साहित्य अपने सर्जक के देशकाल जनित अनुभवों की अभिव्यक्ति होता है। उसकी समकालीनता ही उसे शाश्वतता प्रदान करती है। साहित्य की अन्यविधाओं कीअपेक्षा कविता में यह अधिक समग्रता से रूपायित होता है। ‘समकालीन हिंदी कविता और उसका परिदृश्य विषय को विवेचित करने से पूर्व ‘समकालीन’ और ‘परिदृश्य’ बिंदुओं का स्पष्टीकरण अपेक्षित है।वस्तुतः  समकालीनता एक जीवन दृष्टि है तथा परिदृश्य वह संवेदनात्मक भूमि है जिस पर साहित्यकार अपने परिदृश्य को आंकलित करता है। मध्ययुगीन साहित्यकार राजनीति से सीधा जुड़ावना होने के कारण उससे अधिक प्रभावित नहीं होता था। 1947 के पश्चात जनता के सुनहरे भविष्य के सपने चूर-चूर हो गए किंतु उसकी राजनीतिक चेतना अधिक मुखर हुई। जहां आज का हर व्यक्ति स्वयं मे नेता बनने की योग्यता पाता है वहीं एक संवेदनशील और प्रबुद्ध नागरिक के रूप में राजनीति से सर्वाधिक प्रभावित भी होता है। 1990 के पश्चात उपजीवामपंथी , दक्षिणपंथी, साम्यवादी व समाजवादी परस्पर विरोधी विचारधाराओ में से किसी एक का चुनाव उसके लिए दुश्वार हो जाता है।’ जिसकी लाठी उसकी भैंस ‘के अनुसार सत्तारुढ दल ही  समाज का नेतृत्व और उसकी नीतियों का निर्धारण करता है। जिससे उसके पक्षधर लाभान्वित होते हैं और विरोधियों को हथियार डालने पड़ते हैं। दूर क्यों जाए , मार्क्सवादी विचारक मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा दृढ रहे पर नेमिचन्द्र जी की प्रतिबद्धता लडखडा गई। उनके समान धर्मी साहित्यकार भी वियतनाम, चेकोस्लोवाकिया और स्वदेशी राजनीति की ओ रझुकने लगे पर मित्रता की दुहाई देने वाले चीन के विश्वास घाती रूप से अवगत होने पर उसका विरोध करने में भी नहीं सकुचाए। डॉ नरेंद्र मोहन पाते हैं कि

   ‎” चुना हुआ रास्ता दाएं बाएं से पिचककर 
              ‎संकरा  होता जाता है दिनोंदिन 
              ‎संकरी इस राह पर 
घिसटते  हुए चलता हूं
दो अंधेरी गुफाओं को लांघते हुए्
‎दो जानवरों के बीच आ पड़ा हूं
‎********************
‎खत्म होता हूँ, मैं ही चुनता हूँ।”[1]

सब तरफ से हताश निराश होकर जब कवि प्रजातंत्र की तरफ हाथ बढ़ाता है तो उसे वहां भी निराश ही मिलती है।

सुश्री नीलम सिंह को प्रजातंत्र सर्वथा निशक्त लगताहै—

“प्रजातंत्र अपनी वीर्यहीन प्रकृति में विवश है
औरअसफल है सारी की सारी
‎ विरोधी पार्टियां” [2]

श्री चंद्रकांत देवताले देश की समता एक विकलांग बच्चे से करते हैं.(पोलियोग्रस्त बच्चे की सवारी).
‎ करवट बदलती राजनीति,पक्षीय-विपक्षी दलों की हिंसात्मक प्रतिस्पर्धा, हरिशंकरअग्रवाल को निराश और हताश कर देती है-

” एक छोटी सी इमारत केभीतर
‎पिट रहा है देश 
‎और मुंह तक जाने के लिए 
‎उनका होकर हाथ
‎ संसद में उठ रहा है 
‎कभी इस तरफ कभी उस तरफ
‎ जनसेवा के नाम पर शहीद हो रहा है।”[3]

‎सुरेश ऋतुपर्ण (प्रत्यावर्तन) लीलाधर जगूड़ी (रजत जयंती पर तुम्हारा हाथ और मैं) भी राजनेताओं की शक्तिसत्ता और निरंकुशता से बखूबी परिचित हैं।बलदेव बंशी, रमेश कुंतलमेघ तथा वेणुगोपाल उनके नर पिशाचत्व  को बेबाक निर्भीकता से उघारते हैं। श्री चंद्रकांत ने स्पष्ट किया है कि भारतीय राजनीतिज्ञ जिस भारतीय परिवेश को विगत ढाई वर्षों से चित्रित करने का प्रयास कर रहे हैं ,वह आज भी अधूरी है।

