आज भूमण्डलीकरण के दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सारा विश्व बाज़ार के रूप में स्थापित हो चुका है। बाज़ारवाद से आज समाज का कोई वर्ग, क्षेत्र अछूता नहीं है। बाज़ारवाद का प्रभाव साहित्य समाज, सिनेमा आदि प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। मानवीय सम्बन्धों, भावनाओं और संवेदनाओं पर बाज़ार हावी है। वर्तमान में मीडिया में, साहित्य में, विभिन्न मंचों पर उत्तर आधुनिकता पर चर्चा-परिचर्चा और बहसें हो रही हैं। डॉ. सुधीर पचौरी ने बाज़ारवाद के इस उत्तर आधुनिक दौर की अत्यन्त बेबाक पूर्ण ढंग से वकालत की है, उन्होंने उत्तर आधुनिकता की संकल्पना के अति विस्तार को साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करते हुए कहा है कि, “भारत में शुरू होने वाला अस्मिता विमर्श, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, भाषा संचेतना आदि की स्वीकार्यता उत्तर आधुनिकता की स्वीकार्यता है। सच है उत्तर आधुनिकता के इस दौर में साहित्य में, समाज में या फिर फ़िल्मों में, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को स्वतन्त्रता के मनमाने अवसर मनमाने ढंग से तलाशे गए हैं। समाज में भी एक-दूसरे से अधिक आधुनिक होने की दौड़ ने हमारे जीवन मूल्यों को दरकने की स्थिति में पहुँचा दिया है। मूल्यहीनता ने भी इन्सानी वजूद को बौना साबित कर दिया है। अब इन्सान इस ग्रह का नियंता और ईश्वर को सबसे ख़ूबसूरत रचना नहीं बल्कि उपभोक्ता है। यहाँ सबके लिए सब कुछ है, लेकिन फिर भी किसी को कुछ हासिल नहीं होता। उत्तर आधुनिक के इस कालखण्ड को सकारात्मक पहचान देने के लिए स्वस्थ और सार्थक बहस को परिणाम तक पहुँचाना ही होगा।”1 अन्य चीज़ों के तरह आज ज्ञान का भी बाज़ारीकरण हो गया है। “आज बाज़ार का दबाव बढ़ रहा है। आज यदि बाज़ार के ख़िलाफ़ भी लिखा जाना है तो वह बाज़ार की समझी जाने वाली शैली और भाषा में। बाज़ार को परास्त करने के लिए बाज़ार के उपकरण ही काम में लाये जाने चाहिए। बाज़ारू हुए बगैर पुरानी फ़्रेम को तोड़कर तस्वीर लगाई जानी है तो नई और चमकती फ़्रेम के साथ। तस्वीर भी स्पष्ट, साफ़ और आधुनिक या कहा जाना चाहिए नई होनी चाहिए।”

1990 के बाद हिंदी कथा साहित्य उपभोक्तावाद  का कई कोणों से मूल्यांकन करता है | अलका सरावगी ने अपना उपन्यास कलिकथा वाया बाइपास में मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को परत उघाड़ा है | किशोर के पोते-पोतियों के आचरण इतने पश्चिमी होती जा रहे हैं कि उन्हें  इन सबसे बड़ी तृष्ण होने लगती है | जब उसका बेटा किस्तों में चुकाए जाने वाले कर्ज पर, वर्तमान आर्थिक विकास के तरीकों के अनुसार ‘फ्रीडम फोर्ड’ गाड़ी की चाबी देते हुए ‘सरप्राईज’ देता है तो किशोर बाबू के होश उड़ जाते हैं कि भविष्य मे उसके साथ कुछ भी हो सकता है | उसके शब्दों में आदमी शांति से रह सकता था आज नहीं रह सकता  | पहले इतनी चीजें कहाँ थी? अब आदमी चाहे भी तो पहले की तरह नहीं जी सकता  | साथ कुछ भी हो सकता है | लेकिन उसका बेटा अपने को सही ठहराता है | उसके शब्दों में -” पापा आप किस दुनिया में रह रहे हैं, आपको कुछ होश है? पहले जमाने में आदमी शांति से रह सकता था आज नहीं रह सकता | पहले इतनी चीजे कहाँ थी? अब आदमी चाहे भी तो पहले की तरह नहीं  जी सकता |

