक्तिकालीन राम की बात की,रीतिकालीन राम के बारे में आपका क्या विचार है?
उत्तर- रीतिकाल मे जो राम और कृष्ण का उपयोग हुआ इसमें राम से ज्यादा दुरुपयोग कृष्ण का हुआ। राम के चरित्र में कम संभावना थी इसलिए कम,कृष्ण के चरित्र में ज्यादा संभावना थी इसलिए ज्यादा दुरुपयोग हुआ। उसे इस रूप में देखा जाना चाहिए कि रीति काल में जो परंपरा दिखाई देती है उसका इतिहास संस्कृत साहित्य में छुपा हुआ है। कालिदास,जयदेव आदि को देखेँ। यह हिन्दू धर्म् की उदारता है कि हम उन मिथकों का ऐसा प्रयोग कर सकते हैं और इसे मैं नकारात्मक रूप में नहीं देखता।यह उनकी मनुष्यता का ही तो विस्तार है।
सहचर टीम – राम की लोकव्यापति के संदर्भ में उत्तर भारत में राम लीलाओं के स्वरूप ने बहुत योगदान दिया है। आप इस समय दक्षिण भारत में रह रहे हैं, वहाँ पर राम लीला का स्वरूप क्या है? यहाँ से वह किस रूप में भिन्न है?
उत्तर- भिन्न है,वहाँ की नृत्य की शैलियों में वो रामलीला करते हैं। साहित्य का देश होता है,स्थानीयता होती है,धर्म का देश हो या न हो। साहित्य और धर्म दोनों ही हमें जोड़ने का कार्य करते हैं।
सहचर टीम – आपका शोध कार्य नवजागरण पर रहा है। नवजागरण में भारतेन्दु एक प्रमुख व्यक्ति हैं,आज भारतेन्दु को लेकर दो धड़े हैं एक कहता है कि वे नवजागरण के अग्रदूत थे,दूसरा धड़ा कहता है कि वे अंग्रेजों के हितैषी थे और उसी हेतु आपने काव्य की। इस द्वंद्व पर आपका क्या मत है?
उत्तर- देखिए इस सवाल के कई शेड्स हैं,रामविलास शर्मा के नवजागरण की अवधारणा में पहला चरण 1857 है,1977 में जब वे महावीर प्रसाद द्विवेदी जी पर किताब लिख रहे थे तब उनके मन में यह अवधारणा आई। उनके सामने बांग्ला नवजागरण था,बांग्ला और हिन्दी नवजागरण के सम्बन्धों पर चर्चा हो रही थी। अपने हिसाब से उन्होने बांग्ला नवजागरण के गड़बड़ियों को पहले देखा,खूबियों को बाद में देखा। उनको गड़बड़ी ये लगी कि ये तो बुद्धिवाद का विरोध है,ये भाववाद है और इसका सूत्र उन्होने लिया रामचन्द्र शुक्ल के छायावाद वाले विचार से। शुक्ल जी ने जितनी बार अपने इतिहास में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जिक्र किया है उतनी बार लगभग नकारात्मक रूप में ही किया है।एक जगह वे कहते भी हैं कि जरूरी नहीं कि गुरुदेव यदि आसमान की ओर देखें तो सब लोग उसी ओर टकटकी लगा कर देखें। विश्व मानवता के संदर्भ में वे कहते हैं कि स्वतन्त्रता आंदोलन के लिए यह ठीक नहीं है,स्वतन्त्रता आंदोलन तब ठीक ठहरेगा जब कोई पक्ष और कोई प्रतिपक्ष होगा। प्रतिपक्ष में यदि आप मनुष्यता की तलाश करेंगे तो आप उससे लड़ेंगे कैसे?अगर रावण में राम खोजेंगे तो रावण से लड़ेंगे कैसे?और यही समस्या है,इसे ही वे भाववादी आंदोलन कहते हैं,ज़रूरी थी बुद्धि की,स्वतन्त्रता आंदोलन की चेतना के लिए भाव चाहिए,भाव चाहिए भगत सिंह बनने के लिए,लेकिन उससे पहले आपको ये बुद्धि चाहिए कि लड़ना किससे से है?