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शोध सारांश

हिन्दी फिल्म संगीत आज अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए हैं। शब्द (साहित्य) और स्वर (संगीत) का अद्भुत समन्वय इन गीतों में मिलता है। जब से हिन्दी फिल्मों का आरम्भ हुआ है, तब से इन फिल्मों में गीत अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। बॉलीवुड फिल्मों की पहचान ही इन गीतों से होती है। यहाँ तक कि कई बार फिल्मों की पटकथा से भी अधिक गीत याद रहते और पसंद किये जाते हैं। वास्तव में ये गीत फिल्मों की कहानी को गति और दिशा देने का भी ख़ास काम करते हैं। इन गीतों के माध्यम से दृश्य में भावप्रवणता बढ़ती ही है साथ ही घटना और स्थिति का सफल सम्प्रेषण होता है। इस शोध कार्य की परिकल्पना भी सावन और बरसात के ऊपर आधारित इन। गीतों के माध्यम से संप्रेषित होने वाले अलग-अलग मनोभावों को समझने का प्रयास हुआ है। यह जानने की कोशिश की गयी है कि कैसे एक गीत जब एक विशेष सिचुएशन के लिए तैयार किया जाता है तब उसकी प्रक्रिया कैसी होती है। गीतकार और संगीतकार का उचित समन्वित प्रयास एक गीत को कालजयी बना देता है। सावन और बरसात फिल्मकारों का प्रिय विषय रहा है तो इसके आधार पर भावों का विविध आयामी प्रतिबिम्बन कैसे होता है। इस कार्य को करने के लिए के मूल रूप से तो गुणात्मक शोध-प्रविधि का ही प्रयोग किया गया है साथ ही इस में सन्दर्भ की पुष्टि के लिए वर्ष का उल्लेख किया गया है। गीतकारों के नामों का उल्लेख अधिकतर गूगल साइट्स के द्वारा ही उपलब्ध हुआ है और कुछ साहित्य पुस्तकाकार में भी प्राप्त हुआ।

बीज शब्द: हिन्दी सिनेमा के गीत, बरसात पर आधारित गीत, गीतकार, संगीतकार, सावन, बारिश

मूल आलेख

                                                                                                     हिन्दी फिल्मी गीतों की प्रसिद्धि और लोकप्रियता से हम सभी वाकिफ़ हैं। ये गीत रंग-बिरंगे चित्रों की तरह हमारे जीवन के कैनवास में दूर दूर तक बिखरे हुए एक खूबसूरत कोलाज बनाये हुए हैं। जितने भी रंग इंसान की कल्पना में संभव हो पाए हैं उन सभी की छवि इन गीतों में इतनी सपष्टता से दिखाई देती है कि कभी कभी ये वास्तविकता से भी बेहतर नज़र आते हैं। कोई भी गीत शब्द (साहित्य) और स्वर(संगीत) के सम्मिलन से बनता है। फिल्मी गीतों में और भी कई  आयाम होते हैं। वहां अभिनय, दृश्यांकन और चित्रांकन आदि भी होता है। वैसे तो फ़िल्मी गीत हमारे सुनने का विषय होते हैं परन्तु फिल्मी गीत अक्सर गीत के साथ-साथ अभिनेता और दृश्य के कारण भी पसंद और याद किये जाते हैं। किसी गीत की अनुभूति उसके दृश्य को याद करके और  भी तीव्र हो जाती है। संगीत और शब्द का सुन्दर समन्वय कुछ गीतों को कालजयी बना देता है तो कुछ गीत एक विशेष फिल्म के लिए और कुछ समय के लिए ही बने होते हैं जो कुछ समय बाद अपना प्रभाव छोड़ देते हैं।

            यहाँ यह ध्यातव्य है कि ऐसे कौन से तत्त्व या विशेषताएं होती है जिसके कारण कुछ फ़िल्मी गीत इतने प्रचलित और लोकप्रिय हो जाते हैं जैसे कि लोकगीत। उनकी प्रसिद्धि बिल्कुल उसी प्रकार हो जाती है जैसे कि एक प्रांत या अंचल के लोकगीत सभी को लुभाते हैं और वह सभी को मुहं जबानी याद भी रहते हैं। लोकगीत मानवीय संवेगों की नैसर्गिक अभिव्यक्ति होती है और इसलिए वे ह्रदय की गहराइयों से निसृत होते हैं और ह्रदय तक अनायास ही पहुँच जाते हैं। इसी प्रकार से जो  फ़िल्मी गीत लोकप्रिय या बहुत पसंद किये जाते हैं उनकी ख़ासियत भी यही होती है कि वे शब्दों और संगीत के माध्यम से दिलों पर राज़ करते हैं। दोनों में अंतर यह है कि जहां लोकगीत ह्रदय की सहज-स्वाभाविक मधुर अभिव्यक्ति होती है वही फिल्मी गीतों में कविता-छंद-संगीत के विधान का विशेष ध्यान रखा जाता है और दूसरे ये फिल्म की घटना या भाव को चित्रांकित करते हैं। इसलिए फ़िल्मी गीतों की संरचना लोकगीतों की तुलना में थोड़ी जटिल होती है। इन गीतों में गीत, संगीत और गायक इन तीनों की अहम् भूमिका होती है। इसके अलावा प्रत्येक फिल्म की पटकथा और उसके विभिन्न प्रसंग गीतों के भाव और संगीत दोनों के लिए ज़रुरी होते हैं।  “हर फिल्म का अलग मिजाज़ होता है, जुदा अंदाज़ होता है, अपना माहौल होता है। हर फिल्म में कुछ ख़ास किरदार होते हैं। गीतकार फिल्म के माहौल और किरदारों के मुतामिक ही गीत लिखता है।” (हिन्दी फिल्मो के गीतकार, भार्गव अनिल,पृ .5)