किशोर की दादी रामविलास की पत्नी में भी उपभोगतावाद दृष्टिगोचर होती है | उस समय में भी व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता था  | वह भी चाहती है कि उसके घर में अंग्रेजी घडी व टार्च हो | रामविलास का प्रदेश में जाकर बहुत पैसा कमाना व बड़ी हवेली के निर्माण का सपना उसकी उपभोगतावाद प्रवृत्ति का परिचय देता है | वह अनेक जिम्मेदारियों के कारण प्रदेश जाने में हिचकिचाता है, परन्तु उसकी पत्नी की बढ़ती लालसाएं उसे प्रदेश जाने पर मजबूर कर देती है वह चाहती है उनका बेटा विलायती कपड़े पहने विलायती घडी बाँधे | “पत्नी का अपने बंबई प्रवासी भाइयों के पास देखी हुई अंग्रेजी घडी और अंग्रेजी टॉचं-बत्ती के लिए ललचाना एक साथ ही रामविलास के प्रदेश जाने के बहुत सारे बाना बन गए थे |

किशोर बाबू को पत्नी भी बेटे की इच्छाओं के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं है | किशोर बाबू का इस तरह घूमना उसे अन्दर ही अन्दर कचोटता रहता है | उसका धैर्य कूने लगता है वह कहती है… “मार्केट इतनी नईं-नईं गाडियों से भर गया है | जिसके पास देखो, एक शानदार गाडी है | मारूति और वह भी 800 तो अब मिडल क्लास की गाडी है | कितनी इच्छा है उसकी एक बड़ी गाड़ी खरीदने को कहता है ‘ओपल या फोर्ड जेसी कोई गाड़ी हो , तभी जीने का मजा है ’ |

जब समाज केवल उपभोक्ता के चोले में सामने आता है तो उपभोक्ताओं, आकाक्षाओं ओर विलासिताओं एमई कहीं कोई फर्क नहीं रहता  | पूरा परिवेश उपभोग केन्द्रित हो जाता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति उपभोक्ता दिखाई देता है, उसकी चेतना केवल उपभोक्ता चेतना बन जाती है, इच्छा और आवश्यकता का तो अंतर ही मिट गया है, जिससे शाश्वत असंतोष की स्थिति पनप रही है  | इसी कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच संबंधो में भी परिवर्तन पैदा होता जा रहा है  |

इसी कारण ‘ममता कालिया के उपन्यास दौड़ ‘ में पवन के लिए सबंधों का कोई महत्व नहीं रह गया है  | न तो वह माता –पिता के साथ आत्मीय संबंध बना पाता है और न ही स्टैला के साथ सुखी-सम्पन्न वैवाहिक जीवन जी पाता है | समाज, संस्कृति उसके लिए खास मायने नहीं रखती है | वह कहता है… मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो न ही कंज्यूमर कल्चर जरूर ही |

‘भूमण्डलीकरण व आजीविकावाद के दौर में पवन व सघन के जीवन में मूल्यहीनता व संवेदनहीनता बढ़ गई है | भारतीय समाज का युवा आज के उपभोक्तावादी दौर में ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ से एक रास्ता बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अंध संस्कृति की ओर जाता है, दूसरा संस्कार सुरक्षा व सामन्ती सामुदायिकता की पुरातन खाई की ओर दीनों ही रास्ते एक-दूसरे की कमजोरियों से मजबूती प्रदान करते हैं | उपन्यास में पवन व सघन दोनों ही उपभोक्तावादी संस्कृति के दो चरित्र हैं जो पूरी तरह से संवेदनशून्य हो गए हैं |

