‘साहित्य समाज का दर्पण है’ – यह कहावत अपनी कसौटी पर खरी है या नहीं पर साहित्य को समझने के लिए समाज को जानना आवश्यक है। व्यक्ति का सामंजस्य, संबंध एवं समष्टि रूप ही समाज है। वह एक ऐसे सामाजिक संगठन का निर्माण करता है, जो आचार, विचार और व्यवहार पर नियंत्रण रखे। साहित्य हमारे सामाजिक मूल्यों, भावनाओं एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति है। साहित्यिक कृति एक भाषिक निर्मिति या भाषिक सत्य ही नहीं होती, उसके कुछ सौन्दर्यात्मक निकष भी होते हैं। साहित्यिक कृति भाषा के साथ-साथ एक सार्थक अर्थ या संदेश हम तक प्रेषित करती है। साहित्य का एक और पक्ष भावनात्मक भी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है – “…प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है….।“ यह संबंध समाज से साहित्य के अधिक जटिल संबंध को सामने लाता है।
बीसवीं सदी में अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में दृश्य माध्यम ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। अपने शुरुआती दिनों में ही दृश्य माध्यम का साहित्य से एक विशेष प्रकार का संबंध विकसित हो गया। फिल्म समाज में घट रहे सार्थक या निरर्थक परिवर्तनों को सरल एवं मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करने की उत्कृष्ट क्षमता रखती है।
सर्जनात्मकता की अनिवार्यता है – स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता एवं नैसर्गिकता। मौलिक लेखन आन्तरिक तनाव की अपेक्षा रखता है, जबकि फिल्म और टेलीफिल्म का निर्माण बाह्य दबाव से भी प्रभावित होता है। शंभुनाथ चतुर्वेदी लिखते हैं – ”अज्ञेय ने एक उदाहरण दिया है कि एक व्यक्ति एलार्म लगाकर प्रातःकाल उठता है और दूसरा स्वतः उठकर भ्रमण के लिए जाता है। एलार्म लगाकर उठने वाला व्यक्ति बाह्य दबाव से अभिप्रेरित है एवं स्वतः अभ्यासवश प्रातः उठने वाले व्यक्ति की प्रेरणा उसकी आन्तरिक शक्ति है।“
सर्जनात्मक लेखन आन्तरिकता की परिणति है तथा फिल्म या टेलीफिल्म निर्माण बाह्य दबाव का प्रतिफलन। सर्जनात्मकता के लिए आन्तरिक विवशता, छटपटाहट का अधिक महत्त्व है। बल्कि यह कहें कि सर्जनात्मक लेखन आन्तरिक संवेग से विमुक्ति है जबकि फिल्म या टेलीफिल्म संवेगात्मक न होकर अर्थाश्रित है। सर्जनात्मक लेखन के लिए अनुभूति की प्राथमिकता और प्रामाणिकता अनिवार्य है। अनुभूति की प्रमाणिकता का दृश्य माध्यम से कम संबंध है, जबकि साहित्यकार अपने मनोलोक में अनुभूतियों की पुनर्रचना करता है। इस पुनर्रचना या पुनर्सृजन को दृश्य माध्यम की किंचित भी आवश्यकता नहीं होती। परन्तु दोनों हैं मूलतः रचना संसार ही। दोनों के माध्यम, उपकरण और प्रेरणाएँ पृथक होने के बावजूद भी दोनों में एक अन्तः संबंध है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
साहित्यिक कृतियों का अध्ययन और अध्यापन एक विशेष संवेदना से सम्बद्ध है। यह सृजनात्मक संवेदना, दृश्य माध्यम की संवेदनशीलता से अलग है। दृश्य माध्यम में न वैसी विस्तृति है, न विवृति है, न गहनता है और न तीव्रता है। दृश्य माध्यम का संबंध रागात्मिक वृत्तियों की जागृति से नहीं है, जबकि सर्जनात्मक साहित्य का इससे अविच्छिन्न रिश्ता है। जीवन-संसक्ति या सम्पृक्ति भी दोनों विधाओं की असमान है। एक अनायास सृजन है और दूसरा सायास निर्माण। बावजूद इसके सर्जना की समग्र रचनात्मकता सायास निर्माण और बाह्य अनुशासन से आरोपित दृश्य माध्यम के सम्मुख घुटने टेक देती है। अगर यह कहा जाए कि साहित्य के दृश्य माध्यम के क्षेत्र में प्रवेश से सर्जनात्मकता का क्षरण हुआ है तो अत्युक्ति नहीं होगी। साहित्य का क्षरण दृश्य माध्यम के सभी रूपों द्वारा किया गया है। वह चाहे फिल्म हो या टेलीफिल्म या धारावाहिक। फिल्मी माध्यम से जिन विशिष्ट साहित्यिक कृतियों का क्षरण हुआ है, वे हैं – प्रेमचंद के उपन्यास