‘‘नागार्जुन कविता की बनी-बनायी दुनिया से बाहर खड़े होकर रचते हैं। ज्यादातर कवि कविता की दुनिया में रहकर रचते हैं या रचना शुरू करते ही कविता की दुनिया में चले जाते हैं। ऐसे लोग प्रायः ‘दिखलाई दे रही दुनिया’ को नहीं ‘स्मृत दुनिया’ को प्रस्तुत करते हैं।’’ ऐसा लगता है वे कवि न हों एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन की अनेक परिस्थितियों का बयान देते हैं। ‘‘रचनाकार परिस्थितियों का सहभोक्ता होता है अतः उसका जीवन-बोध अधिक प्रासंगिक और गहरा होता है। उसकी प्रखर सामाजिक चेतना यथार्थ का साक्षात्कार करती है और युगानुरूप जीवन मूल्यों को तलाशती हुई मानवीय संभावनाओं को पहचानती है। जिस रचनाकार में वास्तविक जीवन-सत्य को उद्घाटित करने की जितनी क्षमता होगी वह जन-जीवन के उतने ही निकट होगा।’’ इस मामले में नागार्जुन हिन्दी साहित्य के विशिष्ट कवि हैं। उनकी काव्य चेतना में जीवन जिस रूप में उद्घाटित हुआ है, जीवन का वह सत्य पक्ष इस सहजता से अन्य किसी कवि के यहाँ नहीं मिलेगा।
नागार्जुन प्रगतिशील धारा के कवि हैं। परन्तु ऐसा नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन के बाद इन्होंने रचना बंद कर दी। प्रयोगवाद, नयी कविता आन्दोलन व उसके बाद भी लगभग नवें दशक तक उन्होंने काव्य रचना की और उनका काव्य स्वभाव प्रगतिशील ही बना रहा। इस सन्दर्भ में मुक्तिबोध की यह बात समझ आती है, ‘‘नई कविता में स्वयं कई भावधाराएँ हैं एक भावधारा नहीं, इनमें से एक भावधारा में प्रगतिशील तत्व पर्याप्त हैं।’’ जब नई कविता की बात होती है तो उसके लिए यह कथन, ‘‘नयी कविता में प्रगति और प्रयोग दोनों हैं।’’ प्रगतिवाद के बाद भी अगर प्रगतिशील काव्यधारा जीवित थी तो उसमें नागार्जुन जैसे कवि का बहुत बड़ा योगदान था। यहाँ पर प्र्रेमचन्द की बात कि रचनाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। नागार्जुन के सन्दर्भ में याद आती है। ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि नागार्जुन ने कई बार अपने बयान बदले हैं और एक राजनीतिक अन्तर्विरोध उनके बयानों और कविताओं में दिखाई पड़ता है। लेकिन इस सन्दर्भ में एक बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि नागार्जुन अपनी कविता में ‘दल’ के साथ तो नहीं मगर ‘जन’ के साथ बराबर बंधे रहे हैं।’’
‘‘नागार्जुन का विपुल काव्य प्रकृति और अभावग्रस्त जिन्दगी का विश्वकोश है। अन्याय, अभाव, दरिद्रता, भूख और विस्थापन नागार्जुन के जीवन की चट्टानी वास्तविकताएँ हैं, कविता का एजेंडा नहीं।’’ ‘कवितावली’ में तुलसीदास ने अपने बचपन के दारुण अभावों और अपमानों के बारे में लिखा था –
मातु-पिता जग जाई तज्यो बिधिहूँ न लिखी कुछ काल भलाई।
नीच, निरादर भाजन, कादर, कूकर-टूकन लागि ललाई। और
बारे में ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन …
नागार्जुन में इस तरह की चरम यातना के प्रति ईश्वर, राजनीतिक सत्ता और धार्मिक समाज की अमानवीय उदासीनता से उत्पन्न विक्षोभ कविता में फूटता है। बीसवीं सदी के पराधीन भारत में नागार्जुन ने लिखा-
मानव होकर मानव के ही चरणों में मैं रोया!
दिन बागों में बीता रात को पटरी पर मैं सोया!
कभी घुमक्कड़ यार-दोस्त से मिलकर कभी अकेले –
एक-एक दाने की खातिर सौ-सौ पापड़ बेले!
‘‘जिन्दगी का यह अभाव और संघर्ष ही नागार्जुन के काव्य संसार की जलवायु है और विक्षोभ उनकी कविता का केंद्रीय स्वर। आदिकवि के यहाँ विक्षोभ करुणा में, तुलसी के यहाँ नियति की अपराजेयता के रूप में और नागार्जुन के यहाँ एक विराट मानवीय बिरादरी के प्रति गहरी आत्मीयता और संवेदना के रूप में व्यक्त हुआ है।’’ वास्तव में यहीं से नागार्जुन की काव्य चेतना का निर्माण होता है।
