साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि इस नज़रिए से सिनेमा को देखा जाए तो सिनेमा को समाज की अन्तर्शिराओं में बहने वाले रक्त की संज्ञा दी जा सकती है। प्रारम्भ से ही सिनेमा ने समाज पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रभाव छोड़े हैं। भारत की पहली फिल्म सत्य हरिश्चन्द्र देखकर बालक मोहनदास करमचंद गांधी रो पड़े थे और ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सत्यनिष्ठा से प्रेरित होकर उन्होंने आजीवन सत्य बोलने का व्रत ले लिया था। वास्तव में इस फिल्म ने ही उन्हें मोहनदास से महात्मा गांधी बनने की दिशा में पहला कदम रखने हेतु प्रेरित किया था। स समाज, न नवीन, म मोड़ अर्थात् सिनेमा ने समय-समय पर समाज को नया मोड़ देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। साहित्य ने भी समाज के इस महत्त्वपूर्ण दृश्य-श्रव्य माध्यम के पुष्पन-पल्लवन में अपना योगदान यदि हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ, तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई। ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भक्त प्रह्लाद’, ‘लंका दहन’, ‘कालिय मर्दन’, ‘अयोध्या का राजा’, ‘सैरन्ध्री’ जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मिक ग्रंथों की कथाओं का अंकन थीं।

भारत गांवों का देश है | गांवों में ही हमारी लोक कला और लोक संस्कृति की पैठ है | लेकिन गांवों के शहरों में तब्दील होने के साथ-साथ हमारी लोककलाएं भी लुप्त होती जा रही हैं | इन्हीं में से एक है लोक संगीत | संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है | संगीत के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर करना भी बेमानी लगता है | संगीत को इस शिखर तक पहुंचाने का श्रेय बोलती फिल्मों को जाता है | इससे पहले फिल्मों में संगीत का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन तकनीकी तौर पर रिकॉर्ड नहीं बनाए जा सकते थे | फिल्मों में संगीत की शुरुआत 1931 में बनी फिल्म आलम आरा से हुई | यह देश की पहली बोलती फिल्म थी | फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुए पहली बार रिकॉर्ड मशीन का इस्तेमाल किया | यह फिल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई | फिल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि पुलिस को भीड़ पर क़ाबू पाने के लिए मदद बुलानी पड़ी थी | इसका संगीत फिरोज़ मिस्त्री ने दिया था | इसमें आवाज़ देने के लिए उस व़क्त तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया | फिल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव अर्देशिर ईरानी ने किया था | गीतों के चुनाव के बाद उनके फ़िल्मांकन की समस्या रही होगी | उसकी कोई मिसाल ईरानी के सामने नहीं थी और न ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था | सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फिल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफ़ी मुश्किल था | इस फिल्म में स्वर देकर डब्ल्यू ए खान पहले स्वर देने वाले गायक बने | अ़फसोस की बात है कि इस फ़िल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके | फ़िल्म में कुल सात गाने थे | इनमें से एक गीत फ़क़ीर का किरदार निभाने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था | गीत के बोल थे-दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त है अगर देने की | यह हिंदी सिनेमा का पहला गाना था | एक और गाने के बारे में एलवी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है-वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था | इसके बोल थे-बलमा कहीं होंगे |

