हिंदी साहित्य के इतिहास में कबीर एक ऐसे प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी विद्यमान है। उनके जिक्र मात्र से हमारे समक्ष वही मध्ययुगीन पतनोंन्मुख समाज का चित्र उभरता है जिसे शायद ही कोई अपनी स्मृति में संजोए हुए रखना चाहता है। कितना भयावह परिस्थिति रहा होगा हमारे देशवासियों के लिए जब उन्हें विभिन्न धार्मिक-राजनैतिक विपत्तियों का सामना एक साथ करना पड़ा होगा? यह सोच कर ही मन बैचेन हो उठता है। ऎसी विपरीत परिस्थिति में कबीर का आविर्भाव किसी चमत्कार से कम नहीं है। कबीर ने हमारे समाज के लिए जो किया है उसे शब्द-बद्ध करना टेढ़ी खीर से कम नहीं है। इसके बावजूद कबीर के महत्व को समझने और समझाने का प्रयास हिंदी के आलोचकों ने बखूबी किया है। विभिन्न आलोचकों ने अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर कबीर पर दर्जनों पुस्तकें रच डालें हैं। जिसका प्रमाण निम्नलिखित पुस्तकें हैं।

  1. रामनिवास चंडक- कबीर : जीवन दर्शन
  2. सं. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध- कबीर वचनावली
  3. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर
  4. श्याम सुंदर दास- कबीर ग्रंथावली
  5. रामकुमार वर्मा- कबीर का रहस्यवाद
  6. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी- कबीर साहित्य की परख
  7. डॉ. एफ. ई. के.- कबीर तथा उनके अनुयायी
  8. कबीर की विचारधारा- डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत
  9. सं. विजयेन्द्र स्नातक- कबीर
  10. डॉ. केदारनाथ दुबे- कबीर और कबीरपंथ का तुलनात्मक अध्ययन
  11. डॉ. रामजीलाल सहाय- कबीर की दार्शनिक विचारधारा का आलोचनात्मक अध्ययन
  12. डॉ. धर्मबीर- कबीर बाज भी, कपोत भी, पपीहा भी। कबीर के आलोचक। कबीर के कुछ और आलोचक
  13. पुरूषोत्तम अग्रवाल- अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय

इन पुस्तकों के अतिरिक्त कबीर से सम्बंधित विभिन्न लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी आलोचकों ने कबीर को विभिन्न दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है। सर्वप्रथम कबीर के आविर्भाव के समय को अगर ले तो हम देख सकते हैं कि उसमें विद्वानों की एक राय नहीं है। जहाँ हरिऔध जी ने कबीर के जन्म-मरण का एक अच्छा-ख़ासा विवरण पत्र तैयार किया है वहीं डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने उनकी आयु की लकीर 120 वर्षों तक खींच डाली है। परन्तु सभी अतिशयोक्ति को खंडित कर डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने कबीर की आयु को 78 वर्ष तक बताया हैं। विद्वानों के द्वारा कबीर की जन्म-मृत्यु से जुड़ी जो गणित बिठाने की कोशिश की गयी है, उसके द्वारा विद्यार्थियों में भ्रम का कोहरा सुदूर तक फैला हुआ है। यह हिंदी के आलोचकों की पहली सीमा है जिसके कारण आलोचक आपस में टकराते फिरते है। उसके पश्चात उनकी जन्म संबंधी किवदंतियों को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। किसी ने उन्हें विधवा ब्राह्मण की पुत्र के रूप में चित्रित किया है तो किसी ने मुसलमान दंपत्तियों के संतान के रूप में उन्हें व्याख्यायित किया है। इसके पश्चात कबीर के जाति को लेकर धर्मवीर ने सभी ब्राह्मण आलोचकों पर आरोप-प्रत्यारोप किया। उन्होंने एक सिरे से हरिऔध, श्याम सुंदर दास, रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के महत्व को नकारा। इस नकारात्मक्ता के पीछे उनकी क्या वजह रही यह किसी से छिपी नहीं है। आलोचकों की यह प्रारंभिक टिप्पणी आगे चलकर विभिन्न बहसों और विमर्शों को जन्म देने वाली सूत्र वाक्य बन जायगी,  इसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की होगी। इस तरह कबीर के आलोचकों के साथ-साथ कबीर की आलोचना प्रारंभ हुई।

हम सभी जानते हैं, कबीर के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में हिंदी के आलोचक एकमत नहीं है। आलोचकों की तीखी नजर कबीर जैसे प्रतिभा मंडित व्यक्ति का चीर-फाड़ कर हर ऐंगल से देखने का कार्यक्रम सिलसिले वार से शुरू कर दिया। कबीर के व्यक्तित्व से जुड़ी शायद ही कोई कोना आलोचकों की कलम की धार से छूटी हो। सभी आलोचक हथियारबंद होकर कबीर के पीछे जुटे हुए हैं, ताकि कबीर संबंधी नये-नये तथ्य उजागर कर सकें। आलोचकों का यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है। आगे आलोचकों के द्वारा किए गए चेष्टा को दिखाने का प्रयास हुआ है। सर्वप्रथम रामस्वरुप चतुर्वेदी की दृष्टि में कबीर के व्यक्तित्व को समझने का प्रयास हुआ है। कबीर के विषय में उनकी राय कुछ इस प्रकार है- “अपने कृतित्व को समाज से मिलाकर और अपने व्यक्तित्व को रचना से अभिन्न करके वे सच्चे अर्थों में ‘सुकवि’ बनते हैं, जिनके ऊपर जरा-मरण के नियमों का असर नहीं होता। कबीर इसी कोटि के रचनाकार है।”1  यहाँ कबीर के ‘कवि’ स्वरूप को दिखाया गया है। कहीं न कहीं बच्चन सिंह भी कबीर के विषय में यही विचार रखते हैं। तभी तो वे लिखते हैं- “कबीर ने साहित्य के लिए साहित्य नहीं लिखा। मस्तमौला राम को साहित्य से क्या मतलब? पर उनका उच्छल आवेग, मानवीय संवेदना, घर जीवनबोध उनके ‘कहन’ को साहित्य बना देते हैं।… दीन-दुखियों के लिए लड़नेवाले व्यक्ति का काव्य काव्यत्व से रिक्त हो ही नहीं सकता।… उनकी कविता की भाषिक संरचना, जो औरों से अलग है, बताती है कि यह कवि की वैश्विक दृष्टि के अनुरूप है। उनकी संरचना को मुख्यतः विसंगतियों, विरोधाभासों और विडंबनाओं से बुना गया है। उसकी बुनावट एक अलग काव्यशास्त्र के निर्माण की माँग करती है।”2 बच्चन सिंह कबीर को केवल कवि के रूप में देखने के पक्षपाती नहीं हैं बल्कि उससे एक कदम आगे, उन्हें एक क्रांतिकारी व्यक्ति के रूप में भी स्वीकारते हैं। इसलिए लिखते हैं- “उन्हें सुधारक कहना उनके महत्व को कम करना है। वे एक ऐसे धर्म की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न कोई हिन्दू हो न मुसलमान, न कोई मौलवी हो न पुरोहित, न कोई शेख हो न बरहमन, सब मनुष्य हों। यह क्रांतिकारी कदम था न कि सुधारवाद।”3 अर्थात् कबीर समाज में समता के भाव को विस्तारित करना चाहते थे।