           अब बात आती है, ह्रदय से ह्रदय तक पहुँचने की, तो यह प्रश्न उठता है है कि गीतों में ऎसी क्या बात होती है, जिससे वह ह्रदय की वस्तु बन जाता है। किसी भी गीत का स्वरुप संगीत के बिना अधूरा है। शब्द उसका शरीर और मन है तो संगीत उसकी आत्मा बन जाता है। गीतों का मनुष्य पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और उसका मुख्य कारण इन गीतों में व्याप्त संगीत है। कई बार धुनें तो याद रहती हैं और शब्द याद नही आते।  इसका अर्थ यह हुआ कि संगीत कही हमारे गहन अवचेतन मन में विद्यमान रहता है जो हमे हमेशा याद रहता है। मनुष्य के भावों की अभिव्यक्ति के विभिन्न स्वरूपों में संगीत एक महत्त्वपूर्ण मानव व्यवहार है। यह स्वर और ताल के माध्यम से भावो-विचारों को अभिव्यक्त करता है। इसलिए गीतों में व्याप्त संगीत का हमारे विभिन्न मनोभावों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। कुछ गीतों में संवेदनाओं का पुट इतना जबरदस्त होता है कि कृपण से कृपण ह्रदय भी रंजित हो उठते हैं। उनसे नि:सृत भावों और विचारों में फैलाव और उतनी ही गहनता भी आ जाती है। वैसे भी संगीत ह्रदय में जितना गहरा उतर सकता है कुछ और नहीं।

           जैसा कि पहले भी कहा गया है कि फिल्मी गीत विभिन्न स्थितियों और भावों के आधार पर निर्मित होते हैं तो उनके ही अनुसार उनकी गीत रचना और संगीत बनाया जाता है। सुनने या देखने वाले पर उसका वैसा ही प्रभाव पड़ता है, जिसके लिए उसका निर्धारण किया गया है। यह भी देखा गया है कि चाहे फिल्मो में किसी गीत की प्रस्तुति किसी विशेष दृश्य या भाव के लिए की जाती है परन्तु कई बार उनका प्रभाव श्रोता पर उनकी अपनी मन:स्थिति के आधार पर होता है। इस प्रकार फ़िल्मी गीत विविध विषयों को लिए होते हैं और गीतकार, संगीतकार और गायक उसमें अपनी कलाकारी से जीवन्तता भर देते हैं। इन गीतों में मौसम, त्यौहार, उत्सव, जीवनयापन, सुख, दुःख आदि विषयों पर आधारित विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। इनमें वे गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जिनका प्रभाव ह्रदय को एक ओर उल्लसित और उमंग से भर देने वाला होता है तो दूसरी ओर व्याकुलता और बेचैनी की उत्कटता भी इनसे महसूस किया जा सकता है। ऐसे गीत अक्सर वर्षा ऋतु या सावन पर आधारित होते हैं। भीषण गरमी के बाद आसमान में घिर आये काले-काले बादल और फिर उनसे बरसती रिमझिम फुहारे कवियों और कलाकारों के ह्रदय का प्रिय विषय बन कर उनके अभिव्यंजित रूप में कलाकृतियों और रचनाओं को सराबोर करता है तो फिल्मी गीत इससे कैसे अछूते रह पाते।

             सबसे पहले सावन और वर्षा ऋतु पर आधारित गीत 1944 में आई फिल्म ‘रतन’ में नौशाद के निर्देशन में बने इस गीत के माध्यम से गाये गए जिसे आवाज़ दी थी ज़ोहराबाई अम्बाले वाली ने और जिसे दीनानाथ मधोक ने लिखा था। यह नौशाद साहब का पहला सुपरहिट गीत भी माना जाता है।

“रुमझुम बरसे बदरवा मस्त हवाएं आई

पिया घर आजा, आजा ओ मोरे राजा

सावन कैसे बीते रे, मैं यहाँ तुम कहाँ

हमको नींद न आये रे याद सताए तेरी” (गीतकार: दीनानाथ मधोक, पत्रिका.कॉम )

         हिन्दी सिनेमा के इतिहास के चालीस और पचास के दशक को सुनहरा दौर माना जाता है।  फिल्म की पटकथा, गीत, संगीत अभिनय सभी स्तरों पर कलाभिव्यक्ति के उच्चस्तरीय मानदंड स्थापित हुए और इसलिए आज भी इन फिल्मो की रवानगी ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसी समय में इतने सुरीले गीतों की रचना हुई कि वह व्यक्ति जिसे संगीत की ज़रा भी जानकारी नहीं है उसका भी इन गीतों से लगाव हो जाता है। उर्दू और हिन्दी शायरी के बेहतरीन शायरों और कवियों ने अपनी कलाभिव्यक्ति से फिल्मी गीतों की खूबसूरती बढ़ाई। कई सुरीले और मंझे हुए संगीतकार भी उभर कर आये जिन्होंने अपनी काबिल-ए-तारीफ हुनर से शास्त्रीय संगीत, राग-रागिनियों, लोक-धुनों, आंचलिक धुनों के आधार पर सुन्दर गीतों का निर्माण किया। कुछ ने विदेशी संगीत से भी प्रेरणा ली और उसे हिंदी फिल्मो की तासीर पर उतार लिया। इन संगीतकारों ने बेहतरीन शायरी और कविता को अपने मनोहर संगीत से सजाया। इन्ही गीतों में कुछ सावन और बरसात के भाव भी बरसते हैं।

