हिंदी साहित्य का प्रारंभ एवं विकास निरंतर मिथकों से जुड़ा प्रतीत होता है । समय समय पर मिथकों की उपज साहित्य को नव आयामों से विभूषित करती रही है । अमूर्त सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने के लिए मिथक हमेशा कवियों के सम्बल बने हैं । हिंदी साहित्य का कोई भी युग मिथकीय चेतना से अछूता नहीं रहा है । हिंदी साहित्य के आदिकालीन रासो ग्रंथों में नारी के सौन्दर्य पिपासू राजाओं के परस्पर युद्ध का वर्णन है । यह तद्युगीन राजनैतिक परिवेश का प्रभाव था । किन्तु दूसरी और पुराकथा से प्रभावित साहित्य की धारा  प्रवाहमान बनी रही । बौद्ध धर्म के बज्रयान तत्व का प्रचार सिद्धों के साहित्य में मिलता है ।

पूर्व मध्यकाल तक पहुँचते-पहुँचते  सिद्ध और नाथों की रचनाओं ने संत काव्य धारा का रूप धारण कर लिया । उन्होंने हर भाव और क्रिया को तर्क की कसौटी पर कस कर ग्रहण किया । अतः वे निर्गुण ब्रह्म्परक ज्ञानाश्रयी कवि भक्त कहलाये । निर्गुण प्रवर्तक कवि होते हुए भी कबीर मिथक कथाओं से अलग नहीं रह पाए । कबीर ने प्रह्लाद तथा नरसिंह अवतार की पौराणिक गाथा के माध्यम से मानव मन में सर्वशक्ति संपन्न ब्रह्म के प्रति आस्था का बीज बोने का यत्न किया । उनका अवतारवाद में तनिक भी विश्वास नहीं था, तथापि वे मिथकों से अछूते नहीं रह पाए । विष्णु की महत्ता स्वीकार करते हुए उनके चरण से उत्पन्न गंगा की कथा भी कबीर ने ग्रहण की।  विष्णु की नाभि से कमल निकला जिस पर ब्रह्मा का जन्म हुआ इसका उल्लेख भी उनके ग्रन्थ में मिलता है –

‘जाके नाभि पद्म सु उदित ब्रह्मा चरण गंग तरंग रे

कहै कबीर हरि भगति भाऊ जगत गुरु गोबयंद रे’1

कबीर ने इंद्र नारद कृष्ण उद्धव अक्रूर आदि अनेक मिथकीय पात्रों पर लिखा है । यद्यपि वे निर्गुण पंथी थे, अवतारवाद से लेकर मूर्तिपूजा तक से उनका वैचारिक विरोध था । तथापि मदन आदि मिथकीय पात्रों पर उन्होने लिखा –

‘इही बनी बाजे मदन मेरी रे, उही बनि बाजे तूरा रे
इही बनि खेले राही रुकमनी, उही बनी कांह अहीरा रे’2

सूफी काव्य परंपरा में हम देखते हैं कि राजा रत्नसेन पद्मावती का सौन्दर्य वर्णन सुनकर  मूर्छित हो जाता जाता है । जायसी कहते हैं कि उसका ठीक होना तभी संभव है जब उसे पद्मावती का सानिध्य प्राप्त होगा । राम काव्य में लक्ष्मण मूर्छा का उपचार संजीवनी थी । राजा रत्नसेन की मूर्छा भी पद्मावती रुपी संजीवनी ही दूर कर सकती है । यहाँ मिथक का प्रयोग एक बिम्ब प्रस्तुत करने के लिए किया गया है –

‘है राजही लश्वन के करा,  सकती बान माहा है परा

नहीं सो राम, हनिवत बड़ी दूरी। को ले आव संजीवनी मूरी’3

पूर्व मध्यकालीन सगुण भक्ति साहित्य मिथकीय प्रभाव से पूर्णरुपेण आच्छादित रहा है । वाल्मीकि रामायण रामभक्ति का उत्स ग्रन्थ बन बैठा । तुलसीदास का मानस इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है । उन्होंने रामचरित मानस , रामलला नहछू, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, आदि काव्यों की रचा की ।  तुलसी ने ‘राम को विष्णु ब्रह्मा रघुपति जानकीनाथ आदि नामों से याद किया है ।’4  इष्ट देव का प्रत्येक नाम किसी न किसी मिथक से जुड़ा हुआ है ।

