राष्ट्रवाद मूल रूप से एक सांस्कृतिक अवधारणा है। राष्ट्रवाद का स्वरूप उस राष्ट्र की धर्म और संस्कृति के द्वारा निर्धरित होता है। भारत में अनादिकाल से ही धर्म मनुष्य के जीवन का प्राणतत्त्व रहा है। यह धर्म किसी संप्रदाय का वाचक न होकर जीवन-पद्द्यति का नाम है। इसी कारण हमारे यहाँ धर्म को समाज को संगठित करने की मूल शक्ति माना जाता है। हजारों वर्षों से प्रवाहमान मानव-जीवन के व्यक्तित्व के साथ यह इस तरह एकाकार हो गया है कि इसे उससे पृथक करना असंभव है। डाॅ. सुधाकर शंकर के अनुसार- ‘‘राष्ट्रवाद जाति, वर्ण, रक्त भेद को भुलाकर राष्ट्र के कल्याण से अभिप्रेरित होता है। राष्ट्रीयता तो हमारे विकास की विजय है।’’

        देखा जाये तो भारत में राष्ट्रवाद की जड़े गहन रूप से धर्म के साथ जुड़ी हुई है। यही वजह है कि भारतीय राष्ट्रवाद का मूल स्वर आध्यात्म प्रधन है। आध्यात्मिक आदर्शों के आधर पर ही यहाँ राष्ट्रवाद की प्रकृति का निर्धरण हुआ है। आधुनिक काल में उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के भारतीय चिंतकों ने घोर निराशा एवं अकर्मण्यता में डूबे भारतीय जनमानस में अपने उद्बोधनों द्वारा जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधरणा को प्रबुद्ध किया, उसका रूप बहुत सीमा तक भारतीय धर्म पर ही आश्रित था। राष्ट्रवाद की आध्यात्मिकता के संबंध् में अरविंद के यह विचार है कि ‘‘राष्ट्रीयता केवल एक राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रीयता एक धर्म है जो ईश्वर प्रदत्त है। राष्ट्रीयता एक सिद्धांत है जिसके अनुसार हमें जीना है।…. राष्ट्रवादी बनने के लिए राष्ट्रीयता के इस धर्म को स्वीकार करने के लिए हमें धर्मिक भावना का पूर्ण पालन करना होगा।’’  इस आध्यात्म प्रधान देश में यदि धर्म को विस्मृत कर दिए जाए तो राष्ट्रवाद की मूल आत्मा ही विलुप्त हो जायेगी।

        यहाँ हिन्दुत्व भारतीयता का पर्याय माना गया है ताकि सहअस्तित्व की भावना के साथ राष्ट्र की संस्कृति का विकास किया जाए। यही वजह है कि जितनी स्वतंत्रता एवं अधिकार हिंदुत्व में मनुष्य को प्रदान की गयी है उतनी अन्यत्रा कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अज्ञेय का यह कथन इस तथ्य को और पुष्ट करता है कि ‘‘संसार के किसी धर्म ने मनुष्य के मानस को उतनी स्वाधीनता का वातावरण नहीं दिया जितना भारतीय धर्म ने, किसी ने स्वस्थ जीवन की इतनी गहरी नींव नहीं डाली जितनी भारतीय धर्म ने।’’  अतः यह स्पष्ट है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्म राष्ट्रवाद का एक आवश्यक पहलू है।

        राष्ट्रवाद के स्वरूप का दूसरा प्रमुख आधर उस राष्ट्र की संस्कृति होती है। राष्ट्रवाद का सीधा  संबंध राष्ट्र की संस्कृति से होता है और उसके सूत्र भी संस्कृति में ही खोजने पड़ते हैं। इसलिए संस्कृति ही वह संपदा है जो राष्ट्र को दिशा दे सकती है और मनुष्य को प्रबोध तथा उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत कर सकती है।

        अगर हम भारत के प्राचीन इतिहास को देखें तो भारत में राजनैतिक एकता का अभाव रहा किन्तु यहाँ की संस्कृति ने भौगोलिक विशालता के बावजूद सांस्कृतिक स्तर पर भी राष्ट्र को कभी खंडित नहीं होने दिया। इसका प्रमुख कारण यही है कि सहअस्तित्व, सहिष्णुता, समरसता, समादरता एवं समन्वय का भाव इस संस्कृति की महत्ती विशेषताएँ हैं और इस प्राचीन काल से ही अनेक निष्ठुर प्रहारों को झेलने के उपरांत भी स्वयं यह कभी भी प्रहारक नहीं बनीं, बल्कि इसने भारत के बाहर से आने वाली हूण, शक, कुषाण, मंगोल, ईरानी, तुर्क, ईसाई, यहूदी, पारसी इत्यादि अनेक जातियों को उदारतापूर्वक अपने राष्ट्र जीवन का अंग मान लिया। इसी संस्कृति ने भारतीय समाज में परस्परपूरकता, मानवता और विश्व- बंधुत्व के भाव को प्रबुद्ध किया क्योंकि असहिष्णुता भारतीय संस्कृति की प्रकृति नहीं है।

        भारतीय संस्कृति की इसी उदार एवं विराट चेतना ने सांस्कृतिक धरातल पर हजारों वर्षों से भारत को एक राष्ट्र में बनाए रखा है। सामंजस्य एवं धार्मिक सहिष्णुता का यही आदर्श भारतीय संविधान में भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को धर्मगत स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। यदि भारत में धर्मनिरपेक्षता की यह व्यवस्था बनी हुई है तो इसका श्रेय इस राष्ट्र की संस्कृति और परम्परा को जाता है।

        अतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद का स्वरूप राष्ट्र की संस्कृति एवं धर्म के द्वारा निर्धारित होता है। संस्कृति जहाँ राष्ट्र को उसकी प्राचीन स्वस्थ परंपराओं के साथ संपृक्त करती है, वही धर्म राष्ट्र को उसकी अस्मिता का बोध कराता है। राष्ट्र के भोतिक स्वरूप के साथ धर्म एवं संस्कृति के अभिन्न होने पर ही राष्ट्रवाद का स्वरूप निर्मित होता है।

        कतिपय विद्वानों का विचार है कि राष्ट्रवाद की भावना अन्य राष्ट्रों के प्रति प्रतिद्वंद्विता की भावना को उत्पन्न करती है जो कि अंतर्राष्ट्रीयता का विरोध है। मुझे लगता है कि यह एक संकुचित सोच या विचार है और हमें इस संकीर्ण परिधि में आबद्ध नहीं होना चाहिए। हालांकि विद्वानों का यह तर्क पूर्णतः सही है कि मानवता की भावना को राष्ट्र की संकीर्ण परिधि में बांध्कर नहीं रखा जा सकता किंतु यह तर्क भी उतना ही सटीक है कि जो व्यक्ति राष्ट्र की सेवा नहीं कर सकता वह विश्वमानवता की सेवा भी नहीं कर सकता। इसीलिए मानवता की सेवा का प्रथम सोपान परिवार और समाज की सेवा से प्रारम्भ होता है जो राष्ट्र की सेवा से होकर ही अपने अंतिम सोपान अंतर्राष्ट्रीयता तक पहुंचता है। डाॅ. सुधाकर शंकर के शब्दों में- ‘‘हमारी राष्ट्रीयता के आदर्श शान्ति, विश्वमैत्री, अंतर्राष्ट्रीय, विश्वबंधुत्व, समता, सहयोग इत्यादि आत्मिक गुणों पर आधरित है। भारत के लिए राष्ट्रीयता विलास की वस्तु न होकर सदैव आवश्यकता की वस्तु रही है।’’  अतः राष्ट्रवाद की अवधरणा को संकुचित कहना स्वयं में एक संकुचित विचार है।

        निष्कर्षतः यह कह सकते हैं कि भारतीय चिंतन जगत् में राष्ट्रवाद एक सांस्कृतिक अवधरणा है। पाश्चात्य जगत की भाँति इसे मात्रा एक राजनैतिक परिकल्पना मान लेना सर्वथा ठीक नहीं है। क्योंकि पाश्चात्य दर्शन भौतिकवाद पर केन्द्रित है। पश्चिमी समाज में संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता को ही विकास का मापदण्ड माना गया है। जीवन के प्रत्येक स्तर पर संघर्ष की परिकल्पना करना पाश्चात्य दर्शन का आधर है। लेकिन इसके विपरीत भारतीय दर्शन आध्यात्मिक प्रधान है और धर्म और आध्यात्म गहरे स्तर तक जुड़ी हुई है। इसीलिए यहाँ राष्ट्रवाद को धर्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर विश्लेषित किया जा सकता है।

