फणीश्वरनाथ रेणु की एक उल्लेखनीय कहानी है ‘पहलवान की ढोलक’। इसमें लेखक ने ढोलक को एक वाद्य यन्त्र के रूप में नहीं, जीवन्तता का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया है। एक स्तर पर यह कहानी दैविक आपदा को चुनौती देती है, तो दूसरे स्तर पर सामाजिक-आर्थिक अन्तर्विरोधों से टकराती है। रेणु ने इस कहानी में जिस ग्रामजीवन को चित्रित किया है, वह आपदाग्रस्त है। लोग बीमारी से मरते जा रहे हैं। उपचार की कोई व्यवस्था नहीं है। शासन-प्रशासन कहीं नहीं दिखता। कहानी में जो ब्यौरे दिये गये हैं, उनसे अच्छा-बुरा सब स्पष्ट दिखलायी पड़ता है। पात्र, स्थितियाँ, घटनाएँ और भाषा सभी मिलकर ग्रामांचल के रग-रेशे को भलीभाँति उभारते हैं। लोकजीवन में रचे-बसे रेणु लोक कलाकार के अप्रासंगिक होने और उसकी त्रासदी पर चुप नहीं रह सकते थे। वे परिवर्तन के नाम पर उत्पन्न असम्पृक्तता, निर्ममता और लोक -विरोधी प्रवृत्तियों के विरोधी हैं। श्यामनगर के राजा श्यामानन्द की मृत्यु के बाद उनकी विरासत सम्हालने वाले राजकुमार को कहानी के प्रमुख पात्र लुट्टन पहलवान की दरबार में उपस्थिति इतनी अखरती है कि वे पहलवान और उसके बेटों के दैनिक व्यय को ‘टेरिबुल’ कहकर मुँह बिचकाते हैं। यह शब्द परिवर्तित समय, नयी संस्कृति और नये भावबोध का परिचायक है। इसमें लुट्टन के लिए दरबार से विदा हो जाने का संकेत निहित है। राज-दरबार में पहलवान की उपस्थिति को अनावश्यक बताने के लिए यह एक शब्द ही पर्याप्त है। कहानी के इस अंश में रेणु ने ‘टेरिबुल’ और ‘हाॅरिबुल’ जैसे शब्दों में निहित निर्ममता को इस तरह उभारा है कि राजकुमार का समूचा व्यक्तित्व एकबारगी मूर्त हो उठता है। अतिरिक्त वर्णन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इतने से ही राजकुमार अप्रिय होकर पाठक की सहानुभूति खो देता है। राजा श्यामानन्द सामन्ती संस्कृति के प्रतीक हैं, जबकि राजकुमार पूँजीवादी संस्कृति का। इन दोनों पात्रों के माध्यम से रेणु ने व्यक्ति के भावजगत् और समाजार्थिक सम्बन्धों में होने वाले अप्रत्याशित परिवर्तन को स्पष्ट कर दिया है। परिवर्तन की प्रक्रिया और उसके स्वभाव को कहानी के शिल्प में ढालना रेणु अपना लेखकीय दायित्व समझते हैं और उन्होंने इसे बखूबी निभाया भी है।
रेणु की कथाभाषा, संवेदना, किस्सागोई, घटनात्मकता, संवादधर्मिता, प्रवाहमयता, सांकेतिकता और बिम्बात्मकता के अनेक रंग-रूप हैं। वे अपनी कथाभाषा और कहन से कहानी में अमिट प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं। उनकी भाषा में स्थानीयता एवं आत्मीयता का गहरा संस्पर्श है। इससे भाषा तो समृद्ध हुई ही, उसकी ग्राह्यता भी बढ़ी। रेणु ने अपने लेखन से निस्सन्देह एक नया पाठक वर्ग तैयार किया। रेणु की कहानियों में मनुष्य मात्र की जीवन-स्थितियों के सामान्य-विशिष्ट चित्र ही नहीं, बल्कि जीवन-मूल्यों के प्रति प्रबल आग्रह भी मिलता है। ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी का आरम्भ निस्तब्धता, अँधेरा, सन्नाटा और पीड़ा के साथ हुआ है। परिवेश में भय और करुणा बिखरी है। रेणु ने अपने भाषायी कौशल से इस स्थिति को मूर्त और सजीव कर दिया है। प्रकृति के नाना रूपों के बहाने मनुष्य के स्वभाव, चरित्र और प्रवृŸिायों को चित्रित करने में रेणु को कुशलता प्राप्त है। प्रकृति की भीषणता के बरअक्स पहलवान की ढोलक को प्रेरणा-शक्ति के रूप में दिखलाया गया है। अपने व्यापार क्षेत्र में यह कहानी सघन एवं तनावपूर्ण है। पात्रों की मानसिक अवस्थाओं का समुचित निरूपण हुआ है। अमावस्या की अँधेरी काली रात, भयार्त शिशु की कँपकँपी, उजड़ी झोंपड़ियाँ, चारों तरफ पसरा सन्नाटा और लोगों की सिसकियों से मिलकर जो वातावरण निर्मित हुआ है, वह आसन्न संकट का संकेत करता है। रेणु का चित्रण मलेरिया और हैजा की भयावहता को चाक्षुष् बना देता है। उनके कहानी कहने का ढंग आत्मीय, सरस और रोचक है। पहलवान और ढोलक का आपस में तथा इन दोनों का लोकजीवन से गहरा नाता जोड़ना अर्थपूर्ण है। स्वातन्त्र्योत्तर भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में मूल्यों-मान्यताओं और प्राथमिकताओं के क्षेत्र में जो तेजी से बदलाव हो रहे थे, उसमें कुछ ऐसा भी था जिसका बदलना ज़रूरी नहीं था। उसका बदलना टीसता है। रेणु के लेखन में निर्धन, असहाय, वंचित और उपेक्षित लोगों के प्रति जो आत्मीयता और तादात्म्य व्यक्त हुआ है, वह कोई दृष्टिसम्पन्न संवेदनशील हृदय वाला लेखक ही कर सकता है। सामाजिक जीवन की विडम्बनाओं पर भी रेणु बारीक नज़र डालते हैं। वे भोक्ता की तरह समस्याओं को महसूस कराते हैं।
‘पहलवान की ढोलक’ में दंगल का सजीव वर्णन मिलता है। दंगल सदियों से ग्रामीण समाज का लोकप्रिय आयोजन रहा है। इससे जनता का मनोरंजन भी होता है। पहले राजा और सामन्त पहलवानों को संरक्षण देते थे। राजसŸाा के स्वरूप में परिवर्तन के साथ बहुत-सी परम्पराएँ भी बदलीं, तो लोक कलाकारों का मान-सम्मान भी जाता रहा। उनके अस्तित्व पर संकट मँडराने लगा। रेणु की यह कहानी समाज में संवेदना, चिŸावृŸिा और प्राथमिकताओं के धरातल पर हो रहे परिवर्तन पर केन्द्रित है। इसमें ग्रामीण समाज के मुख्य अन्तर्विरोध जाति-व्यवस्था पर भी रोशनी डाली गयी है। जिस शेर के बच्चे चाँद सिंह को लुट्टन कुश्ती में पछाड़ देता है, राजा द्वारा उसके नाम के साथ ‘सिंह’ उपाधि लगाने पर राजपण्डितों का समूह मुँह बिचकाकर आपŸिा प्रकट करता है। मैनेजर साहब इसे अन्याय कहते हैं। रेणु ने इस सामाजिक विडम्बना को उजागर करते हुए राजा श्यामानन्द से ऐसी सोच का जवाब दिलवाया है। इसमें दो राय नहीं कि परिवर्तन को कोई रोक नहीं सकता। उसे होना ही है। वह निरन्तर है। इस कहानी में रेणु की चिन्ता नयी परिवर्तनशीलता में निहित निर्ममता और असम्पृक्ति को लेकर है, क्योंकि इसने समय को जटिल बना दिया है। लुट्टन पहलवान और उसके बेटों पर होने वाले खर्च के बारे में सुनकर राजकुमार जिस ‘टेरिबुल’ शब्द का प्रयोग करते हैं और नये मैनेजर ‘हाॅरिबुल’ शब्द से उनका समर्थन करते हैं, इन दोनों शब्दों के बीच में कहानी का अभिप्राय निहित है। यहीं से कहानी की भाव-भंगिमा में नया मोड़ आता है और खुरदरी वास्तविकता उभरकर सामने आ गयी है।