रामविलास जी ने हिन्दी नवजागरण का पहला चरण भारतेन्दु युग को नहीं अपितु 1857 को माना। वे बांग्ला नवजागरण को देखते हुए कहते हैं कि 1857 के बैरकपुर की चिंगारी जो उत्तर प्रदेश,बिहार व दिल्ली तक थी,को बांग्ला नवजागरण ने नहीं देखा। बांग्ला नवजागरण ने इस राजनीतिक आग को नहीं देखा,केवल सामाजिक सुधार की चेतना में लगे रहे।हिन्दी नवजागरण इसलिए ज्यादा विचारणीय है क्योंकि यह उस राजनीतिक आंदोलन से पैदा हो रहा है। रघुवीर सहाय जी ने एक बात लिखी है कि साहित्य के समाज मे कोई बड़ा आन्दोलन संभव नहीं है जब तक कि उस समाज के संसार में उससे भी बड़ा आंदोलन न संभव हो। दूसरी बात, रामविलस जी के इस अवधारणा का नामवर जी ने आलोचना का विशेषांक निकाल कर विरोध किया और कहा कि भारतेन्दु जी पर इसका सीधा-सीधा असर तो दिखाई ही नहीं देता ,रामविलास जी ने इसकी सफाई नहीं दी। मैनेजर पांडेय की एक किताब आई है हिन्दी के गीतों और लोकगीतों में 1857। 1857 हमारी चेतना में कैसे रचा-बसा था इसका पता रानी लक्ष्मी बाई,बेगम हज़रत महल,वीर कुँवर सिंह पर जो गीत हैं उनको पढ़ने से पता चलता है। जिस वर्ष रामविलास जी की नवजागरण पर किताब आई,उसी साल अंग्रेज़ी में जिराल्ड बैरियर की भी किताब आई ‘ बैन्ड लिट्रेचर’,1977 में ही दोनों किताबों का आना मात्र इत्तेफाक नहीं है।लोगों को इन्दिरा गांधी के आपातकाल से झटका लगा कि हम अपने देश में भी गुलाम बनाए जा सकते हैं, इसी पृष्ठभूमि में यह दो किताबें आई, इसमें लेखक ने उन राजनीतिक परिस्थितियों कि चर्चा की है कि जिस कारणों से किताबें प्रतिबंधित हुई और उनकी एक विस्तृत सूची भी बनाई है। 1857 से 1947 तक हिन्दी में प्रतिबंधित किताबों की संख्या 1700 है,उर्दू में 1900,इसी तरह अन्य भाषाओं में भी किताबें हैं, 1835 के लॉर्ड मैकाले के उस कथन को याद कीजिये जिसमे वह कहता है कि भारत के लोगों की ताकत उनकी मातृभाषा है,मातृभाषा छीन लो ये भरभरा के गिर जाएँगे। आप देखिए कि वे इन मातृभाषा कि रचनाओं से इतना घबरा गए कि उनको बक्से में रख के ताला व सील लगा कर लंदन भेजा गया। इनमे कुछ किताबें आ रहीं हैं,मुझे पूरा विश्वास है कि जब ये किताबें वापस आ जाएंगी तो आधुनिक हिन्दी साहित्य का पूरा इतिहास कुछ और होगा।
दुनिया के किसी देश के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ कि किसी देश कि जनगणना में 10 वर्ष बाद आबादी में कमी आए,लेकिन 1857 के बाद भारत में ऐसा हुआ। ज़ाहिर है वे लोग फांसी और अंग्रेज़ की गोलियों का शिकार हुए। अंग्रेज़ खुश होते हैं कि हमने इतने लोगों को मारा,भारतेंदु के ‘अंधेर नगरी’ के फांसी के उस फंदे को देखिए जो एक अदद गर्दन कि तलाश करता है,’चाँद’ पत्रिका का फांसी विशेषांक देखिए। गर्दन चढ़ी फांसी पर और साहित्य गया लंदन। जब वह साहित्य आएगा तब हम और परतों को खोज पाएंगे। 1857 की छाया भारतेन्दु के यहाँ एक प्रेत छाया कि तरह दिखाई पड़ती है, विचारधारा साहित्य के अंदर जितनी छुपी होगी साहित्य उतना ही बड़ा होगा। भारतेन्दु इस बात को मानते थे। भारतेन्दु आग को राख़ के अंदर छुपाना बखूबी जानते थे। भारतेन्दु ने देशभक्ति की क्रांति की आग को राजभक्ति की राख से ढक के रखा हुआ था।