गोदान, गबन, सेवासदन, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’, चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास धर्मपुत्र, विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’, मन्नू भण्डारी की कहानी ‘यही सच है’ आदि। धारावाहिक माध्यम के रूप में साहित्यिक क्षरण का शिकार हुई रचनाएँ हैं – प्रेमचंद के उपन्यास – निर्मला, कर्मभूमि, गोदान, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ का उपन्यास मैला आँचल, रांगेय राघव का उपन्यास कब तक पुकारूँ, श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग-दरबारी, सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास मुझे चाँद चाहिए आदि। ऐसी टेलीफिल्मों के उदाहरण हैं – प्रेमचंद की कहानी – ‘कफन’, ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘ईदगाह’, ‘पूस की रात’, शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘दादी माँ’; काशीनाथ सिंह की कहानी ‘अपना रास्ता लो बाबा’, शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार’, मार्कण्डेय की कहानी ‘गुलरा के बाबा’, विष्णु प्रभाकर की कहानी ‘धरती अब भी घूम रही है’, भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’, रामवृक्ष बेनीपुरी की कहानी ‘जुलेखा पुकार रही’, जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ ‘गुण्डा’, ‘आकाशदीप’, ‘सुजाता’, उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानी ‘प्रिये जी’, मोहन राकेश की कहानी ‘जिंदगी और जोंक’, धर्मवीर भारती की कहानी ‘सावित्री नंबर-2’, कृष्णा सोबती की कहानी ‘ऐ लड़की’, कुसुम अंसल की कहानी ‘मेरे आशिक का नाम’ आदि।
टेलीफिल्म का निर्माण पूर्णतः टेलीविजन से जुड़ा हुआ है। टेलीविजन पर कहानी को टेलीफिल्म के माध्यम से प्रस्तुत करना रूपान्तरण की प्रक्रिया है। रूपान्तरण की यह प्रक्रिया टेलीविजन के उत्कर्ष काल से ही प्रारम्भ हुई। 1959 ई. में नई दिल्ली में यूनेस्को द्वारा सम्मेलन आयोजित किया गया। यह आयोजन हमारे देश के लिए वरदान सिद्ध हुआ। इस सम्मेलन में यूनेस्को ने भारत में टेलीविजन (दूरदर्शन) सेवा आरंभ करने के लिए अनुदान दिया। इसका उद्देश्य प्रारम्भ में जन-संचार माध्यम के रूप में टेलीविजन के उपयोग से शिक्षा के विकास में मदद करना और आम आदमी को दिखाए जाने वाले सामुदायिक विकास के कार्यक्रमों को तैयार करना भर था। प्रारम्भिक वर्षों में दूरदर्शन ने साहित्यिक कृतियों का सहारा लिया। इसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक कर्त्तव्य, नैतिक आचरणों से युक्त साहित्य को चुना गया।
बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में जब दूरदर्शन ने कहानियों पर आधारित नाटकों का प्रसारण शुरू किया तो उसमें रंगमंचीय यथार्थ का प्रभाव साफतौर पर नजर आता था। कोई मान्य शैली नहीं बन पायी थी। रूपान्तरकार नये ‘फार्म’ को समझने की कोशिश में थे, मगर कोई पक्का ढाँचा नहीं बन पा रहा था। यह प्रयोग लगभग एक दशक तक चला।
आठवें दशक में जब पटकथा लेखन की दक्षता रखने वाले रचनाकार सामने आए तब ‘नमक का दारोगा’ (प्रेमचंद), ‘बन्द गली का आखिरी मकान’ (धर्मवीर भारती), ‘सब की इज्जत’ (यशपाल), ‘अकेली’ (मन्नू भण्डारी), ‘नशा’ (प्रेमचंद), ‘उधार की जिंदगी’ (यशपाल), ‘जेवर का डिब्बा’ (प्रेमचंद), त्रिशंकु (मन्नू भण्डारी), ‘मध्यांतर’ (मालती जोशी) जैसी कहानियों का शैलेन्द्र, रघुवीर सहाय, विष्णु प्रभाकर, मन्नू भण्डारी, सबा जैदी, देवेन्द्रराज अंकुर, मोहम्मद हसन आदि के द्वारा रूपान्तरण टेलीफिल्मों में हुआ। उसके बाद श्याम बेनेगल ने कुछ कहानियों को टेलीफिल्म में रूपान्तरित किया। उस दौर में सभी निर्देशकों ने कहानी में कथ्य और चित्रात्मकता के गुण को ध्यान में रखकर रचना का चयन किया। अधिकतर कहानियों में सामाजिक अभिवृत्ति और उसमें निहित निम्न और मध्यवर्ग के जीवन संघर्ष तथा सामाजिक दशा को दर्शाया गया।
