आज प्रकृति चीख-चीखकर करा रही,
हमको एहसास,
क्या मिला छेड़कर मुझको तुमको,
जो भोग रहे हो ये परिणाम।
पहले ज़हर हवा में घोला,
सांसे अपनी रोक ली,
और जल को तुमने किया अशुद्ध,
मिट्टी को यूं रौंदा तुमने,
उसने उर्वरता खो दी,
और आज तो अपने ही जीवन की,
डोर खुद तुमने कमजोर कर दी।
प्रकृति ने दिखलाया तांडव जब आज,
विकास के नाम पर।
आज प्रकृति चीख रही है,
और देती हमको अभिशाप,
मुझको है छेड़ा तुमने,
अब झेलो इसका दुष्परिणाम।
कुदरत से खेला है तुमने,
है विकास के नाम पर,
आज विकास करता है क्रंदन,
मानवता की हार पर।
मैंने तुमको सजा-सँवारा,
जीवन में खुशियां भर दी,
और तुमने ही अपने हाथों,
मेरी यह दुर्गति कर दी।
समय हमेशा करवट लेता,
भोगो के अब परिणाम तुम,
बिछ जाएंगी कितनी लाशें,
तुम्हारे इस दुष्परिणाम पर।
पक्षी बाहर चहक रहे हैं,
और तुम घरों में कैद हो,
मंडराती है सर पर मृत्यु,
और अंदर रहने को लाचार हो।
छेड़ा है तुमने मुझको,
और भेदा मेरे हृदय को है,
सहनशक्ति की मेरी सीमा,
टूट गयी इस बार यूँ,
मांग रहे हो जीवन अपना,
करते अब प्रणाम तुम,
दीपों से करते अभिनंदन,
क्या भूल गए थे उस दिन को जब,
रौंदा था कुदरत को यूँ,
मेरा हृदय छलनी करके,
जब पाया ये विकास था तुमने।
आज प्रकृति चीख रही है….

डॉ. दीपा
हिंदी विभाग
श्री अरबिंद महाविद्यालय,
दिल्ली विश्वविद्यालय।

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