इसलिए अपने समय के विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध जाकर, धार्मिक-सामाजिक बंधनों को तोड़कर, किसी दुर्घटना की परवाह  किये बिना साहस के साथ कबीर अपनी वाणी को घोषित करते रहे। उन्होंने निर्भिक्ता के साथ कट्टरपंथी हिंदुओं और मुसलमानों का माखौल भी उड़ाया। रामकुमार वर्मा यूँ ही कबीर के व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं थे। इसके पीछे कबीर का वह तेवर है, जिसके चलते उन्होंने समाज की खोखली और सड़े-गले रीति रिवाजों को दर किनारे किया। कबीर ‘सच्ची इंसानियत के मुरीद थे’। कबीर के इस रूप को पहचान कर वर्माजी कहते हैं- “ऐसी स्वतंत्र प्रवृत्ति वाला कलाकार किसी साहित्य-क्षेत्र में नहीं पाया गया। वह किन-किन स्थलों में विहार करता है, कहाँ-कहाँ सोचने के लिए जाता है, किस प्रशांत वन-भूमि के वातावरण में जाता है, ये सब स्वतंत्रता के साधन उसी को ज्ञात थे, किसी अन्य को नहीं। उसकी शैली भी इतना अपनापन लिये हुए है कि कोई उसकी नकल भी नहीं कर सकता। अपना विचित्र शब्द-जाल, अपना स्वतंत्र भावोन्माद, अपना निर्भय आलाप, अपने भावपूर्ण पर बेढंगे चित्र, ये सभी उसके व्यक्तित्व के ओत-प्रोत थे। कला के क्षेत्र का सब कुछ उसी का था।”4 और क्यों न हो, उन्होंने देशाटन करके समस्त अनुभूतियों को कविता के द्वारा अभिव्यक्त जो किया है। भले ही उनके पास शास्त्र ज्ञान का अभाव रहा परंतु यह अधूरापन उनकी वाणी में कभी नहीं दिखा। विलक्षण प्रतिभा के कारण उनके काव्य का कला पक्ष हमेशा मजबूत रहा। उनकी कविताओं में अलंकार की रमणीयता, प्रतीक विधान, छंद विधान, भाव एवं रस की योजना आदि का प्रयोग अत्यंत स्वभाविक रूप से हुआ है। परन्तु नन्ददुलारे वाजपेयी पाठक वर्ग को कबीर की एक नयी छवि दिखाने में विश्वास रखते हैं। उनकी नज़र में कबीर किसी महात्मा पुरूष से कम नहीं उभरते हैं। उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ में कबीर पर अपना मत प्रकट करते हुए लिखा है- “कबीर महात्मा थे और उनके द्वारा साहित्य में पूत भावनाओं का समावेश हुआ। काव्यत्व के विचार से उन पूत भावनाओं का उत्कर्ष चाहे अधिक न हो पर इससे उनका महत्व किसी प्रकार कम नहीं होता।”5 वास्तव में कबीर किसी महात्मा से कम नहीं हैं। महात्मा होने के सभी गुण उनमें विद्यमान हैं। उन्होंने महात्मा पुरुष की भाँति अपने समय के सभी अनीति-अत्याचार पर प्रबल प्रहार किया है। समाज की बुराइयों को मिटाने के लिए लोगों का सही दिशा निर्देश किया है। शास्त्र ज्ञान से अधिक सदाचरण पर बल अधिक ध्यान दिया है। (मैं कहता हौं आँखिन की देखी, तू कहता कागद की देखी ।/ मैं कहता सुरझावनहारि, तू राख्यौ उरझाई रे।) वहीं दूसरी तरफ राम-रहीम की एकता की बात कही है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के क्षेत्र में पहले ऐसे आलोचक हैं, जिन्होंने कबीर की प्रतिभा को उभारते हुए उसे समकालीन समाज में प्रासंगिक बना दिया। जिस प्रकार आचार्य शुक्ल ने जायसी के कवि प्रतिभा को रेखांकित किया, उसी प्रकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के युगांतकारी प्रतिभा को उजागर किया। ‘कबीर’ नामक पुस्तक में द्विवेदी जी साफ़ लिखते हैं- “कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य-रूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है। समाज-सुधारक के रूप में, सर्व-धर्मसमन्वयकारी के रूप में, हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य-विधायक के रूप में, विशेष सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में और वेदान्त-व्याख्याता दार्शनिक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता, विविध भांति गावहिंश्रुति-संता’ के अनुसार कबीर-कथित हरि की कथा का विविध रूप में उपयोग होना स्वाभाविक ही है। पर कभी-कभी उत्साहपरायण विद्वान गलती से कबीर को इन्ही रूपों में से किसी एक प्रतिनिधि समझकर ऐसी-ऐसी बातें करने लगते हैं जो असंगत कही जा सकती है।”6 द्विवेदी जी की माँग यहाँ कबीर की समग्रता को एक साथ देखने की है।

 कबीर के इस व्यक्तित्व विश्लेषण को देखते हुए शिव कुमार मिश्र चुप नहीं रह पाए और कहने लगे- “कबीर की चर्चा करते हुए उन्हें विद्रोही कवि, क्रांतिकारी द्रष्टा, समाज सुधारक, मनीषी, रहस्यवादी साधक और संत, इसप्रकार के नाना रूपों में स्मरण किया जाता है। कोई उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता के विधायक के रूप में कोई रूढ़िभंजक के रूप में, और कोई सामाजिक नेता के रूप में देखता है। किसी को उनके ये सारे रूप गौण मालूम होते हैं और वह उन्हें एक रहस्यवादी, आध्यात्मिक आस्था वाले संत के रूप में पहचानने पर बल देता है। हमारी समझ में सवाल इन तमाम रूपों में से किसी एक या अनेक के साथ कबीर को जोड़कर देखने का नहीं है, सवाल तत्कालीन सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश के भीतर उन सन्दर्भों को पहचानने और उन्हें महत्व देने का है जो कबीर को एक ऐसी ऊँचाई दे सके जो शताब्दियों बाद आज भी कायम है|”7  इसलिए वे आगे लिखते हैं- “कबीर देश के सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत थे, अपने गुरू रामानंद की भांति|…कबीर मात्र पहुँचे हुए संत और साधक ही नहीं थे, वे एक महान कर्मयोगी भी थे। मसीहाओं के अंदाज में उन्होंने जनता को केवल उपदेश ही नहीं दिए, केवल सिद्धांत ही नहीं बघारे, अपनी कही हुई एक-एक बात को खुद अपने जीवन में आचरित भी किया। रुढ़ियों और रीतियों पर प्रहार करना तो सहज है, स्वयं अपने को उन पर धार की तरह चला देना सरल नहीं है। कबीर वाग्वीर नहीं कर्मवीर थे। वे किसी ऊँचे टीले पर खड़े होकर लोगों का उद्बोधन नहीं कर रहे थे, कंधे से कन्धा मिलाकर लोगों के साथ चल भी रहे थे। कबीर मिसाल हैं तो इसलिए कि पहले उन्होंने अपना घर फूँका, फिर दूसरों से अपना घर फूँककर अपने साथ चलने को कहा।”8 इससे उनकी निर्भीक और साहसिक व्यक्तित्व का प्रमाण मिलता है। साथ ही साथ यह भी मालूम होता है कि कबीर अपने कर्म में कितने संलग्न थे। लोक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत कबीर अपनी परवाह किए बिना ही खुद को आग की भट्टी में झोंक देते हैं, अपने आत्मविश्वास के बल पर स्वयं को भक्ति की साधना में एकाग्रचित्त कर दूसरों के मन में भक्ति-भावना को उद्दिप्त करते हैं। उनका मार्ग भले ही कठिनाइयों से परिपूर्ण रहा हो, पर इस सत्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि कबीर उस समय लोगों के मन में आशा की चिंगारी भरते हैं जब वे पूरी तरह निराश हो चुके थे। कबीर की इस दरियादिली के लिए हम आजीवन उनके ऋणी रहेंगे।