हिन्दी की प्रथम टेलीफिल्म ‘सद्गति’ दूरदर्शन से 1982-83 ई. में दिखाई गई थी। निर्देशक सत्यजीत रे ने इसकी पटकथा स्वयं अंग्रेजी में लिखी। उसका हिन्दी अनुवाद प्रेमचंद के बेटे से कराया गया था। ‘सद्गति’ के रूपान्तरण से यह तथ्य सामने आया कि टेलीफिल्म के लिए कहानी का चुनाव महत्त्वपूर्ण है और उसके बाद कुशल निर्देशन की।
1985-86 ई. में ‘दर्पण’ के अन्तर्गत चौदह विभिन्न भारतीय भाषाओं की कहानियों को दूरदर्शन पर बासू चटर्जी के निर्देशन में प्रसारित किया गया। इन टेलीफिल्मों की पटकथा मन्नू भण्डारी ने लिखी थी। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले टेलीफिल्म के लिए कहानियों के चयन के बारे में मन्नू भण्डारी लिखती हैं – ”इन पट-कथाओं के लिए … कोशिश तो यही की कि ऐसी कहानियाँ चुनूँ जो दृश्य-माध्यम के अधिक अनुकूल हों, यानी कि जिनमें संवेदना को स्पर्श करने वाले कुछ मार्मिक प्रसंग हों। घटित होती कुछ घटनाएँ (एक्शन) हों … कहानी को चरम की ओर ले जाने वाली द्वन्द्वात्मक स्थितियाँ हों … सहज ही तादात्म्य स्थापित कर सकने वाले चरित्र हों।“ तात्पर्य यह कि चुनी हुई कहानी में नाटकीयता अधिक होनी चाहिए। कहानी में उपस्थित घटनाओं और मनोरंजक तत्त्वों को रूपान्तरित करने की प्रक्रिया के संदर्भ में मन्नू भण्डारी लिखती हैं – ”… कहानी की प्रमुख घटनाएँ दृश्यों में बदलती चलती हैं … मात्र घटनाएँ ही नहीं, लेखक ने जिन स्थितियों के मात्र ब्यौरे भर प्रस्तुत किये हैं, वे भी दृश्यों में बदलते चलते हैं। लेखक द्वारा वर्णित बातों को दृश्यों में बदलने के दौरान मुझे बराबर उसमें कुछ जोड़ना घटाना पड़ता है तो कभी कभी किसी पात्र के मानसिक आवेग-उद्वेलन को व्यक्त करने के लिए नए पात्रों की कल्पना भी करनी पड़ती है … जिसके साथ संवादों के माध्यम से उसके मन की परतें खोली जा सकें। … पर संवाद तो बाद में … पहले तो मेरा सारा ध्यान स्थितियों और घटनाओं के दृश्य-रूपान्तरण पर ही केन्द्रित रहता है।“
इसलिए पटकथा लेखक की सृजनात्मकता कुछ नए पात्रों व संवादात्मक स्थितियों को जन्म देती है और कौतूहल को उभारते हुए दृश्य से दृश्य की ‘ट्रांजिशन’ द्वारा रोचक घटना तक ले जाती है। ऐसी कृतियों में न केवल बाह्य द्वन्द्व होता है, बल्कि भावों और विचारों के टकराव से अन्तर्द्वन्द्व उभरता है। टेलीफिल्म में बाह्य और आन्तरिक द्वन्द्व को क्रिया (एक्शन) के माध्यम से घटनाओं की श्रृंखला और संवादों में गति-परिवर्तन द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। जब यह दृश्य निरन्तर छोटे पर्दे पर प्रसारित किया जाता है तो गति की अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाती है। इस प्रकार कहानी व्यक्तिगत से नये वास्तविक सृजन में परिवर्तित हो जाती है।
कथा से पटकथा बनाने में न केवल कथा के विन्यास से दृश्य चुनने या बनाने पड़ते हैं, बल्कि उन दृश्यों की परिकल्पना इस तरह करनी पड़ती है कि टेलीफिल्म में प्रभावोत्पादक नाटकीयता पैदा की जा सके। टेलीफिल्म मूलतः नाट्यरूप में प्रस्तुत कहानी की ऐसी विधा है, जो दर्शक के विवेक या ज्ञान-संवेदनशील संसार को किसी तर्क या विश्लेषण के माध्यम से प्रस्तुत न करके, उसके सीधे संवेदनात्मक संसार पर अपनी समूची शक्ति केन्द्रित करती है। यही वजह है कि एक सफल टेलीफिल्म में एक प्रभावोत्पादक कथा के साथ-साथ ऐसी पटकथा की संरचना जरूरी हो जाती है जो दर्शक से सीध-सीधे बिना किसी व्यवधान के रागात्मक तादात्म्य स्थापित करे। टेलीफिल्म कहानी के नाट्य रूपांतर के काफी नजदीक बैठती है। यह बहुत कुछ पारंपरिक रससिद्धांत के साधारणीकरण को अपना आधार बनाकर चलती है, किंतु कैमरे की कला होने के कारण टेलीफिल्म नाटक की संरचना से थोड़ी अलग और विशिष्ट बन जाती है।
