‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ सिनेमा भी इसीप्रकार समाज और साहित्य का दर्पण है। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहुँच जन-जन तक है। इसके माध्यम से साहित्यिक कृतियों को भी बड़े स्तर पर पहचान मिली है। सिनेमा और संस्कृति का भी गहरा संबंध है। संस्कृतिक विषयों पर फिल्में बनाकर पर्दे पर प्रस्तुत किया गया है। स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी हम एक समतामूलक समाज की स्थापना करने में असफल साबित होते हैं। वर्षों से मिली पौराणिक, सामाजिक, लोकसाहित्य तथा प्राचीन मान्यतायें हमारे सोच व समझ का आधार बनी हैं जो हमारे हृदय में स्त्रियों के प्रति हमारे सोच व समझ का आधार बनी हैं। हम अपने कंधे पर अतीत- बोध का भार लिए फिरते हैं।

             हिंदी सिनेमा लगभग एक शताब्दी से मनोरंजन के साथ भारतीय समाज की विडम्बनाओं एवं उपलब्धियों के साथ सामाजिक और साहित्यिक विमर्श को भी व्यक्त करने में सफल रहा है। आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श तथा अन्य विमर्शों के साथ हिंदी सिनेमा ने ‘स्त्री- विमर्श’ को भी बख़ूबी प्रस्तुत किया है। नायिकाओं की वह छवि जो नाचते- गाते हुए नायक के आसपास घूमती थी, आज टूट रही है। आज भी सिनेमा को मनोरंजन का साधन समझने वालों की संख्या बहुत है। इसके लिये वैसी फिल्में बनाने वाले व्यावसायिक फिल्मकार भी हैं। किंतु आज भी कुछ निर्देशक ऐसे हैं जो अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन करते हुए फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि इसके माध्यम से सन्देश बहुसंख्यक जनता तक पहुंचाई जा सकती है। 21 वीं सदी से सिनेमा अपनी ‘स्टार’ की छवि से मुक्त होकर ‘आमजन’ तक पहुंचने लगा है।

            आज का सिनेमा अपने ‘स्टीरियोटाइप’ छवि से बाहर निकलकर अपने समय का नब्ज पहचानने लगा है। इसका कंटेंट, स्वरूप, विषय, पात्र, भाषा और प्रस्तुति सबकुछ बदल रहा है। बदले भी क्यों न। आज का दर्शक भी तो बदल रहा है। इसी संदर्भ में श्याम बेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था – ‘यह हमारे डी एन ए में है कि हम एक खास किस्म की फिल्में पसन्द करते हैं।’ आज भी उसी खास पसन्द वाले बहुसंख्यक दर्शक के रूचिनुसार फिल्में बन रही हैं परंतु कुछ फिल्में ऐसी भी बन रही हैं जो सिनेमा एवं समाज के पूर्वनिर्मित ढांचे को हिलाने की साहस रखती हैं।

             भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के को आरम्भ में अपनी पहली फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ 1913 में मुख्य अभिनेत्री के लिए एक पुरूष से भूमिका करवानी पड़ी थी। क्योंकि तत्कालीन समाज में सिनेमा में काम करना सम्मानजनक पेशा नहीं था। बाद की फिल्मों में पारसी थियेटर के एंग्लो इंडियन कलाकारों से स्त्री चरित्र के लिए अभिनय कराना पड़ा। आरम्भिक दौर में स्त्रियों को घरेलू और पारंपरिक भूमिकाओं में ही प्रस्तुत किया गया। 30 का दशक प्रगतिशीलता का दौर रहा। तीसरे दशक में भारतीय अभिनेत्रियां अपने अभिनय कौशल से सिनेमा में महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने लगीं। स्त्रियों का फिल्मों में प्रवेश स्त्रियों के मौलिक अधिकारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण घटना थी। नवजागरण आंदोलन के पुरोधा स्त्री सम्बन्धी सुधारों के लिए प्रयासरत थे। भारतीय फिल्मों पर भी इसका असर पड़ा। सिनेमा के प्रत्येक दौर में स्त्री केंद्र में रही है। हिंदी फिल्मों में स्त्री के सुखमय तथा दुखमय, अच्छे व बुरे पक्षों का चित्रण समान रूप से हुआ जिनमें अतिश्योक्ति एवं काल्पनिक तत्व सम्मिलित हैं। “स्त्री का आदर्शवादी ‘देवी’ स्वरूप भारतीय स्त्री की एक नैतिकतावादी लोकरंजक छवि है जिसकी आकांक्षा समाज करता है, वास्तविकता के आईने में इसकी छवि धूमिल ही जाती है।” – 1 सिनेमा में स्त्री की प्रस्तुति पुरुष मनोनुसार होती है। उसकी छवि को पुरूष की भोगवादी दृष्टि के अनुरूप ही दिखाया जाता है।