उपर्युक्त तमाम चर्चाओं के पश्चात यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कबीर अपने समय के वह युगद्रष्टा व्यक्ति हैं जिनकी प्रशंसा जितनी भी की जाए वह कम लगती है। उनकी यह अप्रतिम प्रतिभा उनकी वाणी में साफ़ झलकता है। मजे की बात यह है कि उनकी भाषा को लेकर भी आलोचकों के बीच पर्याप्त मतभेद हुआ है। श्याम सुंदर दास के विचार में कबीर की भाषा ‘खिचड़ी’ जैसी है, जिसमें खड़ी बोली, पंजाबी, राजस्थानी आदि बोली का मिश्रण है। वही शुक्ल जी ने कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहकर संबोधित किया है। दूसरी ओर हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर की भाषा को ‘वाणी के डिक्टेटर’ के रूप में परिभाषित किया है। कबीर की भाषा की बात हो तो हम नंददुलारे वाजपेयी की टिप्पणी को कैसे भूल सकते हैं। उन्होंने तो कबीर की भाषा के ऊपर लम्बी चौड़ी बात लिखी है जो इस प्रकार है- “कबीर आदि संतों की वाणी अटपटी है। उसमें ब्रह्म की निराकार उपासना का उपदेश दिया गया है और वेदों तथा पुराणों की निंदा करके एक प्रकार के दंभ-रहित सरल सदाचारपूर्ण धर्म की स्थापना का लक्ष्य रखा गया है। राम और रहीम को एक ठहराकर हिन्दू तथा मुसलमान मतों का अद्भुत मेल मिलाया गया है। इसी प्रकार हिंसा और मास भक्षण का खंडन कर तथा नमाज और पूजा का विरोध करके इन संतों ने किस मार्ग का अनुसरण किया किसका नहीं, यह साधारण जनता की समझ में नहीं आ सकता था। फिर भी कबीर आदि का देश के साधारण जनसमुदाय पर जो महान प्रभाव पड़ा, वह कहने-सुनने की बात नहीं है। वे संत पढ़े-लिखे न थे, उनकी भाषा में साहित्यिकता न थी, उनके छंद ऊटपटांग थे तथापि उन्हें जनता ने स्वीकार किया और उनकी विशेष प्रसिद्धि हुई।”9  

अनपढ़ कबीर की वाणी में व्यंग्य के भाव को शुक्ल जी बखूबी समझते हैं। हिदी साहित्य के इतिहास में शुक्ल जी की कबीर सम्बधी  यह टिप्पणी गुरुत्वपूर्ण है जिसमें वे लिखते हैं- “यद्यपि वे पढ़े लिखे न थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य-चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं। उनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था, जैसे- “है कोई गुरुज्ञानी जगत मह उलटि वेद बूझै/ पानी मह पावक बरै, अंधहि आँखिन्ह सूझै/ गाय तो नाहर को धरि खायो, हरिना खायो चीता।”10 आगे डॉ. बच्चन सिंह कबीर पर लिखते हैं- “कबीर की भाषा संतभाषा है। संतों का सम्बन्ध सीधे जनता से था। वे निम्नवर्ग में उत्पन्न हुए थे, उनके साथ रहते थे, यात्राएँ करते थे, उपदेश देते थे। अतः वे बोलचाल की भाषा का व्यवहार करते थे। इसे हिमाचल के चम्बा से लेकर महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, बंगाल तक समझा जाता था। इसमें खड़ी बोली का गहरा पुट होता था। भोजपुरी, ब्रजी और राजस्थानी का भी उस पर प्रभाव था।”11  मोटा-मोटी रूप से कबीर की भाषा में पूर्वी हिंदी का स्वरूप प्रतिफलित हुआ है। जिसमें उस काल का शब्द भंडार सुरक्षित है। उसकी भाषा में व्याकरण की शुद्धता भले ही न हो पर उनमें सरलता और स्पष्टता का भाव मिलता है। लोकभाषा का प्रयोग उनकी कविता को सहजता और स्वाभाविकता प्रदान करता है। हमें यह याद रखना चाहिए, जब कबीर कविता करते थे तब भाषा का विभागीकरण अपने प्रारंभिक स्वरूप में था। इसलिए समस्त क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण स्वाभाविक था। उनके इस देशी स्वभाव को इंगित करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं- “भाषा, संवेदना, विचार-प्रणाली सभी दृष्टि से कबीर शास्त्रीयता के समक्ष खाँटी देसीपन को महत्व देते हैं। ‘संसकिरित के कूप जल’ को छोड़कर वे भाषा के बहते नीर तक स्वयं पहुँचते हैं और सबको पहुँचाते हैं। संस्कृत से मुक्त लोक-संस्कृति को बनाने में उनका योगदान अप्रतिम है।”12