फ़िल्मी गीतों में सावन और बरसात के विविध रंग:-

            आमतौर पर बरसात और सावन को एक ही माना जाता है। शाब्दिक अर्थ के अनुसार ये दोनों ही शब्द एक दूसरे पर आश्रित हैं। परन्तु यदि ध्यान से समझा जाए तो दोनों ही शब्द अपने आप में एक विशेष ऋतु को तो परिभाषित करते ही हैं पर मनुष्य की मनोदशाओं और भावों की बात करे तो यह एक दूसरे से अलग अलग भी हो सकते हैं स्थितियों और वातावरण के अनुसार। जहां बरसात में वर्षा होती ही है वही सावन में कई रंग हो सकते हैं। वहाँ बारिश हो भी सकती है और नहीं भी। पर एक बात दोनों ही के लिए ख़ास है और वह यह कि एक तो इनके लिए या इनसे सम्बंधित सामान्य विचार होते हैं जैसे सावन और बरसात आनन्द और ख़ुशी का सूचक है वही व्यक्ति की अपनी मनोस्थिति और परिस्थितियाँ जब इस मौसम के सानिंध्य में आती हैं तो उनके रंग विविध होते हैं। इन गीतों में आकर्षण शक्ति उत्पन्न करने का मुख्य कार्य गीतकार करता है और उसमें लालित्य संगीत और बढ़िया गायकी से भरता  है। बरसात और सावन पर आधारित विभिन्न भावों की सजीव अभिव्यक्ति गीतों में प्रस्तुत सुन्दर उपमानों और बिम्बों की सहायता से की जाती है। आज से चालीस पचास साल पहले की भावाभिव्यक्ति आज के विचारों से अलग होती है, भले ही ये गीत बरसात और सावन पर लिखे जा रहे हों। इसलिए गीतकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी होती है कि कैसे प्रचलित उपमाओं से अलग नयी परिकल्पनाएं गीतों में प्रस्तुत करे। तभी एक गीत में प्रस्तुत भाव और विचार लोकप्रिय हो जाते हैं। “संगीत में विचार नहीं होता, विचार तो गीत में होते हैं, जिसमें कही गयी बात जब सुनने वाले को अपनी लगती है, जीवन का सच लगती है और दिल में उतरती है, तभी उस विचार को आदमी सुनना और गुनगुनाना चाहता है और तभी वह गीत जीवन भर उससे जुड़ा रहता है।” (हिंदी फिल्मों के गीतकार, भार्गव अनिल, पृ. 3)

         जैसे ही आषाढ़ आता है, तपती गर्मी के बाद काले-काले बादल का घिरना और बूंदों का गिरना जैसे मन में नई रूमानियत को जगा देता है। आशा और उमंग का नया संचार होने लगता है। शैलेन्द्र के लिखे, गीता दत्त और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ और महान संगीतकार एस.डी.बर्मन के निर्देशन में बने इस खूबसूरत गीत को सुने बिना इस मौसम का आनंद अधूरा है :-

“रिमझिम के तराने लेके आई बरसात

याद आए किसी से वो पहली मुलाकात

भीगे तन-मन रस की फुहार

प्यार का संदेसा लाई बरखा बहार

भीगे तन-मन पड़े रस की फुहार

प्यार का संदेसा लेके आई बरसात”

          फिल्म ‘काला बाज़ार’ के इस मधुर गीत को सुनते ही किसी मन के किसी कोने में बसी नाज़ुक सी याद ताज़ा हो जाती है। कितना सुन्दर सामंजस्य है, सामने तो बारिश की बूंदे गिर रहीं हैं और मन हसीन ख्यालों से सराबोर होता है।

विरह या वियोग :-

         अब इस खूबसूरत ऋतु पर आधारित फिल्माए गये कुछ प्रचलित गीतों के विषय में प्रमुख बिन्दुओं को प्रस्तुत करते हैं। जब भी बरसात होती है तो मनोभाव अपने विकसित अवस्था में या यूं कहे कि बहुत ही उल्लसित होते हैं। इस अवस्था में अपने प्रिय से मिलने की आकांक्षा जागृत हो जाती है और यदि उनसे मुलाक़ात नहीं हो पा रही है तो कुछ ऐसे भाव बरबस ही अभिव्यक्त हो जाते हैं।

“अजहू न आये बालम सावन बीता जाए

चाँद को बदरा गरवा लगाए

और भी मेरा मन ललचाये

यार हसीन गले लग जा

मोरी उमरिया बीती जाए “ (गीतकार: हसरत जयपुरी, गीतमंजुषा.कॉम)

