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प्रेमचन्द का ‘गोदान’ अवध के एक गरीब किसान का इतिहास है। उन्होंने अपने इस उपन्यास में इस प्रकार के मानव चरित्र के चित्र उपस्थित किए हैं जिनसे साहित्य इतिहास न होकर जीवन का मार्गदृष्टा बन जाता है। प्रेमचन्द्र का ‘गोदान’ कृषक समस्या पर आधृत महाकाव्यात्मक उपन्यास है। यह उनकी उपन्यास कला का चरमोत्कर्ष है। किसान का शोषण कितने मुहानों पर और किस प्रकार होता है इसका चित्रण होरी की कथा में हुआ है। प्रेमचन्द्र के गोदान में पात्र अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है यथा- होरी कृषक वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है। हर किसान की समस्याएँ लगभग वैसी ही है जैसी होरी को झेलनी पड़ती हैं। गोदान में दो कथाएँ साथ-साथ चलती है- एक ग्रामीण जीवन की कथा है तो दूसरी नागरीय जीवन की कथा।
प्रेमचन्द ऐसे प्रथम भारतीय उपन्यासकार हैं जिन्होंने उपन्यासों का उपयोग समाज और जीवन की आलोचना के लिए किया है। उन्होंने अपने उपन्यासों में उन समस्याओं को चित्रित किया है जो वर्तमान युग से जुड़ी हुई हैं और जिन्हें हर व्यक्ति अनुभव करता है। प्रेमचन्द एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जहाँ भेदभाव के अभिशाप से मानवता पीड़ित न हो, किसी प्रकार को शोषण न हो और आदमी की पहचान सम्पत्ति और जाति के पैमाने से न हो। गोदान में उनका यही उद्देश्य प्रमुखता से व्यक्त हुआ है। इस उपन्यास का प्रधान उद्देश्य है- कृषक जीवन की समस्याओं का चित्रण करना, उसके शोषण का चित्र प्रस्तुत करना और उनकी दीन-हीन स्थिति से समाज को परिचित कराना। किसान का शोषण कौन करता है तथा उसका शोषण कितने मुहानों पर होता है और उस शोषण के लिए समाज के कौन-कौन लोग उत्तरदायी हैं-इसका सजीव चित्रण गोदान में किया गया है। उपन्यास मनोरंजन की वस्तु नहीं है अपितु वह जीवन की सच्चाइयों को उजागर कर हमें सोचन-विचारने को विवश करता है और संघर्ष की प्रेरणा प्रदान करता है। प्रेमचन्द लिखते हैं-
‘‘हम साहित्य को मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें चित्रण की स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाई का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं।’’
‘गोदान’ की रचना कृषक जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं का चित्रण करने के लिए की गयी है। होरी, कृषक वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है। उसके जीवन की ‘ट्रैजडी’ हर किसान के जीवन को प्रस्तुत करती है। जब भारत में जमींदारी प्रथा थी तो किसान उनके शिकंजे में फँसा हुआ था। जमींदार, कारकून, पटवारी, सूदखोर महाजन आदि तो उसका शोषण करते हैं। इनके अतिरिक्त पुलिस, व्यापारी, धर्म के ठेकेदार, समाज के ठेकेदार भी उसका शोषण करते हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि जो किसान सारे संसार के लिए अन्न उपजाता है वही खुद भूखा है। यह भी विडम्बना ही है कि अपने शोषकों के बारे में किसान अच्छी तरह जानता है फिर भी रूढ़ियों और संस्कारों से बँधा हुआ होने के कारण वह उनके प्रति क्रोधाभिभूत नहीं हो पाता। इस शोषण के लिए वह अपने भाग्य को दोषी मानता है। गोबर को समझाता हुआ वह कहता है,‘‘ छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा तो भोगें क्या?’’
