भारत एक ऐसा देश है जहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्मों का निर्माण होता है। बंबइया फिल्में जिन्हें बॉलीवुड कहा जाता है। भारतीय सिनेमा बाजार को करीब ढाई अरब अमेरिकी डॉलर का आँका गया है। हिंदी में सबसे ज्यादा संख्या बंबैया फिल्मों की है।हिंदी सिनेमा के इतिहास में सदी के प्रथाम दशक का समय सर्वाधिक संवेदनशील है। इस युग में दर्शकों को मद्देनजर रखते हुए फिल्में बनाने की जैसे होड़ सी मची है। वर्तमान जीवन के समस्त पहलुओं व अछूते मुद्दों को यहाँ तक कि हाशिए के बाहर लोगों को केंद्रीय बनाकर फिल्म-निर्माण का सशक्त प्रयास हुआ है।

एक आधुनिक व सशक्त जनमाध्यम के रूप सिनेमा की एक धारदार पहचान बनी है। अछूती संवेदनाओं के भावपूर्ण फिल्मांकन में बॉलीवुड अग्रणी है। व्यावसिकता के दौर में बॉलीवुड की फिल्में विज्ञापन का ठोस जरिया बन चुकी हैं। आज फिल्में व्यावसाय भी कर रही हैं और कॉमर्शियल वेंचर भी बन गई हैं। यह भूमंडलीकरण का महत्वपूर्ण प्रभाव है। इस प्रकार अन्य माध्यमों की तरह सिनेमा भी सामाजिक-वैश्विक परिस्थितियों के प्रभावस्वरूप काफी बदल चुका है और विकास के नए-नए रास्ते बना रहा है तथा तलाश भी रहा है।

साहित्य में जहाँ साहित्यकार विभिन्न पक्षों से प्रभावित होता हुआ साहित्यिक रचना करता है,वहीं सिनेमा निर्देशक उस साहित्यिक कृति को ऐसा कलेवर प्रदान करता है कि उससे वह कहीं अधिक प्राण्वान हो उठती है। हिंदी ही नहीं विश्व साहित्य में एक गहन मानवीयता के दर्शन होते है इसीकरण चित्रपट को भी वस्तुत: साहित्य की परिधि में ही परिगणित होना चाहिए। सामाजिक क्षेत्र में चित्रपट ने अपना एक निजी सांस्कृतिक परिवेश व प्रारूप धारण किया है। “इसी सांस्कृतिक परिवेश में साहित्य एवं कला के विभिन्न अलंकारों की जगमगाहट लक्षित की जा सकती है।”1 प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे का मत है कि– “सिनेमा साधन है चरित्र या स्थिति छायांकन की बारीकियों और गहराइयों में, भावना की प्रखरता में, साधनों के सीधे-सादे, सही और सशक्त प्रयोग में सिनेमा की समानता कोई नहीं कर सकता है।”2

आधुनिक समय में जबकि तनाव, कुंठा, अलगाव और संबंधों में पारस्परिक कटुता व विद्वेष का वातावरण पनप रहा है, तब व्यक्ति ऐसे सुख की कामना करता है जहाँ वह कुछ समय के लिए ही सही तनाव मुक्त व आनंदित हो सके और सिनेमा के लगभग काफी हद तक आम आदमी के इस स्तर पर पहुँचने में काफी हद तक मदद भी की है।

संगीत वास्तव में एक ऐसा अनुभव है जो व्यक्तिगत होने के साथ-साथ सामाजिक भी होता है। लोकप्रिय फिल्म संगीत मूलत: शहरी, अर्धशिक्षित यहाँ तक अशिक्षित जनता तक के लोकप्रिय दृष्टिकोण को तवज्जो देता है। गीत-संगीत समाज से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है, यह जनता को अभिव्यक्त करता है। इसलिए हिंदी फिल्मों के गीत संगीत ने भारतीय, अभारतीय हिंदी प्रेमी ही नहीं अहिंदी भाषी दर्शकों व श्रोताओं तक को काफी प्रभावित किया है। हिंदी फिल्मों की सफलता का मूल आधार उसका गीत संगीत होता है। सत्यजीत रे के अनुसार-“सार्वभौम हाव-भाव, सार्वभौम संवेदनाएँ, किसी खास समाज के साथ पहचान का अभाव, कृत्रिम और वायवीय समाज का रूपायान। इन्हीं कारणों  से हिंदी सिनेमा लोकप्रिय है।”3 प्रसिद्ध मीडिया सामालोचक सुधीश पचौरी के अनुसार–“जो गीत गुनगुनाए नहीं जा सकते, वे अमर नहीं हो सकते।”4 प्रसून सिन्हा की दृष्टि में–“सिनेमा कहानी कहने का एक प्रभावशाली माध्यम है। अन्य कई कलाओं की तरह सिनेमा भी देश, काल, सामाजिक संरचना और व्यक्ति की समस्याओं से सीधा जुड़ा रहता है। सिनेमा कला की कई विधाओं जैसे- साहित्य, चित्रकला, संगीत, नृत्य आदि का मिला-जुला रूप होता है। अर्थात सिनेमा समग्रता का दूसरा नाम है।”5