         1964 में निर्मित इस गीत को महमूद और शोभा खोटे पर फिल्माया गया था। यह गीत हसरत जयपुरी द्वारा लिखा गया और शंकर-जयकिशन का संगीत से सुसज्जित हुआ। इस गीत को सुनते ही सावन की अनुभूति तो होती ही है लेकिन इसका प्रभाव बिरहा का पड़ता है। शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने इसे उप-शास्त्रीय संगीत की तर्ज़ पर संगीतबद्ध किया है जिससे इसमें तीव्र अनुभूति होती है। इस गीत के बोल को भी देखा जाए तो उसमें काव्यात्मकता की सभी विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं। शंकर-जयकिशन के सुन्दर संगीत संयोजन से इस में जीवन्तता आ गयी है।  हसरत जयपुरी ने इन संगीतकारों के साथ शैलेन्द्र के साथ मिल कर बहुत उम्दा काम किया। एक अनुमान के साथ उन्होंने लगभाग 2000 गीत लिखे जिनमें उर्दू-फ़ारसी का खूबसूरत समावेश हिन्दी के साथ किया। उनके लिखे गीत कालजयी हैं। “फ़िल्मी गीतों में रूमानी गीतों की बात चले, तो सबसे पहले याद आते हैं हसरत जयपुरी, वह उम्दा शायर थे जिसे लोग ‘अनादि यथार्थवादी’ भी कहते हैं। अपने गीतों में मुहब्बत के अफ़सानों को दिलचस्प अंदाज़ में पेश किया।” (भार्गव अनिल, हिन्दी फिल्मों के गीतकार, पृ.112)

“रिमझिम के तराने ले के आई बरसात

याद आये किसी से वो पहली मुलाकात” (गीतकार; लिरिक्स इंडिया.कॉम )

            फिल्म काला बाज़ार (1960) और एस. डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में बने इस गीत में भी बारिश की फुहारों के साथ किसी की याद की कसक समाई हुई है जो सुनने वालों के दिल में सहज ही उतर जाती है।

         इनमे से कुछ गीतों की भाव-सघनता कालिदास के मेघदूतम की पंक्तियाँ ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ का स्मरण कराती हैं। जिस प्रकार कालिदास ने बादलों से याचना की थी उसी प्रकार 1955 की फिल्म ‘आज़ाद’ में राजेन्द्र कृष्ण के गीत और रामचंद्र के संगीत निर्देशन तथा लता मंगेशकर की आवाज में गाये हुए इस गीत में मीना कुमारी भी बादलों से विनती करती हैं। इस गीत के साथ फिल्म की सिचुएशन और भी प्रभावशाली हो गयी है। राजेन्द्र कृष्ण इस कला में सिद्ध हस्त थे। “उनके काम करने का अंदाज़ बड़ा निराला था। संगीतकार उन्हें गीत की सिचुएशन समझाकर रिकॉर्डिंग के लिए निश्चित तारीख से दस-पन्द्रह दिन पहले गीत लिख कर देने का अनुरोध करते थे मगर राजेन्द्र इस मोहलत को यूं ही उड़ा देते और आखिरी समय में जब संगीतकार दिन-रात तकाज़े करने लगता तो कही भी बैठ कर पंद्रह-बीस मिनट एं हाथो-हाथ गीत लिख कर उसे पकड़ा देते।” (हिंदी सिनेमा के गीतकार, हमीद जावेद, पृ. 80) इन्होने सबसे अधिक सी. रामचंद्र और मदन मोहन के साथ ही किया। यह दोनों ही संगीतकार धुनें तब बनाते थे जब इन्हें पूरा गीत लिख कर दे दिया जाता था। इससे यह अंदाज़ लगाया जा सकता है उस दौर में गीत और संगीत का का बड़ा भाग राजेंद्र कृष्ण की कल्पना पर आधारित था। उनमें ज़िन्दगी को बहुत गहरे में देखने की नज़र थी और इसलिए उनके गीतों के माध्यम से जीवन दर्शन के खास आयाम अभिव्यक्त होते हैं।

“जारे जारे ओ कारी बदरिया

मत बरसो रे मेरी नगरिया

परदेस गए हैं संवरिया

काहे घिर-घिर शोर मचाये री, मोरा नरम करेजा जलाए री

मोरा मनवा जले कोई बस न चले, हाय तक-तक के सूनी डगरिया

जईयो-जईयो रे देस पिया के, कहियो दुखड़े तु मेरी जिया के

कहियो छम-छम रोये अखियाँ न सोये

खोई याद में पी की पहरिया” (गीतकार: राजेंद्र कृष्ण, यू ट्यूब:शमारू फ़िल्मी गाने )

रोमानियत:-

          1960 वर्ष हिन्दी फिल्मो के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योकि कई यादगार फिल्मे इसी दौर में आई थी। एक बात और भी गौरतलब है कि इस दौर में कव्वालियों का प्रचलन भी खूब दिखायी पड़ता है। ‘बरसात की रात’ इस समय की महत्त्वपूर्ण फिल्म रही जिसकी कव्वालियाँ आज भी बहुत ही कर्णप्रिय लगती हैं। इन कव्वालियों की विशेषता यह है कि इनमें कव्वाली की रवानगी, शब्दों की ताज़गी और मधुर संगीत की उत्कृष्टता एक साथ दृश्य में आकर्षण, रूचि और उत्सुकता संचार करती है। बंदगी के अलावा कव्वाली मोहब्बत की उम्दा शेर-ओ-शायरी के लिए भी जानी जाती है।

‘’गरजत बरसत सावन आयो रे

लायो न अपने संग बिछड़े बलमवा’ (गीतकार: साहिर लुधियानवी, म्युसिकस मैच )