‘एक ब्रेक के बाद’ उपन्यास में लेखिका उपभोक्तावादी पारिदृश्य की विभीषिका को पूरी गहराई के साथ पकड़ लेना चाहती हैं | उपभोक्तावादी समाज में वह व्यक्ति आदर्श व्यक्ति नहीं है, जो सरल और ईमानदार है, बल्कि वह है जो खूब झूठ, कत्रिमता और ढोंग जी सकै  | कभी तर्क में न जाकर कुछ भी बेच व खरीद सर्क और उसर्क पास सामान के लेटेस्ट मॉडल हों | किसी भी आदमी का रूतबा अब बिग…बाजार में घुसने से लगाया जाने लगा है | ममकालीन दौर में तो सब्जी वाले रेहही वाले, पान वाले, नाई-मोची भी आधुनिक सुविधाओँ से जैस हैं | ऊपर से मीडिया विज्ञापन के जरिये लोगों की मानसिकता बदल रहा है|

आज व्यक्ति उपभोक्तावाद मानसिकता बदल रहा है | आज व्यक्ति उपभोक्तावाद के जाल में ऐसा फैसला जा रहा है कि ये सारी चीजे न चाहते हुए भी खरीदनी पड़ती हैँ | हर कोई अत्यंत सुबिधाभोगी होना चाहता है कम्पनी चाहती है वह सफलता का नया ग्राफ बनाती रहै, दूसरी और पत्नी और बच्चे सोचते है कि उनकी सारी इच्छाएँ पा करने का समय आ गया है | पत्नी को नईं गाडी, बइ | फलैट चाहिए | है  |

उपभोक्तावादी दर्शन मीडिया से ताकत ग्रहण कर सीधे तौर पर उपभोक्ताओं को सम्बोधित कर रही हैं | बहु राष्ट्रिय कंपनियाँ भारी छुट व ईनाम का प्रलोभन देकर खरीदारों को  बरगलाती रहती है | अलका सरावगी के अनुसार भारत में उपभोक्तावाद के आंकडे हैं-‘ है इण्डिया के बीस करोड़ घरों में से करीब साढे सोलह करोड़ घरों के अंदर हिंदुस्तान लीवर कूछ न कूछ छोटा-मोटा सामान जैसे कि तेल या साबुन लेकर घुसा हुआ है | चौरहिया काप्रैसर कूकर एक दिन इन करोड्रो घरों में आलू-पाल-चावल उबाल रहा होगा| उपभोक्तावादी प्रवृति के कारण वस्तुएं उपर से कुछ और भीतर से कुछ और होती हैं | वस्तुओं के प्रत्यक्ष बिम्ब छलनामय होते जा रहै हैं | वैश्वीकरण का मुख्य औजार विज्ञापन ने उपयोग को उपभोग में बदल डाला है | इंसान के रूतबे को जगह क्रय शक्ति लेती जा रही है | समकालीन दौर में व्यक्ति के सपने वहीं बचे रहेंगे जहाँ संस्कृति बची होगी | उपभोक्तावाद कला, साहित्य, धर्म और विज्ञान को मूल्यों के खोत की जगह इंद्रिय सुखभोग के औजार में बदल रहा है | ममकालीन दौर में सामाजिक आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक परिणाम दिन व दिन विकसित होता उपभोक्तावाद ही है | बहुराष्टीय कंपनियाँ व्यक्ति की हैसियत को न देखकर सपने दिखाने का काम करती है | मामूली किश्तों और छुट का चुम्मा डालकर वे आगामी आमदनी पर संज्ञा जमा लेती हैं | उपभोक्तावादी मनुष्य भूख और सम्मान के नकली चिहूनों को अपना जीवन यान कर समाज व संस्कृति की आत्म पहचान मिटाने पर तुला है | डॉ रोहिणी अग्रवाल के अनुसार – “उपभोक्तावादी संस्कृति प्लेम., स्टैटस और जरूरत बनकर इस तरह घरों में घुस आई है | कि मासिक बजट के एक बहै हिस्से पर कब्जा कर जैसी है| “

