हम फिरोज़शाह कोटला के क़िले पर ऑटो से उतरे ही थे कि अविशा ने सवाल पूछ दिया
‘मम्मा ये सारे क़िले एक जैसे ही क्यों होते हैं ?इतने टूटे, एक दम ख़ाली ,यहाँ कोई रहता क्यों नहीं?
मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुरा दी ,वह अक्सर ही ऐसे सवाल करती और अपनी बड़ी -बड़ी आँखों से कौतूहल में टुकुर-टुकुर देखती रहती |जैसे उसकी मम्मा के पास दुनिया के सारे सवालों के जवाब हो  |जैसे मैं ही हूँ उसके सभी सवालों का हल | मैं उसके सवाल का जवाब देने ही वाली थी कि सामने से ऑटो वाला बोल पड़ा….
मैडम जल्दी उतरिये ये जगह पार्किंग के लिए नहीं बनी है ,किसी पुलिस वाले की नज़र पड़ी तो मेरा चलान हो जाएगा !
मैंने जल्दी से उसे पैसे दिए और अविशा को अपनी गोद में उठा लिया ,वह अब भी अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देख रही थी कि मैं उसके सवाल का जवाब दूँगी |मुझे हँसी आ गयी इस हँसी में ठहाका नहीं था बल्कि ममता की मिठास थी जो एक माँ ही समझती है |जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तो यह सोचना ही एक भीनी सी खुशी लेकर आता है कि आँखें खोलते ही वे कितने बड़े हो गए |मैंने उसकी टोपी ठीक करते हुए जवाब दिया ‘इसलिए कि ये जगह सदियों पुरानी है |
इस बार उसने फिर किसी पत्रकार की तरह तपाक से सवाल उठाया मम्मा मैं कितने सदी पुरानी हूँ और और आप …आप?
मैं फिर खिलखिला दी ,तुम बस 6 साल पुरानी और मैं हज़ार सदी !
उसने आँखें बड़ी करते हुए मेरी ओर देखा और फिर मुँह को गोल घूमाते हुए बोली …इत्ती सदी पुरानी सच्ची !
“हाँ इतनी ही सदी पुरानी “बच्चों को क्या मालूम कि जिंदगी का एक साल भी एक सदी सा लगने लगता है, ख़ासकर तब जब आपके भीतर टूटन और घुटन का गुबार भरा हो| मैं यह सब सोच ही रही थी कि अविशा मुझे खाली जगह से, मेरे काले अंधेरे से मुझे खींच लाई |
मेरे हाथ को तेज़ी से झटकती हुई वह बोली म्ममा …..अंदर नहीं चलेंगे क्या ?
अरे हाँ बाबा चल तो रहे हैं ….अविशा को पुरानी जगहें बहुत पसंद थी ठीक अपने पिता की ही तरह |अक्षत भी तो एक दम ऐसा ही था ,हर वीकेंड पर कहीं बाहर निकल जाता और कभी -कभी मुझे भी अपने साथ बाहर खींच लेता |
“चलो न कल जयपुर चलते हैं ,आमेर का किला देख आएंगे और थोडी आउटिंग भी हो जाएगी|
मैं उसकी ओर देखकर ठीक वैसे ही सवाल पूछती जैसे अविशा मुझे पूछा करती है ,और घर उसका क्या होगा? तुम्हें मालूम है न मेरे लिए घर से निकलना कितना मुश्किल है इन दिनों |
“ओह हो तुमको कुछ नहीं करना मैं परिधि से कह दूँगा वह सब मैनेज कर लेगी ,फिर शहर से एक दिन दूरी पर ही तो है  तपाक से आ जाएंगे किसी को मालूम नहीं पड़ेगा |”
वह ऐसे ही  मुझे अपनी बातों में बरगला लेता और मैं भी मान जाती |जाने क्या देखा था मैंने उसमें 27 की उम्र में आते हुए प्यार बचकाना नहीं होता पर हमारा प्यार वह तो हमेशा ही बचकाना बना रहा |हर बात में एक अजीब सी जिद्द थी ,हर बात अजीब सा खिंचाव |जो मुझे उसकी ओर बड़ी आसानी से खींच लेता था | दिन बीतते गए शहर बदलते गए और शायद ही ऐसा कोई किला हो जो हम न देख आये हो |हर क़िले के साथ हमारा करीब आना और भी बढ़ता गया, वो और  मैं बहुत वक़्त तक अलग नहीं रह सके एक हो गए |
“एक रात मेरे बालों को सहलाते हुए कहा था उसने छोड़ क्यों नहीं देती तुम घर ?
मेरे पास चली आओ यहां हम साथ -साथ रहेंगे एक दूसरे के साथ |और करीब….
मैं बहुत देर तक उसकी आँखों में देखती रही और सिर्फ़ एक शब्द ही मेरी जुबान से निकल सका …पर !
ये “पर “हर औरत के हिस्से क्यों आता है मैं कभी नहीं जान सकी |क्या सारी’  पर ‘की बेड़ियाँ सिर्फ़ हमारे ही पैरों में बंधी रहती हैं या बंधी रहेगी?
मैंने अपने सात साल के रिश्ते में अक्षत को कभी ‘पर’ यह शब्द कहते हुए नहीं सुना था |
न ही सुना था कभी उसके मुँह से कोई विवशता भरा वाक्य ही !उसकी ज़िन्दगी कितनी अलग थी और मेरी कितनी अलग |
दो ज़िन्दगी कितनी अलग हो सकती है एक होकर भी तब मैंने पहली दफ़ा जाना था |भीतर के तूफ़ान को पीछे छोड़ मैं उसके साथ आगे बढ़ जाना चाहती थी उस रोज़ …जाने क्या था जिसने मुझे इतनी शक्ति दे दी कि मैंने उसे हाँ साथ रहने की बात पर हाँ कह दी|
मेरे हाँ के बाद उसके चेहरे पर पड़ी त्योरियों को मैं ठीक से देख पा रही थी ,वह थोड़ा चिंता में लगा फिर पास की मेज पर पड़ी सिगरेट को सुलगते हुए बोला …अच्छा तुम्हें मालूम है न मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ ?
हाँ मैंने हल्की सी आवाज़ में जवाब दिया |अब मुझे और दूर नहीं रहा जाता अक्षत और यूँ छुप-छुप कर मिलना तो मुझे और अखरने लगा है |प्यार को कभी टिस में नहीं बदलना चाहिए |
हम दोनों को ही मालूम था हम शादी नहीं करना चाहते ,शादी जैसे किसी बन्धन की कोई कल्पना हमने नहीं की थी ‘जो रिश्ते मन से बन गए हो उन्हें किसी ओर नाम की जरूरत ही क्या है ये धारणा हमेशा हमारे हिस्से की रही है |
वो शरद पूर्णिमा की रात थी जब मैं एक ख़त छोड़कर घर से अक्षत के पास रहनेे निकल आई थी |
उस दिन पीछे के दरवाज़े ने मुझे कितना रोका था ,अँधेरे ने कितना मना किया था …पर मेरे मन में कोई शंका नहीं थी | कई दिनों तक सोचने के बाद ही तो यह फैसला मैंने लिया था  कि घर पर बताना कितना व्यर्थ है |ख़ासकर तब जब आप सामंती परिवार में पले- बड़े हो |
माँ घर के किसी भी फैसले में कभी शामिल नहीं थी यहां तक की राशन कितना और कब आना है यह भी पिता तय करते |शायद इसलिए भी वह घर मुझे जेल से ज़्यादा कुछ नहीं लगा था और मैं एक आज़ाद पंछी होकर हर पिंजरा तोड़ देना चाहती थी |अक्षत से मिलने के बाद मैंने हर पिजड़ा तोड़ ही तो दिया था|  कितना खुला था वह अपने विचारों से उसके विचार हमेशा ही मुझे अपनी ओर खींचते और  उसके मोहपाश में मैं ओर सिमटती जाती |उस रात सब कुछ मैंने अपने बस्ते में भर लिया था फिर जाने वह क्या था जो पीछे लौटा ले जाता था |
दरवाज़े को खोलते हुए मेरे पैरों में अजीब -सी झनझुनाहट हुई थी जैसे वह डर से थम जाना चाहते हो |दरवाज़े के सामने कुछ ही दूरी पर अक्षत की कार खड़ी थी |उसने धीरे से आवाज़ लगाई और मेरा सारा डर उड़ गया |
“क्या करती हो जल्दी आओ इससे पहले कोई देख ले |”
अपनी साड़ी के पल्लू को समेटती हुई मैं तेज़ कदमों से उसकी तरफ़ चली गई थी |उसे देखकर जाने कैसे मेरी सारी शकाएँ निरस्त हो जाती |
हम अब क़िले के गार्डन में निकल आए थे ,एक तरफ़ कुछ बच्चों का झुण्ड अपने किसी नाटक की तैयारी में लगा था ,चारों तरह चीले मंडरा रही थी ,अविशा ने होले से मेरे कान में बुदबुदाकर कहा …म्ममा निंदी और मेरे कंधे पर सर रखकर वह सो गई |धीरे -धीरे शाम गहराने लगी थी , मुझे दिल्ली की रात दिन से ज़्यादा सुंदर लगती थी |  कुछ सालों से हमेशा ऐसा हुआ था कि मैं अविशा को लेकर हर छुट्टी के दिन कहीं निकल जाती और हम रात भर घूमते |दिल्ली को मैंने और अक्षत ने इसीलिए तो चुना था कि कोई सवाल नहीं था इस शहर के पास कोई बंदिश भी नहीं थी | किसी को किसी से मतलब नहीं था | कितने दिन मैंने और उसने इस शहर को अपने ख्वाब के किनारे से देखा था |सीपी की कितनी शामें हमने एक दूसरे की बाहों में बिता दी थी ! कई बार मेरा मन होता मैं उससे पूछ लेती ‘
क्या है हमारा रिश्ता?
और वह हर बार की तरह मुझे कहता ” जहां प्यार हो वहाँ कोई और रिश्ता कहाँ मायने रखता है पुतुल ?
ये कहते हुए उसकी आँखें मुझे कितनी अपनी लगती !|वह घण्टों अविशा की तरह मेरी गोदी में लेटा रहता आँखें बंद किये हुए चुपचाप और मैं उसकी साँस पढ़ती जाती |शुरू -शुरू में सब कितना सुंदर था कितना आसान |
हम एक दूसरे के साथ लाइबेरी जाते रात तक पढ़ते और फिर लौट आते |फेलोशिप के पैसे से ज़िंदगी कितनी आसानी से कट रही थी |पर
जैसे ही थीसिस खत्म हुआ ज़िंदगी को रास्ते दिखने बंद हो गए |हमारे बीच कितना तनाव आने लगा था |वह कई बार मुझपर हाथ उठा देता और मैं एक कोने में पड़ी सिसकती रहती | तब घर की बहुत याद आती ,वह दरवाज़ा भी याद आता जो उस रोज़ रोक रहा था पर मैं क्यों नहीं रूकी यही सोचकर मैं और रुआसा हो आती |
दिन साल में तब्दील होने लगे थे और नजदीकियाँ सालों से सदियों में बदल आई थी |
एक रोज़ मुझे मालूम हुआ कि मेरी गोद मे अविशा आने वाली है ,
अक्षत उन दिनों देहरादून के ट्रिप पर था ,उसके लिए ज़िंदगी का मतलब ही ट्रिप था शायद इसका अहसास मुझे देर से हुआ , वह एक महीने बाद लौट आया तब मैंने उसे कहा सुनो
मैं ….मैं माँ बनने वाली हूँ !
वह हैरानी से मेरी ओर देखता रहा फिर कुछ भारी आवाज़ बनाकर मुँह पर एक अजीब सी घृणा ओढ़ता हुआ बोला –
“देखो हमारी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी पुतुल कि हम इस तरह किसी बच्चे के बारे में सोचेंगे ?
यह तुम्हारा अपना फैसला है ,या तो इसे रखो या गिरा दो !मेरी जिंदगी में ऐसे किसी फैसले के लिए कोई जगह और समय नहीं |
ये कहते हुए वह अपने कमरे में चला गया|
मेरे मन में सिर्फ़ एक सवाल बाक़ी रहा था ?
जगह ?क्या बच्चे जगह होते हैं ? क्या मैं बस उसकी जिंदगी में जगह भर हूँ ? मेरा स्वाभिमान मुझे कचोट रहा था और उस रात मैंने एक और फैसला लिया  ,वही फैसला जो मैंने कई साल पहले लिया था …एक दरवाज़े को पार करने का फैसला ,अपनी आज़ादी को चाहने का फैसला |उस रोज़ मेरे फैसले में मैं अकेली नहीं थी अविशा भी मेरे साथ थी |वह फिर शरद के चाँद की रात थी मैं मेन गेट से बाहर निकल आई थी |बिल्डिंग के चपरासी ने कहा मैडम इतनी रात को आप कहाँ निकल रही हैं शहर सुरक्षित नहीं है इतनी रात में ….
मैंने तब उसे सिर्फ़ एक ख़त पकड़ाया और उसे अक्षत को देने को कहा और ऑटो में बैठकर निकल आई |तब भी उस रात मैं अकेली नहीं थी ,एक अजीब सी हिम्मत मेरे साथ थी मेरी बेटी मेरे साथ थी |नई दिल्ली स्टेशन से टिकट लेते हुए मुझे नहीं मालूम था कि कहां जाना है ,पर एक बड़े शहर को छोड़ एक छोटे शहर नहीं जाया जा सकता इसलिए मैंने बम्बई को चुना |प्लेटफॉर्म पर टिकट लेते हुए मुझे आशा थी कि कुछ न कुछ जरूर होगा |नो माह बम्बई के स्कूलों में पढ़ाते हुए ही अविशा मेरी गोदी में आई थी | इस बार जाने कहाँ से उसे दिल्ली जाने का मन  हुआ और उसने क़िताब में बनी तस्वीर दिखाते हुए मुझसे कहा -म्ममा दिल्ली……
शहर के नाम में कितना अपनापन था कितने आँसू भी मैं उसे लेकर छुट्टियों में दिल्ली लौट आई …आज हमारा इस शहर में दसवां दिन है |उसके चेहरे पर  चमक है ठीक वैसी- जैसी उसके पिता में इस शहर में बसते समय थी| किले के दूसरे गेट पर एक बाँसुरी वाला ……कुछ बजा रहा है अविशा ने उठकर अपनी तोतली जबान में कहा है|
म्ममा बाँसुली …….
हम बाँसुरी वाले के पास गए वहाँ  मुझे …..अक्षत दिखाई दिया है ……वह यहां कैसे ?
क्यों ?
उसकी आँखों में मुझे देखकर यही सवाल उठा !
मैं यहां ,कैसे क्यों और इतने साल?
अविशा उसे देखकर उसकी ओर खींच रही थी ठीक वैसे -जैसे सदियों से मैं खिंचती आई थी !
लंबे मौन के बाद बाँसुरी वाले ने हमारे बीच जैसे शब्द बो दिए हो….
बाँसुरी लोगी मैंम शाहब…..
अक्षत ने टोकते हुए कहा ” हाँ भैया सबसे बड़ी वाली बाँसुरी दो हमारी बिटिया को |
और यह कहते हुए उसने अविशा की तरफ़ अपनी बाहें फैला दी हैं वह मेरी गोद से अक्षत की गोद में खिंची में बड़े आराम से चली गई |
इतने साल कहाँ थी पुतुल …….?
ये पूछते हुए उसकी आँखों से आँसुओं का गुबार फुट पड़ा है ….कितना खोजा मैंने तुम्हें उस रात से हर रात तक |
मैं डर गया था ….समझ नहीं आता था कि क्या करूँ …..हर बार की तरह उस दिन भी आसना रास्ता चुनने की सोची …पर ये आसान रास्ता इतना लंबा क्यों हो गया ?क्यों कर दिया गया?
ये मैं आज तक नहीं जान पाया !
मुझे माफ़ करोगी ?
मैं चुप थी कुछ अपराध बोध मेरे भीतर भी था जिस तरह अविशा अपने पिता से एक पल में ही मिलकर उनके इतने करीब आ गई थी कि मैं खुदको किसी अपराधी की तरह देख रही थी …पर ये अपराध साझा था !कितने बूढ़े हो आए थे हम दोनों इस एक फैसले के बाद |
मेरा दिल हर बार की तरह इस बार भी पसीज गया |मैं सिर्फ़ इतना कह सकी …”घर चले अक्षत उसने  अविशा को सीने से लगा लिया ,मेरे मन ने मुझे तसल्ली दी ”  माफ़ करने वाला हमेशा बड़ा होता है !
दिल्ली की रात आज डरा नहीं रही थी …….चारों तरफ रोशनी फैली थी आज रात चाँद अपने शबाब पर था ये पूर्णिमा के चाँद की रात थी “पूरे चाँद की उजली रात |”

पूर्णिमा वत्स

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