             हिंदी सिनेमा में स्त्री छवि का प्रस्तुतिकरण कई प्रकार से हुआ है। स्वतंत्रता पश्चात के कई दशकों बाद भी हिंदी सिनेमा सामंती आग्रहों से आजाद नही हुआ है। “आज भारतीय सिनेमा की वास्तविकता यही है कि पर्दे पर दिखलाई जानेवाली औरत को श्रृंगारिकता और सौंदर्य प्रदर्शन के आड़ में पुरुषों के चाक्षुक भोग का बिम्ब बनाया रहा है।….चूंकि समकालीन सिनेमा बाजारवाद की उत्पादन प्रणाली का अभिन्न अंग बन चुका है, अतएव वह बाज़ार समाज में मौजूद प्रवृत्तियों को नए- नए प्रकार से सुस्पष्ट तथा निरूपित करता रहेगा।” – 2

       साहित्य और सिनेमा का सम्बंध सदा रहा है। बांग्ला साहित्य की रचनाएं विशेषकर शरतचंद्र की रचनाओं पर कई प्रभावशाली क्लासिक फिल्में बनी हैं। बांग्ला फिल्मकारों से हिंदी सिनेमा ने भी बहुत कुछ सीखा है। समानांतर सिनेमा ने हिंदी सिनेमा में स्त्री- विमर्श को स्थान दिया। इसके माध्यम से स्त्री समस्याओं को उनके तह में जाकर देखने का प्रयास किया गया। कला सिनेमा में स्त्री जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत किया गया। “समानांतर सिनेमा में स्त्री के उस समाज की समस्याओं को भी जगह मिली है जिन्हें हम अनैतिक या गैर जरूरी कहकर- समझकर टाल रहे थे। विधवा समस्या, वेश्या जीवन की समस्या और उन तमाम स्त्रियों की समस्या को स्पेस मिला जिन्हें कभी इंसान ही नहीं समझा गया। सभ्यता और नैतिकता के नाम पर समाज के हाशिये पर खड़ी स्त्रियों के अंदर के इंसान को समझने से नकारते हुए हिंदी सिनेमा उसे सिर्फ आदर्शवादी व ममतामयी मां, बहन, बेटी के रूप में गढ़ते स्थापित करते हुए चुपचाप आगे बढ़ रहा था।” – 3

            कुछ मुख्यधारा की फिल्मों में भी स्त्री यथार्थ को दर्शाया गया है जिनमें मदर इंडिया, औरत, पाकीजा, साहब बीबी और गुलाम आदि उल्लेखनीय हैं। समानांतर सिनेमा – मंडी, भूमिका, बाज़ार, उमरावजान, माया मेमसाहब, फायर, वाटर, फिज़ां, लज्जा, पिंजर आदि तक के सफर में थोथी नैतिकता का लबादा उतरता चला गया है।

        21 वीं सदी में महिलाओं की अलग छवि उभरती है। स्त्री केंद्रित फिल्में बनने लगी हैं। आरम्भिक दौर की फिल्मों की तुलना में आज उनका स्वरूप व भूमिका मुखर हुआ है। उदाहरणस्वरूप हम एन एच 10, पिंक, अकीरा, बेगमजान, नूर, लिपस्टिक अंडर माई बुरका, मार्गरिटा, विथ अ स्ट्रो आदि को देखा जा सकता है। इन दशकों में हिंदी सिनेमा ने बदलते समय व संस्कृति को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति प्रदान की है। मीना कुमारी से विद्या बालन तक मदर इंडिया से लेकर लिपस्टिक अंडर माई बुरका तक काफी बदलाव आ चुका है।

           “हिंदी सिनेमा का प्रारंभ वैसे तो 1931 ई० से आर्दशर ईरानी निर्देशित ‘आलमआरा’ से ही होता है। उसके बाद नारी जीवन की विडम्बनाओं को अछूत कन्या, दुनिया ना माने, आदमी, देवदास, बाल योगिनी आदि फिल्मों में नारी जीवन से सम्बंधित बाल विवाह, अनमेल विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा आदि समस्याओं को उभारा है।…. हिंदी सिनेमा में स्त्री लगभग तीसरे दशक के बाद से ही सिनेमा के निर्देशन, संगीत, लेखन के क्षेत्र में नजर आने लगीं। स्त्री की सिनेमा में भागीदारी में कल्पना लाजमी, मीरा नायर, दीपा मेहता, तनूजा चंद्रा, फराह खान, पूजा भट्ट, जोया अख्तर आदि नायिकाओं ने अपनी अलग पहचान बनाई है।” – 4