नागार्जुन का काव्य फलक बहुत व्यापक है। उनके काव्य में गेहूँ की बालियाँ से लेकर गेहूँ से बने रोटी के लिए लड़ाई तक संघर्ष है, रोटी बनाने वाली उस स्त्री के प्रति प्रेम का चित्रण है, उनके काव्य का रंग इतना व्यापक है मानों खाली कैनवास पर सभी रंगों को बेतरतीब छिड़क दिया गया हो परन्तु उसमें भी सभी रंगों की खूबसूरती झलकती है। ‘‘नागार्जुन हिन्दी के उन विरल कवियों में से हैं जिनमें ‘आत्मदया’ की मनःस्थिति नहीं मिलेगी। कबीर ही इसके अतिरिक्त अन्य कवि दिखलाई पड़े जिनमें आत्मदया नहीं। जहाँ अन्य लोग अभिभूत होते हैं, मुँह बाए चकित होते हैं या आक्रोश में आते हैं, नागार्जुन हँसते हैं, चिढ़ाते हैं, वे व्यंग्य करते हैं, ‘टिलटिली’ दिखाते हैं।’’ व्यंग्य विषमता या विरूपता से उत्पन्न होता है। विषमता सुषमा या औचित्य की विरोधी है जो होना चाहिए वह न होने पर तथा जो नहीं होना चाहिए उसके होने पर विरूपता होती है। विरूपता एक प्रकार की विकलांगता है। शोषक व शोषित का वर्ग-विभाजन मानव-समाज की सबसे बड़ी विषमता और विरूपता है। शारीरिक विरूपता प्रकृति-निर्मित है, उसके लिए मनुष्य खुद जिम्मेदार नहीं, इसलिए कुरूप व्यक्ति अन्ततः हास्यास्पद नहीं करूणा का पात्र है। सामाजिक विरूपता मनुष्य निर्मित है। अपने समस्त काव्य में नागार्जुन इसी मनुष्य निर्मित सामाजिक विरूपता का विरोध करते हुए दिखाई पड़ते हैं, उनके हृदय में उसे कुरूप के लिए करूणा का भाव ही मिलेगा। ‘‘नागार्जुन जितने क्रांतिकारी सचेत रूप में हैं, उतने ही अचेत रूप में भी हैं। उनका क्रांतिकारीत्व एक ओर साम्राज्यवाद, सामंतवाद और पूंजीवाद की प्रखर आलोचना में प्रकट होता है, दूसरी ओर वह उनकी कला द्वारा हिन्दी जातीयता के स्तर पर विभिन्न जनपदों की श्रमिक जनता को एकताबद्ध करने में भी प्रकट होता है।’’
‘‘नागार्जुन के मानव-सभ्यता के भावी उद्धारकर्ता का रूप कैसा होगा? क्या वह ‘आजानु भुज शर चाप घर संग्राम – जित खर दूषणम्’ होगा या ‘गौर वर्ण, दीप्त दृग, सौम्य मुख’, ‘रक्तालोक स्नात पुरुष’ होगा। नहीं, वह ‘कलुआ’ होगा।’’
‘खान खोदने वाले सौ-सौ मजदूरों के बीच पलेगा
युग की आँचों में फौलादी साँचों जैसा वही ढ़लेगा’
नागार्जुन हरिजनों के मिथक, उद्धारक या पक्षधर मात्र नहीं हैं। वे ‘हरिजनों’ को प्यार करते हैं। निम्नवर्ग के अवर्ण उनके उसी महाराग के आलम्बन हैं जो अपने समय में भक्ति का और स्वाधीनता-आंदोलन में देश प्रेम का आधार था। हरिजनों को जिन्दा जला देने की घटना ऐसी थी कि हरिजन माताओं के भू्रूण गर्भ-कुक्षियों के अंदर दौड़ने लगे। उन्होंने गर्भ में, सूक्ष्म शरीर में इतनी पीड़ा भोगी कि हथेली पर भाग्य की रेखाओं के रूप में हथियार के चिन्ह हैं –
‘आड़ी-तिरछी रेखाओं में हथियारों के ही निशान हैं,
खुखरी है, बम है, असि भी है गंड़ासा – भाला प्रधान है’
यह हरिजन अवतार का शिशु नागार्जुन की सृष्टि है और इसकी पीड़ा नागार्जुन के मानस ने झेली है। यह भी संयोग है कि हिन्दी में हरिजन-अवतार की सृष्टि मैथिल ब्राह्मण कवि नागार्जुन वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ ने की।
‘आओ रानी हम ढ़ोएंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की’
(प्यासी पथराई आंखे-पृष्ठ 58)
‘‘यह लिखकर नागार्जुन व्यक्तिगत रूप से नेहरु की निन्दा नहीं करते। रानी एलिजाबेथ के स्वागत में खड़े भारतीय शासक वर्ग की समझौतावादी नीति को आक्रमण का लक्ष्य बनाते हैं। ‘रानी’ और ‘जवाहरलाल’ ब्रिटेन व भारत की राजसत्ता के प्रधान हैं। भारत स्वतंत्र हो गया है लेकिन अभी भी ब्रिटेन की महारानी की ‘पालकी’ का बोझ भारतीय जनता के कंधे पर आएगा। भारतीय जनता की कीमत पर साम्राज्यवाद का पोषण स्वतंत्रता के बाद भी नहीं रूका।’’ भारत के पूंजीवादी नेताओं ने स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्य से संबंद्ध रखा है। ‘‘नागार्जुन कभी नहीं चाहते हैं, भूख से पीड़ित निर्धन देश में उपनिवेशवादी शोषकों के सम्मान में पैसे बहाए जाएं पानी की तरह।’’
नागार्जुन का सचेत व अचेत भावबोध जनता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हैं स्वभावतः जनता के जीवन को कष्टमय और कलहपूर्ण बनाने वाली प्रत्येक वस्तु नागार्जुन की घृणा का पात्र है। उनकी यह घृणा कितनी प्रचंड है, इसे समझना कठिन नहीं है। ‘बताऊँ’ शीर्षक कविता का आरंभ इस प्रकार होता है –
‘बताऊँ?
कैसे लगते हैं-
दरिद्र देश के धनिक?
कोढ़ी कुढ़ब तन पर मणिमय आभूषण!