कथा साहित्य क्रिया और प्रभाव में सामाजिक होते हुए भी, बहुत हद तक लेखक की अस्मिता का ही पर्याय है। सृजन में किसी सामूहिक हस्तक्षेप या दबाव का कोई स्थान नहीं होता है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि किसी कथाकृति पर फिल्म या टेलीफिल्म बनायी गयी हो और फौरन ही लेखक की ओर से उसकी कथा के साथ अन्याय होने की आपत्ति दर्ज हुई हो। दरअसल, ‘मास कल्चर’ की यह प्रविधि कला के रोमांटिक व्यक्तिगत रूपों में जब हस्तक्षेप करती है, तब वह अक्सर अपनी जरूरतों के हिसाब से उसे इतना बदल देती है कि मूल का अभिप्रेत नष्ट-भ्रष्ट हो जाए। ऐसी स्थिति में रचनाकार के पास कुछ ही विकल्प बचते हैं। चाहे वह इस हस्तक्षेप को फिल्मकार की शर्तों पर स्वीकार करे या फिर, हस्तक्षेप की संभावना को सिरे से ही नकार दे। ज्यादातर लेखक इन दोनों के बीच का रास्ता अपना लेते हैं कि मूल रचना में कोई न कोई तोड़-फोड़ तो होनी ही है।
फिल्म और टेलीफिल्म लेखन सामान्य लेखन नहीं है। इसके लिए विशेष लेखन कला की आवश्यकता होती है, क्योंकि दृश्य माध्यम की भाषा साहित्यिक भाषा से भिन्न होती है। जहाँ तक सर्जनात्मक लेखन की भाषा का प्रश्न है, वहाँ विषय के साथ-साथ अनुभूति संगत होती है। इसका सीधा संबंध साहित्य की अपनी विचारधारा से होता है। वह चाहे पात्र के माध्यम से हो या परिवेश चित्रण से अथवा दर्शनिक सूझ-बूझ से। फिल्म और टेलीफिल्म की भाषा पर एक प्रकार का बाह्यानुशासन आरोपित रहता है। यही वजह है कि दृश्य-माध्यम की भाषा साहित्य की भाषा से अलग हो जाती है।
जैसे – साहित्य में यह वर्णन है – ”सम्ब ने देवी अम्बपाली को दूसरी गिरि-गुफा में ले जाकर जिस श्यामा वामा के उन्हें सुपुर्द किया, उसका अंग-सौष्ठव और भाव मृदुलता देख अम्बपाली भावविमोहित हो गईं। राजमहालयों में दुर्लभ सुख-सज्जा इस दुर्गम वन में उपस्थित थी। उस गिरि-गुफा के वैभव और विलास को देखकर अम्बपाली आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने आगे बढ़कर सम्मुख स्मितवदना श्यामा वामा की ओर देखकर कहा- ….
सुनकर कृतकृत्य हुई, भट्टिनी, आपके दर्शनों से मेरे नेत्र स्नानपूत हो गए। अब आज्ञा हो तो मैं आपका अंग-संस्कार करूँ।“
टेलीफिल्म – प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ का फिल्मी रूपान्तरण –
”हेलो कैलाश।
आओ, और बताओ तुम कैसी हो।
हेलो कैलाश।
थैंक्यू आंटी, थैंक्यू आंटी।
हेलो, हेलो कहाँ ध्यान है।
बस यूँ ही।“
फिल्म और टेलीफिल्म की भाषा का अपना व्याकरण है। दर्शक-श्रोता-पाठक, कैमरे की भाषा के आधार पर ही रचनात्मकता को देखते एवं परखते हैं। ऐसी स्थिति में दृश्य-माध्यम की भाषा में ध्वनि और ध्वनि सम्प्रेषण की प्रक्रिया को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। उसके लिए यह अनिवार्य है कि अतिरिक्त तकनीक का सहारा लेकर दृश्य माध्यम की भाषा को अभिव्यक्त किया जा सके।
बीसवीं शताब्दी के आखिरि दशक में एक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि लेखक ही अपनी कथा की पटकथा लिखने लगे। इन दौर में मुद्राराक्षस, नासिरा शर्मा, के. के. नायर, रेवती रमन शर्मा, दयानंद अनंत, अनवर अजीम, हरिकृष्ण कौल, मृदुला बिहारी आदि ने कई पटकथाएँ लिखीं।
26 जनवरी, 1993 ई. को दूरदर्शन का मेट्रो चैनल आरम्भ हुआ। इस चैनल का उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना था। इस कारण इस पर कई नए धारावाहिक प्रसारित किए गए। सैटलाइट चैनल भी शुरू हो गया था। बाजार का प्रभाव दृश्य-माध्यम पर बढ़ने लगा था। इस कारण धारावाहिकों, टेलीफिल्मों और फिल्मों के प्रसारण के आरम्भ में और बीच-बीच में विज्ञापनों ने अपनी जगह बना ली। जिसके फलस्वरूप चमक-दमक वाले धारावाहिकों के बीच साहित्यिक कृतियाँ अपना आधार खोने लगीं। हालाँकि दूरदर्शन पर साहित्यिक कृतियों पर आधारित कार्यक्रम आज भी यदा-कदा दिखाए जाते हैं। गुलजार ने प्रेमचंद की कहानियों पर ‘तहरीर’ नाम से कई टेलीफिल्मों के संकलन का निर्देशन किया। ‘गुलदस्ता’ नाम से भी प्रेमचंद की कई महत्त्वपूर्ण कहानियों – ‘स्त्री-पुरुष’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘चमत्कार’, ‘विनोद’, ‘माता का हृदय’, ‘लॉटरी’, ‘खुदाई फौजदार’, ‘मुक्ति मार्ग’ आदि पर टेलीफिल्में बनीं। 2006 ई. में ‘और एक कहानी’ के अन्तर्गत यू. आर. अनन्तमूर्ति की कहानी ‘सूरज का घोड़ा’ को टेलीफिल्म में रूपान्तरित किया गया, जिसमें परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व दिखाया गया है।