सहचर टीम – आप हैदराबाद में रहते हैं,राज्यवार देखा जाये तो यह एक हिन्दी भाषी राज्य नहीं है, लेकिन लोग कहते हैं कि अगर आप हैदराबाद कि हिन्दी सुनेंगे तो आपको उससे प्यार हो जाएगा, आप हैदराबाद की हिन्दी के बारे में कुछ बताएं।
उत्तर- राहुल सांकृत्यायन जी ने इस पार काम किया है।राहुल जी ने हिन्दी के इतिहास और हिन्दी के भूगोल दोनों ओर काम किया है। दिनकर जी ने एक बात कही है हिन्दी का यह चरित्र कि विद्यापति जी
जितने मिथिला के हैं उतने ही बांग्ला के,मीराबाई जितनी हिन्दी की हैं उतनी ही गुजरात की भी,यह बड़ी खूबसूरत है। राहुल जी ने दक्खिनी हिन्दी को खड़ीबोली की रचना मानकर हिन्दी के इतिहास के काल को और बढ़ाया ,कुली कुतुब शाह को वे हिन्दी खड़ीबोली का पहला कवि मानते हैं। राहुल जी ने सरहपा को हिन्दी का पहला कवि बता कर हिन्दी के आदिकाल को करीब 250 वर्ष पीछे ले गए। दक्षिण भारत में उर्दू है ,धार्मिक कारणों से ही सही,गांधी जी जानते थे कि यदि दक्षिण भारत से संपर्क स्थापित करना है तो उर्दू को साथ ले कर चलना होगा, दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा के लिए गांधी जी ने अपने बेटे को भेजा। गांधी जी जो कार्य कर रहेथे राहुल जी ने उसी काम को इतिहास में जाकर स्थापित किया। यह काम पहले से ही मौजूद है और इसे देखा जाना चाहिए।हैदराबाद की हिन्दी मेरठ की हिन्दी से ज्यादा अच्छी है,हिन्दी उर्दू का सम्मोहक मिश्रण उसमें मिलता है।
सहचर टीम – राष्ट्रभाषा के संदर्भ में दक्षिण भारत से हिन्दी का विरोध होता रहा है,उनको लगता है कि ये चीज़ें उनके उपर थोपी जा रही हैं,दक्षिण भारत में रहते हुए इस संदर्भ में आप क्या महसूस करते हैं?
उत्तर- हिन्दी के समर्थन – विरोध को मैं दूसरे तरह से देखता हूँ। शिवपूजन सहाय विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति थे और उन्होने कहा है कि बांग्ला और कश्मीरी ब्राह्मणों द्वारा जो वर्णव्यवस्था अपनाई गई उससे हिन्दू धर्म के लोग अछूत हुए, और उन लोगो ने इस्लाम अपनाया,अगर यह नहीं हुआ होता तो देश का बटवारा ही नहीं हुआ होता। बुद्ध ने संस्कृत विरोध का आंदोलन चलाया उसका परिणाम हमें भक्ति आंदोलन में दिखाई पड़ता है। दक्षिण से उत्तर तक अपनी भाषाओं के कारण हम भक्ति आंदोलन को सफल बना पाये। हिन्दी की बात किसने की,जिन लोगों ने की वे सागरमाला के क्षेत्र हैं । यह विरोध आंध्र में नहीं तमिलनाडु में हुआ, दक्षिण में केरल भी है,वहाँ हिन्दी के बड़े अच्छे विभाग हैं। हिन्दी संगीत वहाँ भी खूब सुना जा रहा है। यह सब भाषा से ज्यादा राजनीति का प्रश्न है। त्रिभाषा सूत्र को उत्तर भारत के राज्यों द्वारा ठीक से लागू नहीं किया गया है , दक्षिण भारत में यह बहुत अच्छे ढंग से कार्य कर रही है।
सहचर टीम से बात करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद….