- वह नदी नहीं माँ है।
मेरे बचपन में मेरी माँ ने एक किस्सा सुनाया
कि गंगा माँ को आर-पार की पियरी चढ़ाई
और बदले में पुत्ररत्नका उपहार पाया
धीरे-धीरे मैं बड़ा होकर अपने यौवन अवस्था में
पुनः उसी नदी के तट पर नौकाविहार करने आया
और नदी की चंचल लहरों ने अपने निर्मल जल से दुलार कर
मेरे उज्जवल जीवन के शुभकामना संदेश को सुनाया
आज जीवन के अंतिम समय में
मेरे तमाम नातेदार रिश्तेदार
मेरे निर्जीव नश्वर शव को
रख आये नदी के तट पर
और तिरोहित कर दिया सारा प्यार दुलार
भाव अनुराग यह समझकर कि डुबो देगी नदी
इन्हें मेरे साथ अतल गहराई में
लेकिन नहीं नदी की लहरों ने नहीं डुबोया मुझे
लगाकर अपने वक्षस्थल से घुमाती रही पूरे नदी तट पर
कुछ इस तरह जैसे कोई माँ अपने
नवजात शिशु को स्तनपान करा रही हो।
और दुनिया को यह बता रही है ये मेरा अंश है
और उद्घाटित कर रही इस सत्य को वह नदी नहीं माँ है।
- कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार
कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार
वर्षों पहले तुम आते थे
अपनी कांव-कांव से यह बताते थे
कि प्रिय घर आने वाले हैं।
और मैं सज धज कर
तैयार हो जाती थी तुम्हारे इंतजार में।
और प्रेम कबूतर तुम
तुम भी नहीं आते हो
न चिट्ठियां लेकर जाते हो
न साजन का कोई नया संदेश सुनाते हो
न निशि दिन छत की मुंडेर पर खडी
निर्मल आकाश को निहारती रहती हूँ
और तुम ‘निष्ठुर’ पक्षी नहीं आते हो
और हीरामन तुम
तुमने तो न जाने कितनी बार पिया मिलन की आश जगाई
बार-बार उनका नाम पुकार मेरी प्रीत खूब बढ़ाई।
खैर मैने भी तुम्हारी निष्ठुरता से तंग आकर
एक वैज्ञानिक यंत्र कम्यूटर से दोस्ती कर ली
और प्रतिदिन ई-मेल चैटिंग से
प्रेम पथ पर बढ़ रहे हैं
महीनों बाद आज फिर तुम तीनों की याद आई है।
क्योंकि आज मेल बाउंस हो गया है।
और संदेशे का जवाब आया है कि
प्राप्तकर्ता अपने पते पर उपलब्ध नहीं है।
इसलिए तुम तीनों से हाथ जोड़कर है ये गुहार
कि फिर से पधारो म्हारो द्वार !
- गौरेया के हक में
गांव के चौपाल में चहकती गौरेया
मीठे-मीठे गीत सुनाती गौरेया
गुड़िया को धीरे से रिझाती गौरेया
याद आज आती है
हरेःभरे पेड़ों पर फुदकती गौरेया
घर के मुंडेर पर थिरकती गौरेया
स्मृति में बस जाती है
घर के चौखट पर नन्ही-सी गुड़िया
पास में फुदकती प्यारी-सी चिड़िया
लुका-छिपी का यह खेल क्रम-दर-क्रम बढ़ना
यादों के झरोखे से एक मधुर संगीत सुनाती है
धीरे-धीरे यादें अब अवशेष रह गई
लुका-छिपी का खेल स्मृति-शेष रह गया।
न रहा गांव, न रहा मुंडेर
गौरेया कहानी के बीच रह गई
गुड़िया अब बड़ी होकर सयानी हुई
उसके एक मुनिया रानी हुई
जिसे उसने गौरेया की कहानी सुनाई
मुनिया मुस्कराई फिर चिल्लाई
मां गौरेया तो दिखाओ
कहानी की वास्तविकती तो समझाओ
मुनिया के प्रश्नों पर गुड़िया झुंझलाई
दिल का दर्द आंखों में छलक आया
मुनिया को मोबाइल टावर दिखाया
फिर उसको धीरे से समझाया
इसमें बैठा है एक भयानक दरिंदा
जिसने छीना हमसे एक प्यारा परिंदा
गौरेया का दुश्मन हमने बनाया
उसे छाती-पेट से लगाया
उसने छीना है हमारी प्यारी गौरेया
रह गई स्मृतियों मे न्यारी गौरेया
गौरेया को यदि बचाना है
तो दरिंदे को मिटाना है
नहीं तो कहानियों में रह जाएगी गौरेया
