संसार के सार्वभाषिक साहित्य संसार में जो इने – गिने सुप्रसिद्ध महान साहित्यकार हैं | उनमें हिन्दी साहित्य के कलम के जादूगर प्रेमचंद जी का नाम बड़े ही आदर और सम्मान से लिया जाता है।  प्रेमचंद हिन्दी कथा साहित्य में मिल के पत्थर माने जाते हैं।

       भारत वर्ष में प्रेमचंद और उनके साहित्य पर आजतक हज़ारों शोध निबंध और प्रबंध लिखें जा चुके हैं। फिर भी हर वर्ष उनकी जन्म जयंती पर अनेक प्रोफेसर, शोधकर्ता, हिन्दी प्रेमी व्याख्यान, निबंध स्पर्धा आदि आयोजित करते हैं और हर वर्ष प्रेमचंद जी के बारे में नईं- नईं जानकारियां पाने का प्रयास करते हैं। भारत में जिस तरह ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की तरह पूर्ण रूप से कथा मालूम होने के बावजूद लोग रामायण और महाभारत का श्रवण करते हैं तथा दूरदर्शन पर देखते रहते हैं। ठीक उसी तरह प्रेमचंद साहित्य का पारायण हर वर्ष पूर्ण भारत वर्ष में होता रहता हैं।

         मुझे अच्छी तरह याद हैं कि पांचवी कक्षा में मैंने हिन्दी पढ़ना आरंभ किया तब पहली ही कहानी ‘काकी’ पढ़ी थी या पढ़ाई गई थी, जो प्रेमचंद की थी। तबसे हर वर्ष हिन्दी पुस्तक में पहली कहानी प्रेमचंद की ही पढ़ी। ठाकुर का कुआं , सद्गति, कफन, ईदगाह, माँ , पुस की रात, बड़े घर की बेटी, ना जाने कितनी बार पाठ्यक्रम का हिस्सा रहीं हैं। जब पढ़ता था तब भी और अब पढ़ाता हूँ तब भी हिन्दी अध्ययन मंडल ने अक्सर प्रेमचंद की कहानियों को तव्वजो दी। प्रेमचंद की सैकड़ों कहानियां होने के बावजूद यहीं दस – बारह कहानियाँ बार – बार हमारे पाठ्यक्रम में शामिल रहीं हैं। अब इस वर्ष भी हमारे विश्वविद्यालय के प्रथम वर्ष की रुचि साख पद्धति के पाठ्यक्रम की पाठ्यपुस्तक में पहली कहानी ‘सद्गति’ हैं। पिछ्ले पाठ्यक्रम में ‘ठाकुर का कुआं’ ‘ थी तो तृतीय वर्ष के सामान्य हिन्दी पाठ्यक्रम में’ कफ़न ‘ !

     तीन वर्ष पूर्व द्वितीय वर्ष के लिए विशेष पेपर के लिए’ निर्मला’ उपन्यास पढ़ाया जाता रहा जो छः वर्ष तक बना रहा।’ गोदान’ की सामान्य जानकारी हिंदी साहित्य के इतिहास में हो ही जाती हैं और एम. ए. की पढ़ाई में गोदान पढ़ाया जाता है। कृषक जीवन का महाकाव्य किसी उपन्यास को कहा जाना अपने आप में आश्चर्य का विषय हैं। अतः मैंने 1993 में बी. ए. पढ़ते हुए ही गोदान पढ़ा था। मैं स्वयं किसान का लड़का होने के कारण गोदान को धर्म ग्रंथ समझकर पढ़ा। जब कालिंदी पर विष प्रयोग कर मार दिया जाता है। तब मुझे याद आया कि हमारे बैल को भी किसीने इसीतरह मार दिया था। जिसके बाद बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हुवा था और दो समाजों में काफी बड़ी अनबन कई वर्षों तक बनीं रहीं थीं। जब अनाज खलियान में आता तो गांव का नाई, चमार, पंडित सभी थैला लेकर हाजिर! काफ़ी सारा अनाज बांटा जाता, खलियान से घर पर अनाज आते ही खेती में मजदूरी करने वाले लोगों, महिलाओं में अनाज बांटा जाता साथ ही जो रिश्तेदार शहरों में नौकरी करते हैं उनके लिए अनाज की बोरियां भरी जाती और बचा – कुचा अनाज वर्षभर के गुजारे के लिए कंगनी यों में ( अनाज भरने के लिए लोहे के पत्रे से बने गोल और लंबे पात्र) भरा जाता। घर में चार भाईयों का परिवार जिसमें कुल बीस लोग। ताऊ के लड़के के शिक्षा के लिए अगर सेर भर अनाज बेचकर पुस्तकें लाई जाती तो घर की सभी चाची ओं को लगता कि हमारे बच्चों के लिए भी उतना ही अनाज बेचा जाए और उससे आए रुपये उनके लिए खर्च किए जाएं जबकि वे बहुत छोटे थे अभी स्कूल भी नहीं जाते थे फिरभी ये अट्टाहास मैंने देखा हैं, क्योंकि खेती सभी की हैं और सभी मेहनत करते हैं। जिसके बाद घर में कलह होता, दादी सभी पर धाक जमाती। कभी- कभी बहुओं को पीटती भी थी, या अपने पुत्रों से पीटवाती भी थी। इन सारी बातों को मैंने होते देखा हैं अनुभव किया हैं। जिसकारण खेती, बैल, गाय, भैंस को बेच कर बहनों की शादी होते, पढ़ाई होते अनुभूत किया हैं।