(हजारझार बाहों वाली, पृ.54)
ंरानी एलिजाबेथ के आने पर अपव्यय का विरोध किया कवि ने। कविता में करुणा मिश्रित व्यंग्य पूरी ताकत से उभर आया है –
‘बेबस बेसुध, सूखे-रूखड़े
हम ठहरे तिनकों के टुकड़े
टहनी हो तुम भारी भरकम डाल की
खोज खबर हो लो अपने भक्तों के खास महाल की
लो कपूर की लपट
आरती लो सोने के थाल की
आओ रानी हम ढ़ोएंगे पालकी’
(प्यासी पथराई आंखे, पृ. 58)
‘‘भारत में कुली हैं, मजदूर हैं, मल्लाहों के नंग-धड़ंग बच्चे हैं, फटी बिवाइयों वाले रिक्शा चालक हैं, गरीबी और भूख के कारण अकाल मृत्यु का शिकार प्राइमरी स्कूल का मास्टर और उसका परिवार (प्रेत का बयान) है, खंडहर होते स्कूलों में दुखहरन मास्टर के तमाचों से गढ़ी जाती हुई भारत की भावी पीढ़ी है तथा बीज, बैल और वर्षा के अभावों में कर्ज के दलदल में डूबते किसान हैं। यह आजादी के बाद के हिन्दुस्तान की तस्वीर है’’ –
‘देश हमारा भूखा नंगा
घायल है बेकारी से
मिले न रोजी-रोटी भटके
दर-दर बने भिखारी से’
आज हर सरकार स्वयं को बेहतर साबित करने के चक्कर में जनता को छोड़ चुकी है। सरकार के आंकड़े अच्छे होने चाहिए, बाकी कुछ भी हो। आजाद देश में जीने की आधारभूत संसाधनों की व्यवस्था करना तो दूर, भूख की समस्या का भी समाधान नहीं हो सका। प्रशासन अपने को बेहतर साबित करने के प्रयास में भूखों की रोटी मुहैया न करवाकक भूख से हुई मौतों पर परदा डालता है। इसका सुंदर वर्णन नागार्जुन करते हैं-
‘मरो भूख से फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घर वालों से
वह तो था बीमार’
नेहरु की नीतियों का उन्होंने विरोध भी किया। उन पर तीखी आलोचनाएँ वे लिखते हैं –
‘वतन बेचकर पंडित नेहरु फूले नहीं समाते हैं
बेशर्मी की हद है, फिर भी बातें बड़ी बनाते हैं’
कविता की राजनीति व्यंजनाधर्मी होती है, रिपोर्टधर्मी नहीं। राजनीतिक कविताओं के माध्यम से उन्होंने व्यंग्य किया है। ‘शासन की बन्दूक’ उनकी श्रेष्ठ राजनीतिक कविता का उदाहरण है –
‘खड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल-विराट-सी शासन की बन्दूक…
जली ठूँठ पर बैठकर गयी कोकिल कूक
बाल न बांका कर सकी, शासन की बन्दूक’
सत्ता के सर्वव्यापी आतंक और उसके प्रतिरोध की सनातनता को नागार्जुन ने बन्दूक और कोयल से व्यंजित किया है। बंदूक विचार पर, मनुष्य की कल्पना पर, उल्लास पर तथा सौन्दर्य और संगीत की रूहानी लय पर पाबन्दी लगाकर उसके जीवन को कंकाल में बदल देना चाहती है। बंदूक की शक्ति अपरिमित हैं – नभ की तरह विपुल और विराट। इस विराट और दमनकारी सत्ता के द्वारा जलाकर ठूंठ कर दिए गए समय की डाल पर बैठकर कोयल गाती है – मनुष्य की अपराजेयता और सर्जनात्मकता का प्रतीक बनकर। स्वाभिमान, सत्य, अहिंसा और स्वाधीनता, आजाद भारत में इन शब्दों के अर्थ बदल गए हैं। आक्रोश और विडम्बना की समन्वित चेतना कविता में इस तरह व्यक्त हुई है –
‘स्वाभिमान सम्मान कहाँ है
होली है इंसान की
बदला सत्य
अहिंसा बदली
लाठी गोली डंडे हैं
कानूनों की सड़ी लाश पर
प्रजातंत्र के झंडे हैं’
जो प्रजातंत्र न्याय, समानता और सम्यक विकास को राष्ट्रीय जीवन में स्थापित नहीं करता, वह सत्ता के लुटेरे चरित्र और उसकी मनुष्य विरोधी दुरभिसंधियों का संरक्षक है। हमने प्रजातंत्र को लुटेरों, अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के झंडे में बदल दिया हैं राष्ट्र तो आजाद था लेकिन आजादी के बाद की आशाएँ, निराशा में बदल गईं, जो मोहभंग हुआ, उसकी तस्वीर नागार्जुन ने अपने काव्य में उतारी है। गांधीजी के उत्तराधिकारियों के रूप में जो हमें मिले उनके बारे में नागार्जुन कहते हैं-
‘बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ तीनों बंदर बापू के’
(तुमने कहा था – पृ. 18)
गलत राजनीति एवं सत्ता के विकेन्द्रीकरण से गरीबों की हालत बदतर हो रही है-
‘ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
ओं हरि ओं तत्सत हरिः ओम तत्सत’
(नागार्जुन, पृ. 77)
‘‘त्रस्त और संतप्त अगर कोई था वह विशाल जन-गण जिसका सुथना फटा हुआ था फिर भी जो राष्ट्रगान में ऊभ-चूभ कर रहा था। ऐसे ही अनुभवों के यथार्थ में नागार्जुन ने अपनी जीर्ण-शीर्ण काया की परवाह न करते हुए समूची हिम्मत से लिखा’’ –
‘ओं अष्ट धातुओं के ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहिम, उल्लू-के पट्ठे’
भारत में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी की गई थी उसका आधार .चुनाव था परन्तु उन चुनावों में मूलतः हो क्या रहा था, समाज के कुलीन वर्ग व ताकतवर लोगों के हाथ की कठपुतली निम्न वर्ग बन रहा था। दिल्ली से टिकट लेकर लौटने वालों पर करारा व्यंग्य है –
‘स्वेत श्याम रतनार अंखियाँ निहार के
सिण्डीकेटी प्रभुओं की पगधूर झार के
दिल्ली से लौटे हैं कल टिकट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के’
ऐसे ही कपटी लोग जो टिकट लाकर हंसते हैं, उन्होने इस प्रजातंत्र का नाश किया है। ‘प्रजातंत्र का होम’ में इसका चित्रण –