‎” एक ठहरे हुए दलदल की 
‎जाहिल और गवार हिंदुस्तान की
‎ किसी मतदाता की पीठ पर चढ़कर
‎ उसे घोड़े की तरह लतियातेहुए 
‎हांकते हुए….
‎ एक ठहरा हुआ नरक
‎ और उससे ऊपर उठी
‎चन्द इमारतें,गली चोंके ऊपर चमचमाती
‎ मेंजें…..
‎ पूरा हिंदुस्तान एक रोशगुल्ला
‎ और हड़प…”[4]

‎  राजनीति का सीधा प्रभाव जनता की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है।दुर्बल राजनीति, देश की आर्थिक समस्याओं के गुंझलको सुलझाने के बजाए और अधिक उलझा देती है। यथा अमीर- गरीब, ऊंच- नीच के भेदभाव को मिटाने का उद्घोषक ‘गरीबी हटाओ’ का नारा जितनी तेजी से उठा उतनी शीघ्रता से दब भी गया।नारा लगाने वाले नारे लगाकर चले गये, पर  उसे कार्य रूप में परिणत करने का दमखम, दृढ़ता और शक्ति उनके द्वारा उकसाए गए व्यक्तियों में नहीं थी। परिणामतः अमीर औरअमीर तथा गरीब और गरीब होता गया।अमीरों का खजाना सुरसा के मुंह की तरह फैल गया जबकि गरीबों की अस्मिता ढकने वाला चिथडा़- चिथडा़ लुगडी और छोटी होती गई।

विडम्बना तो  यह रही कि ध्यान खींचने पर नारे लगवाने वालों ने ही उक्त स्थिति से आजादी का दूर दराज का संबंध भी नहीं माना। उनकी दलीलो  में अपने सवालों का ठोस उत्तर ना मिलने पर समकालीन कवियों की बौखलाहट, आक्रोश और तीव्र व्यंग में फूट पड़ी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का व्यंग चित्र ‘गरीबी हटाओ’ पठनीय है-

“गरीबी हटाओ सुनते ही
उन्होंने एक बूढ़े आदमी को पकड़ लिया
जो उधर से गुजर रहा था 
‎और उसकी झुर्रियां गिनने लगे
‎ तेइस वर्ष बीतने के बाद
‎ जब वे हिसाब से भटक गए
‎ तब, उन्होंने फिर से शुरूआत की
‎ तब तक उनकी आंखों की रोशनी कम हो गई थी
‎भौंहों  पर सूरज डूब गया था
‎ उन्होंने बूढ़े से पूछा…
‎ क्या वह मशाल ला सकता है
‎ जब वह हिलाडुला नहीं
‎  एक तरफ को लुढ़क गया 
‎और वे आखिरकार उसे ही मशाल की तरह 
‎ले चलने की सोचने लगे 
‎तब उन्हें मालूम हुआ 
‎उनके कंधों पर सांस नहीं है
‎ और उन्हें मुर्दा गाड़ी का इंतजार करना है।”[5]