रामभक्त तुलसी के मिथक विषयक मोह का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि वे रामचरित की गाथाओं तक ही सीमित नहीं रहे अपितु उन्होंने ‘विष्णु के अवतार कृष्ण से सम्बद्ध पुराकथाओं को भी अंकित किया है ।’5

परशुराम  विश्वामित्र हनुमान बाली सुग्रीव कुम्भकर्ण कुबेर आदि से सम्बद्ध प्रचलित समस्त मिथकों का प्रयोग तुलसी के काव्य में मिलता है । इनके माध्यम से उन्होंने शील मर्यादा लोकमंगल और सामंजस्य का भाव जगाकर मानव मन को दृढ़ करने का अपूर्व प्रयास किया है । रावण राम से शत्रुता करते हुए भी स्वर्गामी हो गया । कंस कृष्ण के हाथों मारे जाने के कारण स्वर्ग प्राप्त कर पाया। कालिया कृष्ण के संपर्क में आकर शापमुक्त हो गये । इस प्रकार की मिथक कथाएं सिद्ध करती हैं कि परम तत्व के किसी भी रूप को अपनी भौतिक इच्छाओं का आलंबन बना लेने से मनुष्य वही गति प्राप्त करता है, जो भक्त किसी भी प्रकार की भक्ति से कर सकता है ।

भक्तिकाल में ही सगुण भक्ति शाखा में कृष्ण भक्ति शाखा के महत्वपूर्ण कवि हुए हैं सूरदास जिनका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है – सूरसागर “सूरसागर में शंख्चूड, मुष्टिक, धेनुक, कंस, कपि विप्र, गीध आदि के मिथक शत्रु का नाश करने वाले कृष्ण के रूप को उजागर करते हैं ।’’6  भक्त के आर्तनाद को सुनकर वरदहस्त बढ़ाने वाले कृष्ण से जुड़े प्रायः सभी मिथक सूर के काव्य में मिलते हैं ।

रीतिकाल में कृष्ण काव्य धारा के विभिन्न रूपों से सम्बद्ध अनेक कवियों का प्रादुर्भाव हुआ । कृष्ण की गाथा में प्रेम, श्रृंगार और विलास का समावेश अधिक मात्रा में हुआ है । कृष्ण भक्त कवियों के साथ-साथ  रीतिबद्ध रीतिसिद्ध रीतिमुक्त कवियों ने भी राधा और कृष्ण की मिथकीय कथा को ग्रहण किया है ।

हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का आरम्भ भारतेंदु काल अथवा पुनर्जागरण काल से हुआ । रीतिकालीन विलास और पांडित्य के प्रपंच से निकलकर साहित्यकार भारत के सामाजिक सांस्कृतिक अथवा राजनैतिक परिवेश का आमूल परिवर्तन कर डालना चाहते थे । राष्ट्रीय प्रेम उनकी सबसे मुखर प्रवृति थी । ऐसे समय में मिथक कथाएं ऐसे चौराहे पर पहुँच गयी थी,जहाँ से अनेक मार्गों की और बढ़ा जा सकता था । और वे सभी दिशाओं में आगे भी बड़ी । अभी तक मिथक केवल काव्य के ही विषय बने थे किन्तु अब गद्य में भी मिथकों ने अपना स्थान बना लिया था। “रामकथा पर आधारित नाटकों में देवकीनंदन खत्री लिखित सीता हरण राम लीला, शीतला प्रसाद त्रिपाठी रचित रामचरितावली आदि विशेष महत्वपूर्ण कृतियाँ मानी जाती हैं ।”7 भारतेन्दुयुगीन लेखकों ने राम और कृष्ण  के अतिरिक्त अन्य पौराणिक गाथाओं को भी ग्रहण किया ।