         यह साहिर लुधियानवी का गीत रचना, रौशन का संगीत, सुमन कल्यानपुर और कमल बारोट की आवाज़ में बरसात के ऊपर आधारित यह बेहतरीन गीत अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। साहिर की लेखनी में गरीब किसान, पेट की आग मिटाने के लिए अपना सर्वस्व न्योच्छावर करने वाली स्त्रियों, जिनकी वह बेहद इज्ज़त करते हैं, राजनीतिज्ञों की धूर्तता और अन्य सामाजिक मुद्दों को अधिक महत्त्व मिलता था। इनकी गुरुदत्त के साथ बनी ‘प्यासा’ फिल्म इस बात को सिद्ध करती है। फिर भी उनके ऐसे गीत जो रूमानियत और कोमल भावनाओं की अभिव्यंजना भी करते हैं। साहिर के पास अभिव्यक्ति की अद्भुत विविधता थी।  “जीवन के विविध रंग उनके गीतों में देखने को मिलते हैं। जब कभी दर्द की पनाह ढूँढी और तन्हाई की टीस ने ज़बान मांगी तो साहिर की शायरी ने आ कर सहारा दिया…” (हिन्दी फिल्मों के गीतकार, भार्गव अनिल, पृ.166) फिल्म बरसात की रात की कव्वालियों और गीतों के प्रभावशाली गीतकार बरसात की रात के वातावरण में भरपूर रूमानियत भर देता है। इस गीत को सुनकर इस रूमानियत की जानिब से श्रोता रूहानियत मखमली जहां में अपने कदम रख देता है और उसे अहसास भी नहीं होता कि वह कहाँ है।

“ज़िंदगी भर नही भूलेगी वो, बरसात की रात

एक अनजान हसीना से मुलाक़ात की रात” (गीतकार: साहिर लुधियानवी, म्युसिक्स मैच )

          बरसात के ऊपर आधारित एक और प्रचलित गीत का उल्लेख अवश्य होना चाहिए जिसमें इस गीत को पेश करने के बहुत ही ख़ास अंदाज़ के साथ इस ऋतु में उठने वाले भावों को अभिव्यक्त किया गया है। 1979 में आई फिल्म ‘मंजिल’ में योगेश के द्वारा लिखे गए और आर. डी. बर्मन के संगीत में तथा किशोर कुमार की आवाज़ में गाये गए इस गीत का प्रभाव बहुत ही गहरा है।

“रिमझिम गिरे सावन सुलग सुलग जाये मन

भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये लगन” (गीतकार: योगेश, म्युसिक्स मैच )

          फिल्म ‘जीवन-मृत्यु’ और धर्मेन्द्र तथा राखी के ऊपर फिल्माया गया यह गीत प्रेमियों के दिल की तासीर को व्यक्त करता है। अपने सुन्दर जीवन की कल्पना और आशा सभी प्रेमियों में होती है। इसे व्यक्त करने के लिए सावन और वर्षा पर आधारित गीत और स्वरलहरियों से बढ़कर कोई और उपयुक्त माध्यम नही हो सकता है।

“झिलमिल सितारों का आंगन होगा

रिमझिम बरसता सावन होगा

ऐसा सुन्दर सपना अपना जीवन होगा” (गीतकार: आनन्द बक्षी, गीतमंजूषा.कॉम)

             सावन पर आधारित हिंदी सिनेमा में कई गीत आये लेकिन जो सफलता और प्रसिद्धि आनंद बक्षी द्वारा लिखित, लक्ष्मीलाल-प्यारेलाल के संगीत और नूतन और सुनीलदत्त पर 1967 में बनी फिल्म ‘मिलन’ में फिल्माए गए इस गीत को मिली वह अपने आप में लाजवाब है। इस गीत में स्थानीय रंग देने का प्रयास सुनील दत्त के द्वारा शोर शब्द को ‘सोर’ कहलवाते हुए बहुत ही सादगी से किया गया है। नूतन जो, एक पढ़ी-लिखी नायिका के रूप में हैं भोले-भाले  सुनील दत्त को भाषा का उचित उच्चारण करवाती हैं लेकिन सुनील दत्त के लिए वही स्थानीय उच्चारण ही प्रिय और सही भी है। इस संवाद शैली में लिखे और गाये गए गीत की मधुरता मानो उसी नाव में बहती हुई धारा के साथ चलते हुए जीवन का संग बन जाती है। इस गीत का संगीत भी बहती हुई नदी, पानी के स्वर और बारिश होने के स्वरों से युक्त होकर अपूर्व प्रभाव् को बढाता है।

“सावन का महीना पवन करे शोर

अरे बाबा, शोर नहीं, सोर, सोर

जियारारे ऐसे झूमे, जैसे बनमा नाचे मोर” (गीतकार: आनन्द बक्षी, गीतमंजूषा.कॉम )

           सलिल चौधरी का बरसात पर आधारित यह गीत अपनी शब्द-रचना और संगीत से परिपूर्ण ऎसी रचना है जिसे सुन कर ऐसा लगता है मानो हम भावो के एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हों और उस राह में बहुत ही खुशनुमा वातावरण है तथा चारों ओर से रस फुहारे हम अपर बरस रही हैं | वास्तव में संगीत ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे भावों का मूर्तीकरण इस प्रकार होता है कि उससे केवल हमारा अपना ही नाता होता है।

‘’हो सजना, बरखा बहार आई

रस की फुहार लायी ,अंखियों में प्यार लायी

ऎसी रिमझिम में सजन

प्यासे-प्यासे मेरे ही नयन तेरे ही ख्वाब में खो गए

सावली सलोनी घटा जब जब छायी

अंखियों में रैना गयी, निंदिया न आई ..” (गीतकार: शैलेन्द्र, गीतामंजूषा.कॉम)