उपभोक्तावाद साम्राज्यवाद का नवीन अस्व है, यह पूँजीवाद का सबसे बड़ा आक्रमण है | यह अपने पीछे गुलामी का उम्माद ला रहा है | इसने इंसानी दिमाग को स्वतंत्रता को अजायबघर में रखकर गुलामी को लेटेस्ट फैशन बना दिया है | इसने दिखा दिया है कि अब पाश्चिक औपनिवेशिक जंजीरो की जरूरत नहीं है | आंवाउपन्यास की नमिता पाण्डेय भी सुविधाओँ को सीढियां चढने और ऐश्वर्य का उपयोग करने में संकोच नहीं करती  | वह आभूषण मॉडल बनने की और बढती हुई सारी सुख-सुविधाओँ के साथ ग्लैमर की पुनिया की और खींची चली जाती है|

उपभोक्तावाद ने समाज को उपभोग का आते बना दिया है, जहाँ वह अपनी आवश्यकताओं क्रो मूरा करने के लिए कुछ भी कर सकता है | इससे लोगों के सामाजिक बंधन व आत्मीय रिरत्ते का भी विघटन हो रहा है, जिससे उनके दिमाग में तनाव व आक्रोश उत्पन्न ही रहा है | ‘वंशज’ उपन्यास में सुधीर का आक्रोश पत्नी को महत्वाकांक्षाओं का ही परिणाम है | सविता इसी उपभोक्तावादी प्रवृति के कारण सुधीर को समझने में जाकामयाब होती है | जमीन-जायदाद के कागजात और जैक की अकाऊंट चुक सम्भालने में उसका अनमोल अकाऊंट रिक्त होता चला जाता है | रेखा सविता और सुधीर के बीच बढ़ते तनाव से नावाकिफनहीं है | उसे भी सबसे ज्यादा दुख इस बात से होता है कि सविता के साथ डैडी खाई के एक और जा गिरे हैं | सविता की उपमोंस्ताखादी प्रवृति उसे पति से दूर कर देती है| – “जैसे ही उसकी समझ में आ गया कि उस संभ्रात घर की ऐश्वर्यमयी स्वाभिमानी जनने के लिए, उसे सुधीर को नहीं, जज साहब के अंधे आमने होगे, वह ‘पिया मिलन’ की व्यग्र रोमानी वधु से कर्तव्यनिष्ठा से औत-प्रोत कुलवधू  बन गई| “

नव धनाढ़य वर्ग अपनी इच्छा आकांक्षाओं को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है, लेकिन गरीब आदमी इन परिस्थितियों में अपने को मिसफिट पाता है | चंद्रकांता का उपन्यास ‘यहां वितस्ता बहती है’ में राजनाथ का बेटा अपनी पुत्री की शादी बडे ताम-झाम से करता है और इसे ग्रेस्टिज का सवाल समझता है | समकालीन दौर में सामाजिक राख की जगह सबसे ऊपर यानी जाती है और प्रेष्टिज़ का सवाल समाज में ब्रहमवाक्य बनता जा रहा है | महिलाएं भी इस सामाजिक साख के लिए त्रस्त दिखाई देती है- “चौ. पृथ्वीओवरसियर को आप जानते हो न? उनकी बीबी | हम भी कहाँ जानती थी, अभी पिछले मास ही सत्या को शादी में देखा | चार हाथ को असली जरी स्कर्ट पदावली बनारसी मानी पर दस तोले का ज़ड़ाऊ नेकलस पहन रखा था | बाहों में दो…दो कहं शेर के मुंह वाले, बंगाली डिजाइन के और वह इंजीनियर वखूल की चीची तो तोषे-तोप्ले से कम छाई शील ओढ़ती ही नहीं|

उपभोक्तावाद के बढते प्रभाव के कारण अमीर और गरीब समी त्रस्त हैं जिनके मास पैसा कम है वे और ज्यादा दुखी हैं जिससे लोगों के संस्कार नष्ट होते जा रहै हैं | गरीब व्यक्ति समाज में आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कूछ भी करने के लिए तैयार है | समकालीन दोर में उपभोक्तावाद देश व समाज को खोखला वना कर व्यक्ति को वस्तु में तबदील कर रहा है | वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए संस्कृति, समाज, साहित्य और तर्क प्रियता से दूर आदिमानव बनता जा रहा है | गरीब युवा व नारी उपभोक्तावाद की चक्सी में पीसते जा रहै हैँ | उपभोक्तावाद का चक्रवात पश्चिम रने उठकर हमारे देश की सामाजिक व संस्कृतिक तह तक पहुंच चुका है | दया, ममता, त्याग, भाईचारा, सहिष्णुता जैसे मूल्य आज उपभोक्तावादी संस्कृति के अवैध संबंधो के नीचे छटपटा रहै हैं|