टेलीफिल्म को दर्शक सिनेमाघर या थियेटर में बैठकर नहीं देखते। इसे वह अपने परिवार के साथ घर में देखता है। इसलिए वह ऐसी कहानी तलाश करता है जिसमें व्यक्ति, परिवार, समाज और देश का प्रतिनिधित्व हो। या जो उसके दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले कारक हों। टेलीफिल्म बनाने के पीछे सरकार का भी कुछ उद्देश्य होता है। वह समाज के युगीन यथार्थ से दर्शक को रू-ब-रू कराती है। व्यक्ति के संस्कारों का संस्कार करती है, ताकि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का विकास हो सके। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार तथा निर्देशक को साहित्य की शरण लेनी पड़ती है।
टेलीफिल्म की एक विशेषता यह है कि सम्पूर्ण कहानी एक ही प्रसारण में देखी जा सकती है और यह यथार्थ रूप से व्यक्ति और समाज से जुड़ी होती है। इन कहानियों के विषय साधारण होते हैं। इसमें छोटे-छोटे तथा स्पष्ट संवाद के साथ एक सहज कथा प्रस्तुत की जाती है।
दरअसल, ”टेलीफिल्म की अपनी एक गति और लय होती है। ऐसी कथाओं में प्रस्तुत घटनाओं और सम्भावित घटनाओं का एक क्रम होता है जो द्वि-आयामी स्पेस पर उभरकर सामने आता है। नए जनसंचार माध्यमों, खासकर टीवी की संचार प्रविधि साहित्य को उसी प्रकार अपने अनुकूल बनाती है या बदलती है, जिस तरह प्रिंट मीडिया ने कभी साहित्य को बदला था। वह साहित्य को उसकी निजता, स्थानीयता और वैचारिकता से मुक्त कर सार्वजनिक, भूमण्डलीय तथा तात्कालिक शुद्ध प्रभाव केन्द्रित बनाती है। वह छवि और ध्वनियों को अतिरिक्त सक्रिय करती है और साहित्य की अनिवार्यतया ‘दृश्य’ में बदलती है।“
हिंदी साहित्य का उपयोग टेलीफिल्म के लिए भरपूर हुआ है, किन्तु सिर्फ उपयोग होने के कारण, साहित्य का जो संस्करण वहाँ निर्मित या उत्पादित होता है या हुआ है, वह अनेक स्तरों पर विकृत है। हिंदी कथा साहित्य से रूपान्तरित टेलीफिल्मों में साहित्य की ‘आत्मा’ की पहचान मुश्किल से हो पाती है।
टेलीफिल्म मूलतः एक कहानी विधा है। किसी अच्छी और सफल टेलीफिल्म की जान उसकी कथा और प्रस्तुति के लिए उसको तैयार की गई पटकथा में रहती है। वैसे तो अच्छी कथा के अभाव में कोई सफल निर्देशक भी अच्छी टेलीफिल्म नहीं बना सकता, परन्तु दूरदर्शन के लिए निर्मित टेलीफिल्मों की कहानी ही अजीब है, जिसे पाठक-दर्शक-आलोचक पचा नहीं पाए हैं। प्रेमचंद की महत्त्वपूर्ण कहानियों – ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘ईदगाह’, ‘बूढ़ी काकी’ और ‘सवा सेर गेहूँ’ पर गुलजार ने टेलीफिल्मों का निर्माण किया। इन टेलीफिल्मों की पटकथा और संवाद भी स्वयं गुलजार ने ही लिखे। प्रेमचंद जैसे कथाकार की कहानी और गुलजार जैसे निर्देशक, पटकथा लेखक और संवाद लेखक द्वारा निर्मित टेलीफिल्म उच्चस्तरीय होनी चाहिए थी। गुलजार ने प्रेमचंद की कहानियों पर टेलीफिल्म बनाकर प्रसंशनीय कार्य किया लेकिन वे उनकी मूल संवेदना को न पकड़ सके। उनकी यह कमी एक अदना फिल्म दर्शक भी पकड़ लेता है। गुलजार ने उनकी कहानियों की आत्मा को केवल मारा ही नहीं, बल्कि इन टेलीफिल्मों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचंद से अपना वैमनस्य निकालने के लिए गुलजार ने ऐसा किया है। वे प्रेमचंद को इससे अधिक नुकसान नहीं पहुँचा सकते थे।