आधुनिक हिंदी कविता में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

        आधुनिक युग में राष्ट्रवादी चेतना का प्रादुर्भाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है और इस युग के साहित्य में राष्ट्रवादिता के दर्शन प्रमुखता के साथ होते हैं। अंग्रेजों के शोषण और उनकी गुलामी के पफलस्वरूप इस युग का भारतीय समाज में अपने अतीत के स्वर्णिम स्मृतियों तथा गौरव और गर्व की ओर उन्मुख हुआ जिसने भारतीयों के हृदय में राष्ट्रवादी भावना के बीज-वपन का कार्य किया। इस युग की राजनैतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों ने जनसमुदाय को राष्ट्रवाद के प्रति जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण पीठिका का कार्य किया।

        इस काल में ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्यसमाज रामकृष्ण मिशन आदि संस्थाओं ने समाज में व्याप्त कुरीतियों का निवारण करके हिंदुत्व को उसके उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। इन धार्मिक आंदोलनों ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जिससे भारतीयों में आत्मसम्मान, बराबरी तथा अतीत के गौरव का बोध हो सके और पश्चिम के आक्रामक रूख का सामना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चेतना के साथ डटकर कर सके। वस्तुतः भारतीयों के हृदय में सुप्त हो चुकी इसी राष्ट्रवादी भावना को जागृत करना इन धार्मिक आंदोलनों का लक्ष्य था जिसके लिए इन धर्म – सुधारकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास से लेकर धर्म-शास्त्रों तक की शरण ली।

        आधुनिक हिंदी साहित्य में इसी राष्ट्रवादी चेतना के दर्शन सर्वप्रथम भारतेन्दु युगीन काव्य में दृष्टिगोचर होते हैं। इस युग के रचनाकारों ने प्राचीन के प्रति आसक्ति और वर्तमान के प्रति विक्षोभ को अभिव्यक्त करके राष्ट्रवादी भावना को जागृत करने का प्रयास किया है। कृष्णदत्त पालीवाल का मानना है कि ‘‘आधुनिक काल में भारतीय नवजागरण ने राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता को भीतर से आंदोलित किया है। किन्तु यह मानना भारी भूल होगी कि हमारा यह नवजागरण पश्चिम की या अंग्रेजों की देन है। आज भारतीय-संस्कृति और इतिहास पर गहराई से दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्राप्त हो जाता है कि हमारा नवजागरण हमारी अपनी परिस्थितियों और एशिया के नवजागरण से जुड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में आधुनिक भारतीय नवजागरण एशिया के साथ-साथ अठारहवीं उन्नीसवीं शताब्दी के विश्व-जागरण से जुड़ा हुआ दिखाई देने लगता है।’’

        भारतेन्दु की ‘विजयिनी विजय वैजयन्ती’, प्रेमघन की ‘आनंद अरुणोदय’, प्रतापनारायण मिश्र की ‘महापर्व’, ‘नया संवत’, राधकृष्णदास की ‘भारत बारहमासा’, ‘विनय’ आदि कविताओं में स्वर्णिम अतीत के प्रसंगों तथा वर्तमान के दीनदशा के चित्राण द्वारा राष्ट्रवाद की भावना को उद्वेलित करने का प्रयास किया गया है। वैसे भी उस समय अपने शौर्य, पराक्रम और वीरता खो चुकी तथा गुलामी की जंजीरों से जकड़ी हुई जनता में राष्ट्रवाद की चेतना को जागृत करने के लिए इसके सिवाय और कोई मार्ग ही नहीं था कि उसके समकक्ष उसके अतीत के ऐश्वर्य और गौरव को प्रस्तुत किया जाए। इन कवियों ने अतीत गौरव के साथ-साथ मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम को दर्शाया है। मैथिलीशरण गुप्त की इन काव्य पंक्तियों से दृष्टव्य है-