          एक सुरीली सी ख्वाहिश और गीतों के साथ सावन का रिश्ता कितनी खूबसूरती से प्रेमसिक्त ह्रदय से नि:सृत होता है यह गीत उसका उम्दा उदाहरण है।

“तुम्हे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो” (गीतकार: गौहर कानपुरी, कविताकोश.org)

         भीगे भीगे मौसम में इंसान को सबसे अधिक याद आती है जिससे वह बहुत करीब होता है। राजेन्द्र कृष्ण के इस गीत में भी इन भावो को कुछ इस प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है।

“मेरा दिल ये पुकारे आजा,

मेरे गम के सहारे आजा

भीगा भीगा है समां

ऐसे में है तु कहाँ”  (गीतकार; राजेंद्र कृष्ण, गीतमंजूषा.कॉम)

           बरसात की रात की रूमानियत सबसे अधिक होती है। 40-50 के दशकों की फिल्मों के गीतों में सूक्ष्म संवेदनाओं के निदर्शन इतनी सहजता से हुए हैं कि श्रोता उनमें पूरी तरह घुल-मिल जाता है।

“इक लड़की भीगी भागी सी, सोती रातों में जागी सी

मिली इक अजनबी से, कोई आगे न पीछे, तुम ही कहो ये कोई बात है”  (गीतकार: मजरुह सुल्तानपुरी, गीतमंजूषा.कॉम)

उल्लास और मस्ती :-

           बारिश हो और उसमें उमंग और मस्ती न हो, ऐसा हो नही सकता। हिंदी फिल्मों में अलग-अलग सिचुएशन के अनुसार इस उल्लास का अनुभव सभी ने किया होगा। चाहे फिल्म देखते हुए या केवन सुनते हुए और उससे भी अधिक, गुनगुनाते हुए। यह भाव ही कुछ ऐसा है जिसमें सभी मगन हो जाते हैं। ऐसी ही मस्ती और चंचल भाव राजकपूर पर फिल्माए हुए गीत को सुनकर उत्पन्न होते हैं जो आज भी इतना लोकप्रिय है कि पुराने ज़माने से लेकर आज की युवा पीढ़ी जब भी अन्त्याक्षरी खेलती है तो इसे ही गाती है जब उसे ‘ड’ अक्षर से कोई गीत गाना होता है।

“डम-डम डिगा-डिगा मौसम भीगा-भीगा

बिन पिए मैं तो गिरा मैं तो गिरा

हाय अल्ला, सूरत आपकी सुभान अल्ला” (गीतकार: क़मर जलालाबादी, गीतमंजूषा.कॉम)

          सन 1954 में फिल्म ‘बूट पॉलिश’ में कोरसा जेल में 10-12 कैदी, जो सभी के सभी गंजें हैं, इस गीत को कॉमेडी के स्टाइल  में गाते हैं। बारिश होने की कल्पना एक फिल्मकार और गीतकार ने हल्के-फुल्के ढंग से की और मन्ना डे के स्वर में गाया गया यह गीत उनके बाकी सभी गीतों की तरह हास्य रस से परिपूर्ण है। इसमें बरसात का एक अलग भाव और विचार है जो बरसात या सावन के ऊपर आधारित अन्य गीतों से इसे अलग बनाता है।

“लपक झपक तु आ रे बदरवा

सर की खेती सूख रही है

झगड़-झगड़ कर पानी ला तू

तेरे घड़े में पानी नहीं तो

पनघट से भर ला तू …बदरवा” (गीतकार: शैलेन्द्र, लिरिक्सइंडिया.नेट)

          श्री 420 का यह गीत प्रेमी-प्रेमिका के हलके-फुल्के रोमांस और छेड-छाड़ को दर्शाता है। बहुत ही सहज तरीके से चाय की चुस्कियों के साथ एक ही छाते नीचे की रूमानियत इस गीत में नज़र आती हैं।

‘’प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल

कहता है दिल, रस्ता मुश्किल, मालूम नहीं है कहाँ मंजिल” (गीतकार: शैलेन्द्र, गीतमंजूषा.कॉम)

           इस गीत में बरसात का ज़िक्र न होते हुए भी बरसात के गीतों में फिल्माया गया खूबसूरत गीत है। केवल प्रभावशाली दृश्य के प्रदर्शन से ही इस गीत को आज भी बरसात में गाये जाने वाले गीतों की ही तरह से याद किया जाता है।

          शकील बदायूनी के शब्द, नौशाद का संगीत और रफ़ी-लता की आवाज़ में गए हुए इस गीत से सावन ऋतु की ताज़गी और लुभावना दृश्य जिसका असर हम सबके मनोभावों पर सबसे अधिक पड़ता है।  तपती गरमी के बाद जैसे ही बारिश की फुहार पड़ती है हम सबके दिलो में उमंग और आनंद भर जाता है।  दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के ऊपर फिल्माए गए इस गीत में वास्तव में सावन की ताज़गी और उमंग झलकता है।

‘’सावन आये या न आये

जिया जब झूमे सावन है,

तार मिले जब दिल से दिल के

वही समय मनभावन है …” (गीतकार: शकील बदायूनी, गीतमंजूषा.कॉम)