अरविंद कुमार विद्यालंकार के अनुसार -“सिनेमा मनोरंजन ही नहीं करता,नए विचार भी देता है, नई कल्पना भी देता है और देता है उसके मधुर जीत की कड़ियों साथ ही गुदगुदाते हुए सौंदर्य की ही नहीं, बल्कि नए जगत को देखने की नई दृष्टि देता है।सिनेमा मन का उपचार भी देता है,तन को स्फूर्ति भी देता है। मस्तिष्क को विचारों की नवीन उर्जा भी प्रदान करता है। यह कभी विदूषक बनकर हँसाता है तो कभी खलनायक बनकर रुलाता भी है।कभी चिकित्सक बनकर शारीरिक और मानसिक रोगों का उपाचार भी करता है।”6 विद्यालंकार जी ने बहुत सही कहा है कि सिनेमा मात्र जनमाध्यम नहीं है बल्कि आज अपने रचनात्मक कौशल तथा भाव-प्रवण प्रस्तुतिकरण से जन-जन,जन-मन तक पहुँच बना चुका है।लोगों को हर्ष,उत्साह, प्रसन्नता के साथ-सात उसके दुख,वेदना, पीड़ा, कसक, छटपटाहट सभी को उसकी पृष्ठभूमि के संदर्भों से संदर्भित करते हुए इस रूप में प्रकट करता है कि दर्शकों को उनके जीवन से प्रत्यक्ष साक्षात्कार कराता प्रतीत होता है। वस्तुत: सिनेमा में  इस कार्य को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करने में एक ओर संवाद कारगर भूमिका निभाते हैं तो दूसरी ओर फिल्म का गीत-संगीत जो अपनी अनूठी व मार्मिक,संवेदनापरक तथा भावप्रवण शैली में सीधे परिस्थितियों के साथ-साथ मन:स्थितियों को हूबहू बयाँ कर सिनेमा की जनसारोकारिता सिद्ध करता है।गीत-संगीत तो मानो रूठे मन, तड़पते दिल व रुग्न हृदय रेससिक्त उपचार लगा मनोचिकित्सक की भाँति कुशल हमदर्द बनकर अपनी विशिष्ट पहचान बना लेता है।गीत-संगीत को जीवन के खालीपन, अकेलेपन,अजनबीपन व  बेजार जिंदगी का अन्यतम साथी माना जा सकता है।जब व्यक्ति अपनी व्यथा अथवा मन:स्थिति किसी के साथ बाँट नहीं पाता तब यहीं सिने गीत-संगीत उसके खालीपन को संवेदनागत पूर्णता की छाँह प्रदान करता है व हर्षातिरेक में उसका उल्लास व उत्साह भी संगीत की मधुरता से ही शानदार आगाज बनता है।

“किसी भी फिल्म-स्टोरी अथवा सीरियल में साहित्य के छ: प्रमुख तत्वों के अतिरिक्त अन्य तत्व भी पाए जाते हैं, जिन्हें फिल्म निर्माता का ग्रूप ‘टीम वर्क’ को ध्यान में रखकर पूरा करता है। इसके निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, अभिनयकर्मी, गीतकार, संगीतकार, कोरियोग्राफर, कमेंटेटर, स्टंटमैन, साज्ज-सज्जाकार आदि व्यक्ति इसमें प्रतिभाग करते हैं। सिनेमा  बही नव–रस, गुण,ध्वनि, रीति आदि का समावेश होता है।”7

अंत में यह कहना सही होगा कि सिनेमा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली एवं सशक्त माध्यम है। जो किसी संवेदना, विचार, या घटना को मनोरम व भव्य रूप में प्रस्तुत करता है। व्यक्ति के अंतर्तम का भावस्पर्श कर उसे आत्मीय व सकारत्मक दिशा प्रदान कर सिनेमा जीवन का कुशल पैराकार बनता है। यह अतीत की उदगाता, वर्तमान का चितेरा तथा भविष्य को निर्णायक निर्माता बनने की हैसियत भी रखता है। सामाजिक वैचारिक क्रांति का उदघोषक, बौद्धिक विमर्श का आधार तथा अविस्मरणीय जन- माध्यम सिनेमा अपने हर रूप व प्रस्तुति में प्रभावशाली माध्यम है। गीत-संगीत के क्षेत्र में उसने अनेक पड़ाव पार करके विशिष्ट शैलियों व प्रारूपों से जन-मानस को झंकृत कर अदभुत मुकाम पा लिया है

संदर्भ :

  1. सिनेमा और साहित्य : हरीश कुमार : पृ. 1
  2. वहीं : पृ.5
  3. मीडिया समग्र :जनमाध्यम और मास-कल्चर : जगदीश्वर चतुर्वेदी : स्वराज प्रकाशन : पृ.292
  4. वहीं : पृ.293
  5. भारतीय हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा का एक मूल्यांकन : देवेंद्रनाथ सिंह, वीरेंद्र सिंह यादव: पृ.9
  6. वहीं : पृ. 12
  7. वहीं : पृ. 6
डॉ. माला मिश्रा
एसोसियट प्रोफेसर,अदिति महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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