इन फिल्मों का धार्मिक और आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक उद्देश्य भी था। चौथे दशक से फिल्मों में सामाजिक कथाओं की भी आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा और इसके लिए समकालीन साहित्य के रचनाकारों की ओर देखना लाज़मी हो गया। नतीजा यह हुआ कि सिनेमा को मण्टो का साथ लेना पड़ा। मण्टो की लेखनी से ‘किसान कन्या’, ‘मिजऱ्ा गालिब’, ‘बदनाम’ जैसी फि़ल्में निकलीं। प्रेमचंद और अश्क भी इस दौर में सिनेमा से जुड़े और मोहभंग के बाद वापस साहित्य की दुनिया में लौट गए। बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, मनोहरश्याम जोशी, अमृतलाल नागर, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, रामवृक्ष बेनीपुरी, भगवतीचरण वर्मा, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा, नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, हरिवंशराय बच्चन, कैफी आज़मी, शैलेन्द्र, मज़रूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी इत्यादि ने भी समय-समय पर हिन्दी सिनेमा में किसी न किसी रूप में अपनी आमद दर्ज कराई। अनेक हिन्दी, उर्दू तथा बांग्ला की कालजई रचनाओं पर भी फिल्में बनाई गईं और उनमें साहित्य की आत्मा डालने की कोशिशें की गईं। वास्तव में आठवें दशक तक सिनेमा ने हिन्दी-उर्दू में कोई फर्क ही नहीं माना। उर्दू के अफसानानिग़ार मण्टों की कहानी पर बनी फिल्म ‘अछूत कन्या’ सुपरहिट साबित हुई। बांग्ला लेखक शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ पर हिन्दी में चार फिल्में बनीं और कमोबेश सभी सफल रहीं। प्रेमचन्द की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर सत्यजीत रॉय ने इसी नाम से फिल्म बनाई, जो वैश्विक स्तर पर सराही गई। भगवतीचरण वर्मा के अमर उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर भी फिल्में बनीं, जिनमें एक सफल रही। बाद में साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों को आर्ट फिल्मों के खांचे में रखकर इनका व्यावसायिक और हिट फिल्मों से अलगाव कायम करने का प्रयास किया गया, जिससे ऐसी फिल्मों का आर्थिक पहलू प्रश्नचिह्नांकित हो गया और फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से परहेज करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘एंग्री यंग मैन’ युग आ गया और यथार्थ से कटी हुई अतिरंजनापूर्ण ‘अमिताभीय’ फिल्मों का दौर आ गया। मैं इस दौर को हिन्दी सिनेमा का ‘अंधकार युग’ मानता हूँ, जिससे हमें नवें दशक में आकर मुक्ति मिल सकी। यह युग वस्तुतः समाज की सोच, उसकी आकांक्षाओं एवं उसके स्वप्नों से कटा हुआ था और इसमें आम जनता की सहभागिता नगण्यप्राय थी। इन फिल्मों के अर्थ-दृष्टि से सफल होने का बड़ा कारण यह था कि अमिताभ के ‘लार्जर दैन लाइफ’ अवतार में तल्लीन तत्कालीन युवा वर्ग को अपनी समस्याएँ तीन घण्टे के लिए ही सही खत्म होती दीखती थीं। ऐसे में बाकी समाज की उन्हें न तो ज़रूरत थी और न ही उसकी कोई आर्थिक उपयोगिता थी। इस नैराश्यपूर्ण दौर में समाज और साहित्य को तो हाशिए पर रहना ही था। हालांकि अमिताभीय युग में भी सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, कमाल अमरोही, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, एम. एस. सत्थू, एन. चंद्रा, मुजफ्फर अली, गोविन्द निहलानी, आदि ने अपने-अपने स्तर से साहित्य, सिनेमा और समाज का त्रयी में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन ये सभी चाहे-अनचाहे ‘आर्ट सिनेमा’ में बँधने को बाध्य हुए। एक कारण और भी था कि इस दौरान साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्में एक-एक कर असफल होने लगी थीं। प्रेमचंद की रचनाओं पर बनीं ‘गोदान’, ‘सद्गति’, ‘दो बैलों की कथा’, फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास पर बनी ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी की रचनाओं पर आधारित ‘यही सच है’, ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’, शैवाल की कहानी पर आई फिल्म ‘दामुल’, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी पर आधारित ‘उसने कहा था’, संस्कृत की रचना ‘मृच्छकटिकम्’ पर आधारित ‘उत्सव’, राजेंदर सिंह बेदी के उपन्यास पर बनी ‘एक चादर मैली सी’ आदि का असफल होना सिनेमा और साहित्य से दूरी की एक बड़ी वजह बन गया। इसके कारण समाज से भी फिल्मों की दूरी बढ़ने लगी।  हालांकि इन फिल्मों के फ्लॉप होने की अन्य कई वजहें थीं लेकिन यह मिथ्या धारणा फिल्मकारों के मन में घर कर गई कि साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों का आर्थिक महत्त्व नहीं है। यद्यपि कमलेश्वर को फिल्म जगत में काफी सफलता मिली लेकिन एक साहित्यिक लेखक न होकर जब वे फॉर्मूलाबद्ध कथानक रचने लगे, तभी उनकी फिल्में सफलता का स्वाद चख सकीं और निर्देशकों ने उनकी कहानियों पर फिल्में बनाईं। ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘राम-बलराम’, ‘सौतन’ आदि उनकी फिल्में कहीं से भी साहित्य के चौखटे में फिट नहीं होतीं। यहाँ एक तथ्य यह भी महत्त्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य है कि हिन्दी फिल्म जगत में जितनी सफलता कवियों और शायरों को मिली, उतनी सफलता कथाकारों को नहीं मिल सकी। इसका एक कारण यह हो सकता है कि कथाकारों की कथा का कैनवॉस अत्यधिक विस्तृत होता है और इनमें ‘शब्दों की महत्ता’ सर्वोपरि होती है, जबकि सिनेमा में ऐसा नहीं होता। सिनेमा को अपने समूचे विस्तार को दो से तीन घण्टों के भीतर दृश्यों के माध्यम से समेटना होता है और यहाँ शब्द से अधिक महत्त्वपूर्ण ‘अभिव्यक्ति’ और ‘प्रस्तुति’ होती है।