        70- 90 के दशक में नारी का एक अलग स्वरूप उभरा जो समाज में बदलाव लेकर आया। अस्तित्व को तलाशती स्त्री की अनवरत यात्रा प्रक्रिया पर्दे पर फिल्माया जाता रहा। आज का सिनेमा स्टीरियोटाइप तोड़ता हुआ समय का नब्ज पकड़ता सा दिख रहा। अब कला फिल्मों का दौर बीतता सा लगता है जिसका दर्शक एक एलीट वर्ग होता था। आज की मेनस्ट्रीम फिल्में कला फिल्मों की सादगी तथा सौंदर्य होती है। “इस नए सिनेमा ने फिल्मों को एक खास तरह के ‘एलिटिज्म” से बचाया है। स्त्री पात्रों को नायक के रूप में प्रस्तुत करनेवाली इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से निकल जाती है। ये तथाकथित सम्भ्रांत समाज से बेपरवाह हो ठहाके लगाती है, चीखती है और जोर- जोर से गाती है और तबतक नाचती है जबतक मन नहीं भर जाता। ये महंगी शिफॉन सदियों में या कई- कई किलो के लहंगे और अनारकली सूट में नजर नहीं आती बल्कि साधारण कपड़ो में ही अपने व्यक्तित्व को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती हैं।” – 5

       भारतीय सिनेमा के प्रारम्भिक समय की क्लासिक फ़िल्म थी – मदर इंडिया। इसमें सिद्धांत की रक्षा के लिए नायिका अपने अनैतिक पुत्र को मार डालती है। ‘मिर्च मसाला’ मूवी में गांव की एक साधारण स्त्री शक्तिशाली अधिकारी को ना कहने का विकल्प चुनती है। ‘बैंडिट क्वीन’ में एक ऐसी पीड़ित स्त्री की कहानी है जो पुरुषों व पुलिस द्वारा की गई मनमानी के विरुद्ध लड़ती है। ‘पीकू’ में एक वर्किंग गर्ल की कहानी है जो अपने पिता की देखभाल के लिए अपने सपनों को तिलांजलि देती है। ‘कहानी’ मूवी भी एक ऐसी ही सशक्त महिला की कहानी है। ‘इंग्लिश विंग्लिश’ एक ऐसी घरेलू स्त्री की कहानी है जो अंग्रेजी न आने के कारण उपेक्षित होती है पर अंततः अमेरिका यात्रा के दौरान अंग्रेजी सीख अपनी कमियों पर काबू पाती है। ‘क्वीन’ एक छोटे शहर की लड़की रानी की कहानी है जो अपने मंगेतर के अस्वीकार से टूटती है। फिर जल्द ही अकेले हनीमून पर जाती है, दुनिया घूमती है और एक परिवर्तित स्वरूप में वापस लौटती है जिसका अपने जीवन पर पूर्ण नियंत्रण है। इस फ़िल्म ने यह चैलेंज किया कि पुरूष रिजेक्शन से स्त्री जीवन यात्रा न रुकने वाली है। ‘गुलाब गैंग’ एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है जिसमें स्त्री शोषण के विरुद्ध संगठित होकर स्त्रियां पूरे गांव से पंगा लेती हैं व अत्याचार का विरोध करती हैं। ‘मर्दानी’ में एक पुलिसकर्मी का अपराधी संगठनों से साहसपूर्ण लड़ने की कहानी है। ‘मेरीकॉम’ एक मुक्केबाज के जीवनी पर आधारित सत्यकथा है जो दो बच्चों की माँ होने पर भी तमाम बाधाओं को पार कर शून्य से शिखर की यात्रा जारी रखती है और अभावग्रस्त स्त्रियों की प्रेरणा बनती है। ‘दामिनी’ एक ऐसी बहु की कहानी है जो अपने ही घर में बलत्कृत एक लड़की को न्याय दिलाने के लिए घरवालों के विरुद्ध जाती है। ‘मृत्युदंड’ में ग्रामीण महिला केतकी स्वयं तथा गांव की अन्य स्त्रियों के उत्पीड़न व अधिकारों के लिए पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध लड़ती है। ‘लज्जा’ में भी भारतीय स्त्रियों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार व अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई गई है। ‘नीरजा’ फ़िल्म भी सच्ची घटना पर आधारित एक फ्लाइट पर्सर की कहानी है जो अपहृत पैम एम फ्लाइट 73 के सैकड़ों यात्रियों को अपने जान पर खेलकर बचाती है। ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ महिलाओं की सेंसुअलिटी को लेकर बनी एक निडर फ़िल्म है जो वर्तमान समाज का प्रतिनिधित्व करती है।

     “पिंक’ ने राष्ट्र को बताया कि जब कोई महिला नहीं कहती है तो इसका मतलब ‘नहीं’ है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या कपड़े पहनती है या वह किस जीवन शैली का नेतृत्व करती है, उसे उसकी मर्जी के खिलाफ कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।” – 6