इसे रेणु की कहानी-कला की सामथ्र्य ही कहा जाएगा कि उन्होंने राजकुमार की क्षणिक उपस्थिति के द्वारा वह सब कुछ कह दिया है, जो कहानी के स्वाभाविक विकास और तार्किक परिणति के लिए ज़रूरी है। राजकुमार का समूचा व्यक्तित्व ‘टेरिबुल’ शब्द में सीमित होकर रह गया है। राजकुमार के बरअक्स सामन्ती संस्कृति के ध्वंसावशेष राजा श्यामानन्द उदार, कलाप्रेमी, पारखी और परम्परापोषक लगते हंै। उनमें संवेदनशीलता है। पुरानी व्यवस्था में बहुत-सी कमियों के बावजूद कला एवं कलाकार के प्रति सम्मान, सहानुभूति और अपनत्व रहा है। नयी व्यवस्था में सहानुभूति का स्थान निर्ममता ने ले लिया। इस निर्ममता की व्याप्ति इतनी अधिक है कि आकाश के तारे भी उसके प्रभाव से नहीं बच पाते। रेणु लिखते हैं कि ‘आकाश से टूटकर जब कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।’ यही भावबोध नये परिवर्तन का संकेतक है। ‘पहलवान की ढोलक’ में लुट्टन का चरित्र सबसे ज्यादा जगह घेरता है। रेणु को उससे सहानुभूति है। वह सकारात्मक पात्र है। जो कई वर्षों तक राज-दरबार की शोभा बना रहा, देखते-देखते वह एक दिन अचानक अनावश्यक एवं अनुपयोगी हो जाता है। यह घटना क्षुब्ध करती है।
रेणु ने आधुनिकता के नाम पर पैदा हुई उपयोगितावादी प्रवृत्ति को समाज के लिए अशोभनीय एवं अहितकर मानते हैं। कहानी के विकास-क्रम में हम देखते हैं कि राज-दरबार से निकलने के बाद पहलवान के ‘दोनों लड़के दिन भर मजदूरी करके जो कुछ भी लाते, उसी में गुज़र होती रही। अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया।’ औषधि, उपचार और पथ्य के अभाव में लोग मरते चले जाते हैं। पहलवान और उसके बेटों की मृत्यु के साथ ही गाँव की समूची पीड़ा, दुःख एवं वेदना को यह कहानी अपनी संवेदना में समाहित कर लेती है। गौरतलब है कि कहानी के विवरण में कहीं भी राज्य और प्रशासन की उपस्थिति नहीं दिखती। राज्य और प्रशासन तक जनता की पहुँच नहीं होती, किन्तु महामारी के वक़्त राज्य-प्रशासन का जनता तक नहीं पहुँचना उसकी संवेदनहीनता, अकर्मण्यता एवं उपेक्षापूर्ण सोच को प्रदर्शित करता है। स्वतन्त्रता के बाद की यह कठोर वास्तविकता है। इससे जनता में निराशा, मोहभंग, निरुपायता, असन्तोष और अशान्ति उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जब राज्य किसी बड़े संकट का सामना करने से पीछे हटता है, तो समाज की सामूहिक चेतना जाग्रत होकर उसका निराकरण करती है। गाँव के लोगों का एक-दूसरे की मदद करने और ढाढ़स बँधाने का वर्णन इसी सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है। ग्रामजीवन की आत्मीयता, सहभागिता और साहचर्य उसकी आधारभूत पहचान रही है। आजादी के बाद इसमें तेजी से क्षरण हुआ है। ग्रामीणों की विवशता, निरीहता एवं कराह द्रवित करती है। परिवेश में भीतर तक धँसकर पात्रों के व्यवहार, मुद्राओं और क्रियाओं को रेणु की नज़र से देखना नये अनुभव एवं अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न होना है। उनकी दृष्टि अव्यक्त एवं अलक्षित को भी व्यक्त कर देती है। रेणु ने ओझल, अस्पष्ट अथवा धुँधले चेहरों का ऐसा रेखाचित्र बनाया है कि हम उन्हें आसानी से समझ पाते हैं।