गुलजार, साहित्य और दृश्य माध्यम की बारिकियों का पूर्ण ज्ञान रखते हैं, इसमे संदेह नही है। वे साहित्य और दृश्य माध्यम की वस्तु और अन्तर्वस्तु से भली-भाँति परिचित हैं। फिर ऐसा क्यों हुआ समझ में नहीं आता। इस संदर्भ में अनामिका की टिप्पणी गौरतलब है – ”75 वर्षीय लेखक-गीतकार-निर्देशक गुलजार कई विधाओं में अपनी मेधा दर्ज कर चुके हैं। वे अपनी तरह के शायद अकेले लेखक हैं जो अरसे से फिल्म जगत और उसके बाहर अपनी संवेदना और कलात्मकता की मिसाल बने हुए हैं। मनोरंजन को परिष्कृत सौन्दर्य प्रदान करने के लिए वे पिछले चालीस बरसों से स्वयं को लगातार और सफलतापूर्वक पुनः आविष्कृत करते रहे हैं। सन् 1979 में गुलजार साहब ने ‘मीरा’ फिल्म बनाई थी जिसमें हेमा मालिनी के अलावा विनोद खन्ना, विद्या सिन्हा, अमजद खान, शम्मी कपूर और श्रीराम लागू ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं। मीरा की एकनिष्ठता, चेतना, कृष्ण के प्रति प्रेम और अपने यकीनों पर अडिग चलते रहने के साहस के अलावा, इसमें उसके समय और स्थितियों को दर्ज करने का जोखिम उठाया गया था। फिल्म को उसके दृश्यबंध, अदाकारी और संगीत के लिए खासी सराहना मिली। हालाँकि बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म नाकामयाब रही थी।“
माहौल देखकर फिल्में नहीं बनाई जाती हैं। ऐसा होता तो सारे फिल्मकार एक ही तरह की फिल्में बनाते। फिल्में बनती हैं, फिमल्कार की सोच और विचार के हिसाब से और ऐसी फिल्मों में सामाजिक सरोकार भी आते हैं और राजनीतिक सोच भी आती है। दरअसल फिल्मों में सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सारी परिस्थितियाँ अनुस्यूत रहती हैं । उनपर राजनीतिक जुमलेबाजी बुरी मानी जाती है। प्रेमचन्द की कहानियों पर टेलीफिल्में बनाना इसलिए भी कठिन है क्योंकि उनकी कहानियों के प्रमुख पात्र केवल मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी होते हैं। पशु-पक्षीयों के भावों को उभारना चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसी चुनौती के कारण गुलजार बुरी तरह लड़खड़ाए हैं। गुलजार का कहना है – “मेरी हर फिल्म शुरू से ही एक राजनैतिक वक्तव्य रही है। ‘मेरे अपने’ में भी इलैक्शन और राजनीति की बात थी। ‘आँधी’ में तो यह और भी सीधे-सीधे थी। … फिल्मों के जरिए आप अपने इर्द-गिर्द के समाज पर कमेंट करते हैं। कमेंट करने के लिए आपसे किसी ने कहा नहीं होता है, मगर जो आप महसूस करते हैं वह कहीं-न-कहीं तो आपके सृजन में झलकता है। वह आपकी कहानियों में झलकता है।“
गुलजार ने प्रेमचन्द की कहानियों की आत्मा को ही मार डाला। सबसे पहले ‘पूस की रात’ की चर्चा करें। इस टेलीफिल्म के निर्माण में गुलजार पूर्णतः असफल हो गए हैं। ‘पूस की रात’ टेलीफिल्म का कुत्ता, कुत्ते की प्रवृत्ति का कहीं भी प्रतीत नहीं हुआ है। वह पूरी फिल्म में एक बार भी भौंक नहीं पाया। कुत्ते को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि गुलजार ने उसे भाँग पिलाकर प्रस्तुत किया है।
‘पूस की रात’ कहानी का कुत्ता हमेशा भौंकते रहता है। जानवर और मनुष्य के संबंध को प्रेमचंद ने बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है। टेलीफिल्म में कहीं भी मनुष्य और जानवर या मालिक और कुत्ते के बीच संबंध दिखता ही नहीं है। हल्कू कुत्ता (जबरा) को दाएँ चलने को कहता है तो वह बाएँ जाता है। जबरा और हल्कू के संवाद को सम्प्रेषित करने में गुलजार पूर्णतः असफल रहे हैं। टेलीफिल्म में ऐसा प्रतीत होता है मानो हल्कू पागल हो गया है और बड़बड़ा रहा है।
प्रेमचंद लिखते हैं – “जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलाई और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान-बुद्धि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूँ-कूँ से नींद नहीं आ रही है।“