नाटक के चारों अवयव – वाचिक, सात्त्विक, कायिक और आहार्य सिनेमा में आकर शब्दों, अलंकारों पर भारी पड़ने लगते हैं। सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम है और साहित्य पाठ्य माध्यम। यह अन्तर न समझ पाने वाले लेखक अथवा फिल्मकार इस रास्ते पर चलकर असफलता का स्वाद चखते हैं। फिल्मी नज़रिए से नाटक और एकांकी ही सिनेमा के सबसे नज़दीकी सम्बन्धी दिखाई देते हैं। वहीं कवियों और शायरों के लिए ऐसी कोई बन्दिश है ही नहीं। उन्हें तो किसी ‘सिचुएशन’ के मुताबिक गीत या गज़ल भर लिखनी होती है और सिनेमा के अन्य ज़रूरी आयामों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता।

साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों पर गुजराती फिल्म समीक्षक बकुल टेलर ने बेहद सारगर्भित टिप्पणी की है। उनका कहना है, “साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्म अपने आप अच्छी हो, ऐसा नहीं होता। वास्तविकता यह है कि साहित्यिक कृति का सौन्दर्यशास्त्र और सिनेमा का सौन्दर्यशास्त्र अलग-अलग हैं और सिनेमा सर्जक भी साहित्यकृति के पाठक रूप में साहित्यिक आस्वाद तत्वों पर मुग्ध होकर उनका सिनेममेटिक रूपांतरण किए बगैर आगे बढ़ जाते हैं।

साहित्यकारों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि वे प्रायः बन्धनों में बँधकर सृजन करना पसन्द नहीं करते। यही कारण है कि वे सिनेमा में जाने से दूर भागते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें फिल्म के निर्माता अथवा निर्देशक के दबाव में कहानी में बदलाव करने पड़ सकते हैं। दूसरी समस्या पटकथा लेखकों की है। वे अक्सर अतिनाटकीयता और अतिरंजना को ही फिल्मों की सफलता की एकमेव कसौटी मान लेते हैं। इसका सबसे भोंडा उदाहरण टी.वी. धारावाहिक ‘चन्द्रकान्ता’ का है, जिसमें अतिनाटकीयता और अतिरंजना को बढ़ाने के लिए बाबू देवकीनंदन खत्री के मूल उपन्यास की आत्मा ही नष्ट कर दी गई। एक अन्य बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश साहित्यकार फिल्म निर्माण के विभिन्न तकनीकी पहलुओं से प्रायः अनभिज्ञ होते हैं और वे कैमरे की ज़रूरत के मुताबिक कथ्य दे पाने में असफल हो जाते हैं। नवें दशक में आई भूपेन हजारिका की फिल्म ‘रूदाली’ ने समाज, साहित्य और सिनेमा की त्रयी को ‘आर्ट सिनेमा’ के सीमित सांचे से बाहर निकालने में अहम् भूमिका निभाई और इस धारणा को पुनः स्थापित किया कि साहित्य से जुड़ी हुई और समाज का वास्तविक अंकन करने वाली फिल्में भी हिट हो सकती हैं बशर्ते उनमें निहित साहित्यिक संवेदनाओं का सिनेमाई रूपांतरण सफलतापूर्वक किया जाए। बाद में ‘परिणीता’ और ‘थ्री ईडिएट’ जैसी फिल्मों ने इसी धारणा को पुष्ट किया। ‘मोहल्ला लाइव’ कार्यक्रम में अनुराग कश्यप जैसे आज के दौर के फिल्मकार तो यह बात कहने में नहीं हिचके कि हिन्दी का अधिकांश लेखन फिल्मों की दृष्टि से अनुपयोगी है और समकालीन लेखक सिनेमा की ज़रूरतों के मुताबिक लेखन कार्य नहीं कर रहे हैं। कमोबेश यही राय निर्देशक सुधीर मिश्रा और फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की भी है। हमें ऐसी चुनौतियों को गम्भीरता से लेना होगा और साहित्य जगत को अपने भीतर से ऐसे साहित्यकार पैदा करने होंगे, जो फिल्म लाइन की बारीकियों की जानकारी रखते हों और चित्रपट की आवश्यकताओं के मुताबिक पटकथा लेखन करने में सक्षम हों, वरना हम हॉलीवुड की फिल्मों की घटिया नकल और बासी रीमेक फिल्मों अथवा पुरानी कहानियों की भोंडी पुनर्प्रस्तुतियों को देखने के लिए अभिशप्त |

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प्रो. माला मिश्र
दिल्ली विश्वविद्यालय

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