      यह सभी बताने का मकसद यही कि प्रेमचंद की कलम सत्य के अधिक करीब हैं जिस कारण उनकी कथायें सभी को अपनी लगती हैं। फिरभी उनकों कई विद्वान प्रगतिवाद से जोड़ते हैं। इसका यह भी कारण हैं कि वे प्रगतिवादी लेखक संघ के अध्यक्ष रहें। पर मैं उन विद्वानों के इस विचारों से इत्तेफ़ाक नहीं रखता। वो इसलिए कि प्रेमचंद अगर प्रगतिवादी होते तो ‘ ठाकुर का कुआं’ की गंगी ठाकुर के कुएं पर जाकर पानी से भरा घडा लेकर भागती। घडा वहीं छोडकर जान बचाकर भागती नजर नहीं आती क्योंकि वह जानती थी कि उनके कुएँ में पटवारी नें मरा हुआ जानवर डालकर हमारे चमारों से बदला लिया हैं क्योंकि हमारे चमारों ने एक मरे हुए जानवर को उठाने से मना कर दिया था। घर में उसका पति जोखू बीमार है, उसे औषध लेने के लिए भी घर में पानी है। जो पानी हैं दूषित सडा पानी हैं, जिसे पीने के बाद वह मर सकता है, उसकी जान बचाने के लिए वह अपनी जान पर खेलकर ठाकुर के कुएं पर पानी भरने जाती हैं। प्रगतिवाद हक और अधिकार की बात करता है, जब हक या अधिकार नहीं मिलता तो वे उसे छीनना जानते हैं इसी कारण प्रगतिवादी नायक और नायिकाएं समाज से लड़ते नजर आते हैं। प्रेमचंद चाहते तो गंगी को पानी से भरा घड़ा लेकर भागते चित्रित कर सकते थे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत वर्ष में प्रगतिवादी विचार धारा अवश्य पांव पसार रहीं थीं पर उसपर पूर्णतः अंमल करना मुश्किल था!

          ‘ धिक्कार’ कहानी की पितृछत्र से वंचित ‘मानी’ सोलह वर्ष की आयु में ही विधवा हो जाती हैं, माँ की मृत्यु के बाद उसे मजबूरन चाचा वंशीधर के घर में रहना पड़ता हैं। चाची के अनगिनत अत्याचार और जुल्म सहकर वह उनके घर दिन काटती हैं। एक दिन वह ऊबकर छत से रस्सी बाँधकर आत्महत्या का प्रयास करती हैं तभी उसके चचेरे भाई गोपाल का मित्र इंद्रनाथ उसे बचा लेता हैं और अपने प्रेम का इज़हार कर उससे शादी करने की बात करता हैं जिससे वह उसे इस नरक से बचाने की बात करता हैं। तभी वहाँ गोपाल आता हैं इंद्रनाथ उसे सारी बातें समझाता हैं। पहले तो गोपाल विरोध करता हैं क्योंकि विधवा विवाह तब तक आम नहीं था। पर कुछ समय बात समझ जाता हैं कि बेचारी मानी विधवा का जीवन कबतक जियें?  इंद्रनाथ जैसा अच्छा लड़का उसे पति के रूप में बहुत खुश रखेगा ये जानकर वह मानी का विवाह इंद्रनाथ से कर देता हैं। और अपनी माँ से ऊबकर किसीको कुछ भी ना बताएं शहर भाग जाता हैं।