“संसार में जो कुछ जहाँ फैला प्रकाश विकास है।

इस जाति की ही ज्योति का उसमें प्रधनाभास है।।

देखो हमारा विश्व में कहीं नहीं उपमान था।

नर देव थे हम भारत देवलोक समान था।’’

        भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अत्यंत उज्ज्वल रूप गुप्त जी की रचनाओं में प्राप्त होता है। इनकी प्रायः सभी रचनाएँ राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थी जिनमें जयद्रथ-वध्, भारत-भारती, पंचवटी, साकेत, यशोध्रा, द्वापर, जयभारत आदि में नाम उल्लेखनीय है। गुप्त जी ने मातृभूमि को केवल एक भूमिखण्ड ही नहीं माना बल्कि सगुण मूर्ति सर्वेश के रूप में उसकी परिकल्पना की। उनकी रचनाओं में जहाँ एक ओर अतीत का गौरव और वर्तमान दुराव्यवस्था का चित्राण है वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश शासन के प्रति विद्रोह की भावना भी है। मातृभूमि के प्रति देशानुराग तथा सर्वस्व बलिदान की भावना को अंकित करते हुए वह ‘द्वापर’ में लिखते हैं-

‘‘एक-एक, सौ-सौ अन्यायी

कंसो को ललकारों

अपनी पुण्य भूमि के ऊपर

धन-जीवन सब वारो।।’’

        ‘मौर्य-विजय’ में सियारामशरण गुप्त भारतीयों को जागृति का संदेश देते हैं।  रामनरेश त्रिपाठी ने जहाँ परतंत्रता को जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप माना है तथा भारतीयों को स्वतंत्राता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया है, वहीं ‘सनेही’ जी राष्ट्रवाद के लिए आत्म-बलिदान की प्रेरणा देते हैं। भारतीय संस्कृति के समुज्ज्वल रूप का चित्राण करना भी इस युग के साहित्य की प्रमुख विशेषता है।

        अतः यह स्पष्ट है कि द्विवेदी युग में भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को न केवल गति ही प्राप्त हुई वरन् उसको एक सुनिश्चित दिशा भी प्राप्त हुई। जन समाज में जातीय अभिमान की भावना को भरकर इस युग के रचनाकारों ने भारतीयों में जातीय उच्चता के भाव को आलोड़ित किया तथा हीनता की भावना का निराकरण किया जिसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सर्वाध्कि सुखद स्थल कहा है। ‘प्रेमघन-सर्वस्व’ में वह लिखते हैं-

‘‘जन्मभूमि हित के हित चिन्ता जा हिय नाहीं

तिहि जानौ जड़-जीव, प्रगट, मानव, तन माहीं

यद्यपि बस्यों संसार सुखद थल विविध् लखाहीं

जन्म भूमि की पैं छबि मन ते बिसरत नाहीं।।’’

        छायावाद के समानांतर चलने वाली राष्ट्रीय-सांस्कृतिक धरा के हिंदी कविता में राष्ट्रवाद अपने पूर्ववर्ती युगों की अपेक्षा अत्यंत प्रखर रूप में प्रकट हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि इस युग के रचनाकारों में मात्रा अतीत के गौरव का गान ही नहीं किया बल्कि जनसमाज को यह दृढ़ आस्था भी दिलायी कि वर्तमान दमन-चक्र से मुक्त होकर राष्ट्रवादी चेतना के द्वारा शीघ्र ही हम एक नयी व्यवस्था को प्राप्त करेंगे। जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, ‘सुभद्राकुमारी चैहान’ ‘रामधरी सिंह ‘दिनकर’, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ आदि रचनाकार इसी युग के हैं जिन्होंने ओजस्वी वाणी के द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की।

        इस समय के कवियों ने मातृभूमि के प्रति अनुराग को व्यक्त करते हुए भारत को एक देवी के रूप में व्यंजित किया। भारत वर्ष की वंदना करते हुए कवि निराला लिखते हैं-

