19वीं सदी की महत्वपूर्ण खोजों में से सिनेमा की खोज विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उस समय किसी के भी चित्र को रूपहले पर्दे पर प्रकट कर देना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। फ्रांस के लुमियेर भाइयों ने सन् 1895 में यह करिश्मा कर दिखाया। अपने आरंभिक काल में यह मुख्यतः लोगों के मनोरंजन के लिए ही समर्पित रहा। तत्पश्चात समाज के अन्य मुद्दे को भी यह अपने में सम्मिलित करने लगा। तब से लेकर आज तक सिनेमा के माध्यम से लोगों का न केवल मनोरंजन किया जाता है; अपितु अनेक सामाजिक समस्यायों को इसके द्वारा प्रकट कर लोगों को सोचने के लिए मजबूर भी किया जाता रहा है। मंहगाई की समस्या पर बनी ‘पिपली लाइव’, शिक्षा व्यवस्था पर आधारित ‘सुपर 30’, बाल शिक्षा पर आधारित ‘तारे जमीं पर’ तथा समाज में महिलाओं पर ‘एसिड अटैक’ की समस्या पर बनी ‘छपाक’ स्त्री-विमर्श पर आधारित ‘अकीरा’, पिंक’, पार्च्ड’, दलित-विमर्श पर बनी ‘आर्टिकल 15’ आदि फिल्में इसके सशक्त उदाहरण हैं। आज आपको ऐसी अनेक फिल्में देखने को मिल जाएँगी जो समाज की किसी बुराई को हमारे सामने प्रस्तुत कर हमें उस पर सोचने को मजबूर करती है। आज का सिनेमा एक तरफ जहाँ लोगों का मनोरंजन करता है वहीं अनेक सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों तथा असमानताओं को लोगों के सामने प्रकटकर समाज को व्यवस्थित और स्वास्थ्यप्रद बनाने में प्रयत्नशील है।
भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के को माना जाता है, जिन्हें सन् 1913 की प्रथम भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाने का श्रेय प्राप्त है। इसके पश्चात इन्होंने ‘मोहिनी भस्मासुर’ (1913), ‘सत्यवान-सावित्री’ (1914), ‘लंका दहन’ (1917), ‘श्री कृष्ण जन्म’ (1918) जैसी दर्जनभर के करीब पौराणिक मिथकों पर आधारित फिल्मों का निर्माण किया। इनके द्वारा बनाई अधिकतर फिल्में मूक थीं, जिसमें पात्र अपने अभिनय कला द्वारा लोगों का मनोरंजन करते थे। सन् 1931 में बनी ‘आलमारा’ पहली भारतीय बोलती फिल्म है जिसमें एक राजा की दो पत्नियों में से एक का राजा के मंत्री के साथ के अवैध संबंध को दिखाया गया है। यहीं से समस्या फिल्म की शुरुआत मानी जा सकती है। उसके पश्चात तो समस्या फिल्मों की एक कड़ी-सी लग गई। सन् 1936 में हिमांशु राय द्वारा निर्मित तथा अशोक कुमार और देविका रानी द्वारा अभिनीत ‘अछूत कन्या’ फिल्म अंतरजातीय विवाह जैसी एक ज्वलंत समस्या को सबके सामने लाती है। इसमें एक अछूत लड़की से ब्राह्मण लड़के के प्यार को दिखाया गया है। इस फिल्म में बहुत ही शातिर तरीके से उस अछूत कन्या को दूसरों की जान बचाने के बहाने रेलगाड़ी से कुचलवा दिया जाता है और उसकी मृत्यु को बलिदान का जामा पहना दिया जाता है। तब से लेकर आज तक फिल्म और समाज में भी अंतरजातीय प्यार में दलित-शोषित पात्र को ही षड्यंत्र पूर्वक मारकर बलिदान होने का जामा पहनाया जाता रहा है। वर्तमान समय की बहुत-सी घटनाएँ इसके उदाहरण स्वरूप देखी जा सकती हैं। ‘सुजाता’ (1959) बिमल राय द्वारा निर्देशित तथा नूतन और सुनील दत्त द्वारा अभिनीत एक और फिल्म थी जिसमें छुआ-छूत और अंतरजातीय विवाह की समस्या को उठाया गया है। फिर तो सामंती शोषण, अनमेल विवाह, महजनी अन्याय जैसे अनेक मुद्दों पर फिल्में बनने लगीं।