कवि का मारक व्यंग्य पाठक को मर्माहत  करता है।नवोदित,  पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति से अनुप्रेरित युवा वर्ग ने इस स्थिति को और दयनीय बनाया है। उनकी दशा में रत्तीभर भी सुधार नहीं हुआ। भारत की सभी भाषाओं में न्यूनाधिक रूप में रचाजाने वाला गद्य-पद्यात्मक दलित साहित्य अवश्य कुछ कवियों में सुगबुगाती सहानुभूति को व्यक्त करता है। मराठी कविता की यह एक पहचान अवश्य बन चुका है। वहां अस्पृश्यता, सामाजिक शोषण, अत्याचार और पक्षपात में पिसते दलितों की पीड़ाओं , कुंठाओं और समस्याओं को  उद्घाटित करने वाले दलित वर्ग के कवियों द्वारा प्रहारात्मक काव्य को दलित कविता कहा गया। यही आगे चलकर दो दिशाओं में विकसित हुई—बुद्ध के मानवतावाद से प्रभावित अंबेडकर की विचारधारा और दूसरी समाज के विश्लेषण से प्रभावित मार्क्सवादी विचारधारा। इन दोनों में परस्पर कोई विरोध नहीं है और ना ये किसी पार्टी विशेष से जुड़ी हैं। दलित कविता के रचयिता अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने या वाह वाही जीतने के लिए भी सृजन नहीं कर रहे हैं। श्री दिनकर सोनवलकर के अनुसार–
‎”विद्रोह इसमें भी है, लेकिन वह (दलित कविता) फैशनेबल, सुविधा भोगी, बुद्धिजीवियों का शगल नहीं।…. दलित कविता की ताकत है जिंदगी के कड़वे अनुभव, कवियों केआंसू, खून –पसीने और उनके गुस्से से लिखी गई कविताएं।उनका नाता दलितों के यथार्थ से है। अपने अनुभव से वह गहरे से जुड़ी है, मसलन – मां (आई) का वर्णन इसमें भी है लेकिन वह वात्सल्य, प्रेम , लाड- प्यार लुटाने वाली मां नहीं है क्योंकि ऐसी असंख्य माताएंआज भी है जो रद्दी कागज, लकड़ी , बोतलें या लोहे के टुकड़े , बीन बीनकर अपना और बच्चों का पेट पाल रही हैं …।”[6]
दलित साहित्यकार मलखान सिंह बताते हैं कि आज दलित वर्ग का व्यक्ति अपने नाम, योग्यता से नहीं अपनी जाति से पहचाना जाता है जिसमें भगवान ने उसे जन्म दिया पर जिसका दण्ड उसे संभवतः पूरे जीवन भोगना होगा।

” मैं जिस देश में जहां भी रहता हूं 
आदमी मुझे नाम से नहीं जाति से पहचानते हैं
और जाति से सलूक करते हैं।” [7] 

‎ ‎यहां तक कि अपने गाँव  में रहते हुए भी वह आतंकित रहता है क्योंकि वहां भी उसकी जाति से भिन्न जाति के व्यक्ति उस से घृणा करते हैं , अपमानित और उत्पीड़ित करते हैं। उनका उत्पीड़न कब, क्यों और किस रूप में होगा यह भी मालूम नहीं होता क्योंकि वे साहूकार, जमींदार,  पटवारी होते हैं जो स्वयं भूउत्पीड़क  हैं।

‎” इस आदमखोर गांव में मुझे डर लगता है
‎ लगता है कि बस अभी ठाकुरा इसी भेड़ चीखेगी
‎ मै अधशौच से उठ जाऊंगा 
‎अभी बस अभी 
‎हवेली घुडकेगी
‎मैं बेगार में पकड़ा जाऊंगा 
‎कि अभी बस अभी बुलावा आएगा
‎ खुलकर खांसने के अपराध में 
‎प्रधान मुश्क बांध मारेगा
‎लटकवायेगा डकैतों मे सीख चोंके भीतर
‎  उम्रभर यहीं सडा़एगा।”[8]

अपनी जाति के लोगों के साथ नगरों में भी, अलग- अलग बस्तियों मे रहते हुए भी वह बेगाना जीवन  ही जी पाता है क्योंकि किसी व्यक्ति या वस्तु को अपना नहीं कह सकता। सभी अभावग्रस्त जीवन जीते हैं। दूसरों के सामने हाथ फैलाने के लिए बाध्य हैं। शिक्षित और योग्य होने पर भी उच्च पद पर नियुक्त नहीं हो सकते , ना उनके साथ उठ –बैठसकते हैं। उनके लिए गांव और नगर एक सा है। स्वयं दलित वर्ग से  संबंध रखने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि का, उनके जीवनानुभव पर आधारित चित्रदृष्टव्य है

‎” चूल्हा मिट्टी का 
‎मिट्टी तालाब की
‎ तालाब ठाकुर का।
‎भूख रोटी की 
‎रोटी बाजरे की
‎बाजरा खेत का
‎ खेत ठाकुर  का।
‎बैल ठाकुर के
‎ हल ठाकुर का
‎हल की मूठ पर हथेली अपनी।
‎फसल ठाकुर की
‎ कुआ ठाकुर का
‎ खेत खलिहान ठाकुर के।
‎ ‎गली मुहल्ले ठाकुर के
‎फिर अपना क्या?
‎गांव? देश?” [9]

भीड़ में रहते हुए नितांत अकेला समकालीन दलित कवि भी सबकी तरह जीना चाहता है।योग्य  होने पर सबके समान अधिकार चाहता है। व्यवस्था की कमी और पक्षपात से अकुलाता, विद्रोही और आक्रामक तेवर अपनाता है। वह अपनी लड़ाई खुद अपनी तरह लड़ना चाहता है। श्यौराज सिंह बेचैन का दावा है-