         इधर इंद्रनाथ भी नौकरी के लिए शहर जाता है और सारी व्यवस्था कर मानी को पत्र लिखकर बुलाता हैं मानी अपनी सास के साथ जाने की तैयारी करती हैं। और पत्र लिखकर अपने चाचा को बताती हैं कि वह आज शाम की रेल से शहर जा रहीं हैं। गोपाल के घर से भाग जाने का जिम्मेदार मानी को मान कर बेहद गुस्से में वंशीधर चाचा रेल्वे स्टेशन जाकर मानी को अनाफ- शनाफ बोलकर उसे गंगा में डूबकर मरने को कहते हैं। मानी अपने सास के साथ अपने पति के पास जा रहीं हैं पर चाचाजी की ये बातें सुनकर वह आत्मग्लानि से भर जाती है हालांकि उसकी सास उसे समझाती हैं और स्टेशन पर जमा हुए लोग भी वंशीधर को कोसते हैं पर मानी ग्लानि से नहीं उभरती और रात्री में अपनी सास के सो जाने के बाद चलती रेल से कूदकर आत्महत्या कर लेती हैं। गंगी की तरह मानी भी कमजोर महिला हैं जो क्रांति करना चाहतीं हैं पर ऐन वक़्त डरकर पीछे हट जाती हैं। क्यों?

    ‘दूध का दाम’ कहानी में बाबू महेश नाथ को तीन लड़कियों के बाद लड़का होता हैं पर उसकी पत्नी की छाती में दूध नहीं हैं, अतएव शूद्र जाति की दाई भुंगी को ही मालकिन अपने बेटे की दूध माँ बनने को कहती हैं। उसके बदले में पाँच एकड खेती और गहने देनी की बात करती हैं। भुंगी  अपने बेटे को मालकिन के गाय का दूध पिलाकर मालकिन के बेटे को अपना दूध पिलाती हैं। ब्राह्मण के कहने पर शूद्र का दूध पिलाना अशुभ जानकर मालकिन भुंगी का दूध बंद करने का विचार करती है। जबकि उसका लड़का अब दूध मुँहा भी नहीं रहा हैं। गाँव में प्लेग फैलने से भुंगी का पति गूदड मर जाता है और भुंगी भी साँप के काटने से मर जाती हैं। अनाथ हुवा उनका लड़का मंगल से महेशनाथ और मालकिन से अछूत सा व्यवहार होता हैं। अपने छाती का अमृत पिलाकर मालकिन के बच्चे को नया जीवन देनेवाली भंगी के लड़के के साथ इस तरह का व्यवहार क्यों?

   ‘पूस की रात’ का हल्कू जाड़े के दिनों में रात – रात जागकर खेती की रखवाली करता है, घर में ओढ़ने के लिए कंबल नहीं है, थोड़े से तीन रुपये उसकी बीवी ने जैसे तैसे जमा किए हैं पर किसी की उधारी है वो चुका देता है और बिना कंबल भयंकर ठंड से निजात पाने के लिए वह ओपलों की आँच सेंकता है, जिससे ही उसके पूरे खेत में आग लग जाती है और हल्कू सोना चाहता है, वह कहता है कि अच्छा हो गया खेत जल गया। कम से कम चैन से सो तो पाऊँगा! ऎसा क्यों?

    ‘हिंसा परमो धर्म’ कहानी का जामिद गाँव में सभी की मदद करता है जिस कारण वह मजाक का विषय बनता है। अतः एक बार वह शहर चला जाता है और वहां के बड़े – बड़े मंदिर-मस्जिद देखकर हक्का- बक्का रह जाता है। वहाँ भी वह खुशियां बिखेरना चाहता है। पहले ठाकुर जी के मंदिर में रहता है वहां के पंडित उसे मूर्ख समझकर सारे कार्य मात्र खाने पर कर लेते हैं। पर एक दिन एक बूढ़े मुसलमान को पंडित मारते हैं तो जामिद देख नहीं पाता और बुढ़े व्यक्ति को बचाने के चक्कर में पंडितों से उलझता है। वहाँ से बेदखल होने के बाद वही बुढ़ा व्यक्ति उसे काझी से मिलाता है। एक दिन एक हिन्दू स्त्री को धोखे से लाकर उसकी वो काझी इज्जत लूटना चाहता है। जामिद वहाँ उनका विरोध कर उस महिला को बचाकर उसके घर छोड़ता है और अपने गांव वापस लौटने फैसला कर कहता है कि मेरा दीन और दीनदारों से नफरत हो गई है, क्यों?