“भारति, जय, विजयकरे। कनक-शस्य कमल ध्रे।

लंका पदतल शतदल, गर्जितोर्मि सागर जल।।

मुकुट शुभ्र हिम-तुषार, प्राण, प्रणव ओंकार।

ध्वनित दिशाएँ उदार, शतमुख-शतख-मुखरे।।’’

        इस युग के राष्ट्रवादी साहित्य की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि इसमें राष्ट्र-प्रेम तथा राष्ट्र के लिए संघर्ष, त्याग और बलिदान के साथ-साथ मानवतावाद का स्वर भी मुखर रहा है। इस युग के रचनाकारों ने मानव और मानवता को उच्चतम आसन पर स्थापित किया तथा मानवता के प्रसार को विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक माना। हिंदी में राष्ट्रीय भावधरा की एक समृद्ध परंपरा रही है। रासों काव्य से लेकर भूषण तक तथा आधुनिक काल में भी राष्ट्रीयता का स्वर अपनी पूरी ऊर्जा के साथ मुखरित हुआ है। भारतेन्दु ने जिस राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावधरा को जन्म दिया उसे सुभद्रा जी की राष्ट्रीय कविताएं पुष्ट करती हुई दिखाई देती है। ‘‘वीरों का कैसा हो वसन्त?’’ में यह दृष्टव्य है-

“कह दे अतीत अब मौन त्याग

लंके तुझमें क्यों लगी आग

ऐ कुरुक्षेत्रा अब जाग जाग

बतला अपने अनुभव अनंत

वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दी घाटी के शिलाखंड

ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड’’

        हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद 1930 के बाद जोर पकड़ता है। अर्थात् हिंदी में प्रगतिवाद अपने समय से ही पैदा होता है। 1930 ई. के आस-पास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में वामपंथी दल कायम हो गया था। किसानों एवं मजदूरों के आंदोलन काफी शक्ति अर्जित कर रहे थे।

        प्रगतिवादी कवि उन अर्थों में राष्ट्रवादी नहीं था जिन अर्थों में ‘रामनरेश त्रिपाठी’, ‘जयशंकर प्रसाद’, ‘सुभद्रा’ और परवर्ती काल में ‘रामधरी सिंह ‘दिनकर’ थे। इनकी राष्ट्रीयता अंतर्राष्ट्रीयता का ही प्रथम चरण था। वह स्व-जन से विश्व-जन तक की उड़ान भरता था। काव्य में कोमल सौन्दर्य-भावना के स्थान परश्रम के सौन्दर्य की प्रतिष्ठा हो रही थी।

        सुमित्रानंदन पंत ने इस बदली हुई दृष्टि से भारत एवं उसके जन को देखा। ‘‘भारतमाता’’ शीर्षक कविता उनकी उसी दृष्टिकोण वाली कविता है। जिसका यथार्थ दर्शन मर्म पर आघात करता है।

“भारतमाता/ग्रामवासिनी!/खेतों में पफैला हग

श्यामल/शस्य-भरा जन जीवन आँचल/

गंगा यमुना में शुचि श्रम जल/

शीलमूर्ति/सुख दुख उदासिनी।’’

        स्वाधीनता-संग्राम का यह दौर राष्ट्रवादी-आंदोलन का अंतर्राष्ट्रीयता के समर्थन का दौर था। क्रांति जब आम लोगों के हाथ में आती है तब वह अपने देश के साथ-साथ और दूसरे देशों के आंदोलनों का सहयोगी हो जाती है-

‘‘सदा भाग्य से परे शक्ति में जागे श्रद्धा -सीमा

सदा रहे संचरित सत्य में व विश्वास अध्ीमाऋ

एक-दूसरे की कीमत को ठीक-ठीक तुम जानों

एक रहो लेकिन अपने को अलग-अलग पहिचानो।’’