मुनिया के प्रश्नों का उत्तर ना दे पाएगी दुनिया।
- चलो एक दीया फिर से जलाएं
चलो एक दीया,
फिर से जलाएं।
अंधेरे को धरा से,
मार भगाएं।
रहे जिनकी जिंदगी मे,
सदा है अंधेरे।
उजाले न आए,
कभी न देखे सबेरे ।
उन्हें आके फिर से,
सजाए-संवारें।
चलो एक दिया
फिर से जलाएं।
अंधेरे को धरा से
मार भगाएं।
निशा बन गई,
जिनकी जिंदगी की।
कहानी,
हमेशा है देखी।
दुख और परेशानी,
उनके दर्द और घावों,
पर मरमह लगाएं।
चलो एक दिया,
फिर से जलाएं।
तिमिर है घना
रात्रि न कटने वाली।
आएगी जीवन में दिवाली।
चलो उनके जीवन में,
सूरज बनके आएं।
उनके अंधकारपूर्ण जीवन में,
चांदनी बिखराएं।
चलो एक दीया,
फिर से चलाएं।
अंधेरे को धरा से,
मार भगाएं।
- ऐसा मजहब चलाएं
चलो
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं
दर्द होरी के आंगन में उतरा हो
आंखें जुम्मन की भर आए
रामचरित मानस की चौपाइयां
और कुरान के पैगाम
जहां साथ बैठकर
सुनाए जाएं
चलो
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं।
ईद की सिवइयां दिवाली के दीये
साथ मिल के खिलाई-सजाए जाएं
सपने अकबर ने जो आंखों में पाले
अमर की नजरे से देखे जाएं
चाहे मदरसे हों या गुरु आश्रम
गीत देशभक्ति के केवल गाए जाएं
चाहे गुरुद्वारा हो या गिरजाघर
केवल नफरत समाप्त करने के संदेश आएं
केवल एक सपना आंखों में पालें
सबसे बेहतर आंखों में पालें
सबसे बेहतर हो हिन्दुस्तान वाले
केवल तरक्की और विकास के
सपने आंखों में पाले जाएं
झंडा ऊंचा रहे हमारा
ये सपने लेकर जिंदा रहें
और इसी सपने को पूरा
करते हुए खप जाएं
चलो
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इसांनियात के गीत गाए जाएं।
- प्रिय तुम मेरी कविताओं मे आओगे
जब रात चाँदनी रो रोकर
कोई गीत नयी सुनाएगी
ओस की बूँद बनकर
धरती पर वह छा जाएगी
उसकी उस मौन व्यथा को
को तुम शब्दों का रूप दे जाओगे
प्रिय तुम मेरी कविताओ में आओगे
जब आँख के आसू बहकर के
कपोलों पर ठहरे होगे
जब काजल के शब्दो ने
कुछ गीत नए लिखे होगे
तब इन गीतों के शब्दो मे
तुम ध्वनि बनकर बस जाओगे
प्रिय तुम मेरी कविताओ मे आओगे
जब पीड़ा अपने स्वर को
कैनवस पर मुखरित करेगा
गजल और गीत बनकर वो
मन मन्दिर को हर्षित करेगी
तब तुम श्याम की बासुरी बन करके
तन-मन को महकाओगे
प्रिय तुम मेरी कविताओं मे आओगे
7. नदी कुछ सोच रही है
नदी कुछ सोच रही है
जैसे कुछ मौन की भाषा बोल रही है
देख रही है वहां निरावृत्त करते हुए तुम्हें
इस सुन्दरतम धरा को
देख रही है श्रध्दा करते हुए, उस श्रध्दा का
जो वर्षे से तुम्हारे ह्दय में था।
बाजारवाद के इस युग में
तुम उसे दुःशासन बन निर्वस्त्र कर रहे
तमाम लोक- लज्जा और हया त्यागकर
उसे तुम अस्त-व्यस्त कर रहे।
तुम्हारी इस घिनौनी हरकत से
वह नाले में तब्दील हो रही ।
इसकी प्रभा दिन-प्रतिदिन क्षीण-मलिन हो रही
तुम अपनी तमाम ओछी हरकतों से
उसे छल रहे-मिटा रहे हो
उसके अस्तित्व, उसके वजूद को तोड़-मसल रहे।
लेकिन सावधान! नदी का अस्तित्व तुम्हारे जीनव का प्राणवायु है
उसके त्याग, बलिदान और संयम के कारण तुम चिरायु हो
तो अब! अपने इस चिंतन में बदलाव लाओ
नदी माँ स्वरूपा है, इसका खोया गौरन वापस लाओ।
राकेश धर द्विवेदी
गोमती नगर
लखनऊ