वस्तुत: कबीर प्रत्येक आलोचक की कसौटी पर खरे उतरने वाले ऐसे व्यक्ति हैं,  जिनको जिस रंग में रंगाये वे उस रंग में ढल जाते है। कहने का आशय यह है कि कबीर अपने भीतर समग्र व्यक्तित्व को समाये हुए हैं। वे एक साथ साधक, भक्त, संत, कवि, समाज-सुधारक, विद्रोही, क्रांतिकारी, आक्रामक हैं। उनके काव्य में रहस्यवाद के सभी तत्व विद्यमान है। विरह-व्याकुलता, आत्मसर्मपण की उत्कंठा, आंतरिक प्रेम जैसी भावनात्मक रहस्यवाद अपनी पूर्ण रूप में उपस्थित है तो वहीं उनके साधनात्मक रहस्यवाद में हठयोग और नाथपंथ का प्रभाव साफ दिखता है। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ का पद इसका उदाहरण है। “कबीर की काव्य-संवेदना का मार्मिक विश्लेषण करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल याद दिलाते हैं कि ‘नारी-निंदक’ कहे गये कबीर प्रेम के पलों में नारी काही रूप धारण करते हैं। यह पाठक पर है कि वह संबंध नारी-निंदा के संस्कार से बनाता है, या नारी रूप धारण करती कवि-संवेदना से।”13 अग्रवाल जी की कबीर के स्त्री विषयक इस टिप्पणी से विद्यार्थियों को आगे चलकर, कबीर को सोचने समझने का एक नया अवसर प्राप्त होगा। इसमें कोई संदेह नही है कि आज तक कबीर को स्त्री-विरोधी माना गया है। परंतु इस एक टिप्पणी ने कबीर की बंधी बँधायी छवि को कुछ मात्रा में ही सही पर तोड़ने का कार्य जरूर किया है।

 

(संदर्भ-ग्रंथ सूची)

  1. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृष्ठ-संख्या-41
  2. डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ-संख्या- 88- 89
  3. वही, पृष्ठ-संख्या-84
  4. रामकुमार वर्मा, गणपतिचंद्र गुप्त की पुस्तक ‘साहित्यिक निबंध से उद्धृत, पृष्ठ-संख्या-621
  5. नंददुलारे वाजपेयी, हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ-संख्या-27
  6. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृष्ठ-संख्या-172
  7. शिवकुमार मिश्र, भक्तिकाव्य और लोकजीवन, पृष्ठ-संख्या-48
  8. वही, पृष्ठ-संख्या-54-55
  9. नंददुलारे वाजपेयी, हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ-संख्या-23
  10. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-संख्या-73
  11. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ-संख्या-91
  12. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृष्ठ-संख्या-41
  13. पुरूषोत्तम अग्रवाल- अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय के फ्लैप से उद्धृत ।

 

ऐश्वर्या पात्र
शोधार्थी 
हैदराबाद विश्वविद्यालय

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