          बात हिंदी फिल्मो और सावन की हो रही हो तो 1969 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘आया सावन झूम के’ के सभी गीत एक से बढ़ कर एक हैं। सावन खुशियाँ औरआनंद का मौका होता है तो चाहे मेहंदी की बात हो या झूला झूलने की, राखी की या जन्माष्टमी के उत्सव की और अब तो फ्रेंडशिप डे , सभी इसी बरसात की ऋतु में ही आतें हैं | इन सभी अवसरों पर आधारित सभी फिल्मी गीत प्रशंसनीय हैं जिनमें गीतकार आनंद बक्षी, संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और रफ़ी-लता पर फिल्माए गए दो गीत बहुत ही सुन्दर हैं।

“बदरा छाये कि झूले पड़ गए

हाए कि मेले लग गए

कि आया सावन झूम के …”

“साथिया नहीं जाना कि जी न लगे

मौसम है सुहाना कि जी न लगे

जाके फिर आवोगी, आके फिर आओगी

आने-जाने में जवानी ढल जाए न

हो… अजी छोड़ो आना-जाना कि जी न लगे” (गीतकार: आनन्द बक्षी, गीतामंजूषा.कॉम)

            सलिल चौधरी अपने मधुरतम संगीत के लिए जाने जाते हैं। बरसात की ऋतु अपने साथ केवल खुशियों या आनंद का बयान नहीं करती बल्कि कभी-कभी मन के भावो का स्वच्छंद उच्छलन भी बारिश की फुहार्रों के साथ हो जाता है।  1956 की ‘परिवार’ फिल्म के शैलेन्द्र के लिखे और बिमल रॉय के निर्देशन में इस गीत को सुनना इस बात को बयाँ करता है।

“झिर-झिर-झिर-झिर बरसे हो बदरवा कारे-कारे

सोये अरमान जागे, कई तूफ़ान जागे” (गीतकार: शैलेन्द्र, लिरिक्सइंडिया.नेट)

          कभी बौराया हुआ सा मन कुछ भी स्पष्टता से समझ पाने में अवश अपनी स्थिति की तुलना बावरी घटा से करता है। रात और बात की तरह से घटा भी बावरी हो सकती है इसे इस विशिष्ट लययुक्त गीत से समझा जा सकता है।

“ओ घटा सांवरी थोड़ी थोड़ी बावरी

हो गयी है बरसात क्या

सांस है बहकी हुई

अब के बरस ये बात क्या

हर बात है बहकी हुई

अब के बरस ये बात क्या

महकी हुई ये रात क्या” (गीतकार; मजरुह सुल्तानपुरी, गीतमंजूषा.कॉम)

          उप-शास्त्रीय संगीत की तर्ज़ पर भी फ़िल्मी गीत बने हैं जिनका प्रभाव विशेष प्रकार से श्रोता पर पड़ता है। इन गीतों के माध्यम से सुनने वाले का मन भी मानो कुछ ऐसे ही नृत्य करने लगता है। शास्त्रीय रागों के कारण  गीत का प्रभाव और भी बढ़ जाता है। इस गीत में तबले के बोलों का सुन्दर प्रयोग मन की थिरकन को जताने के लिए किया गया है।

“नाचे मन मोरा मगन तिग दा धीगी धीगी

बदरा घिर आये, रुत है भीगी भीगी” (गीतकार: शैलेन्द्र, हिंदीलिरिक्सप्रतिक.ब्लागस्पाट.कॉम)

मस्ती और उमंग को प्रदर्शित करने वाले कई फ़िल्मी गीत ऐसे हैं जिनमें वर्षा का मानवीकरण बहुत खूबसूरती से किया गया है।

“जुल्फों की घटा लेकर, सावन की परी आई

बरसेगी तेरे दिल पर, हँस हँस के जो लहराई “ (गीतकार: राजा मेहंदी अली खान, फिल्म: रेशमी रुमाल-1961)

           आशा भोंसले और तलत महमूद की आवाज़ और बाबुल के संगीत में पिरोये हुए इस पूरे गीत में बारिश और इसके वातावरण की सृष्टि हुई है।  ‘आती हो तो आँखों में बिजली सी चमकती है, शायद ये मोहब्बत है आँखों से छलकती है।’

           अमिताभ बच्चन के ऊपर फिल्माया हुआ ‘नमकहलाल’ का यह गीत अपनी एक अलग ही भाव-भंगिमा के साथ बिंदास अंदाज़ में प्रस्तुत हुआ जिसे काफी लोकप्रियता मिली। अमिताभ बच्चन के उस दौर का गीत है जब वे अपनी स्टारडम की बुलंदियों पर थे।

“आज रपट जाए तो हमें न उठाइयो

आज फिसल जाये तो हमें ना उठइयो

हमें जो उठइयो तो, खुद भी फिसल जइयो” (गीतकार: अनजान, हिंदीलिरिक्सप्रतिक.ब्लागस्पाट.कॉम)

          ठेठ भाषा के पुट के साथ लिखे और संगीत में निबद्ध इस गीत के द्वारा बरसात का एक मस्ती और छेड़-छाड़ से भरा माहौल अनायास ही उपस्थित हो जाता है। इस गीत में फिलर संगीत का सफल प्रयोग बारिश की अनुभूति को बढ़ा देता है। गीत के शब्द अपने आप में बहुत प्रभावशाली हैं।