        आजादी के बाद से जो अभिजात राष्ट्र निर्मित हुआ, वह खंडित होने लगा। इसी समय ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ अपनी पहचान बनाते हुए देखा जा सकता है। वस्तुतः यह ‘सवर्ण’ राष्ट्रवाद है, जो अभिजात राष्ट्र का कवच बनकर ही आता है। सदियों से चली आती सवर्ण संस्कृति ;ब्राह्मणवाद को ये शक्तियाँ राष्ट्र की पहचान के रूप में प्रस्तावित करती है। इसकी आड़ में ये दलितों, उपेक्षितों, किसानों, स्त्रियों एवं अल्पसंख्यकों की वास्तविक समस्याओं का निषेध् करते हैं। यह अकारण नहीं है कि ये शक्तियां व्यवहार में भूमंडलीकरण, जिसे उदारीकरण संज्ञा ने नवाज़ा गया है, की घनघोर समर्थक हैं-

फ्जिनके पास सब कुछ था/वे अपराधी हो चुके थे/

जिनके पास बहुत कम था/उन्हें कानून से डरना सिखाया जा रहा था/

अस्पतालों में बीमारों की फजीहत थी/सड़कों पर बेकारों को नसीहत/

देशों की चकलों में पफंसी चालीस प्रतिशत स्त्रियाँ / अठारह साल

से कम उम्र की थी/और मुट्ठी भर लोगों की परचेजिंग पावर बढ़ाकर/

जादूगर हमें लिबर्टी की ओर ले चला/आठ आने की

दवा अस्सी रुपये में मिलती थी/और अस्सी करोड़ रुपये एक

फोन पर मिल जाते थे।’’

        निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक राष्ट्रवाद का स्वर किसी न किसी रूप में साहित्य में विद्यमान रहा है। यद्यपि परिस्थितियों के फलस्वरूप कभी-कभी यह राष्ट्रवादी स्वर किसी विशेषकाल में मंद अवश्य पड़ गया किन्तु पूर्णतः लुप्त नहीं हुआ और आधुनिक काल में आकर यह चेतना इतनी अधिक तीव्रता के साथ जनमानस के मध्य प्रकट हुई कि ऐसा प्रतीत होने लगा कि राष्ट्रवाद की यह भावना वैदिक काल की देन न होकर आधुनिक युग की देन हो।

        आज सांस्कृतिक संकट सर्वग्रासी हो चुका है। लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की खिलापफत करने वाले तत्त्व आज इतने चालाक हो गए हैं कि अपने अधिकार के लिए लड़ने वाली शक्तियों के सृजनात्मक भाषा को भी उन्होंने हड़प लिया है। एक तरपफ इस प्रायोजित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ और दूसरी तरफ ‘अत्सवध्र्मी’ कविता के समानांतर आम जनता की समस्याओं का विश्लेषण करने वाली तथा इनके अध्किार की लड़ाई की पक्षधर कविता ही सच्चे अर्थों में सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कविता की अधिकारी है।

संदर्भ-ग्रंथ-सूची

1.    आधुनिक हिंदी कविता में राष्ट्रीय-भावना – डाॅ. सुधकर शंकर कलवडे, पुस्तक संस्थान प्रकाशन, कानपुर, संस्करण-1973

2.    आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनैतिक चिंतन – अवस्थी व अवस्थी, रिसर्च पब्लिकेशन इन सोशल साइसेंज, जयपुर, दिल्ली

3.     मैथिलीशरण गुप्त प्रासंगिकता के अन्तः सूत्रा- कृष्णदत्त पालीवाल, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2004

4.     द्वापर-मैथिलीशरण गुप्त, साकेत प्रकाशन, झाँसी, संस्करण-1989

5.     मौय विजय – सियारामशरण गुप्त, चिरगाँव, साहित्य सदन, संस्करण-1969

6.     प्रेमघन सर्वसव: कविताओं का संग्रह पी.पी. उपाध्याय और डी.एन. उपाध्याय, प्रेमघन, 1939

7.     भारत-भारती – मैथिली शरण गुप्त

8.     अपरा – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, भारती भंडार, प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1975

9.    आधुनिक कवि ; भूमिका ;रश्मिबंध – सुमित्रानंदन पंत

10.    ‘गीतफरोश’ – भवानी प्रसाद मिश्र, सरला प्रकाशन, दिल्ली, 1953

11.    साहित्य वार्षिकी ;इंडिया टुडे, 1994-95, विशेषांक

वीरेन्दर
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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