द्विवेदी युगीन साहित्य में भी मिथकों पर खूब लिखा गया है । इस युग में राम कृष्ण तथा अन्य पौराणिक सन्दर्भों ने एक नया मोड़ ले लिया । काव्य के क्षेत्र में मिथकीय चेतना का अनेक मुखी विकास हुआ । परम्परागत पूज्य भावना के आलंबन मिथकीय पात्रों का सहज सामाजिक मनुष्य  के रूप में अंकन किया गया । इस प्रकार के तथ्यों ने मिथकों का रूप ही बदल डाला । अयोध्या सिंह उपाध्याय ने कृष्ण चरित को एक नया रूप प्रदान किया । परंपरा के कृष्ण विरह में रोती राधा प्रिय प्रवास में समाज सेविका बन गयी । वह समाज के त्रस्त वर्ग के कष्ट विमोचन की प्रक्रिया में अपना दुःख भुलाने का प्रयास करने लगी । हरिऔध ने कृष्ण कथा में अपने युग की प्रासंगिकता का समाहार बहुत पटुता से किया है । यशोदा पुत्र विरह से तप्त है –

‘प्रतिपल हम देखना चाहते श्याम को थे ।

छन छन सुधि आती श्यामली मूर्ति की थी ।”8

दूसरी ओर कृष्ण की प्रेयसी राधा हर प्राणी के दुःख को आत्मसात कर समाज सेवा में जुट जाती है । पवन को अपना दूत बनाकर उसे कृष्ण तक विरह जन्य पीड़ा का सन्देश पंहुचाने के लिए भेजती है, पर तब भी समाज का दुःख उसे अधिक महत्वपूर्ण जान पड़ता है ।

‘जाते जाते अगर पथ में क्लांत कोई दिखावे

तो जा के सन्निकट उसकी क्लांतियों को मिटाना”9

महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकालीन कवियों में मिथकीय प्रवाह को संवारने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य मैथिलीशरण गुप्त ने किया उनके मिथकीय प्रबंध काव्य की एक लम्बी तालिका है, जिसमे मुख्य रूप से नुहुष, जयद्रथवध, पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, विष्णुप्रिया, उल्लखेनीय हैं । परम्परागत प्रत्येक मिथक को उन्होंने एक नए रूप में प्रकट किया है । महात्मा बुद्ध की यशोधरा का चरित्रांकन उनकी अपनी मौलिक कल्पना है । गुप्त जी ने यशोधरा का चित्रण एक मेधावी चिंतनशील नारी के रूप में किया है ।

‘आओ परिभव में भाव विभाव भरें हम,

डूबेंगे नहीं कदापि तारें न तारें हम’10

पंचवटी की सीता लक्ष्मण से चुहुल करती सहज नारी के रूप में अंकित है । मैथिलीशरण गुप्त की मिथकीय चेतना बड़ी मुखर थी उनके हृदय में एक ओर अपने युग की प्रासंगिकता का मोह था तो दूसरी और भारतीय संस्कृति का आग्रह था । इस सन्दर्भ में वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं-  ‘‘यह देखकर आश्चर्य होता है कि किस प्रकार नए विचारों का उजाला गुप्त जी ने अपने काव्यों में प्राचीन ठाठ से भरा है । उन्होंने न केवल उदात अतीत के गीत गाये हैं, बल्कि वे आगे आने वाले और भी अधिक उदात जीवन का उत्कंठित आलिंगन करते हैं ।”11  इन सब के अतिरिक्त मैथिलि शरण गुप्त ने साकेत में सीता एवं राम के मिथक को बिल्कुल नए रूप में प्रस्तुत कर के एक नया रास्ता इजाद किया है ।

इसके उपरांत छायावादी कवियों ने भी मिथकीय कथाओं एवं चरित्रों पर लिखकर मिथकों की पुनः सृजना की है । जिसमे जयशंकर प्रसाद,  सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, बालकृष्ण शर्मा नवीन मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं ।

जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी सृष्टि रचना के मिथक पर आधारित होते हुए भी सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक परिवेश से जुड़ा हुआ जान पडता है । कवि ने प्रलय का मूल कारण देवों के विलास को माना है । इस तथ्य की अभिव्यक्ति चिंता के माध्यम से की है –

‘वे सब डूबे डूबा उनका

विभव बन गया पारावार

उमड़ रहा था देव सुखों पर

दुःख जलधि का नाद अपार’12

डॉ रमेश कुंतल मेघ कामायनी के मिथक के सन्दर्भ में लिखते हैं -“कामायनी में प्रसाद ने सामाजिक जीवन के तनावों और समस्याओं को आर्केटाईपल बिम्बों में गर्भित करके मानवता के सत्य की तलाश की है । इसी अन्वेषण के सामानांतर प्रयुक्त मिथक के भी नए-नए आयाम उदघाटित हो गये हैं । मिथकीय प्रतीकीकरण की यह प्रक्रिया कामायनी में रूपक तत्व के उपक्रम से उदघाटित हुई है ।”13

प्रगतिवाद के महत्वपूर्ण कवि रामधारी सिंह दिनकर ने महाभारत के पात्रों को ही अपने काव्य का आधार बनाया है । कुरुक्षेत्र नामक काव्य में कौरव पांडव नामक युद्ध का वैचारिक विन्यास है । दिनकर ने द्वितीय महायुद्ध के परिप्रेक्ष के समस्त मिथक को देखा है । एक आदर्श वीर योद्धा की स्थापना करने के लिए रश्मिरथी काव्य की रचना की । प्रस्तुत काव्य का नायक कर्ण है । कर्ण की चारित्रिक गरिमा को प्रकाश में लाने वाला यह प्रथम काव्य है । जीवन के आरम्भ में परिस्थिति वश सामाजिक विमुखता झेलता कर्ण सूतपुत्र के रूप में भी एक अद्वितीय  वीर योद्धा बन बैठा । जीवन विषमताओं से अकेले जूझने वाला कर्ण कवच कुंडल का दान देने में भी नहीं झिझका । कर्ण के व्यक्तित्व को उजाकर कर दिनकर ने सामाजिक विषमता से जूझने की प्रेरणा प्रदान की है । कर्ण के चरित्र के माध्यम से वर्तमान युग की अनेक संवेदनाओं को पाठकों के सम्मुख उदघाटित किया है –

“मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे

पूछेगा जब किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे

जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा

नाम से नहीं विमुख होंगे जो दुःख से नहीं डरेंगे ।”14

जो काम गुप्त जी ने साकेत के माध्यम से किया है वही काम  बालकृष्ण शर्मा नवीन ने उर्मिला नामक काव्य में उपेक्षित उर्मिला का सुन्दर चरित्रांकन किया है । इस सन्दर्भ में नूरजहाँ बेगम लिखती हैं – “नवीन जी ने उर्मिला की चितवृतियों को जिस कौशल से उभारा है, वह वास्तव में सराहनीय है । उन्होंने स्वयुगीन चेतना, विश्व बंधुत्व, भारतीय संस्कृति, नारी उत्थान आदि को बहुत सुन्दर ढंग से उर्मिला में समाविष्ट किया है ।”15

इसके अतिरिक्त मिथक कथाओं पर आधारित अन्य रचनाएँ भी हमें देखने को मिलती हैं । एक ही कथा को कवियों ने भिन्न भिन्न रूप देकर नया आयाम प्रदान किया है ।

रामकथा की महत्वपूर्ण पात्र कैकयी को विषय बनाकर अनेक काव्यों की रचना हुई है । प्रायः सभी कवियों ने मनोवैज्ञानिक स्तर पर उसे दोषमुक्त स्वरुप प्रदान करने का प्रयास किया है । इसके मूल में आधुनिक काल में नारी उत्थान की प्रवृति है । केदार नाथ मिश्र प्रभात ने कैकयी नामक काव्य में राम वन गमन सन्दर्भ को एक नया रूप प्रदान किया है ।  केदार जी ने कैकयी को वीरांगना विदुषी तथा वात्सल्यमयी आदर्श नारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है ।16