          इन भावों के अलावा जीवन से जुड़े अन्य स्थितियाँ और भाव भी होते हैं जिनकी अभिव्यंजना बरसात और सावन पर आधारित फ़िल्मी गीतों के माध्यम से हुई हैं। सावन और बरसात के ऊपर आधारित गीत सन्दर्भ विशेष होने के साथ साथ मनुष्य के भावों के लगभग सभी रंगों को की अभिव्यक्ति में सक्षम हैं। हमारे जीवन में चलन वाले क्रिया-कलाप और मनोभाव जो विशेष रूप से इस मौसम के आने होते हो या फिर अन्य भाव, इन गीतों में उन सभी की प्रतिछवि अनायास ही दिखाई दे जाती है, जैसे फिल्म ‘रुदाली’ का लता मंगेशकर की आवाज़ में गाया हुआ यह गीत एक विवाहित बेटी का अपने ससुराल में सावन में आने वाले तीज त्योहारों के अवसर पर अपने मायके न जा सकने की पीड़ा को बयान करता है :-

“सुनियो जी अरज हमारी, ओ बाबुला हमार

सावन आयो घर लयी जैय्यो, भेजियो कहार” (गीतकार: गुलज़ार, लिरिक्सइंडिया.नेट)

कभी कभी बरसात के बड़े ही काल्पनिक और पर बहुत ही रोचक बिम्ब गीतकारों ने उपस्थित किये हैं | जैसे इस गीत में बरसात के उपकरणों के कितने खूबसूरत बिम्ब इस गीत में प्रस्तुत हुए हैं।

“घोड़े जैसी चाल, हाथी जैसी दुम

ओ सावन राजा, कहाँ से आये तुम….छाक धूम धूम”

“कोई लड़का है, जब वो गाता है

सावन आता है, धनक धनक धूम धूम… छाक धूम धूम” (गीतकार: आनंद बक्षी, लिरिक्सइंडिया.नेट)

बरसात के वर्णन में लोकधुनो का प्रभाव:-

                                                                                                    फिल्मी गीतों में लोकगीतों और लोक-धुनों का बहुत ही प्रभावशाली प्रयोग हुआ है। इन लोकगीतों और धुनों की सरलता अनायास ही चित्त को अपने जैसी अनुभूतियों में भिगो देती है। इस गीत में भी सावन और मेहंदी का सुन्दर संयोजन देखते ही बनता है। उसके साथ ही अगला गीत जो उमराव जान में फिल्माया गया है, बरबस ही दर्शकों का ध्यान लखनऊ और उसके आस-पास के प्रान्तों के प्रांगण में ले जाता है।

“घिर आई काली घटा मतवारी

खिल गए हथेली पे मेहंदी के बूटे

सावन की आई बहार रे’ (गीतकार: योगेश प्रवीन, हिंदी.लिरिक्सग्राम.कॉम)

“झूला कीने डाला रे, अम्ररैय्या” (परम्परागत)

       बिरहा और घबराहट एक दूसरे में लिपटी हुई दो सहज मानवीय भावनाएं हैं जिनका अतिरेक बादल के घिर आने से बहुत अधिक बढ़ जाता है।

“घर आजा घिर आये बदरा सांवरिया

मोरा जिया धक-धक् रे चमके बिजुरिया” (गीतकार: शैलेन्द्र, लिरिक्सइंडिया.नेट)

          जीवन के सर्वस्व आनंद की वास्तविकता मनुष्य की आधारभूत सुविधाओं से शुरू हो सकती है। एक आम इंसान अपने जीवनायापन के लिए जद्दोजहद करता रहता है। इस बहुत ही प्रचलित गीत को भले किसी मस्ती भरे नगमे की तरह से याद किया या गुनगुनाया जाता है, परन्तु इसकी तह में एक आम इंसान की नौकरी और उससे जुड़े हुए संघर्ष और समझौते भी महसूस किये जा सकते हैं।

“हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी

मुझे पल-पल है तडपाये

तेरी दो टकियों की नौकरी में

मेरा लाखों का सावन जाए” (गीतकार: मलिक वर्मा, कविताकोश. ओ आर जी )

         फ़िल्मी सावन के गीत और बरसात के नगमें जितने सुनते जाए उतने कम हैं। जिस बॉलीवुड को दोयम दर्जे का मान कर अक्सर नकार दिया जाता है वही अपने अंदर सृजनात्मक अभिव्यक्तियों का अथाह सागर समेटे हुए है। इससे जुड़े हुए सभी पहलू अपने आप में विशेष प्रकार के ज्ञान का समृद्ध श्रोत हैं।  इस आलेख में यही प्रयास हुआ है कि इन गीतों के मूल भाव और उनके प्रस्तुतिकरण से सबंधित विशेषताओं को निर्देशित किया जाये। इस कार्य को करते हुए महत्त्वपूर्ण रोचक पक्ष भी उद्घाटित हुए होंगे, इसकी उम्मीद है।

सन्दर्भ  :-

  1. जावेद हमीद, हिन्दी सिनेमा के सदाबहार संगीतकार, 2019, अतुल्य पब्लिकेशन,दिल्ली -110093
  2. अनिल भार्गव, हिन्दी फिल्मों के गीतकार, 2017, अरुशी भार्गव, जयपुर -302021
  3. जावेद हमीद, हिन्दी सिनेमा के गीतकार, 2019, अतुल्य पब्लिकेशन दिल्ली -110093
  4. पुष्पेश पन्त, हिन्दी फिल्मी गीत: साहित्य, स्वर और गीत, भारतदर्शन
  5. संगीत और मनोविज्ञान, शोधगंगा

विशेष सन्दर्भ नोट : डॉ. नीलम ऋषि (पूर्व प्रवक्ता : जीसस एंड मेरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)

डॉ. अनुपमा  श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर
जीसस एंड मेरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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