‘सहचर’ का यह अंक ऐसे समय में आ रहा है जब वातावरण शुष्क होने लगता है और गर्म हवाएं चलती हैं । फिर भी कुछ फूल हैं जो इस मौसम में जान डाल देते हैं । सड़कों पर गिरे सेमल और पलाश प्रकृति की तरफ से गर्मी का आह्वान करते हैं । पुराने गिरते पत्ते नए सृजन की उम्मीद बाँधते हैं । यही वह समय है शायद जिसे देखकर बच्चन जी ने कहा होगा-
मधुवन की छाती को देखो / सूखी कितनी इसकी कलियाँ / मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ / जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली / पर बोलो सूखे फूलों पर / कब मधुवन शोर मचाता है /जो बीत गई सो बात गई ।
यह समय हमें नई उम्मीद का साक्षात उदाहरण पेश करता है । इस अंक का उद्देश्य यह है कि एक नए सृजन की चाह लेकर हम सब साथ में विक्रम संवत के नववर्ष में प्रवेश करें । पत्रिकाएं हर समय में भूत, वर्तमान और भविष्य का समन्वय करने वाली रही हैं । काल के तीनों परिदृश्यों को ध्यान में रखना भारतीय दर्शन के कालसर्प विधि में समय की चक्रीय गति को दर्शाती है । इस अंक के कुछ आलेख आपको हमारी अविरल बहती परंपरा से परिचित कराएंगे, कुछ वर्तमान स्थिति की चिंताजनक स्थिति का ध्यान कराएंगे और कुछ आगामी राह का मार्ग प्रशस्त करेंगे ।
हिन्दी साहित्य में अंग्रेजी का एक शब्द ‘एलियनेशन’ का खूब प्रयोग हुआ है । जिस समय, समाज और परिवेश में हम फिट नहीं हो पाते या हम उसके रहन-सहन और संस्कृति से दूर होते हैं वहाँ यह भावना उत्पन्न होती है । इस अंक में विश्व साहित्य की अनूदित एक कहानी हमारे पाठकों को ऐसे समाज से परिचित कराएगी जिसे वह नहीं जानते ऐसे में हम ‘एलियन’ बनने की प्रक्रिया से बाहर आते हुए विश्व-बंधुत्व की ओर एक और कदम बढ़ाते हैं । विश्वबंधुत्व की भावना का विकास इसलिए भी आवश्यक है क्योंकी हमारा समाज विविधता से भरा हुआ है । अगर हम वैश्विक स्तर की विविधता को छोड़कर सिर्फ अपने देश में ही देखें तो अनेक जाति, धर्म, रंग और नस्ल के लोग मिल जाएंगे । ऐसी स्थिति में इंसान पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर जो व्यवहार करता है उससे सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है जिसके भयंकर परिणाम हमें अपने समाज में देखने को मिलते हैं । इस विविधतापूर्ण स्थिति को समग्रता से देखने के लिए तथा सामंजस्यपूर्ण और सौहार्दपूर्ण स्थिति बनाकर साथ बढ़ने के लिए हमें भारत को समझना होगा । इस कार्य के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में हमें हिन्दी के साथ अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान होना हमें भारतीयपन के और नज़दीक करता है । भारतीय परिदृश्य में अनेक भाषाओं के साहित्य की समझ हेतु एक लेख ‘अनुवाद’ के विषय में भी अति महत्वपूर्ण है ।
इसी के साथ ‘सहचर’ का यह अंक तमाम विविधताओं को एकता में पिरोते हुए आप सबके समक्ष प्रस्तुत है ।

 

डॉ. आलोक रंजन पांडेय