उपरोक्त सभी फिल्मों में समाज की किसी न किसी प्रकार की असमानता, अन्याय और शोषण को दिखाया गया है। इन सब के बावजूद एक ऐसा समाज जो लगातार तथाकथित श्रेष्ठिजन के समाज द्वारा असंस्कृत, असभ्य, गँवार तथा दूसरे अनेक अपमानजनक विशेषणों से अपमानित किया जाता रहा, वह आदिवासी समाज आज भी फिल्मों से अछूता रहा है। कहने को तो आज का वह समाज जिनकी महिलाएं पुरुषों के साथ में बैठकर शराब का सेवन करती हैं, कम कपड़े पहनकर अपने पुरुष मित्रों के साथ नाच-गाना करती हैं, अपना जीवन साथी स्वयं चुनती हैं; प्रगतिशील और सभ्य कहलाती हैं। विडंबना यह देखिये कि इन्हीं तथाकथित सभ्य समाज के द्वारा असभ्य और असंस्कृत कही जाने वाले समाज की आदिवासी महिलाएँ सदियों से ऐसा जीवन जीती आ रही हैं।
हिंदी सिनेमा आदिवासी समाज का जीवन, उनकी समस्याओं तथा उनके पात्रों से लंबे समय तक दूरी बनाए रखा था। संभवतः मृणाल सेन द्वारा निर्देशित तथा मिथुन चक्रवर्ती द्वारा अभिनीत‘मृगया’(1976) प्रथम ऐसी फिल्म है जिसके केंद्र में आदिवासी समस्या को दिखाया गया है। इस तरह इसे आदिवासी समस्या पर बनी प्रथम फिल्म कह सकते हैं। यह फिल्म उड़िया कथाकार भगबती चरण पाणिग्रही की कहानी ‘शिकार’ पर आधारित है। इंडिया टूड़े पत्रिका के अनुसार, “इस फिल्म के लिए तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री एल. के. आडवानी द्वारा मृणाल सेन को वर्ष 1976 की श्रेष्ठ फिल्म के लिए ‘स्वर्ण कमल’ तथा अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती को श्रेष्ठ कलाकार का पुरस्कार दिया गया।”[1]
फिल्म की कहानी में महाजनी शोषण केंद्र में है। फिल्म की शुरुआत घने जंगल से आती हुई सुमधुर आदिवासी गीत से होती है, जहाँ जंगल और धान के लहलहाते खेतों को दिखाया गया है। बाद में उनकी धान की फसलों को जंगली सुअर द्वारा नष्ट किए जाने की चर्चा की गई है। फिल्म में आदिवासियों की समस्या यहीं नहीं खत्म होती बल्कि; आए दिन उनके छोटे बच्चों को जंगली जानवर द्वारा उठा ले जाने की घटना होती ही रहती है। उधर धान की फसल सुअरों द्वारा नष्ट किए जाने पर भी उन्हें महाजन ‘गोविंद सरदार’ को लगान देना ही पड़ता है। लगान न दे पाने पर उन्हें बुरी तरह अपमानित किया जाता है। एक आदिवासी ने महाजन से 10 रुपए का कर्ज लिया था जो 22 रुपए ब्याज के साथ कुल 32 रुपए हो जाता है। कर्ज न दे पाने की स्थिति में महाजन उसकी जवान बेटी ‘डुंगरी’ को अपने घर भेजने की बात करता है। इस पर ‘घिनुया सोरेन’ (फिल्म का नायक) अपनी आपत्ति दर्ज करता है। वह ‘डुंगरी’को सभी के बीच से अपने साथ ले जाता है। एक दिन महाजन के आदमी मौका पाकर डुंगरी को उठा ले जाते हैं। जब घिनुया को यह बात पता चलती है तो वह महाजन ‘गोविंद’का कत्ल करके डुंगरी को उसके चंगुल से छुड़ा लाता है। इसके पश्चात घिनुया को महाजन की हत्या के आरोप में फाँसी हो जाती है। इसी फिल्म की एक अन्य कथा में सल्पू मुर्मू घर से भागकर अंग्रेज़ सरकार और जमीदार के विरोधियों के गुट में शामिल हो जाता है। एक दिन जब वह अपनी माँ से मिलने घर आया होता है तो उसको जमींदार का पिट्ठू‘डोरा’नामक व्यक्ति पुलिस के सिपाही की मददसे घेरकर मार डालते हैं। सल्पू को मारने पर पुलिस विभाग को 500 रुपये का ईनाम दिया जाता है। इस फिल्म के एक संवाद का जिक्र करना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है। घिनुया सोरेन को एक बार एक अंग्रेज़ अधिकारी ने जंगली जानवर का शिकार लाने पर इनाम दिया था। उसकी फाँसी के समय जब वही अधिकारी सरकारी वकील के रूप में उसके गुनाह कबूल कर लेने पर फाँसी की सिफारिस करता है तो घिनुया पूछता है, “गाँव का एक आदमी सल्पू मुर्मू जिसे सभी लोग प्यार करते हैं, जब पुलिस वाले उसको मारते हैं तो उन्हें ईनाम दिया जाता है, और मुझे; मैंने ऐसे जानवर को मारा है जो हमारे गाँव का सबसे खूंखार जानवर है। उसके लिए मुझे फाँसी दी जाती है?”[2] मनुष्य के रूप में ऐसे खूँखार जानवर आज भी मानवता का खून पीते हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इस सम्पूर्ण फिल्म में आदिवासी समाज की संस्कृति उनके महाजनी शोषण और राजनीतिक भेदभाव को बहुत ही सूक्ष्मता से दिखाया गया है। इस फिल्म के बारे में तत्कालीन समाचार पत्र Tha Hindu में बहुत ही स्पष्ट और सटीक आलोचना प्रकाशित हुई थी- “It is game hunting, the royal hunt; some hunt animals, some the more dangerous ones in human form. The beast in the jungle is replicated by the usurers and exploiters of simple folk, the tribals, who live life the natural way, unassuming, pure, honesty glowing on their face.”[3]
‘आक्रोश’ (1980) गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित आदिवासी शोषण पर बनी एक ऐसी फिल्म है जिसमें एक आदिवासी पात्र ‘बीकू लहण्या’ (ओमपुरी) का जमींदारों द्वारा ऐसा शोषण किया जाता है जिससे वह जीवनभर मूक होने को अभिशप्त हो जाता है। उसे अपने साथ हुए शोषण का इतना सदमा लगता है कि पूरी फिल्म में वह जब भी बोलता तो उसमें एक दर्द और बेबसी साफ झलकती है। ‘आक्रोश’ फिल्म की कथा एक आदिवासी महिला ‘नागी लहन्या’ (स्मिता पाटिल) की अन्त्येष्टि से शुरू होकर लहन्या भिखू के पिता की अन्त्येष्टि पर समाप्त होती है। लहण्या की पत्नी का सामूहिक बलात्कार और फिर हत्या गाँव के जमींदार और उसके गुंडे द्वारा करके उसे ही हत्या का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। लहन्या की निर्मूकता के कारणों पर फिल्म समीक्षक विनोद दास लिखते हैं- “उसकी पत्नी का सामूहिक बलात्कार किया गया है; और जो इस जघन्य कृत्य से जुड़े हुए हैं, वे समाज के तथाकथित भद्र और आभिजात्य लोग हैं और बेहद ताकतवर हैं। इस वर्ग से लहन्या इतना भयभीत और डरा हुआ है कि वह अपने को निर्दोष साबित करने के लिए भी कुछ नहीं बोलता।”[4] फिल्म में एक आदिवासी का परिवार मात्र इसलिए तबाह हो जाता है कि तथाकथित सभ्य लोग उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाकर उसका गरूर तोड़ना चाहते थे। आज यदि कोई भी आदिवासी व्यक्ति समाज में सिर उठाकर चलता है तो ये तथाकथित सभ्य समाज के लोगों के लिए असह्य होता है। लहण्या जैसे लोगों के ऊपर किया गया दुष्कर्म उनकी निर्मूकता से नहीं बल्कि कठोर प्रतिरोध और कानूनी सहायता से ही संभव है। इसके लिए उसके समाज के ऊँचे ओहदे पर पहुँचे हुए लोगों को एकजुट होने की जरूरत है। फिल्म में फिल्मांकित सरकारी वकील (अमरीश पूरी ) आदिवासी समाज से है, पर वह इस केस में लहण्या के विरोधी वकील ही हैसियत से खड़ा दिखाई देता है। इसके उलट लहण्या की तरफ से लड़ने वाला वकील भास्कर कुलकर्णी दूसरे समाज का होकर भी लहण्या को न्याय दिलाने का भरसक प्रयास करता है। निर्देशक ने फिल्म में वकीलों की जाति को बताकर शायद समाज के प्रति वकीलों की जातीय भूमिका को समझाने का प्रयास किया है।