उपभोक्तावाद का जादू आधुनिक सभी के सिर चढ़ कर बोल रहा है | आधुनिक सभी इसके अधीन होकर वस्तु में तबदील होती जा रही है | बहते उपभोक्तावाद की लहर के उन्माद ने बौखलाए पुरूष को हर मुराद पूरी कर दी है  | मीडिया व बाजार के जरिये वह घर के अन्दर तक प्रवेश कर गया है | विज्ञापनों में अपने आप को परोसती स्वी एक नई स्वी-छवि की रचना करने लगी है | इस नई नई स्वी ने अत्यंत उपयोगी होकर परम्परागत यान्यताओं को तहस-नहस कर दिया है, फिर भी मर्दवादी व्यवस्था की नैतिक ज़कड़क्वी से मुक्त नहीं हुईं है | डॉ. रोहिणी अग्रवाल के अनुसार – “पुराकालीन विषकन्या की तरह वह आक्रामक, आत्मनिर्भर और प्रशिक्षित जरूर दिखती है, स्वतंत्र नहीं | उपभोक्तावाद ने उसकी देह को कपडो और वर्जनाओं से मुक्त किया है किन्हें साथ ही उसकी मानवीय अस्मिता को उभरने भी नहीं  दिया वह आज भी वस्तु है, देह है | ऐसी देह जो भोगने का आमन्त्रण देती है, बिकने के लिए मूल्य (प्राइस टेग) स्वयं निर्धारित करती है |

अत: व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरा करने के सम्मीहन जाल में उलझता ही जा रहा है | समाज की सरंचना में विघटन होने का प्रमुख कारण व्यक्ति की अत्यंत उपभोगी प्रवृति ही है | ममकालीन कथा साहित्य में उपभोक्तावादी संस्कृति की पूर्णत: पड़ताल करने की कोशिश की गई हैँ | ममाज में परिवर्तन की धारा जब भी तेज हुई है, तो लेखिकाएं उनी व्यक्त करने की पुरजोर कोशिश करती हैं | उपभोक्तावादी संस्कृति को समूची विरूपताओं को इन्होंने अभिव्यक्त किया है |

सन्दर्भ:

  1. उत्तर आधुनिक मीडिया विमर्श, डॉ. सुधीर पचौरी,
  2. यथार्थ की यात्रा कथा वैचारिकी, भालाचन्द जोशी, अन्यथा, अंक 19, पृ. 140
  3. चाँद की वर्तनी, राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, 2006, पृ. 85
  4. महानगर में गिलहरी (कहानी), आनन्द हर्षुल, अन्यथा, अंक 5, पृ. 103
  5. नया ज्ञानोदय, सं. रवीन्द्र कालिया, अंक 90, अगस्त 2010, पृ. 48
  6. उद्धृत लेख रमैया की दुलिहन ने लुटा बाज़ार, डॉ. शिवकुमार मिश्र, सम्प्रेषण, अंक 133, वर्ष 39, 2004, पृ. 59-60
  7. शाल्मली, नासिरा शर्मा, किताबघर प्रकाशन, 1994, पृ.सं. 25
  8. उत्तरप्रदेश, सितम्बर-अक्टूबर 2002, पृ. 43
  9. उत्तरप्रदेश, सितम्बर-अक्टूबर 2002, पृ. 43
  10. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2009, भूमिका से।
  11. आदिवासी अस्मिता और साहित्य, डॉ. गंगासहाय मीणा

डॉ. कमलिनी पाणिग्राही
विभागाध्यक्ष 
. डी. महिला महाविद्यालय
ओडिशा

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