प्रेमचंद का कुत्ता (जबरा) कुत्ता मात्र नहीं है, वह मनुष्य की तरह सोचता समझता भी है। वह कर्त्तव्यनिष्ठ है। वह अपना कार्य भलीभाँति जानता है और उसे अंजाम भी देता है। प्रेमचंद ने लिखा है – ”सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी। जो हवा के ठंडे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झपटकर उठा और छतरी के बाहर आकर भूंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार पुचकारकर बुलाया; पर वह उसके पास न आया। हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता तो तुरंत ही फिर दौड़ता। कर्त्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।“
‘पूस की रात’ कहानी के शीर्षक से ही प्रतीत होता है कि पूस के माह में काफी ठंढ होती है। ओस अधिक गिरने की वजह से मैदान में पड़ा खर-पतवार इतना भींग जाता है कि उसे चाहकर भी, आसानी से नहीं जलाया जा सकता। प्रेमचंद ने कहानी में दर्शाया है कि उस पूस की रात में हल्कू के खेत को नील गायें चर जाती हैं, जो तर्क संगत है। परन्तु गुलजार ने फिल्म में उस पूस के माह में खुले आसमान के नीचे स्वतः आग का लगना दिखाया है। ऐसा हजम कर पाना आसान नहीं है कि भारतीय संस्कृति, समाज और साहित्य की बेहतर परख रखने वाले गुलजार को यह मालूम ही नहीं कि पूस की रात में ओस के कारण स्वतः आग लग ही नहीं सकती।
‘पूस की रात’ कहानी में हल्कू यह जानकर भी कि नील गायों ने उसका खेत उजाड़ दिया है, चुपचाप लेटा रहता है। सुबह मुन्नी के कहने पर सिर्फ हँस देता है। यह आम हँसी नहीं है बल्कि इसके पीछे गहरी पीड़ा और यथार्थबोध छिपा हुआ है। गुलजार इस गहरी पीड़ा और यथार्थ को व्यक्त करने में असफल रहे हैं।
‘कफन’ टेलीफिल्म में पंकज कपूर जैसे कलाकार का चयन एक सही फैसला था, लेकिन पटकथा और संवाद में भटकाव के कारण टेलीफिल्म बहुत ही कमजोर बनी है। उन्होंने कहानी के मुख्य-मुख्य अंशों को रेखांकित भर किया और पटकथा लेखन में अपनी विद्वता को गाया है। यही कारण है कि ‘कफन’ टेलीफिल्म प्रेमचंद की कहानी नहीं लगती।
‘कफन’ कहानी पर राजेश सिसोदिया ने भी अपने निर्देशन में टेलीफिल्म का निर्माण किया है। यह टेलीफिल्म गुलजार द्वारा निर्देशित टेलीफिल्म से उत्कृष्ट है। राजेश सिसोदिया ने प्रेमचंद के संवादों को बगैर परिवर्तित किए प्रस्तुत किया है। मात्र 15 मिनट की इस टेलीफिल्म में प्रेमचंद की कहानी को सजीव रूप में प्रस्तुत किया गया है और बड़े मार्मिक ढंग से अभिनय और निर्देशन का प्रयोग किया गया है।
टेलीफिल्म निर्देशन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, विवेकानन्द। उन्होंने प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ को टेलीफिल्म में रूपान्तरित किया। कमलेश्वर की कहानी ‘नागमणि’ का और अपनी ही लिखी कहानी ‘महुआ छाया’, ‘अंधेरे के घेरे’, ‘गूँजे सुर बाँसुरी के’ आदि का निर्देशन, पटकथा लेखन और संवाद लेखन उन्होंने स्वयं ही किया। उन्होंने टेलीफिल्मों में ‘चैता’ लोकगीत का प्रयोग माँग के अनुसार किया, जिसे उन्होंने ही गाया है।
प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ पर विवेकानन्द ने उत्कृष्ट टेलीफिल्म का निर्माण किया। फिल्म में कई प्रयोग भी उन्होंने किये हैं। जैसे – फ्लैश बैक का प्रयोग, लोकगीतों का प्रयोग आदि। मूल कहानी में प्रेमचंद ने साँप के काटने पर विष उतारने के मंत्र का प्रसंग नहीं दिया था। विवेकानन्द ने टेलीफिल्म में विष उतारने के मंत्र का प्रसंग जोड़कर, दृश्य-माध्यम की माँग के अनुसार सार्थक कार्य किया है। फिल्म के लिए कलाकारों का चयन, उनकी एक्टिंग, साउण्ड और लाइटिंग का बहुत खूबसूरत ढंग से प्रयोग किया गया है। कहानी के मूल उद्देश्य को सम्प्रेषित करने में निर्देशक विवेकानन्द ने पूरी सफलता पाई है।
‘मंत्र’ कहानी में मूल तनाव व्यंजित होता है – एक पिता और सामाजिक मनुष्य के अंतर्द्वन्द्व में। सांप का जहर उतारने वाले पिता की आँखों में अपने मृत पुत्र की छवि उभरती है तो वह अपना कदम पीछे हटाने लगता है। लेकिन जब उसे डॉ. जैसे पीड़ित पिता की याद आती है तो मानवता के कारण उसके कदम आगे बढ़ने लगते हैं। अंत में मानवता विजयी होती है। वह सोचता है साँप का जहर उतारने जाएँ या न जाएँ। इस ऊहा – पोह का प्रकाश तथा साउण्ड के बेहतर प्रभाव से सजीव चित्रण किया गया है। वह अन्त में मानवता की रक्षा के लिए जाता है। इस टेलीफिल्म में निर्देशक की कुशलता का प्रमाण उत्तम तथा संतुलित तकनीक का प्रयोग है। फ्लैश बैक के माध्यम से कहानी को बेहतरीन ढंग से जोड़ा गया है।