” हम सुबह के वास्ते आए हैं
हम सुबह जरूर लेकर आएंगे”[10]

‎              सुशीला टाक भौरे , कावेरी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉक्टर जय प्रकाश कर्दम, सुदेशतंवर , मुकेशमानस आदि अनेक कवियों ने शोषितों के दुख दर्द को अपनी रचनाओं में उकेरा है। यहीं उनकी रचनाओं में वैयक्तिक ताका अंश आ जाता है जो उसे दूसरों से अलग करता है। प्राकृतिक सौंदर्य उसे रिझाता नहीं क्योंकि उसके पास उसे निरखने  काअवकाश नहीं होता। उसे गांव का जीवन भी  रास नहीं आता। वह जिस यंत्र युग में जी रहा है वह औद्योगिक पूंजीवादी संस्कृति की देन है। बलदेव वंशी और रमेश गौड़ इसी संस्कृति के बाशिंदे होने के कारण उससे एक दम निर्लिप्त नहीं हो पाते पर उसके बनावटी और बहुरूपिये पन से बखूबी परिचित हैं। डां रामदरश मिश्र का बहु परिमाणीय लेखन उनके परिवेश जन्य अनुभवों से सिक्त है। अपने गांव से उनका गहरा लगाव है जिससे वे मुक्त होना भी नहीं चाहते।  ‘कोयले और चूल्हा’  रचना की निम्नलिखित पंक्तियां उनके ग्रामीण लगाव को ही अभिव्यक्त करती हैं –

‎”आसान दिनों में 
‎अभिजात हंसी हंसता हुआ गैस का चूल्हा
‎ हमारे साथ चलता रहता है
‎ लेकिन जब जाड़े के मुश्किल दिन आते हैं
‎ तब आंगन के कोने में उपेक्षित,  उदास सा पड़ा 
‎कोयले का चूल्हा जाग जाता है हमारी आंखों में” [11]

प्रायः सभी कवियों में स्थानीयता और देसीपन की गमक दिखाई देती है। मानबहादुर सिंह अवध और  विजेंद्र राजस्थान की सुवास से व्याप्त है। वहां की लोककथाओं, मुहावरो, गीतों से वे सीखते और प्रभावित होते हैं। यथा मॉरीशस के कवि हेमराज सुंदर (अस्वीकृति में उठे हाथ) सुंदर चंद्र ठाकुर (आती है बहुत अंदर से आवाज ) केरल के कवि अरविंदाक्षन (घोड़ा) अपने परिवेश से जुड़े और उसकी समस्याओं के प्रतिसजग हैं। उनकी दृष्टि वैज्ञानिक है जो पृथ्वी के छींजते सौंदर्य की सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं।

‎”  बच्चे जवान होने से पहले ही
‎ मार दिए जाएंगे इस बाहरी दुनिया में 
‎बाजा़र  दैत्य बन नाचेगा 
‎और मांगेगा रक्त
‎ आसमान में छींटे उड़ेंगे खून के
‎ और उड़ेंगे गर्दो के  गुबार।” [12]

समकालीन कवि अपने अनुभवों पर बिना किसी प्रकार का मुलम्मा चढ़ाएं उसे बेलाग, यथार्थ ढंग से व्यक्त करता है। पूर्व निर्धारित मानदंड उसे स्वीकार नहीं है। उसकी निर्भीकता और निर्द्वन्द्वता के मूल में उसका स्वयं का जिया भोगा जीवन तथा उसकी संस्तुति  को प्रस्तुत उसका परिदृश्य है। श्री जगदीश चतुर्वेदी समकालीन कविता में वैयक्तिकता के अंश को स्पष्ट करते हुए कहते हैं —” मैं कविता को घोर वैयक्तिक रचना प्रक्रिया मानता हूं। किसी दबाव, चाटुकारिता अथवा प्रतिबद्धता के जरिए लिखी गई रचना , कुछ विशेष प्रकार के लोगों या वर्ग के राजनितिक गुटपरस्तों द्वारा विशिष्ट मानकर प्रचारित भले कर दी जाए, उसका स्थायित्व अन्ततः गौण ही रहता है। कविता मेरे या किसी भी जैनु इन कवि के लिए आत्मसाक्षात्कार या विशिष्ट अलगावपूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण का सशक्त माध्यम है।“  [13]