‘सामन्तों ने कर दिया प्रजातंत्र का होम
लाश बेचने लग गए खादी पहने डोम’
(आलोचना सहस्राब्दी, अंक 43, पृत्र 142)
नागार्जुन ने ऐसी जनवरी और ऐसा अगस्त देखा है जिसमें केवल मंत्री खुश हैं और मस्त हैं, उन्हीं की जनवरी, उन्हीं का अगस्त हैं आजादी के बाद रामराज्य के स्वप्न पर वे कहते हैं –
‘राम राज्य में अबकी रावण नंगा होकर नाचा है
सूरत शकल वही है भैय्या बदला केवल ढ़ांचा है’
सिर्फ नेहरु ही उनके व्यंग्य के शिकार नहीं हुए, सत्ता के मोह में बाप को भी भूलने वाली इंदु जी अर्थात् इन्दिरा गांधी के फासीवादी रूप पर भी उन्होंने तीखा व्यंग्य किया है –
‘‘ ‘अब तो बंद करो, हेे देवी, यह चुनाव का प्रहसन’ और
अबकी अष्टभुजा का होगा खाकी वाला देश
श्लोंकों में गूजेंगे अबकी फौजी अध्यादेश’’
नागार्जुन जिस युग में हैं उस युग में ‘सत्य को लकवा मार गया है’, पूरी मशीनरी खराब हो गई है, उसको दुरुस्त करने का प्रयास नागार्जुन की कविताओं में लक्षित होता है। नागार्जुन की राजनीतिक चेतना केवल भारतीय राजनीति तक ही सीमित नहीं थी, वे वैश्विक राजनीति पर भी नज़र डाले हुए थे –
‘अफ्रीका की काली मिट्टी लाल हो गई आज
गोरे बौनों की साजिश विकराल हो गई आज …
मैं सुनता हूँ राष्ट्रसंघ की छलनामय चुमकार
मैं सुनता हूँ बंधु तुम्हारा प्रतिरोधी हंुकार’
(प्यासी पथराई आंखें, पृ. 15)
लुलुम्बा पर उनकी यह कविता बहुत शानदार अभिव्यक्ति है। इसी तरह ‘जयति कोरिया देश’ में वह लिखते हैं –
‘गली गली में आग लगी है घर-घर बना मसान
लील रहा कोरिया मुलुक को अमरीकी शैतान’
(युगधारा, पृ. 101-102)
प्रेमचन्द के उपन्यासों के संबंध में डाॅ. रामविलास शर्मा ने यही कहा था कि उनके आधार पर बीसवीं सदी के औपनिवेशिक भारत का सामाजिक इतिहास लिखा जा सकता है। इसी प्रकार मैनेजर पाण्डेय ने ‘समग्र जीवन के कवि’ शीर्षक लेख में लिखा है – ‘‘नागार्जुन की कविता के आधार पर सन् 1940 के बाद के भारतीय समाज की राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है।’’ उनका यह कथन कोई अतिश्योक्ति नहीं है। उनका काव्य भारत की राजनीति का दर्पण है जो 1940 के बाद से लगातार घटित हो रहा था।
नागार्जुन में शुरू से यह प्रवृत्ति थी कि कविता के लिए जो अछूत विषय थे, एकदम दृश्य होकर भी जो अदृश्य रह जाते थे, उनको वह बड़े सहज ढंग से अपनी कविता का विषय बनाते थे।
‘जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली’
सुअर पहले से भी थे परन्तु उस पर इस तरह की दृष्टि पहले किसी भी कवि ने नहीं डाली थी। ऐसा सिर्फ नागार्जुन ही कर सकते थे। ‘‘यह कविता केवल एक मादा सुअर की कविता नहीं है, यह जनजीवन के प्रति, उसके क्षुद्रतम अंश के प्रति श्रमशील सौंदर्य दृष्टि के प्रति कविता का अध्र्य है।’’
नागार्जुन की कविताएँ जितनी राजनीतिक हैं ठीक उतनी ही सामाजिक भी। उनकी कविताएँ राजनीति के समानांतर ही सामाजिक यथार्थ का भी उद्घाटन उतनी ही खूबसूरती से करती हें। उन को ‘गरीबों’ से घिन नहीं आती है, उनका जी नहीं कुढ़ता है’ बल्कि वे गरीबों व दलितों के प्रति आबद्ध हैं। वे ‘बहुजन समाज की अनुपल प्रगति’ के लिए प्रतिबद्ध हैं। समाज में जो अंधविश्वास फैला हुआ है उस पर वे प्रहार कर ‘काली माई’ में कहते हैं –
‘कितना खून पिया है, जाती नहीं खुमारी
सुर्ख और लंबी है मइया जीभ तुम्हारी’
(प्यासी पथराई आंखे, पृ. 36)
इन माता को सिरों की माला पहनने का शौक है, उसके लिए ‘गरीबों पर निगाह है’ दूसरी ओर ‘घनपशुओं के लिए दया की खुली राह है’, कवि उन लोगों की तरफ से ‘माँ’ को संबोधित कर रहा है जिन्हें यह नरभक्षी देवी आत्मीय नहीं जान पड़ती जो उनका केवल शोषण करती हैं-
‘कद्दू लौकी नहीं, तुम्हें तो मांस चाहिए
यम से छीना झपटी में पूर्णांश चाहिए
लगातार ही बलिपशुओं की आंत चाहिए
(प्यासी पथराई आंखें, पृ. 37)
‘‘विषम परिस्थितियां में वे ब्राह्मण होकर भी ब्राह्मण नहीं हैं, बुद्धं शरणं जाकर भी वे बौद्ध नहीं! नागार्जुन के सामाजिक चेतना की पहली मुठभेड़ धर्म की जकड़बन्दी से हुई। समकालीन धर्म समाज के लिए कोई प्रगतिशील भूमिका नहीं निभा रहा बल्कि वह जिंदगी में तबाही व पलायन के लिए खदेड़ता है।’’ ऐसे धर्म को वे धिक्कारते हैं, तब हमें याद आता है कि यह तो कबीर जैसे हैं, कबीर होना सिर्फ धर्म पर धिक्कारने से नहीं है वरन् संपूर्ण शैली व कथ्य से हैं बाबाओं को देखकर वे दांतों तले अंगुली नहीं दबाते बल्कि उन पर हंसते हैं –
‘कांटों पर नंगा सोया है
ठिठक गया मैं लगा देखने
उस औधड़ बाबा के करतब
पियो संत हुगली का पानी
पैसा सच है दुनिया फानी’
(प्यासी पथराई आंखें – पृ, 32)
आदमी द्वारा किया गया कोई भी खेदजनक कार्य समाज के लिए कलंक कोढ़ है। अपने मुल्क की जातीयता, प्रांतीयता की अंतरराष्ट्रीय, संकीर्ण भावना कितनी दुखद है। यह राष्ट्र के विकास को कितना आबद्ध करती है, इस पर उन्हें बहुत दुख है –
‘स्थापित नहीं होगी क्या
लाला लाजपतराय की प्रतिमा मद्रास में?