धर्मवीर भारती ने कनुप्रिया में राधा के प्रेम संवेदना को आधुनिक रूप दिया है । विरहिणी राधा संयोग के क्षणों को नितांत व्यक्तिगत बीती घड़ियाँ मानकर स्मृति में संजो लेती हैं । तथा उन्ही के सहारे अपना स्थान खोजती हैं । नारी की विराहजन्य पीड़ा में जिस गहनता का अंकन कनुप्रिया में हुआ है, वह दृष्टव्य है –

“मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर

तुम्हारी प्रतीक्षा में

अडिग खड़ी हूँ कनु मेरे”17

नरेश मेहता के काव्य संशय की एक रात में मानवीय स्तर पर राम रावण युद्ध से पूर्व की स्थिति का मनोवैज्ञानिक अंकन है । यही प्रयोग हमें राम की शक्तिपूजा में देखने को मिलता है । दुष्यंत कुमार  का काव्य ‘एक कंठ विषपायी’ दक्ष यज्ञ तथा सती के मिथक पर आधारित है ।  वैभवशाली दक्ष अपनी पुत्री के प्रणय से दुखी है । कारण शिव का सीधा-साधा व्यक्तित्व है । बाह्य दिखावे से दूर नंदी की सवारी करता पर्वत गुहा में रहने वाला व्यक्ति उसका दामाद बन गया । शिवेतर समस्त देवों को आमंत्रित कर वह शिव का निरादर करता है । अतः उसकी पुत्री सती हो जाती है । इस परंपरागत कथा में पात्रों का परस्पर वार्तालाप अधुनातन समाज से जुडा है । ‘एक कंठ विषपायी’ ने आधुनिकता का इतना सुन्दर जामा पहना है कि वह एकदम वर्तमान प्रतिक्रियाओं का प्रतिपादन करता है । सती के आत्मदाह से शिव के भटकाव तथा देवताओं की मन्त्रणाओं में से कोई भी वर्तमान प्रासंगिकता का आँचल नहीं छोड़ता –

‘मुझे पता

है इस त्रिलोक में

महादेव का एक कंठ केवल विषपायी

जिसकी क्षमताएं अपार हैं’18

इन सब के अतिरिक्त आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य में भी मिथकों को केंद्र में रखकर बराबर लिखा गया है । हिंदी में मिथक शब्द के निर्माता आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में मिथकीय उद्भावनाएँ यत्र-तत्र दिखलाई देती हैं । उनका चर्चित उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण उपन्यास है । मिथक कथाओं पर आधारित अनेक नाटक साहित्य में अद्वितीय स्थान संजोये हैं । जिनमे जयशंकर प्रसाद कृत जन्मेजय का नाग यज्ञ महत्वपूर्ण है ।  रामकुमार वर्मा का राजरानी सीता नामक एकांकी लंका की अशोक वाटिका में बैठी एकाकी सीता की मनोदशा का वैज्ञानिक चित्रण है –

डॉ शंकर शेष ने कोमल गांधार में भीष्म के चरित्र को लिया है और एक और द्रोणाचार्य में वर्तमान अध्यापक की स्थिति का सुन्दर चित्रण बड़ी निपुणता से किया है । हजारों वर्ष पूर्व मिथकों में जन्मे द्रोणाचार्य के रूपांकन में वर्तमान गुरु की प्रतिछवि ही दिखलाई पड़ती है ।

इस क्षेत्र में गद्य लेखकों में नरेंद्र कोहली का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । उन्होंने वाल्मीकि रामायण पर आधारित दीक्षा अवसर सघर्ष की ओर युद्ध (दो भागों की) रचना की । इस ग्रन्थ की महत्ता है कि राम कथा को यह अधुनातन परिवेश से बहुत सहजता से जोड़ता है । कोई अंश अस्वाभाविक एवं अप्रसांगिक नहीं लगता । अहल्या का पत्थर हो जाना समाज से बहिष्कृत हो जाना है । अहल्या की मुक्ति समाज में पुनः स्वीकृति का द्योतक है । इस प्रकार समस्त सन्दर्भों को नरेंद्र कोहली ने मनोवैज्ञानिक आधार पर विश्लेषित करने की कोशिश की है ।

भारतीय साहित्य में मिथक हमेशा नये नये रूप में साहित्यकारों द्वारा प्रयुक्त किये गये हैं । आधुनिक काल तक आते-आते वह बहुआयामी मनःस्थितियो का  आलंबन बन गया । नारी की महत्ता जाति-पाति अभेद, नैतिकता की रक्षा, वीरता निमित वह बिम्ब और प्रतीक के रूप में उभरा है ।  प्रयोगवादी विचारधारा के साहित्यकारों ने पुरानी लीक से हटकर नए मिथकों की  सर्जना की जिससे पात्रों का स्वरुप ही बदल गया । जिसमे दिनकर द्वारा रचित रश्मिरथी महत्वपूर्ण स्थान रखता है । कैकयी आदर्श विदुषी वीरांगना बन बैठी, साकेत इसका अप्रतिम उदाहरण है । और कौशल्या अपने पुत्र के  प्रेम में लीन नारी । प्रियप्रवास में  राधा समाज सेविका की प्रतीक बन गयी तो साकेत में  उर्मिला लक्ष्मण के विरह में अकुलाने लगी ।  हिंदी साहित्य के आदिकाल से आधुनिक कल साहित्य तक कोई भी अंश मिथकीय साहचर्य से दूर नहीं रह पाया । हृदय व बुद्धि का कोई भी आयाम ऐसा नहीं है, जहाँ मिथक कथाओं की पहुँच न हो । मिथक वह शक्ति है ओज है भावबोध है, जिसकी साहित्य में उपादेयता को शब्दबद्ध कर पाना सरल नहीं है ।

सन्दर्भ -:

  1. कबीर, द्विवेदी, प्रसाद हजारी, राजकमल प्रकाशन,संस्करण 2014 पृष्ठ, 208
  2. वहीं, 206
  3. पद्मावत, जायसी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या, 41
  4. रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस, पृष्ठ संख्या 54
  5. कृष्ण गीतावली,गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस
  6. सूरसागर, सूरदास,
  7. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में मिथक, सिंह प्रतिभा,ग्र्न्थलोक प्रकाशन, संस्करण 2008, पृष्ठ 18
  8. प्रिय प्रवास, उपाध्याय,हरिऔध सिंह अयोध्या, लोक भारती प्रकाशन, संस्करण 2014 पृष्ठ संख्या 88
  9. वही, पृष्ठ संख्या 70
  10. यशोधरा , शरण मैथिलि गुप्त, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण, 2008 पृष्ठ संख्या 57
  11. मैथिलि शरण गुप्त, कवि और भारतीय संस्कृति के आख्याता, अग्रवाल शरण वासुदेव, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 24
  12. कामायनी, प्रसाद जयशंकर, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2011पृष्ठ संख्या 21
  13. मिथक और स्वप्न, कुंतल, रमेश मेघ, राधाकृष्ण प्रकाशन संस्करण 2007 पृष्ठ संख्या 105
  14. रश्मिरथी, दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2016, पृष्ठ संख्या 40
  15. पुराख्यान का आधुनिक हिंदी काव्यों पर प्रभाव, बेगम नूरजहाँ, समता प्रकाशन कानपुर देहात पृष्ठ संख्या 80
  16. कैकयी, प्रभात,मिश्र केदारनाथ, राजपाल एंड संस,
  17. कनुप्रिया, भारती धर्मवीर, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 2012, पृष्ठ संख्या 79
  18. एक कंठ विषपायी, कुमार दुष्यंत, वाणी प्रकाशन,संस्करण, 2012 पृष्ठ संख्या, 64

राहुल प्रसाद
शोधार्थी
गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय
 गुजरात

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