       वर्तमान संचार के युग में सिनेमा सबसे सशक्त माध्यम है जिसका जनता पर सर्वाधिक प्रभाव है। सिनेमा में दीर्घकाल तक पुरूष वर्चस्व रहा है। नायिका नाममात्र मोम की गुड़िया या शो पीस सी होती थी जिसे संस्कारी व पतिव्रता दिखना चाहिए। दर्शक उसे पारम्परिक रूप में देखना पसंद करते थे। परम्परा के नाम पर तिल- तिलकर जी रही स्त्री ही लुभाती रही है। शराबी व व्यभिचारी पति के लिए भी वह गाती रही है –  ‘न जाओ सैया छुड़ाके बैयां, कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी’ या ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो’ या फिर ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है’ आदि। यह सब करते हुए स्त्री की कितनी बेबस छवि उभरती है। 21 वीं सदी सूचना क्रांति के युग में स्त्री एक नए रूप में अवतरित हुई है। स्त्री छवि निरंतर बदलती जा रही है।

             मुख्यधारा की फिल्मों के अलावा ऐसी फिल्में भी बन रही हैं जो समय के साथ चल रही हैं। “इन फिल्मों में लिव इन रिलेशन की बात करने वाली फिल्म ‘सलाम नमस्ते’ भी है तो ग्लैमर वर्ल्ड की कलई खोलने वाली ‘फैशन’ और ‘हीरोइन’ भी। अपनी जिंदगी अपनी इच्छा से जीने और अपने फैसलों की जिम्मेदारी खयड लेनेवाली लड़की गीत  की फ़िल्म ‘जब वी मेट’ है तो आज के प्रचलित कारपोरेट वर्ल्ड पर भी ‘सरकार राज’ और ‘कारपोरेट’ जैसी फिल्में हैं। महिलाओं की राजनीति में वजूद को दर्शाती ‘राजनीति’ और ‘सत्ता’ है तो मीडिया संसार में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी पर  लक्ष्य, कृष, नो वन किल्ड जेसिका और सत्याग्रह जैसी फिल्में हैं।… एक ओर ‘चीनी कम’ और ‘निःशब्द’ जैसी वे फिल्में बन रही हैं जिनमें कम उम्र की लड़की अपने पिता की उम्र से भी बड़े व्यक्ति से स्वेच्छा से प्रेम करती हैं तो दूसरी ओर ‘कभी अलविदा न कहना’ जैसी वह फ़िल्म भी है जो शादी को सात जन्मों का बंधन क्या कुछ वर्षों का बंधन भी मानने के लिए मजबूर नहीं करती।” – 7 दर्शक के पसन्द के अनुसार ही आज की फिल्में नए युग की ओर बढ़ रही हैं। युवा निर्माता, निदेशक – अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली, जोया अख्तर, रीता कागती, किरण राव आदि दर्शकों के मिजाज को भांपकर फिल्में बना रहे हैं।

          आज के सिनेमा ने मनोरंजन का अर्थ बदला है। 21 वीं सदी की फिल्मों में स्त्री जीवन की प्रस्तुति विवादों के पश्चात भी सराहनीय कही जाएगी। उत्तर आधुनिक स्त्री बाज़ार की मानसिकता को समझ गयी है। उसके जिस यौनिकता का दोहन किया जाता है,उसने उसे अपना ढाल बना लिया है। तकनीकी व संसाधनों के कारण उसके समक्ष कई अवसर उत्पन्न हुए है। स्त्रियों ने भी लेखन, निर्देशन व निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा है जिन्होंने स्त्री की अंदरूनी समस्याओं को स्वर प्रदान किया है।

सन्दर्भ ग्रंथ  :

1- sahityakunj.net, हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श का स्वरूप, डॉ एम वेंकटेश्वर, 20 फरवरी- 2019

2 – वही

3 – jansatta.com, समकालीन सिनेमा में स्त्री मुक्ति,19 मार्च- 2017

4 – amstelganga.org, हिन्दी सिनेमा में स्त्री की बदलती छवि, डॉ कल्पना गवली

5 – apnimaati.com, सिनेमा: वर्तमान हिंदी सिनेमा और सशक्त महिला चरित्र, शिप्रा किरण, जनवरी- 2016

6 – hatakshep.com, भारतीय सिनेमा में स्त्री विमर्श/ हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श का स्वरूप, तेजस पुनिया,18 मार्च-2020

7 – आजकल, सिनेमा में महिलाओं की बदलती छवि, प्रदीप सरदाना, मार्च- 2016

डॉ. उर्मिला शर्मा
सहायक प्राध्यापक, अन्नदा कॉलेज
हजारीबाग, झारखंड

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