कहानी के अन्तर्द्वन्द्व की रक्षा टेलीफिल्म में पूर्णतः की गई है। फिल्म में पटकथा लेखक ने मुख्य कलाकार के अन्तर्द्वन्द्व और मानसिक संघर्ष को एकालाप संवादों के माध्यम से जिस तरह रूपायित किया है, वह बेहद प्रभावशाली है। साथ ही, उसके अन्तर्विरोध को स्थापित करने के लिए निर्देशक विवेकानन्द ने इसी अन्तर्द्वन्द्व की व्यथा कथा को और भी मुखरित करने के उद्देश्य से फिल्म के शीर्षक गीत को उसी जगह रखा है जिसके माध्यम में बेचैनी है, छटपटाहट है और इसी बेचैनी में मृत बेटे के साथ जुड़े अंतरंग क्षणों का फ्लैश बैक भी है।
कथा साहित्य जब भी दृश्य माध्यम में प्रस्तुत किया जाएगा, उसमें इस नए माध्यम की आंतरिक संरचनात्मक जरूरतों के हिसाब से कुछ अनिवार्य संशोधन की आवश्यकता होगी। इन संशोधनों में कृति किसी अर्थ में नष्ट नहीं होनी चाहिए। इन प्रस्तुतियों के बाद भी उसकी आत्मा वैसे ही मौजूद रहनी चाहिए जैसे कि पहले थी।
साहित्य के दृश्य-माध्यम में रूपान्तरण की आलोचना से पूर्व इस तथ्य को समझना आवश्यक है कि संस्कृति के विभिन्न रूप, खासकर आधुनिक युग में न केवल एक-दूसरे में अपनी स्वायत्तता के साथ संक्रमित होते हैं, बल्कि इस क्रम में वे कुछ नए रूपों को भी जन्म देते हैं। चूँकि हम पुराने रूपों के आदी होते हैं, अतः नए रूपों को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। इसका बड़ा कारण उपभोक्तावाद के प्रभाव से अमानवीयता का प्रसार है।
कहानी को टेलीफिल्म में रूपान्तरित करने के क्रम में रचना के संक्षेपण या विस्तारण की कोई समस्या नहीं आती है। कोई निर्देशक किसी कहानी पर टेलीफिल्म बनाता है तो वह कहानी के मर्मस्थलों का चुनाव अपने अनुसार करता है, फिर उसका विस्तार करता है। जाहिर है कि इस क्रम में वह ढाई या तीन घंटे की फिल्म नहीं बनाएगा। वह तो कहानी को रूप आकार के हिसाब से आधे-पौने घण्टे की टेलीफिल्म में ही रूपान्तरित कर पाएगा। यह कार्य फिल्म बनाने के कार्य से कठिन है। टेलीफिल्म निर्देशक अगर कहानी के मर्म स्थल की पहचान नहीं कर सका तो निश्चय ही वह टेलीफिल्म मार्मिक नहीं होगी। सिर्फ कहानी पर प्रदत्त समय और कहानी के आकार के हिसाब से आधा या पौन घण्टा की ही फिल्म बनाएगा।
टेलीफिल्म, भी साहित्य की तरह अपने समय और समाज से गहरे अर्थों में प्रभावित होती है। दृश्य माध्यम और समाज एक-दूसरे के सामने भी दिखते हैं और समानान्तर भी। हमारा समाज जिस प्रकार से साहित्य से कटकर नहीं रह सकता, उसी प्रकार से उसे टेलीफिल्म से अलग रखकर भी नहीं देखा जा सकता।
टेलीफिल्म को कला माना जाए या व्यवसाय या दोनों। साहित्य के समाजशास्त्री ”कला और साहित्य की कृतियों को सामाजिक उत्पाद मानते हैं। इस हिसाब से कहानी की कोई किताब या उपन्यास एक सामाजिक उत्पादन है।“ दूसरी तरफ, टेलीफिल्म न केवल सामाजिक उत्पाद हैं, बल्कि इनका लक्ष्य भी समाज ही है; मनोरंजन से लेकर सामाजिक संदेश देने तक। कोई रचनाकार साहित्य रचना स्वान्तः सुखाय भी कर सकता है, किन्तु किसी फिल्मकार के लिए ऐसी बात बेमानी होगी। ऐसे में जब कोई टेलीफिल्म निर्माता किसी साहित्यिक कृति को आधार बनाकर टेलीफिल्म का निर्माण करता है, तब उसके उद्देश्य को समझना अत्यन्त आवश्यक है। क्या उसने साहित्यकार की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश मात्र की है या उसने साहित्यिक रचना के बरक्स श्रेष्ठ मूल्यों एवं नए प्रश्नों को समाज के सम्मुख रखने का प्रयत्न भी किया है ?

 

डॉ. विपुल कुमार

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