दिखाई नहीं पड़ेंगे लखनऊ में सत्यमूर्ति?
सुभाष और जे.एम.सेन गुप्त सीमित रहंेगे
भवानीपुर और शाम बाजार की दुकानों तक
तिलक नहीं निकलेंगे पूना से बाहर’
(युगधारा, पृ. 29)
नागार्जुन को आलता लगे हुए व नाखूनों पर पाॅलिश किए हुए पैर अच्छे नहीं लगते अपितु उन्हें ‘फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैर’ अच्छे लगते हैं। वे अपने ‘कलुआ’ से कहते हैं कि ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’, जो शक्ति कुछ जगहों तक सीमित हो गई है, उसे वहाँ से विस्तार दो। उन्होंने दलित जीवन की यातना के साथ-साथ मुक्ति की चेतना की अभिव्यक्ति ‘हरिजन गाथा’ जैसी शानदार कविता लिखकर की है-
‘दिल ने कहा – दलित मांओ के
सब बच्चे अब बागी होंगे
अग्नि पुत्र होंगे वे, अन्तिम
विप्लव में सहभागी होंगे’
दलितों में जो रोष है नागार्जुन ने उसे मजबूती प्रदान की है। ‘‘नागार्जुन भारतीय मनुष्य की स्वाधीनता के कवि हैं।’’
‘‘किसी बड़े उद्देश्य के लिए कोई त्याग तभी कर सकता है जब वह महाराग में बद्ध हो, भक्ति महाराग है। स्वाधीनता-आंदोलन के दिनों में हमारे देश के हजारों-लाखों व्यक्ति इस महाराग से अनुप्राणित थे। भगत सिंह आजाद आदि ने आखिर किसी बड़े सुख का अनुभव करने के बाद शरीर का मोह छोड़ा होगा। नागार्जुन की कविता इस महाप्राण युक्त महाराग से अनुप्राणित थी। भक्ति के पास वह बोध नहीं था कि भक्ति के बिना भी सभी मनुष्य समान हैं। कोई अवर्ण भक्त न भी हो तो भी वह द्विज से हीन नहीं है।’’ कवि नागार्जुन के सामने संवाद के लिए दूसरा पक्ष जन समुदाय ही होता है, तभी वे कहते हैं –
‘जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ’
इसी तरह का कुछ भाव प्रसिद्ध गज़लकार दुष्यन्त कुकार के यहाँ मिलता है –
‘मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर गज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है’
(सााये में धूप)
इसी विशिष्टता पर नामवर सिंह कहते हैं – ‘‘जो कवि अपने प्रति इतना निर्मम है उसे दूसरों के प्रति भी निर्मम होने का पूर्ण अधिकार है और कहने की आवश्यकता नहीं कि नागार्जुन इसी अधिकार के साथ आज की व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार में धार वहाँ आती है जहाँ आवेश संयत होकर व्यंग्य का रूप लेता है और ‘कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूछों की थिरकन’ बन जाती है।’’ साम्यवादी विचारधारा का पोषक होने की वजह से इनकी कविताओं में सामाजिक यथार्थ का नग्न चित्रण है। इस रूप में वे हिन्दी के अद्वितीय कवि हैं। वे कहते हैं-
‘वह लो ‘धरती पुत्र’ तुम्हारे
तुम्हें मुक्ति-सुख देने वाले
बढ़े आ रहे शोषित-पीड़ित
बढ़े आ रहे गोरे-काले
पीर तुम्हारी वही हरेंगे
वे तुमको आजाद करेंगे
उनका घूसा कौन सहेगा
सौ-हिटलर बे-मौत मरेंगे’
(देवी लिबर्टी)
समाज व राजनीति पर इनके विद्रोही रूप को देखते हुए प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं – ‘‘नागार्जुन अपने काल में किंवदंती हो गए थे। बीसवीं सदी में ऐसा मूर्तिभंजक, व्यवस्था और मठद्रोही, सधुक्कड़ी बानी-बोली का सर्जक, ऐसा दुस्साहसी और बेपरवाह कवि शायद दूसरा हुआ हो। … जनता जो महसूस करती थी, वह बाबा की कलम लिखती थी। यानि उसका विद्रोह, उसकी पीड़ा, उसका व्यंग्य, उसकी इच्छा-अनिच्छा..। इसमें बाबा उसी तरफ खड़े होकर उन बातों को भी खोलकर रखते थे, जिसे राजनीति, मीडिया और बुद्धिजीवियों का मायावी तंत्र किसी खुशनुमा आवरण में ढ़क देता है।’’
नागार्जुन को हम एक राजनीतिक कवि के रूप में जानते हैं लेकिन उन्होंने जिस तरह से समाज व राजनीति को देखा, वैसी ही सूक्ष्म, सौंदर्य व कुण्ठारहित दृष्टि से अपने परिवेश व प्रकृति को देखा। प्रकृति को उन्होंने जिस तरीके से देखा, महसूस किया वैसा शायद ही कोई प्रगतिशील रचनाकार अपनी रचना में कर पाया होगा। ‘‘यह नागार्जुन के कवि-स्वभाव की संश्लिष्ट बुनावट है जहाँ एक तरफ वह प्रगतिवादी काव्य संवेदना के गहरे यथार्थ के स्तर पर जुड़़े हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ उसका सौन्दर्य बोध हिन्दी के अन्य प्रगतिवादी कवियों से भिन्न ढ़र्रे पर दृष्टिगोचर होता है, उसमें मिथिला का आंचलिक संस्पर्श, उसके परंपरागत मिठास का प्रभाव तथा संस्कृत काव्य की रसात्मक दृष्टि का प्रभाव एक साथ दृष्टिगोचर होता है।’’ ‘बेतवा किनारे’ पहुँचकर मन के मृदंग पर लहरों की चाप सुनते हैं और ऐसे हो जाते हैं कि –