      ‘सद्गति’ का दुखी चमार अपनी लड़की की शादी करना चाहता है। जिस कारण मुहूर्त निकालने के लिए वह गांव के पंडित के घर गाय के लिए चारा ले जाता है। फिरभी पंडित जी खुश नहीं होते बल्कि उससे ढेर सारे काम करवाते है। इससे भी उसका मन नहीं भरता और भूखे – प्यासे दुखी को बड़े लकड़ी की गाँठ फोड़ने को कहते है और जैसे ही गाँठ टूट जाय वो उसके घर जाने को तैयार है। अत्यंत भूखा प्यासा दुखी पेट की अतडियों में तकलीफ से कराहता है, पर वहाँ कौन है उसको पूछने वाला? अंततः गाँठ तोड़ते – तोड़ते वह दम तोड़ देता है। तब उसकी लाश को चमार उठाने से इंकार कर पुलिस बुलाने को कहते हैं तब पंडित दुखी की लाश के पैरों में रस्सी बाँधकर मरे हुए कुत्ते को जिस तरह खींचते हैं, वैसे ही खींचकर गांव के बाहर फेंक देता हैं फिर भी पूरा चमार कुनबा शांत क्यों?

             ये और इस जैसी कईं कहानियां हैं जिनमें खोजने पर भी प्रगतिवाद दिखाई नहीं देता। कुछ विद्वान प्रेमचंद को गांधी वादी या आंबेडकर वादी भी कहते हैं पर इन कहानियों में वह वाद भी दिखाई नहीं देते।

     लेखक अपनी कहानियों के पात्रों का जन्मदाता होता है और हर जन्मदाता पिता चाहता है कि उसके पुत्र – पुत्रियों का जीवन सुख शांति से बीत जाए। जीवन में दुःख, कष्ट, पीड़ा, बीमारियाँ, धोखा, काम, रति, मृत्यु आना सहज हैं। अतयव समय समय पर इसका चित्रण कर अपने पात्रों को साहसी, शूर – वीर और सत्यवान बताकर अंततः उनकी जीत अवश्य बताता हैं।  हालाकि बड़े घर की बेटी, ईदगाह जैसी अनेक कहानियों में  प्रेमचंद जी ने भी अपना यहीं कर्तव्य निभाया हैं। ‘बड़े घर की बेटी ‘ की आनंदी जब अपना घर टूटता देखती हैं और महसूस करती हैं कि मेरे ही कारण दो भाई बिछड जाएंगे और घर फुट जाएगा तो वो आगे आकर अपने देवर लालजी को उसके गुनाह के लिए माफ ही नहीं करती बल्कि उसके विषय में उसके मन में कोई गिला ना होने का भरोसा देकर घर ना छोड़ने को कहती है। ये देखकर श्रीकंठ और ससुर ठाकुर बेनी माधव खुश होते है और अंत में कहते हैं कि बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती है जो अपने टूटते घर को बचा ही लेती है। इसतरह का सुखांत इस कहानी में देखने को मिलता है। ‘ईदगाह’ का हामिद भी ईद के मेले में जाने के लिए उत्साहित हैं। माता – पिता तो बचपन में ही चल बसें थे। घर में केवल बुढ़ी दादी और दरिद्रता! फिरभी जैसे वैसे अपने छोटे नाती को घर के बचे तीन पैसे देकर गांव के लड़कों के साथ ईदगाह के मेले में भेजती हैं। जब सभी बच्चे मेले में खा – पी रहें हैं, खिलौने खरीद रहे हैं, गुब्बारे खरीद रहे हैं, झूले झूल रहे हैं। तब हामिद अपने तीन पैसे से अपनी बुढ़ी दादी के लिए चिमटा खरीदता हैं। क्योंकि वह देखता है कि रोज़ रोटियाँ सेंकते समय दादी के हाथ जलते हैं। इतनी छोटी आयु में इतना बढ़ा एहसास अपने आँखों में आँसू अवश्य लाता हैं पर वह चिमटा देख दादी को उनके जन्म सफल होने की अनुभूति होती है। पर ध्यान देने की बात यह कि प्रेमचंद इन कहानियों के कारण चर्चित नहीं हैं जितने कफ़न, ठाकुर का कुँवा, सद्गति, विध्वंस, दूध का दाम, धिक्कार जैसी कहानियों के लिए। उपन्यास की बात की जाय तो गोदान, गबन, निर्मला, कर्मभूमि, रंगभूमि जिसमें विधवा विवाह, दहेज प्रथा, किसान की त्रासदी, जाति व्यवस्था, अज्ञान, अंधश्रध्दा, रुढी परंपराओं का सजीव चित्रण कर यह आभास दिलाया हैं कि ये उपन्यास समस्त भारत का नेतृत्व करते हैं। इसी कारण उन्हें कलम का जादूगर, कलम के बादशाह कहा जाता है।