किन्तु गोबर उसकी इस बात से सहमत नहीं है। वह प्रगतिशील चेतना का प्रतीक है और इस बात को जानता है कि ‘‘भगवान तो सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है वह गरीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।’’ किसानों के इस शोषण का कारण है उनके संस्कार, रूढ़िवादिता और संगठन का अभाव। वे एक दूसरे से ईष्र्या करते हैं और इसीलिए बैल की तरह जमींदारो के हल में जुते रहते हैं। भोला इस विषय में होरी से कहता है ‘‘कौन कहता है तुम हम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ। आदमी वह है जिसके पास धन है, अख्तियार है, इल्म है। हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक-दूसरे को देख नहीं, सकते। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।’’ जमींदार को किसान से लगान वसूल करने का जायज हक है, किन्तु वे नाजायज रूप में नजराना लेते हैं, जुर्माना वसूल करते हैं, इजाफा लगान लेते हैं, और किसानों से बेगार कराते हैं। रायसाहब अमरपाल सिंह वैसे तो किसानों के शुभेच्छु है किन्तु स्वार्थ नही छोड़ सकते। उनकी कथनी और करनी की पोल खोलते हुए प्रो. मेहता कहते हैं, ‘‘यदि आप कृषकों के शुभेच्छु हैं और आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियासत होनी चाहिए तो पहले आप खुद शुरू करें, काश्तकारों को बगैर नजराने लिये पट्टे लिखें, बेगार बन्द कर दें, इजाफा लगान को तिलंाजलि दे दें, चरावर जमीन छोड़ दें।’’
किसान को शोषण जमींदार तो करता ही है किन्तु इस शोषण चक्र में और भी कई लोग शामिल हैं। गाँव के महाजन और साहूकार भी किसान की मजबूरी को लाभ उठाकर ऊँची दर पर ब्याज वसूल करते हैं। साहूकार के सूद की दर एक आना रूपया से लेेकर दो आना रूपया तक है जो 75 प्रतिशत वार्षिक से 150 प्रतिशत तक जा पहुँचती है किन्तु किसान मजबूर हैं कर्ज लेने को विवश है। कभी खाद के लिए, कभी बीज के लिए, कभी बैल के लिए तो कभी लगान चुकाने के लिए, तो कभी सामाजिक दण्ड की भरपाई के लिए। होरी कहता है ‘‘ कितना चाहता हूँ कि किसी से एक पैसा कर्ज न लूँ लेकिन हर तरफ का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता।’’ सच तो यह है कि ‘‘कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आकर फिर जाने का नाम नहीं लेता।’’ होरी को लगता है कि इसी तरह उस पर कर्ज का सूद बढ़ता जायेगा और एक दिन उसका घर द्वार सब नीलाम हो जायेगा और उसके बच्चे निरा़िश्रत होेकर भीख माँगते फिरेंगे। अगर सन्तोष था तो यही कि वह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। जमींदार के कर्मचारी, कारकुन, कारिन्दा तथा सरकार के पटवारी आदि भी किसान का शोषण करते हैं। पुलिस के गण्डासिंह जैसे थानेदारों की मिलीभगत से गाँव के मुखिया भी किसान से मिली रिश्वत के पैसों में अपना हाथ बँटाते हैं। समाज और धर्म भी किसान का शोषण करने में पीछे नहीं हैं। झुनिया को घर में आश्रय देने पर गाँव के भाग्य विधाताओं ने 100 रूपये दण्ड और तीस मन अनाज जुर्माने के रूपमें वसूल किया। दातादीन जैसे धर्म के ठेकेदार भी किसान का शोषण करते हैं। मृत्यु के अवसर पर होरी से गोदान की अपेक्षा करने वाले ये कथाकथित धर्म के ठेकेदार समाज के मुँह पर तमाचा मारते हुए से प्रतीत होते हैं। जो व्यक्ति जीवन-पर्यन्त एक गाय का जुगाड़ अपने लिए नहीं कर सका उससे मरते समय गोदान के लिए कहना कहाँ का न्याय है, पर दातादीन को इससे क्या?