‘मालिश फिजूल है
पुलकित अंग-अंग पर बेतवा किनारे
(हजारझार बाहों वाली, पृ. 178)
नागार्जुन को जन तो पसंद ही हैं लेकिन उस जन के परिवेश के चन्दनवर्णी धूल को भी वे सिर से लगाते हैं। रेणु की भांति ही नागार्जुन में भी एक तरफ धरती की अपार सौन्दर्य राशि के प्रति यथार्थपरक रागात्मक आकर्षण मौजूद है, दूसरी तरफ उस यथार्थ के इर्द-गिर्द उठने वाले विद्रूप को बड़ी ही समग्रता में चित्रित करने की क्षमता मौजूद है –
‘पिछली रात ठीक 3.22 बजे पर एक हादशा हुआ
मई-जून की वो भरी-पूरी,
झेलम-झील निर्मल प्रवाहों वाली
मेरे ऊपर से होकर गुजरी, पिछली रात
टेसू को सुलगे कई दिन हो गए,
अलसी को फूले कई दिन हो गए,
बौरों को महके कई दिन हो गए’
नागार्जुन दूर की कौड़ी नहीं लाते। बादल को घिरते प्रायः सभी देखते हैं लेकिन उनकी उक्तियाँ अछूती और ताजी होती हैं। हिमालय की विस्मयकारी धवल उत्तुंगता पर घिरते बादलों के दृश्य से अभिभूत कवि जमीनी जिन्दगी की सच्चाईयोें से जुड़ा रहता है। एक तरफ ‘बालारुण की मृदु किरणों’ से आलोकत ‘स्वर्णाभ शिखर’ और दूसरी ओर ‘निशाकाल से चिर अभिशापित’ चकवा-चकवी का ‘शैवालों की हरी दरी पर’ छिड़े हुए प्रणय-कलह का दृश्य – इसे देखने में हिमालय का बाहरी परिदृश्य ही नहीं, निर्झर-निर्झरणियों के संगीत से गुंजित देवदारु कानन में भोज पत्रों से बनी वह कुटी भी है जिसके भीतर हिन्दी कविता के हजार वर्षों के इतिहास में पहली बार नागार्जुन प्रवेश करते हैं। ‘‘नागार्जुन प्रगतिशील कवियों के अंधलोकवाद से मुक्त ‘ऐन्द्रिक संवेदन’ के कवि हैं। प्रत्यक्ष ही उन्हें खींचता है और उसी के मर्म से नागार्जुन ‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर/बादल को घिरते देखा है’ जैसी कविता लिख पाते हैं। बादल का सौंदर्य उद्घाटित करते हुए वे अपना हृदय उद्घाटित करते हैं। वह ‘मेघ’ हो उठते हैं। उनका सौंदर्यबोध रहस्यवाद से नहीं नैसर्गिकबोध से पैदा हुआ हैं जिसे नामवर सिंह ऐंद्रियबोध के रूप में पहली अवस्था कहते हैं, यहाँ नागार्जुन आगे जाते हैं, वे ऐन्द्रियबोध को जीवनबोध में बदलते हैं। नागार्जुन प्रगतिशील कवियों में अकेले हैं जिन्होंने प्रकृति काव्य को जीवन-काव्य बना दिया है।’’ इस ऐंद्रियता का सबसे सूक्ष्म चित्रण ‘ऋतु परिवर्तन’ की इन पंक्तियों में मिलता है –
‘लग रहा था आज प्रातः काल पानी सर्द
गंगा नहाने का वक्त
आया ख्याल
हिमालय में गल रही है बर्फ
आज होगा ग्रीष्म ऋतु का अंत’
‘‘नागार्जुन की ये कविताएँ यह विश्वास जगाती है कि सारी आधुनिकता के बावजूद गांव के साधारण जन का प्रकृति साहचर्य एकदम समाप्त नहीं हो गया है और न उनका इंद्रियबोध और सौंदर्यबोध ही भर पाया है।’’ पता नहीं चलता है कि कवि की सौंदर्य चेतना कहाँ-कहाँ जाती है। कवि ‘भुरभुरी जमीन’ देखकर अनुमान लगा लेता है कि सियारों के मांद गरम है –
‘भुरभुरी जमीन
गरम है सियारों के मांद
खंडहर के कोने में
घुग्घू गया फांद’
(कुछ गीत-2, आलोचना, जनवरी-जून 1991, पृ. 39)
शिशिर, हेमंत, ग्रीष्म तथा बादल, समुद्र आदि पर इनकी कविताएँ जहाँ एक ओर कवि के रागत्व को प्रक्षेपित करती हैं, वहीं दूसरी ओर वे सामान्य रूप से प्रकृति दुश्यों को एकदिकीय विस्तार भी देती हैं –
‘शिशिर की यह निशा
धुंध में डूब गई
दिशा दिशा दिशा’
(कुछ गीत-2, आलोचना, जनवरी-जून 1991, पृ. 39)
वे जहाँ रहते हैं, वहाँ के एक-एक पेड़ पौधे की प्रकृति पहचानते हैं-
‘नए-नए हरे-हरे पात …
पकड़ी ने ढ़क लिए अपने सब गात
पोर-पोर डाल-डाल
पेट-पीठ और दायरा विशाल
ऋतुपति ने कर लिए खूब आत्मसात’
(नागार्जुन, पृ. 91)
नवंबर के हेमंती बादलों की अतिशीतल बड़ी-बड़ी बूंदों को देखकर अपने रोम-रोम की पुलक को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं –
‘ओह, कैसे मूड में इधर को
निकल आए हैं हेमंती बादल’
(नागार्जुन, पृ. 175)
यही बादल जब ‘हेमंती बादल’ होते हैं तो उनका रूप कवि को आह्लादित, प्रेरित नहीं करता, पर उनका भी एक रूप है और कवि उसे पहचानता है –
‘इनकी अगवानी में दादुर नहीं बोले
कोयलों ने कूक नहीं मारी, पर नहीं तोले
इनकी अगवानी में –
चातक तक मौन रहे, मोर नहीं डोले
हेमंती बादल हैं
जाने कहाँ, जाने किधर –
बरसाकर आए हैं बरफ के गोले’
प्रकृति का ऐसा विविध रूप, इतने अधिक उपादानों को समेटकर वे दर्शाते हैं कि प्रकृति से हमारा रिश्ता जीवंत तो उठता हैं।
‘पवन ने बहका लिया था, मेघ कुल की पुत्रियाँ हैं! बदलियाँ है!’