      प्रेमचंद जी को अक्सर लगता था कि वो अपने पात्रों को क्रांतिकारी बनाएं। बनाते भी थे पर समाज के ठेकेदारों से डरकर उनके पात्र ऐन वक़्त पर पीछे हटते नजर आते हैं। इसलिए मैंने उपर्युक्त कुछ प्रश्न उठाए हैं कि क्यों? क्यों? प्रेमचंद जी ऐसा करते थे। एक जगह उन्होंने कहाँ था कि लेखक अपनी कृति लिखने के बाद उससे परे हो जाता है और वह कृति समाज की हो जाती है।’ कफ़न’कहानी ने तो कई लोंगो के रातों की नींद हराम कर दी थी। मैंने भी जब पहली बार पढ़ा तो मैं भी कई रातों को ठीक से सो नहीं पाया था। आज भी कभी याद आ जाती हैं अनेकानेक प्रश्न जहन में उठते हैं। उनके कोई जवाब नहीं मिल पाते हैं। प्रश्न थे – क्या भारत में घिसू – माधव जैसे लोग हैं? क्या अपनी पत्नि या बहु के मरने के बाद इकट्ठा किए पैसे से शराब पी जा सकतीं हैं?  आज भी गांवों में कोई जवान की मौत हो जाय तो पूरे गाँव में चूल्हे नहीं जलते। तीस या चालीस के दशक में क्या ये सम्भव था? और गरीबी इतनी बदहवास हैं हमारे देश में की मृत्यु के पैसे से नशा किया जाय? मात्र कचोडी खिलाकर कफन खरीद लानेवाले घिसू – माधव प्रेमचंद चित्रित कर सकते थे क्यों नहीं किए? उनका उद्देश्य क्या था? या ये मात्र फॅण्टसी थी!

    ‘धिक्कार ‘ की मानी ट्रेन में बैठ चुकी थी। जिसने उसके लिए सबकुछ किया, विधवा विवाह कर मानी को नरक से निकाला वह इंद्रनाथ शहर में बसकर उसकी राह देख रहा था। मानी की सास साथ में थी, और इसके पूर्व उसने कई बार जिल्लतों का सामना किया था फिर क्यों उसे इंद्रनाथ से नहीं मिलाया गया?

     इन सारे प्रश्नों का उत्तर यहीं हैं कि प्रेमचंद पर उन दिनों पाश्चात्य लेखकों का प्रभाव होने लगा था। उससे शायद इस बात को जान गये थे कि साहित्यकार को केवल प्रश्न उठाकर उन्हें समाज के सामने उछाल देने चाहिए उनके उत्तर समाज खोजेगा! लेखक को बहुत बड़ा समाज सेवक बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए!

  मैंने तो अनुभूत किया हैं कि प्रेमचंद के अदृश्य हाथ कहानियों के माध्यम से सीधे सीने में घुसकर हृदय को पकड़ कर बुरी तरह मसल देते हैं और हम उस पर संतुलन पाने की कोशिश करते रहते हैं और सोचते रहते हैं। दिमाग की नसें फटने को आती हैं। पर यह सच है कि प्रेमचंद इसी कारण प्रेमचंद हैं। उनकी विचारधारा को कोई कोई विद्वान प्रगतिवाद, गांधीवाद या आंबेडकर वाद में बाँधना चाहते हैं पर मुझे लगता है कि उन्हें इसतरह किसी वादों में बाँधना बेमानी होगी। प्रेमचंद इस धरती पर जन्मे वो हिंद और हिंदी के सपूत हैं जिन्होंने हिन्द और हिन्दी का नाम अमिट कर दिया। यद्यपि प्रेमचंद पहले उर्दू में ही लिखते थे, परंतु उससे उनका घर चलना मुश्किल था अतः उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया और हिन्दी साहित्य को उसका आदित्य मिल गया। संसार में जबतक सूरज – चांद रहेगा, प्रेमचंद जी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाएगा।

   इसी कारण उनके विचारों को मैं किसीभी वाद में न बाँधकर उनके नाम से ही प्रेमचंदवादी साहित्य का आदित्य प्रेमचंद ही कहूँगा!

डॉ.पंढरीनाथ शिवदास पाटिल
प्रोफेसर
गंगामाई महाविद्यालय नगाँव धुले

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