‘कमला’ जगमोहन मूंदड़ा द्वारा निर्देशित सन् 1985 की एक ऐसी फिल्म है जिसमें दिल्ली के एक अँग्रेजी पत्रकार द्वारा अपने समाचार पत्र की हेड न्यूज बनाने के लिए एक आदिवासी स्त्री को न केवल खरीदा जाता है बल्कि; उसे प्रेस कान्फ्रेंस में बुरी तरह से अपमानित भी किया जाता है। यहाँ पर समाज का तथाकथित सभ्य वर्ग आदिवासियों के उत्थान को दिखाने के लिए उन्हें अपने बाज़ार की एक वस्तु से अधिक नहीं समझता है। आज भी आदिवासी बहुल इलाकों में जाकर मीडिया वाले उनके फटे-पुराने जीवन को दिखाकर लाखों कमा लेते हैं, पर उन आदिवासियों की हालत जस की तस ही बनी रहती है। यह फिल्म आदिवासी जीवन के साथ-साथ स्त्री जीवन की दासता को भी चित्रित करती है। मीडिया वाले आज भी अंडमान-निकोबार द्वीप के आदिवासियों के कम कपड़े में डांस करते दिखाकर सुर्खियां बटोरने में लगे हैं। आज भी वे आदिवासियों को शर्मीले होने के नाम पर सार्वजनिक चुंबन का आयोजन करते हुए देखे जा सकते हैं।
‘उलगुलान एक क्रांति’ (2004) अशोक शरण द्वारा निर्देशित आदिवासियों के ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है। इस फिल्म में बिरसा मुंडा द्वारा अंग्रेज़ सरकार और जमीदारों के खिलाफ चलाई गई क्रांति को बहुत ही अच्छे तरीके से फिल्माया गया है। अपने जल, जंगल और जमीन के लिए बिरसा मुंडा के आंदोलन को चित्र पटल पर दिखाकर बिरसा मुंडा के कार्यों से अंजान लोगों के लिए इसमें एक बेहतर फिल्म-चित्र प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म में आदिवासी जीवन और संस्कृति अपने संपूर्णता में दिखाई गई है। बिरसा मुंडा के जिन कार्यों से निरक्षर जनता अनभिज्ञ थी फिल्म ने उसकी कमी को बहुत ही बेहतरीन तरीके से पूरा किया है।
वैसे तो प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘चक्रव्युह’ (2012) में सीधे तौर पर किसी आदिवासी पात्र का जिक्र नहीं है, पर अप्रत्यक्ष रूप से शहरी पात्रों द्वारा आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए खड़े होना एक आदिवासी समस्या के रूप में देखा जा सकता है। इस फिल्म द्वारा नक्सल समस्या और आदिवासी सहभागिता को कुछ हद तक समझा जा सकता है।
सन् 2017 में रिलीज ‘न्यूटन’ अमित वी. मसूरकर द्वारा निर्देशित ऐसी फिल्म है जिसमें सीधे तौर पर आदिवासी इलाकों में होने वाले चुनाव-प्रक्रिया को बहुत ही यथार्थ ढंग से दिखाने का प्रयास किया गया है। आज छत्तीसगढ़ का आदिवासी समाज नक्सली और भारतीय पुलिस दोनों का दोहरा मार झेल रहा है। एक ओर जहाँ नक्सली उन्हें वोट देने से मना करते हैं वहीं पुलिस प्रशासन उन्हें वोट देने के लिए जबरन प्रताड़ित करता है। दोनों तरफ की मार झेलता अशिक्षित आदिवासियों को ये भी पता नहीं है कि उनके क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाला प्रत्यासी कौन है? प्रशासन भी इन्हें केवल वोट के समय ही पूछता है। नक्सली और पुलिस प्रशासन से प्रताड़ित आदिवासी इलाका शिक्षा और विकास से कोसों दूर है। ‘न्यूटन’ के माध्यम से आदिवासियों के दूरूहपूर्ण जीवन-संघर्ष और सरकारी शोषण को बहुत ही अच्छे तरीके से देखा जा सकता है। सरकार अपनी सत्ता प्राप्त करने के लिए उनके मत को तो चाहती है पर विकास के नाम पर उन्हें फूटी कौड़ी भी नहीं देती है।
हिंदी फिल्मों के पश्चात यदि किसी अन्य भाषा की फिल्मों में आदिवासी पात्र आए हैं तो उनमें से एस. एस. राजमौली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बाहुबली द बिगनिंग’(2015) का नाम जरूर लिया जा सकता है। यह फिल्म अपनी भाषा की सीमा को न केवल तोड़ी है बल्कि सन् 2015 की श्रेष्ठ कमाई करने वाली फिल्मों की श्रेणी में भी स्वयं को खड़ी की है। इस फिल्म में महिष्मती साम्राज्य पर कालकेय आदिवासियों द्वारा आक्रमण को दिखाया गया है। यहाँ पर कालकेय को एक दरिंदा, और क्रूर शासक के रूप में चित्रित किया गया है। उन्हें इसमें स्त्रियों का बलात्कारी और बच्चों की निर्मम हत्या करने वाला दिखाया गया है। यहाँ पर उन्हें कुरूप चेहरे तथा नंग-धड़ंग शरीर वाला दिखाया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस फिल्म ने समाज में आदिवासियों के प्रति बहुत ही गलत संदेश प्रेषित किया है।