में मानवीकरण के माध्यम से प्रकृति की निराली छटा का वर्णन करते हैं। कभी-कभी प्रकृति की कविताओं में भी उनका वही तल्ख तेवर नजर आने लगता है। प्रकृति के सौन्दर्य की कविता लिखते समय वे समाज की विरूपता भूल नहीं जाते। वे पन्त की तरह केवल प्रकृति के सुकुमार कवि नहीं है, उसमें सामाजिक विरूपता को भी सम्मिलित करते हैं। ‘काले-काले’ कविता इसका प्रमाण है-
‘काले-काले ऋतु रंग
काली-काली वन-घटा
काली-काली छवि-छटा
काले-काले परिवेश
काली-काली करतूत’
नागार्जुन प्रकृति से अपने रिश्ते को ऐसे पहचानते हैं –
‘केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो
कालिंजर का चैड़ा सीना, वह भी तुम हो
ग्राम वधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो
कुपित कृषक की टेढ़ी भौहें, वह भी तुम हो
लाठी लेकर कालिरात्रि में करता जो उनकी रखवाली, वह भी तुम हो’
‘‘नागार्जुन का काव्य जगत एकदम मूर्त और ठोस है, ऐंद्रिय संवेदन का साक्षात् विषय है। प्राकृतिक उपादान उनके लिए रोमानी आकर्षण के आलंबन नहीं, ये उनके सौन्दर्य का दर्शन जीवन-सापेक्ष उपयोगिता में करते हैं।’’ उनके प्रकृति चित्र घनानुभूतिजन्य स्वलाप या संबोधन अधिक होते हैं। प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया से गुजरता हुआ कवि रूपजन्य अनुभूति के विश्लेषण के बिंदु तक पहुँचता है। उनका ख्याल है –
‘कैसा लगा
‘कैसा लगा कोहरा?’
और कविता के अंत में उसने उत्तर ढूँढ़ लिया-
‘पूस की ठिठुरन में
पूनम की छुअन में
अच्छा लगा कोहरा
अच्छा लगा’
नागार्जुन की सबसे बड़ी शक्ति किताबीपन के कचड़े से रचनाधर्मिता को अनाविल रखने में है। ‘फसल’ कविता नागार्जुन की रचनात्मकता के जादू का प्रतिनिधि उदाहरण है –
‘फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुणधर्म है
रूपान्तर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का’
नोस्टेलजिया का भाव कवि के अंदर भरा हुआ है। वह अपने तरौनी गाँव, वहाँ की प्रकृति, परिवेश, उसकी छुअन व एहसास को महसूस करते हैं यह भाव उनकी प्रसिद्ध कविता में व्यंजित है – कवि बहुत दिनों बाद पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान देखता है, धान कूटती किशोरियों की कोकिल-कंठिल तान सुनता है, मौलसिरी के ढ़ेर-ढे़र से ताजे टटके फूल सूंघता है, तालमखाना खाते, गन्ना चूसते हुए वह मानो उस प्रकृति का भाग गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श हर तरीके से कर तृप्त हो जाता है। इस असाधरण भाव की कविता सिर्फ नागार्जुन के यहाँ ही मिल सकती है। नागार्जुन की कविताएँ प्राकृतिक विविधता का एलबम हैं। बर्फ से ढ़की धवल पर्वतीय प्रकृति, खिड़की से दिखाई देती सड़क, सीढ़ीनुमा खेतों में ‘धान के हरित नवांकुरों पर सुबह की उतरती कच्ची धूप, जेठ के बाद ‘सघन काली घन-घटा से आछन्न आकाश’, झरते हुए मेघों से घुलता हुआ धरती का दृश्य, गीली भादों की अमावस रात में जंगल के विस्तार पर रोशनी के अक्षत छींटते जुगनू, पीपल के पत्तों पर फिसलती चांदनी, कोहरे में डूबी हुई सुबह, बसंत में कोयल की कूक, हवा में नीम के फूलों की खुशबू, समंदर का विस्तार, कश्मीर की धरती पर उदास बच्चा, चिनार और उलटा लटक कर नासपाती कुतरता हुआ ‘डियर तोताराम’ नागार्जुन के कलम से मानों और खूबसूरत हो जाती है।
जहाँ पर प्रकृति विद्यमान है, वहाँ पर प्रेम का भी औदात्य स्वरूप हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। नागार्जुन के यहाँ भी प्रेम का वर्णन मिलता है। वहाँ अन्य कवियों की तरह रूमानियत में डूबा हुआ प्रेम नहीं मिलता, वहाँ तो घोर निर्जन परिस्थितियों में जीवन के यथार्थ में प्रेम पनपता है-
‘घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज
चाहिए किसको नहीं सहयोग
चाहिए किसको नहीं सहवास’
(सतरंगे पंखों वाली, पृ. 46)
कमल, कुमुदिनी, ताल मखान, वेणुवन, नीलिमा-निलय की याद न केवल ‘सिंदूर तिलकित भाल’ को आकर्षक व प्रिय बना देता है वरन् यह नोस्टेलजिया उनके पत्नी प्रेम को पूरे परिवेश से जोड़ता है। नागार्जुन के यहाँ प्रेम का ऐसा स्वरूप हमें दिखाई देता है। ‘‘आधुनिक कविता में व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वजनिक रूप में ढ़ालने का जटिल कार्य सर्वाधिक सफलता से निराला ने ‘सरोज स्मृति’ में किया, उसके बाद यह परंपरा नागार्जुन के काव्य में ही विकसित हुई। ‘सिंदूर तिलकित भाल’ इस सफलता का उत्कृष्ट उदाहरण है।’’ नागार्जुन कोसों दूर है। अयथार्थवादी भावुकता के बूते पर नागार्जुन जैसा समर्थ काव्य लिखना असंभव है। पिता-पुत्री के स्नेह पर लिखी कविता ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ एक ओर शानदार रचना है –
‘झलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-सादे से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा –
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ’