‘पहलवान की ढोलक’ में वर्णित रात्रि की विभीषिका और ढोलक की ललकार को एक-दूसरे के बरअक्स रखकर देखने पर हम रेणु के लेखन की उस विशेषता से परिचित होते हैं जहाँ वे शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श के संयोग से स्थितियों और घटनाओं को मूर्त, चाक्षुष् एवं अनुभूतिपरक बना देते हैं। त्रासदी और करुणा की सघनता में असहनीय वेदना की छटपटाहट को ढोलक की थाप से पछाड़ता लुट्टन पहलवान अन्तिम साँस तक लड़ता है। ढोलक और प्राणशक्ति के बीच की जुगलबन्दी अद्भुत है। दोनों में साहचर्य और सामंजस्य है। इसमें कोई दो मत नहीं कि लोकसंगीत और नृत्य जनसाधारण के विषण्ण मानस में प्राचीन काल से ही जीवन के प्रति रागात्मकता जगाते आये हैं। आधुनिकता ने लोकजीवन के इन स्रोतों को सुखाने की कोशिश तो की, लेकिन अभी उनमें नमीं बची हुई है। अपराजेयता और जीवन्तता का प्रतीक बन चुके लुट्टन पहलवान का अवसान हमें भीतर तक भिगो देता है। वह कहानी का ऐसा धड़कता हुआ पात्र है जो संस्कृति, इतिहास, परम्परा और लोक-चेतना को अपने भीतर समेटे हुए है। परस्परविरोधी भावस्थितियों और दृश्यों को मिलाकर रेणु ने वास्तविकता का जो भरापूरा चित्र बनाया है, उसमें उनकी कथाभाषा का उल्लेखनीय योगदान है। इस कहानी को पढ़ते हुए वर्तमान की वास्तविकता से हम सहज ही जुड़ जाते हैं। वैश्विक महामारी के इस भीषण समय में ‘पहलवान की ढोलक’ का अर्थ विस्तार से खुलता है।
‘पहलवान की ढोलक’ का लुट्टन पहलवान सिर्फ़ एक नाम भर नहीं है। वह लोक, कला, जिजीविषा, जीवन्तता और संघर्ष का प्रतीक है। उसमें अनुराग, स्वाभिमान, सौहार्द, साहचर्य और पुरातन का मिश्रण है। सामूहिकता की चेतना और दूसरों के दुःख से दुःखी होने की भावना है। लुट्टन किसी के सामने अपनी विवशता प्रकट नहीं करता, बल्कि अन्तिम क्षण तक उससे जूझता है। वह हारता नहीं, सिर्फ़ लड़ता है। उसकी हर एक गतिविधि पर कहानीकार की नज़र है। इसलिए अगर कुछ अनकहा भी रह गया है, उसको भी हम महसूस कर पाते हैं। लुट्टन की मृत्यु टीसती है और कहानी के पाठक को उदास कर जाती है। लुट्टन की त्रासदी व्यक्तिवादी संकीर्णता और महामारी के घातक प्रहार का योगफल है। ‘पहलवान की ढोलक’ में आजादी के बाद की वास्तविकता को कथ्य बनाया गया है। आजादी अपने आप में एक बड़ा बदलाव थी। उसके साथ नयी स्थितियों और प्रवृत्तियों का प्रकट होना स्वाभाविक है। उन्होंने सिर्फ़ बदलते और ध्वस्त होते जीवन-मूल्यों की कहानी नहीं कही, नये जनतान्त्रिक मूल्यों का स्वागत और उपयोगी शाश्वत जीवन-मूल्यों के संरक्षण पर भी जोर दिया है। निस्सन्देह साहित्य का यह भी एक प्रमुख कार्यभार है। पहलवान की ढोलक’ उपेक्षित भारत की वेदना का मर्मस्पर्शी उपाख्यान बनकर हमारे सामने उपस्थित होती है।