अंत में कनाडाई निर्देशक जेम्स कैमेरन द्वारा निर्देशित ‘अवतार’ (2009) एक ऐसी अमेरिकन फिल्म है जिसमें औद्योगीकरण के पाँव तले आदिवासी हितों को कुचलने का असफल प्रयास करते हुए दिखाया गया है। इसमें पूँजीपति विज्ञान और शासन को अपने हितों के लिए प्रयोग कर केवल अपना हित चाहता है। उसे पर्यावरण असंतुलन या वानिकी से कोई मतलब नहीं है। इसके उल्टे आदिवासी वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर सौहार्दपूर्ण जीवन यापन करने वाला समाज के रूप में दिखाया गया है। फिल्म में एक पूँजीपति द्वारा विज्ञान का प्रयोग कर आदिवासी समाज में घुसपैठ करके उनके खनिज सम्पदा को लूटने के प्रयास को बहुत ही सूक्षमता से दिखाया गया है। उनके लिए मुश्किल तब हो जाती है जब उनके द्वारा भेजा गया नुमाइंदा आदिवासी-जीवन पद्धति से तादात्म्य स्थापित कर उनका विरोध करने लगता है। पूँजीपति वर्ग सदैव ही प्राकृतिक सम्पदा का उपभोगकर्ता रहा है। किसी भी सम्पदा का उपभोग करना उसका प्रथम लक्ष्य रहता है। इसके बरक्स आदिवासी समाज प्राकृतिक सम्पदा का उपयोगकर्ता होता है। फिल्म में वन्य जीव और पौधों से उसके लगाव का अनूठा नमूना प्रस्तुत किया गया है। आज विश्व भर में औद्योगीकरण और विकास के नाम पर खनिज सम्पदा को लूटने के लिए जंगल को उजाड़कर आदिवासियों को भगाने का जो प्रयास चल रहा है यह फिल्म उसकी बेहतर मिसाल है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि भारतीय सिनेमा से आदिवासी समाज एक तरह से गायब है। जबकि भारत के लगभग सभी राज्यों में कम-अधिक मात्रा में आदिवासी उपस्थित हैं। जिन फिल्मों में आदिवासी पात्र का चित्रण मिलता भी है उनमें उन्हें जंगली, बर्बर और असभ्य रूप में ही दिखाया गया है। कुछ निर्देशक हैं जो आदिवासी समाज पर फिल्में बनाने का जोखिम उठाए हैं। अन्य फिल्में जिनमें आदिवासी पात्र आए भी हैं उनमें सिर्फ उनका मज़ाक किया गया है। अभी हाल ही में एक तथाकथित बाबा राम रहीम के द्वारा आदिवासियों का इसी तरह से मज़ाक उड़ाया गया था। इस पर अनेक आदिवासी संगठनों ने अपनी आपत्ति भी दर्ज की थी।
संदर्भ ग्रंथ सूची
[1]http://indiatoday.intoday.in/story/1976-national-film-awards-mrinal-sens-mrigaya-selected-for-golden-lotus-award/1/435697.html
[2]मृगया (1976) समय- 1:33:00
[3]http://www.thehindu.com/features/cinema/cinema-columns/mrigayaa-1976/article4721021.ece
[4]दास, विनोद. (2003).भारतीय सिनेमा का अन्तःकरण. नई दिल्ली : मेघा बुक्स, पृष्ठ- 146
सहायक ग्रंथ सूची
- http://www.koimoi.com/reviews/newton-movie-review-this-awards-season-vote-for-rajkummar-rao/
- https://timesofindia.indiatimes.com/entertainment/hindi/movie-reviews/newton/movie-review/cms
- http://www.pluggedin.com/movie-reviews/avatar/
- http://www.caravanmagazine.in/essay/unnatural-state-changing-representations-tribal-people-hind-cinema
- https://www.rogerebert.com/reviews/avatar-2009
- http://www.telegraph.co.uk/culture/film/filmreviews/6832593/Avatar-full-review.html
- https://www.theguardian.com/film/2009/dec/17/avatar-james-cameron-film-review
ज्ञान चन्द्र पाल
शोधार्थी
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय
अमरकंटक (म. प्र.)