एक बच्चे को पाकर, अन्तर्मन में क्या भाव जागृत होता है, वह स्नेह ‘वह दंतुरित मुस्कान’ में दर्शनीय है –
‘देखते तुम इधर कनखी मार
और होती जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्काना
मुझे लगती बड़ी ही छविमान’
इस दृश्य में दोनों पुलकित हो रहे हैं, मग्न व खुश हो रहे हैं, कितना मनोरम दृश्य है यह। मानव प्रेम को वे सर्वोपरि महत्व देते हैं। ‘वह तुम थी’ में प्रेम के व्यापक प्रभाव को दर्शाया गया है –
‘कर गई चाक
तिमिर का सीना
जीत की फांक
यह तुम थीं
सिकुड़ गई रग-रग’
वे अपनी प्रियतमा को प्रकृति के अनेक रूपों में देखते हैं। उनकी प्रियतमा ही ज्योति की वह फांक है जो अंधकार के सीने को चीर देती है व प्रकाश भर देती है।
नागार्जुन जैसा कवि हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर है। ‘‘नागार्जुन की काव्य चेतना का उनके युग और जीवन की परिस्थितियों से यह रिश्ता है कि निराला के यहाँ निराशा-पराजय-अंधकार के चित्र अधिक प्रभावशाली हैं।’’ नागार्जुन भी वह सब देख रहे हैं – टूटता समाज, दिशाहीन होती राजनीति, धर्माडंबर, जातीय विघटन, समता का ह्रास, नैतिकता का पतन परंतु फिर भी उनके यहाँ आशा है, विजय है, उदित होता सूर्य व शीतलता पहुँचाती चाँदनी है। जनता के जीवन से उनका अटूट रिश्ता है। संघर्ष है, कर्म करके परिवर्तन करने की दृढ़ इच्छा है, अपने प्रकृति की गोद में समा जाने की प्रबल इच्छा है। अपने परिजनों के प्रेम व सम्मोहन में वे चुंबन देते हैं, उनका यह विविध रूप हिन्दी के शायद ही किसी कवि में नजर आए। उनकी काव्य चेतना जितने वैविध्य को समाहित कर हिन्दी व मैथिली साहित्य को अभिसिंचित करती है वह अभूतपूर्व है।

सन्दर्भ ग्रंथ –

  1. ‘जनकवि होने का अर्थ’ लेख से – विश्वनाथ त्रिपाठी, आधुनिक काव्य विवेचन, पृ. 166.
  2. नए कविः एक अध्ययन – डाॅ. संतोष कुमार तिवारी, भारतीय ग्रंथ निकेतन, संस्करण 1991, पृ. 95.
  3. नई कविता का आत्मसंघर्ष – गजानन माधव मुक्तिबोध, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ. 10.
  4. नयी कविता का स्वरूप – श्याम सुंदर घोष, पृ. 13.
  5. समकालीन हिन्दी कविता – विश्वनाथप्रसाद तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 49.
  6. कविता का परिसार एक अन्तर्यात्रा – रामेश्वर राय, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2015, पृ. 75.
  7. उपर्युक्त, पृ. 76.
  8. ‘जनकवि होने का अर्थ’ लेख से – विश्वनाथ त्रिपाठी, आधुनिक काव्य विवेचन, पृ. 166.
  9. नयी कविता और अस्तित्ववाद – रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1997, पृ. 154.
  10. ‘जनकवि होने का अर्थ’ लेख से – विश्वनाथ त्रिपाठी, आधुनिक काव्य विवेचन, पृ. 169.
  11. नागार्जुन की कविता – अजय तिवारी, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2012, पृ. 37-38.
  12. समकालीन कवि और कविता – संपादक-माधुरी छेड़ा, रवीन्द्र कात्यायन, अनंग प्रकाशन, संस्करण 2007, पृ. 123
  13. कविता का परिसर एक अन्र्यात्रा – रामेश्वर राय, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2015, पृ. 78.
  14. नागार्जुन और समकालीन विमर्श – सं. रमा, स्वराज प्रकाशन, संस्करण 2013, पृ. 49.
  15. राष्ट्रीय संगोष्ठी: अज्ञेय एवं नागार्जुन का जन्म शताब्दी वर्ष 2011, स्मारिका 2011.
  16. कवि की नई दुनिया – शंभुनाथ, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2012, पृ. 225.
  17. शब्द और मनुष्य, परमानंद श्रीवास्तव, पृ. 134.
  18. नागार्जुन की सामाजिक चेतना – प्रो. प्रणय, यात्री प्रकाशन, संस्करण 1995, पृ. 53.
  19. नागार्जुन और समकालीन विमर्श, सं. रमा, मैनेजर पाण्डेय के लेख ‘काव्य की भूमि और भूमिका का विस्तार’, पृ. 20, स्वराज प्रकाशन, संस्करण 2013
  20. ‘जनकवि होने का अर्थ’ लेख – विश्वनाथ त्रिपाठी, आधुनिक काव्य विवेचन, पृ. 168-169
  21. नागार्जुन: प्रतिनिधि कविताएं, सं. नामवर सिंह, राजकमल पेपरबैक्स, संस्करण 2015, पृ. 8-9.
  22. कवि परम्परा: तुलसी से त्रिलोचन – प्रभाकर क्षोत्रिय, पृ. 147.
  23. नागार्जुन मूल्यांकन: पुनर्मूल्यांकन, पृ. 128.
  24. शब्द और मनुष्य – परमानंद श्रीवास्तव, पृ. 131.
  25. जमीन की कविता और कविता की जमीन – नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ. 4.
  26. नागार्जुन और समकालीन विमर्श, सं. रमा, ‘प्रकृति की यायावरी आत्मीयता का कवि’ लेख से – निर्मला जैन, स्वराज प्रकाशन, संस्करण 2015, पृ. 31.
  27. नागार्जुन की कविता – अजय तिवारी, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2012, पृ. 34.
  28. निराला की साहित्य साधना (भाग-2), रामविलास शर्मा, पृ. 134.

 

श्वेतांशु शेखर
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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