‘गोदान’ में प्रेमचन्द जी ने पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने का संकल्प व्यक्त किया है। खन्ना पूँजीपतियों के प्रतिनिधि मात्र हैं। शोषण का प्रक्रिया नगर और गाँव में समान्तर रूप से चलती है। गाँव में जमींदार किसान का शोषण करता है तो नगर में मिल मालिक और पूँजीपति मजदूर का शोषण करके अपनी सोने की लंका खड़ी करते हैं। प्रेमचन्द को यह स्पष्ट दीख रहा था कि वह शोषण अब अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं। रायसाहब को भी इसका आभास हो गया था कि जमींदारी प्रथा अब समाप्त होने वाली है। वे कहते हैं-‘‘लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है।’’
एक किसान अपने पेट के अतिरिक्त और किसी बात पर ध्यान नहीं देता, परन्तु अब पर्याप्त परिश्रम के बाद भी उनका पेट खाली रहता है तो वे विद्रोह पर उतर आते हैं। मिल मालिक खन्ना अपने अहंकार में मजदूरों की उचित माॅँगों को भी ठुकरा देते हैं। परिणामतः हड़ताल होती है और मजदूर खन्ना की मिल में आग लगा देते हैं। शायदः ‘गोदान’ तक आते-आते प्रेमचन्द वह समझने लगे थे कि गांधीवादी अहिंसा से शोषण को समाप्त नहीं किया जा सकता। उसके लिए तो विद्रोही तेवर ही अपनाने पड़ेगे। प्रेमचन्द जी ने यह भी सन्देश दिया कि पूँजी पर अहंकार ठीक नहीं, क्योंकि पूँजी क्षणभंगुर होती है। खन्ना की पत्नी गोविन्दी खन्ना सात्विक विचारों की महिला हैं। वह इस आर्थिक हानि पर दुःखी नहीं रहती अपितु उसे वरदान मानती हुई कहती है- ‘‘जीवन का सुख दूसरों को सूखी करने में उन्हे लूटने में नही। मेरे विचार से तो पीडुक होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महँगा सौदा नही है।’’
प्रेमचन्द जी का मत है कि शोषण का विरोध संगठित होकर ही किया जा सकता है। अपनीे सभी उपन्यासों में उन्होंने यही सन्देश दिया है कि संगठित होकर संघर्ष करने से ही व्यक्ति और समाज की स्थिति बदलती है। दलित शोषित वर्ग अपने बीच में से ही अपना नेता पैदा करें और संगठित होकर अपने उद्धार का मार्ग प्रशस्त करें। प्रत्येक व्यक्ति को और प्रत्येक समाज को अपना संघर्ष स्वयं करना पड़ता है। तुच्छ स्वार्थों के वशीभूत होकर कुछ लोग समाज की एकता को भंग करना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। संगठन में शक्ति है, अकेला इन्सान कमजोर होता है अतः मिलकर संघर्ष करने पर विजय प्राप्त की जा सकती है। ‘‘गोदान’ में भोला इसी बात पर बल देता हुआ होरी से कहता है कि ‘‘हमारा शोषण इसलिए होता है क्योंकि हम एक नहीं हैं। हम एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। प्रेम और भाईचारे की भावना समाप्त हो गयी।’’
इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोदान में प्रेमचन्द की दृष्टि अत्यन्त व्यापक रही है। कृषि जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं का निरूपण करने के साथ-साथ उन्होंने समाज की अन्य समस्याओं पर भी विहंगम दृष्टि डाली है। 1936 में प्रकाशित गोदान का कृषक होरी और वर्तमान समय के कृषक के जीवन में बहुत परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता। मशीनीकरण के प्रभाव से कृषि कार्य में सरलता और सुलभता आयी है परन्तु समाजिक और आर्थिक स्थिति में ज्यादा परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता है। भारत किसान का देश है और किसान भारतीय संस्कृति का मूलाधार। प्रेमचन्द का होरी आज भी जिन्दा है। निश्चित रूप से गोदान भारतीय ग्रामीण जीवन का दर्पण कहा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –
1. गोदान- प्रेमचन्द, वाणी प्रकाशन
2. प्रेमचन्द और उनका युग- डा0 रामविलास शर्मा,
3. स्वातन्त्र्रयोत्तर हिन्दी उपन्यास और ग्राम चेतना- डा0ज्ञानचन्द गुप्त
4. प्रेमचन्द और भारतीय किसान-प्रोा0 रामवृक्ष
5. भारतीय समााज की समस्याएं और प्रेमचन्द-डा0 जितेन्द्र श्रीवास्तव
6. प्रेमचन्द एक विवेचना- इन्द्रनाथ मदान
7. हिन्दी साहित्य कर इतिहास- आ0 रामचन्द्र शुक्ल
8. हिन्दी का गद्य साहित्य- डा0 रामचन्द्र तिवारी
9. कलम का सिपाही- अमृतराय
10. प्रेमचन्द और भारतीय साहित्य- केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा।