(ग्रियर्सन ने ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान‘ में तुलसीदास पर जो अपने आलोचनात्मक विचार रखे हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी दृष्टि पूरी तरह ‘औपनिवेशिक‘ ही रही है। जार्ज ग्रियर्सन कितने भी थे तो पहले अंग्रेज और अंग्रेजी सत्ता के पक्षकार, बाद में ही वे विद्वान या हिन्दी साहित्य के इतिहासकार। उन्होंने तुलसी की मर्यादावादिता को सराहा, उसे पसंद दिया क्योंकि उन्हें तुलसी में ‘नेबरहुड‘ का भाव दिखता है जो उनके क्रिश्चियन धर्म की उपासना पद्धति के करीब है। इसके बाद उन्होंने तुलसी के आविर्भाव को भारतीय जनमानस के लिए सकारात्मक रूप में देखा है। उन्होंने तुलसी की भाषा को भी पर्याप्त सराहा। साथ ही यह भी स्वीकारा किया कि ‘रामचरितमानस‘ के किसी भी पात्र का स्मरण उन्हें अंग्रेजी साहित्य के बड़े पात्रों की भाँति ही होता है। इस सबके बावजूद उनकी दृष्टि में वहाँ ‘विकृति‘ आ जाती है, जहाँ वे यह लिखते हैं कि तुलसी भारतीय परिदृश्य में कितने ही बेहतर और प्रभावी क्यों न हों, उनके सर्वोत्तम छंद भी एक ‘सुसंस्कृत यूरोपीय‘ को ‘आनंद‘ प्रदान नहीं कर सकता। इसके आगे बढ़कर उनकी दृष्टि ना सिर्फ ‘औपनिवेशिक‘ रहती है बल्कि ‘साम्प्रदायिक‘ भी हो जाती है। उन्हें तुलसी की ‘भक्ति‘ एक भक्त की दृष्टि से ‘विनम्र श्रद्धाभाव‘ जरूर प्रतीत होता है पर उन जैसे ‘म्लेक्षों‘ के लिए यह ‘अतियुक्ति‘ ही है।)
साहित्य और समाज का सम्बद्ध अन्योनाश्रित होता है। कभी समाज साहित्य को दिशा देता है तो कहीं साहित्य समाज को। हर समाज का और उसकी सभ्यता का अपना साहित्य होता है और उसका अपना इतिहास भी। जिस प्रकार सभ्यता और समाज का अपना ‘इतिहास’ होता है, उसी प्रकार साहित्य का भी अपना ‘इतिहास’ होता है। इस ‘इतिहास’ की ‘खोज’ और ‘पड़ताल’ ही आधुनिक काल की मूल कसौटी है। या यूँ कहें कि इस इतिहास की ‘दृष्टि’ ने हमें ‘आधुनिक’ बनाया है। ‘विज्ञान’ (Science) जिसके केन्द्र में ‘तर्क’ (Logic) तथा ‘तथ्य’ (Fact) है, ने जब अपना दायरा बढ़ाया तो उसने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करना शुरू किया और इसी प्रकार वह ‘इतिहास’ की ‘दृष्टि’ साहित्य में आयी और साहित्येतिहास में भी। यही वैज्ञानिक दृष्टि आधुनिक इतिहास-दृष्टि है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में वैज्ञानिक दृष्टि से इतिहास लेखन का कार्य सर्वप्रथम अंग्रेज विद्वान सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया। यह बात कि, “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्रवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास‘ कहलाता है।”[1] को आचार्य शुक्ल से पहले जार्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास-ग्रंथ में इसे बहुत हद तक सिद्ध करके दिखलाया और सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य के इतिहास को आधुनिक ऐतिहासिक-दृष्टि के कालक्रमानुसार प्रस्तुत किया। “जो सर्वप्रथम 1888 ई. के ‘रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल‘ के जर्नल (प्रथम भाग) में प्रकाशित हुआ। तदुपरान्त 1889 ई. में उसी सोसायटी की ओर से स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ।”[2]
ग्रियर्सन की इस पुस्तक के अनुवादक किशोरीलाल गुप्त ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “सर जार्ज ए. अब्राहम ग्रियर्सन रचित ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान‘ हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास है। आश्चर्य है कि हमारे साहित्य के इतिहास का प्रणयन एक विदेशी विद्वान ने, एक विदेशी भाषा में और वह भी विदेशियों के उपयोग के लिए ही किया।”[3]
लोकवादी गोस्वामी तुलसीदास पर विभिन्न साहित्येतिहासकारों ने अपने-अपने इतिहास-ग्रंथों में अपनी-अपनी दृष्टि से विचार किया है तो वहीं पर्याप्त स्वतंत्र लेखन कार्य भी हुए हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी अपने इतिहास ग्रंथ ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में उन पर विचार किया है। उन्होंने काल विभाजन के दौरान तुलसीदास को ‘भक्तिकाल’ के केन्द्र में रखा है। उनकी पुस्तक का पाँचवा अध्याय- ‘मुगल दरबार’, छठा अध्याय- ‘तुलसीदास’, सातवाँ अध्याय- ‘रीतिकाव्य’ और आठवाँ अध्याय- ‘तुलसीदास के अन्य परवर्ती’ हैं। इस प्रकार तुलसीदास न सिर्फ भक्तिकाल के केन्द्र में हैं बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के इतिहास के केन्द्र में भी। “ग्रियर्सन के सर्वाधिक महत्व के तीन कार्य हैं, एक है-भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण, दूसरा है हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास (द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान) और तीसरा कार्य है- तुलसीदास का वैज्ञानिक अध्ययन।”[4]
जार्ज ग्रियर्सन के इतिहास- ग्रंथ का अध्याय छठा- ‘तुलसीदास’ सर्वप्रथम एक स्वतंत्र लेख के रूप में लिखा गया। बाद में यह लेख जब पर्याप्त सराहा गया तो इस लेख को शामिल कर उन्होंने एक इतिहास ग्रंथ लिखा, ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ यह वहीं ग्रन्थ है। किशोरीलाल गुप्त ने इस पुस्तक के अनुवाद के ‘परिचय’ में यह लिखा है- “1886 ई. में ग्रियर्सन ने प्राच्य विद्या विशारदों की अन्तर्राष्ट्रीय सभा के वियना अधिवेशन में, “हिन्दुस्तान (हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेश) के मध्यकालीन भाषा-साहित्य और तुलसी” पर एक लेख पढ़ा था।”[5]
ग्रियर्सन ने इसके अतिरिक्त कई स्वतंत्र लेख भी तुलसीदास पर लिखे हैं –
(i) “हिन्दुस्तान मध्यकालीन भाषा साहित्य, विशेषरूप से तुलसीदास”
(ii) “नोट्स ऑन तुलसीदास”
(iii) “तुलसीदास के कवित्त रामायण की रचना तिथि”
(iv) “तुलसीदास और बनारस में प्लेग विषयक दूसरा नोट” (v) “तुलसीदास : कवि और सुधारक”
(vi) “तुलसीदास” ( ‘इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रेलिजन एण्ड एथिक्स‘ में 1921 ई. में प्रकाशित)
जार्ज ग्रियर्सन स्वयं अंग्रेज थे और अंग्रेजों के ही उपयोग के लिए लिखा गया यह ग्रन्थ ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में उनके तुलसी पर किए विचार और उनकी टिप्पणियों के आधार पर आइए ‘ग्रियर्सन के तुलसी’ को समझने का प्रयास करते हैं। निम्न बिन्दु ध्यातव्य हैं –
- मर्यादाबोध और क्रिश्चियन चर्च की उपासना पद्धति- गोस्वामी तुलसीदास की ‘मर्यादावादिता’ का प्रभाव उस समय भारतीय जनमानस पर बहुत गहरा था। वह प्रतिबिम्बित होकर उन्हें भी प्रभावित कर रहा था, जो हिन्दू न थे पर हिन्दुओं से उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लगाव अवश्य था। हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास लेखक जार्ज ग्रियर्सन अंग्रेज होकर भी इस प्रभाव से मुक्त न थे। जार्ज ग्रियर्सन तुलसी की मर्यादावादिता को क्रिश्चियन चर्च की उपासना पद्धति के करीब मानते हैं। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ में व्यक्त मर्यादा-बोध की तुलना क्रिश्चियन चर्च की उपासना पद्धति से करते हुए लिखा है कि – “ईश्वर रूप में अवध के राजकुमार राम की पूजा, पत्नीत्व की पूर्ण प्रतिमा सीता की प्रेममयी पति-भक्ति और मातृत्व की मूर्ति कौशल्या स्वाभाविक ढंग से क्रिश्चियन चर्च की उपासना-पद्धति के सर्वोत्तम रूप में विकसित हो गए हैं।”[6]
वहीं श्री ग्राउस जिन्होंने ‘रामायण’ का अंग्रेजी अनुवाद किया, जिससे जार्ज ग्रियर्सन ने पर्याप्त सहायता ली है। उसके अध्ययन के बाद श्री ग्राऊस के ‘रामायण’ के अंग्रेजी अनुवाद के बारे में ग्रियर्सन ने लिखा है- “श्री ग्राउस ने ( उदाहरण के लिए रामायण बालकांड, दोहा 24 की टिप्पणी में) ‘रामचरित‘ के अपने अनुवाद में क्रिश्चियन चर्च और तुलसीदास के सिद्धान्तों की समता की कई बातें इंगित की हैं। हमारे चर्च के मंत्रों में से अनेक ऐसे हैं जो इस महाकवि के द्वारा रचित पद्याशों के अक्षरशः अनुवाद हो सकते हैं।‘”[7]
जार्ज ग्रियर्सन ने महाकवि तुलसीदास को ‘उपदेशक’ की संज्ञा दी है। वह लिखते हैं – “तुलसी प्रतिवासी (Neighbour) के प्रति अपने कर्त्तव्य की शिक्षा देने वाले महान उपदेशक थे। वाल्मीकि ने भरत की कर्तव्य-परायणता, लक्ष्मण की भ्रातृ-भक्ति और सीता के पतिव्रत की प्रशंसा की है, लेकिन तुलसी ने तो आदर्श ही प्रस्तुत कर दिया है।”[8]
सर्वप्रथम जार्ज ग्रियर्सन ने ही महाकवि तुलसीदास को ‘उपदेशक’ स्वीकारा है क्योंकि उन्हें तुलसी का भाष्य’ क्रिश्चियन पादरियों के ‘भाष्य’ जैसा प्रतीत होता है। आगे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी तुलसी को ‘उपदेशक’ स्वीकारते हैं- “इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवत्भक्ति का उपदेश करती है।”[9] “रामचरितमानस‘ में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।”[10]
जार्ज ग्रियर्सन के ‘तुलसी’, ‘नेबरहुड’ (भाईचारे) के भाव के पोषक हैं। उनका सम्पूर्ण ‘रामचरितमानस’ इसी ‘नेबरहुड का काव्य’ है। उन्होंने वैष्णव धर्म की महानता का गुणगान इन्हीं अर्थों में किया है। वह लिखते हैं- “यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो उस सदाशिव स्वरूप के सामने मानव की अनन्त अधमताओं का प्रकथन करता है, साथ ही उसके बनाए हुए प्रत्येक पदार्थ में अच्छाई देखता है, किसी धर्म अथवा दर्शन-पद्धति की निंदा नहीं करता, और शिक्षा देता है कि तुम अपने प्रभु, अपने देवता को सम्पूर्ण हृदय से, सम्पूर्ण आत्मा से, सम्पूर्ण शक्ति से और सम्पूर्ण मन से प्यार करो तथा अपने प्रतिवासी (पड़ोसी) को उतना ही प्यार करो जितना स्वयं अपने को करते हो।”[11] तुलसी की इसी ‘प्रतिवासी’ के भाव को लेकर बच्चन सिंह ने लिखा है- “मानस की नींव गार्हस्थिक जीवन पर रखी गई है। इसी धुरी पर मानवीय रिश्ते भी घूमते रहते हैं।”[12]
इस प्रकार हम देखते हैं कि जार्ज ग्रियर्सन के तुलसी मर्यादा-बोध के कवि हैं वहीं क्रिश्चियन चर्च की उपासना-पद्धति के करीब हैं क्योंकि उनके काव्य में ‘प्रतिवासी’ (नेबर) के प्रति सम्मान का भाव पाया जाता है। उन्होंने इन्हीं अर्थों में तुलसी को ‘उपदेशक’ स्वीकारा है और वहीं बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक भी।
- भक्ति- जार्ज ग्रियर्सन ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से पूर्व ही कबीर की अपेक्षा तुलसी को अधिक महत्वपूर्ण माना है। कारण कि निर्गुणवादी कबीर सगुणवादी तुलसी के समक्ष ‘असामाजिक’ प्रतीत होते हैं। उन्हें कबीर की भक्ति में वो ‘समन्वय’, वो ‘उदात्तता’ और वो ‘आदर्श’ दिखलाई नहीं पड़ता। वो लिखते हैं- “रामोपासना को सर्वप्रिय बनाने वाले रामानंद 1400ई. के आसपास विद्यमान थे। उनसे भी बड़े अनेक प्रसिद्ध शिष्य कबीर थे, जो एक सम्प्रदाय की स्थापना में सफल हुए, जो आज भी जीवित है और जिन्होंने हिन्दू और इस्लाम धर्मों की प्रमुख विशेषताओं का समन्वय किया था। यहाँ हम पहली बार विचारों की उस महान उदारता का स्पर्श करते हैं, जिसका मूल सिद्धान्त रामानंद ने प्रतिपादित किया था और जो उनके सभी अनुयायियों के सिद्धांतों में प्रतियमान हो रही है तथा जो दो शतियों के अनन्तर तुलसीदास के उच्च उपदेशों में अपनी वास्तविक उच्चता को प्राप्त हुई।”[13]
आगे चलकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी यह स्वीकार किया कि निर्गुणवादी भक्त कवि समाज को ‘ विश्रृंखल ‘ करने का कार्य कर रहे थे, जिनकी दृष्टि में तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियाँ और कुरीतियाँ अवश्य थीं पर उसका उनके पास कोई ठोस समाधान नहीं था। सगुणवादी महाकवि तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ के रूप में ‘आदर्श’ स्थापित कर समाधान प्रस्तुत किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं- “सगुण धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो गोस्वामी जी ने। उन्होंने देखा कि उनके वचनों से जनता की चित्तवृत्ति में ऐसे घोर विकार की आशंका है जिससे समाज विश्रृंखल हो जाएगा, उसकी मर्यादा नष्ट हो जाएगी।”[14]
ग्रियर्सन ने सगुण काव्य में भी राम-काव्य को ही कृष्ण-काव्य से अधिक व्यावहारिक, उपयोगी और मर्यादित बतलाया है। जार्ज ग्रियर्सन को कृष्ण-काव्य ‘एकांगी’ और ‘विस्मृत’ प्रतीत होता है। वह कहते हैं- “अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भी कृष्ण-काव्य रामानंद के उपदेशों के उदात्त-तत्वों से रहित है। आत्म-विस्मृति ही नहीं, सर्व-विस्मृति उत्पन्न करने वाला, उस प्रेम-स्वरूप प्रिय के चरणों में निवेदित यह ऐकांतिक प्रेम , इसका सार है, जो प्रायः स्वार्थमय है।”[15]
ग्रियर्सन ने जिस प्रकार कृष्ण-काव्य की अपेक्षा राम-काव्य को अधिक महत्वपूर्ण माना। ठीक उसी प्रकार आगे चलकर आचार्य शुक्ल भी इस बात को स्वीकार करते हैं। कृष्ण-काव्य ‘मनोरंजन’ का काव्य बनकर रह गया था। इसमें जहाँ-तहाँ भक्ति का अतिवादी स्वरूप दिखलाई पड़ता है। सूर का वात्सल्य हो या मीरा की माधुर्य-भक्ति दोनों ही ‘स्वान्तः सुखाय’ का काव्य भर है। आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “भक्ति की चरम सीमा पर पहुँचकर भी लोकपक्ष उन्होंने (तुलसीदास) नहीं छोड़ा। लोक-संग्रह का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था। कृष्णोपासक भक्तों में इस अंग की कमी थी।”[16]
अब ये कहा जा सकता है कि तुलसी के भक्ति के सन्दर्भ में जार्ज ग्रियर्सन की दृष्टि बहुत साफ थी। तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक ‘उपयोगिता’ के आधार पर वह तुलसी की भक्ति का मूल्यांकन करते हैं। ग्रियर्सन की दृष्टि में तुलसी कबीर से कहीं बढ़कर समाज-सुधारक एवं उपदेशक हैं, यही उनकी भक्ति की सफलता है।
- देशकाल- ग्रियर्सन ने तुलसी के भारतीय जनमानस में उभरने को तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में देखा है। उन्होंने बड़ी ही सरलता से यह बात स्पष्ट की है कि किस प्रकार हिन्दू धर्म विकृत होने के कारण ‘शिथिल’ पड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर मुगल साम्राज्य संगठित हो रहा था। ग्रियर्सन लिखते हैं- “अनैतिकता के उस युग में जब हिन्दू समाज के बन्धन शिथिल पड़ रहे थे और मुगल साम्राज्य संगठित हो रहा था, इस ग्रन्थ की सबसे विशिष्ट बात इसकी कठोर नैतिकता है, जो इस शब्द के किसी भी अर्थ में मानी जा सकती है।”[17]
ग्रियर्सन ने तुलसी में जो ‘कठोर नैतिकता’ देखी उसे तत्कालीन भारतीय जनमानस के लिए आवश्यक समझा। ग्रियर्सन ने तुलसी की मर्यादावादिता के केन्द्र में उसमें निहित ‘कठोर नैतिकता’ को स्वीकार किया है।
तुलसी की तत्कालीन धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का चित्रण करते हुए ग्रियर्सन कहते हैं कि तुलसी का आगमन हिन्दुस्तान के लिए ‘परम सौभाग्य’ की बात है। ग्रियर्सन ने तुलसी को ‘महान देवदूत’ की संज्ञा दी है। वह कहते हैं कि तुलसीदास ने तत्कालीन शैव अश्लीलताओं से हिन्दू धर्म में फैल रही इस विकृति पर रोक लगायी है- “हिन्दुस्तान के लिए सचमुच यह परम सौभाग्य की बात है कि यह ऐसा है, क्योंकि इसने इस क्षेत्र को शैव धर्म की तांत्रिक अश्लीलताओं से बचा लिया है। रामानन्द उत्तरी भारत के प्रारम्भिक रक्षक हैं, जिन्होंने उस दुर्भाग्य से बचाया जो कि बंगाल के ऊपर पड़ा। लेकिन तुलसीदास तो वह महान देवदूत हैं, जो उनके सिद्धान्त को पूर्व और पश्चिम ले गए तथा उसे स्थिर विश्वास में परिणत कर दिया।”[18]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस बात को स्वीकार किया कि तुलसी ने प्राचीन भारतीय भक्तिमार्ग की तमाम बुराईयों को दुरुस्त करने का कार्य किया है। और ना सिर्फ दुरुस्त किया बल्कि वे आपसी सद्भाव और सामंजस्य से विवादों को हल करने के पक्षधर रहे हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं- “प्राचीन भारतीय भक्तिमार्ग के भीतर भी उन्होंने बहुत-सी बढ़ती हुई बुराईयों को रोकने का प्रयत्न किया। शैवों और वैष्णवों के बीच बढ़ते हुए विद्वेष को उन्होंने अपनी सामंजस्य व्यवस्था द्वारा बहुत कुछ रोका, जिसके कारण उत्तरी भारत में वह वैसा भयंकर रूप न धारण कर सका जैसा उसने दक्षिण में किया।”[19]
आगे चलकर हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने भी तुलसी को समन्वयकारी कहा है। द्विवेदी लिखते हैं- “भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।”[20]
इस प्रकार ग्रियर्सन ने तुलसी का भारतीय जनमानस में आविर्भाव एक सुखद घटना थी, जिसने ना सिर्फ रूढ़ियों और विकृतियों को नष्ट किया बल्कि सुनहरा मर्यादित भविष्य भी अपनी समन्वयकारी दृष्टि से प्रस्तुत किया।
- भाषा-शैली- जार्ज ग्रियर्सन ने तुलसी की भाषा पर भी गहराई से विचार किया है। यह बात जितनी सराहनीय है, उससे कहीं अधिक सराहनीय बात यह है कि उन्होंने उस ‘समय’ इस पर विचार किया जब भाषा की ‘शैली’ की जो समझ आज है, वो शायद ही किसी को थी। जार्ज ग्रियर्सन ने ‘रामचरितमानस’ की भाषा ‘पुरानी बैसवाड़ी’ को स्वीकारा है। उन्होंने लिखा है- “जहाँ तक तुलसीदास की शैली का सम्बंद्ध है, वे सरलतम् प्रवाहपूर्ण वर्णनात्मक शैली से लेकर जटिलतम् सांकेतिक पद्य-प्रणाली तक सभी के आचार्य थे। उन्होंने सदैव पुरानी बैसवाड़ी बोली में लिखा है और यदि एक बार इसकी विशेषताएँ भली-भाँति समझ ली जाएँ, तो उनका रामचरितमानस सरलता एवं आनंद के साथ पढ़ा जा सकता है।”[21]
जार्ज ग्रियर्सन ने अपने समय का और प्रायः आज का भी सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया है कि उन्होंने भारतीय भाषाओं के सर्वेक्षण का कार्य किया। उन्होंने न सिर्फ शैली की दृष्टि से तुलसी को देखा बल्कि ध्वनि की दृष्टि से भी उस पर विचार किया है। ग्रियर्सन लिखते हैं- “तुलसीदास ने शब्दों को प्राचीन बोली में, ध्वनि की दृष्टि से उस ढंग से लिखा था, जिस ढंग से वे उनके समय में उच्चरित होते थे।[22]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी ग्रियर्सन की भाँति तुलसी की भाषा को बारीकी से परखा। आचार्य शुक्ल ने भी तुलसी की भाषा में वह वर्णननात्मकता और प्रवाहपूर्णता के साथ-साथ भाषायी मर्यादा भी स्पष्ट रूप से देखी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं- “खेद है कि भाषा की यह सफाई पीछे होने वाले बहुत कम कवियों में रह गयी। सब रसों की सम्यक् व्यंजना उन्होंने की है, पर मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया है। प्रेम और श्रृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है। हम निः संकोच कह सकते हैं कि यह एक कवि ही हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।”[23]
- पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ- ग्रियर्सन तुलसी के काव्य विशेषकर ‘रामचरितमानस’ पर इसलिए मुग्ध थे क्योंकि मानस ने न सिर्फ नायक पात्रों के आदर्श प्रस्तुत करते हैं बल्कि उसके खलपात्र भी कहीं से कम नहीं दिखलाई पड़ते। ग्रियर्सन को ना सिर्फ नायक पात्र अपना प्रभाव जमाते हुए पाए जाते हैं बल्कि खलपात्र भी। वे लिखते हैं- “इनके खलपात्र भी केवल कालिमा से पुती तस्वीरें नहीं हैं प्रत्येक की अपनी चरित्रगत विशिष्टता है और इसमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसमें दोष की कमी को पूरा करने वाला कोई गुण न हो।”[24]
- अंग्रेजी साहित्य से तुलना- जार्ज ग्रियर्सन ने महाकवि तुलसीदास की तुलना जगह-जगह अंग्रेजी साहित्य और उनके कवियों और उनके पात्रों से की है। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ के पात्रों के सन्दर्भ में स्पष्ट लिखा है- “इस समय जब मैं लिख रहा हूँ ये सब मेरे अन्तः चक्षुओं के सामने उसी स्पष्टता के साथ विद्यमान है, जिस स्पष्टता के साथ सम्पूर्ण अंग्रेजी साहित्य का कोई भी चरित्र विद्यमान हो सकता है।”[25] ग्रियर्सन ने ‘रामचरितमानस’ की तुलना ‘बाईबिल’ से की है। उन्होंने लिखा है- “यह 10 करोड़ जनता का धर्मग्रंथ है और उसके द्वारा यह उतना ही भगवत्प्रेरित माना जाता है, अंग्रेज पादरियों द्वारा जितनी भगवत्प्रेरित ‘बाइबिल‘ मानी जाती है।”[26]
- आलोचना- जार्ज ग्रियर्सन ने तुलसी और उनके काव्य पर ‘एकांगी’ दृष्टि से विचार नहीं किया है, बल्कि उन्होंने तुलसी पर आलोचनात्मक दृष्टि भी डाली है पर उनकी यह ‘दृष्टि’ ही ‘एकांगी’ है। तात्पर्य यह कि ग्रियर्सन तुलसी के सम्पूर्ण काव्य को सिर्फ इसलिए नकार देते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में ‘रामचरितमानस’ का युद्ध-वर्णन अस्वाभाविक प्रतीत होता है। और सिर्फ इतनी-सी बात को लेकर यह तक कह बैठते हैं कि तुलसीदास प्राचीन भारतीय काव्य-प्रणाली से बाहर नहीं निकल सके हैं। वे लिखते हैं- “तुलसीदास भी भारतीय काव्य-प्रणाली के परंपरागत घने कुहासे से पूर्णतया बाहर नहीं उठ सके हैं। मैं स्वीकार करता हूँ कि उनके युद्ध-वर्णन प्रायः अस्वाभाविक और विकर्षक हैं और कभी-कभी दुखद और उपहास्यापद के बीच की सीमा का भी अति-क्रमण कर जाते हैं।”[27] अब यह बात आश्चर्यचकित करता है कि क्यों ग्रियर्सन को तुलसी का ये युद्ध-वर्णन अस्वाभाविक प्रतीत होता है? हो सकता है कि युद्ध-वर्णन में वर्णित भारतीय मिथकों और उनकी क्रियाविधि उन्हें अतियुक्ति लगी हो।
वे आगे लिखते हैं- “देशी लोगों की दृष्टि में कवि के लिखे हुए ये ही सर्वोत्तम छंद हैं पर मैं ऐसा नहीं समझता कि सुसंस्कृत यूरोपीय को इनमें कभी अधिक आनंद आ सकता है। राम को बराबर विष्णु के अवतार रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता भी उनके मार्ग में बाधक हुई है। यद्यपि भावुक भक्त की दृष्टि में यह विनम्र श्रद्धाभाव मात्र है, पर हम म्लेक्षों के लिए तो यह घोर अतियुक्ति ही है।”[28]
- महत्व- ग्रियर्सन ने तुलसी और उनके काव्य के महत्व को रेखांकित किया है। ग्रियर्सन की दृष्टि में तुलसी एक बड़े कवि हैं, जो यूरोपीय ही नहीं बल्कि भारतीय विद्यार्थियों से भी बच गए हैं। तुलसी एक मात्र ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य में उपमाएँ सीधे प्रकृति से ली हैं, न कि अपने पूर्ववर्ती कवियों से। वे लिखते हैं- “अब मैं एक और बात पर बल देना चाहता हूँ, जो, मेरा खयाल है कि यह कवि भारतीय विद्यार्थियों की दृष्टि से भी बच गया है। सम्भवतः यह एक मात्र बड़े भारतीय कवि हैं, जिसने अपनी उपमाएँ सीधे प्रकृति की पुस्तिका से ली है, न कि अपने पूर्वगामी अन्य कवियों से।”[29]
ग्रियर्सन ने तुलसी के महत्व को उनकी भक्ति पद्धति के सन्दर्भ में भी आँका है। वे स्वीकारते हैं कि तुलसी की भक्ति की बड़ी विशेषता या सफलता का कारण यह है कि उनकी भक्ति ‘दास्य-भावना’ की भक्ति है। वे लिखते हैं- “कालिदास ने राम से झूटी का नाम लिया, जिस पर वे अपनी मधुर रचनाएँ लटका सकें, पर तुलसी ने चिर सौरभ की माला गॅथी और जिस देवता की भक्ति वे करते थे, उसके चरणों में उसे दीनतापूर्वक चढ़ा दी।”[30] ग्रियर्सन ने इसी दास्य-भावना को तुलसी की भक्ति के केन्द्र में माना और यही उन्हें सफल और महत्वपूर्ण बनाता है। ग्रियर्सन ने आगे लिखा है- “तुलसी ने कभी भी एक पंक्ति नहीं लिखी, जिसमें वे अन्तरात्मा से विश्वास न करते हों। वे अपने विषय, अपने स्वामी की भक्ति और उनके गौरव में पूर्णतया निमग्न थे, और वह भक्ति और गौरव उनसे इतने उच्च थे कि वह सदैव अपने को दीन समझते रहे। जैसा कि वह कहते हैं –
“करन चहऊँ रघुपति गुनगाहा।
लघु मति मोरि, चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ।
मन मति रंक मनोरथ राऊ॥”[31]
उपसंहार एवं निष्कर्ष- सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन निश्चित तौर पर एक महान अध्येता एवं विद्वान थे। सर्वप्रथम उनके द्वारा ही हिन्दी साहित्य का इतिहास, ‘इतिहास’ के रूप में देखा गया, जिसने निश्चित परवर्ती साहित्येतिहासकारों का मार्गदर्शन किया। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य उनके इस अभूतपूर्व कार्य के लिए उनका आभारी है और रहेगा। उनकी हिन्दी साहित्य के इतिहास की ‘प्रथम’ पुस्तक- ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक व्यवस्थित खाँका प्रस्तुत करती है। इसके बावजूद उनकी दृष्टि ‘भारतीय’ दृष्टि नहीं हो पायी है। सर्वथा उनकी दृष्टि हिन्दी साहित्य को अंग्रेजी साहित्य के बरक्स दोयम दर्जे की रही है। वे सर्वथा अपनी इस दृष्टि को ‘निष्पक्ष’ नहीं कर पाए हैं।
ग्रियर्सन ने ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में तुलसीदास पर जो अपने आलोचनात्मक विचार रखे हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी दृष्टि पूरी तरह ‘औपनिवेशिक’ ही रही है।
जार्ज ग्रियर्सन कितने भी थे तो पहले अंग्रेज और अंग्रेजी सत्ता के पक्षकार, बाद में ही वे विद्वान या हिन्दी साहित्य के इतिहासकार। उन्होंने तुलसी की मर्यादावादिता को सराहा, उसे पसंद दिया क्योंकि उन्हें तुलसी में ‘नेबरहुड’ का भाव दिखता है जो उनके क्रिश्चियन धर्म की उपासना पद्धति के करीब है। इसके बाद उन्होंने तुलसी के आविर्भाव को भारतीय जनमानस के लिए सकारात्मक रूप में देखा है। उन्होंने तुलसी की भाषा को भी पर्याप्त सराहा। साथ ही यह भी स्वीकारा किया कि ‘रामचरितमानस’ के किसी भी पात्र का स्मरण उन्हें अंग्रेजी साहित्य के बड़े पात्रों की भाँति ही होता है। इस सबके बावजूद उनकी दृष्टि में वहाँ ‘विकृति’ आ जाती है, जहाँ वे यह लिखते हैं कि तुलसी भारतीय परिदृश्य में कितने ही बेहतर और प्रभावी क्यों न हों, उनके सर्वोत्तम छंद भी एक ‘सुसंस्कृत यूरोपीय’ को ‘आनंद’ प्रदान नहीं कर सकता। इसके आगे बढ़कर उनकी दृष्टि ना सिर्फ ‘औपनिवेशिक’ रहती है बल्कि ‘साम्प्रदायिक’ भी हो जाती है। उन्हें तुलसी की ‘भक्ति’ एक भक्त की दृष्टि से ‘विनम्र श्रद्धाभाव’ जरूर प्रतीत होता है पर उन जैसे ‘म्लेक्षों’ के लिए यह ‘अतियुक्ति’ ही है।
ग्रियर्सन की दृष्टि निश्चित तौर पर आधुनिक दृष्टि है, जिस दृष्टि से उन्हें ‘रामचरितमानस’ अस्वाभाविक प्रतीत होता है। और एक आधुनिक विचारक और विद्वान के लिए यह प्रतीति स्वाभाविक भी है। चलो हम यह बात मान लेते हैं, पर ग्रियर्सन यहाँ आकर फंस गए हैं, जहाँ उन्होंने यूरोपियों को ‘हम म्लेक्षों’ से सम्बोधित किया है ओर स्वयं को ‘म्लेक्ष’ कहा है। ‘सुसंस्कृत यूरोपीय’ तक तो समझ आता है कि आपकी ‘दृष्टि’, ‘आधुनिक’ है, पर जैसे ही आप स्वयं के लिए ‘म्लेक्ष’ शब्द प्रयोग करते हैं, वहीं आपकी दृष्टि में ‘विकृति’ आ जाती है और आपकी दृष्टि ‘साम्प्रदायिक’ हो जाती है। ईसाई धर्म में उसके अनुयायियों का ईशु मसीह के प्रति ‘विनम्र श्रद्धाभाव’ नहीं मौजूद है क्या? ईसाई धर्म के धर्म-ग्रंथ ‘बाईबिल’ में जिस तरह से ईशु मसीह को उनकी कार्य-विधियों को ‘भगवत्प्रेरित’ बताया गया है, वो ‘अतियुक्ति’ नहीं है क्या? इस्लाम में उसके धर्म-ग्रंथ ‘कुरान’ को आसमान से गिरा बतलाया गया है, क्या यह ‘अतियुक्ति’ नहीं है? कहने का तात्पर्य यह है कि दुनिया के लगभग सभी धर्मों में इस तरह की ‘अतियुक्तियाँ’ मौजूद हैं और उसी तरह की ‘अतियुक्तियाँ’ उस ‘मध्यकालीन’ दौर में रचित लगभग विश्व के सभी धार्मिक साहित्य में देखी जा सकती हैं। अब ‘रामचरितमानस’ में जो मध्यकाल की कृति है, अगर इस तरह के भारतीय मिथकों का अतियुक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है, जो स्वाभाविक है, को लेकर पूरे ‘रामचरितमानस’ को ‘अस्वाभाविक’, ‘विकर्षक’, ‘दुखद’ और ‘उपहास्यास्पद’ कह देना, कहीं से भी उचित नहीं है। यहाँ ग्रियर्सन की आधुनिक नहीं बल्कि साम्प्रदायिक दृष्टि मुखर होती है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के तुलसी अपनी तमाम खूबियाँ उनकी ‘विकृत’ दृष्टि में ‘दोयम’ दर्जे की सिद्ध होती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य को ‘आधुनिक दृष्टि’ से देखा और उसे ‘इतिहास’ रूप में प्रस्तुत किया। बावजूद इसके उनकी यह ‘आधुनिक दृष्टि’ एक भारतीय की दृष्टि से ‘विकृत’ है। कारण कि ग्रियर्सन की आधुनिक दृष्टि जहाँ से ‘पोषित’ होती है, वहीं से यह ‘औपनिवेशिकता’ भी पोषित होती है और फिर यही ‘औपनिवेशिकता’ आगे चलकर ‘साम्प्रदायिक’ भी हो जाती है, जहाँ से स्वयं की श्रेष्ठता’ का भाव पोषित होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, संस्करण-2014, प्रकाशन संस्थान, दरियागंज, नई दिल्ली।
- ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’, सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन; द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता, पार्क स्ट्रीट द्वारा प्रकाशित।
सटिप्पण अनुवाद –
‘हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास’, किशोरीलाल गुप्त
- हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संस्करण-2016, राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली।
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, संस्करण-2019, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली।
[1] पृष्ठ सं.-21, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[2] पृष्ठ सं.-25, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[3] पृष्ठ सं.- 25, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[4] पृष्ठ सं.- 21, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[5] पृष्ठ सं.- 25, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[6] पृष्ठ सं.- 62, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[7] पृष्ठ सं.- 62 द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[8] पृष्ठ सं.- 137, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[9] पृष्ठ सं. 113, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[10] पृष्ठ सं. 117, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[11] पृष्ठ सं.- 62, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[12] पृष्ठ सं. 144, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह
[13] पृष्ठ सं.-62 , द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[14] पृष्ठ सं.-113, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[15] पृष्ठ सं.-63, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[16] पृष्ठ सं.-115, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[17] पृष्ठ सं.-137, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[18] पृष्ठ सं.-137, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[19] पृष्ठ सं.-115, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[20] पृष्ठ सं.-98, हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
[21] पृष्ठ सं.-142, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[22] पृष्ठ सं.-146, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[23] पृष्ठ सं.-118, हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[24] पृष्ठ सं.-143, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[25] पृष्ठ सं.-143, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[26] पृष्ठ सं.-137, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[27] पृष्ठ सं.-144, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[28] पृष्ठ सं.-144, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[29] पृष्ठ सं.-145, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[30] पृष्ठ सं.-145, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन
[31] पृष्ठ सं.-144, द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, जार्ज ग्रियर्सन