  समकालीन अधिकांश कवि मध्यवर्गीय युवा हैं।स्वाधीनता संग्राम में अविस्मरणीय भूमिका निभाने ,विभिन्न क्रांतियों का वाहक यह वर्ग समकालीन प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण अपना स्थायित्व खो चुका है। वह चतुर्दिक व्याप्त भ्रष्टाचार तथा निरंतर छीजती जा रही मूल्यहीनता की जकड़न से त्रस्त हैं। स्वातंत्र्योत्तर राजनीतिक, आर्थिक शक्तियां ऐसी गिनी-चुनी मुट्ठियों में बंद है जो पूरे दम खम से उसे खिसकने ना देकर सुरक्षित रखने और बढ़ाने में दत्तचित्त है।दिग्भ्रमित हो, वह अपनी जिजीविषा के कारण अनैतिक माध्यम अपनाने के लिए बाध्य होता हैं। पढें, सुने,  सच्चाई , ईमानदारी,  समाजवाद, लोकतंत्र आदि के आधार पर गढे़ उनके स्वपनों की नियति मर जाना ही होती है ईमानदारी का राग अलापने वाले ही शातिर बेईमान मिलते हैं जिससे अपनी प्रतिभा, योग्यता, और आदेश निस्सार प्रतीत होने लगते हैं। कवि धूमिलने उन्हें ठीक पहचाना है–

“वे सबके सब तिजोरियों के
‎दुभाषिए  हैं।
‎वे वकील है, वैज्ञानिक है,
‎ अध्यापक है ,नेता है,
‎ दार्शनिक है, लेखक है, कवि है, कलाकार है
‎ यानी कि…..
‎ कानून की भाषा बोलते हुए
‎अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।”[14]

‎ऐसे लोगों को समर्थ लोगों से जुड़ने , उनका पिछलग्गू और पूंछ का बाल बने रहने, उनके तलवे चाटने में अपना भला दिखाई देने लगता है। परिणाम होता है बिना पूरा प्रकरण जाने हुंकारी भरने  की प्रवृत्ति का घर कर जाना। श्री राम तिवारी इसे एक ऐसी साजिश मानते हैं जिससे सत्ताएं, प्रवंचनाए, योजनाएं सर्जना से कहीं महत्वपूर्ण हो गई है। उसकी स्थिति थाली के बैंगन सीडा वांडोलर हती है। प्रबुद्ध शिक्षित होने के कारण वह अपने से अधिक संपन्न पर कम योग्य वर्ग की स्पर्धा करने के लिए उतावला होता है किंतु आर्थिक विपन्नता आडे  आ जाती है। लौटने पर वह अपने निम्न वर्ग से भी आत्मीयता नहीं जोड़ पाता क्योंकि सड़ांध भरी दुनिया में रहने वाली दुनिया निर्धनता की सीमा रेखा से बहुत नीचे जीती है जिससे तालमेल बैठाना कठिन होता है। उनके साथ रहते हुए भी  वह स्वयं को उनसे भिन्न मानता है तथा  ‘माया मिली नराम’ की स्थिति में जीने के लिए अभिशप्त होता है। कुछ ईमानदारी की पंगत से नीचे गिरने लगते हैं और अंतहीन की आत्म व्यथा से ग्रस्त हो जाते हैं। स्वर्गीय भारत भूषण अग्रवाल ने अपनी रचना  ‘मैं और मेरा पिट्ठू’ मे अपनी संघर्षमयी एवं पिट्ठू की सुविधामयी  जिंदगी का तुलनात्मक रेखांकन किया है–” मैं दफ्तर में क्लर्की करता हूँ तब पिट्ठू की तस्वीर साप्ताहिक के मुख्य पृष्ठ पर छप रही होती है। जब क्लर्क बस के फुट बोर्ड  पर लटकता किसी तरह घर लौट रहा होता है तब उसका पिट्ठू चांदनी की बाहों में बाहें डाले मुगल गार्डन में टहल रहा होता है। जब क्लर्क बच्चे की दवा के लिए आउट डोर वार्ड की क्यूं मे खड़ा होता है तो उसका पिट्ठू कवि सम्मेलन के मंच पर पुष्प माला पहन रहा होता है। ‘उक्त विभाजित व्यक्तित्व से क्षुब्द वह केवल एक व्यक्ति बनना चाहता है—कवि या क्लर्क । उसे यह सोचकर सांत्वना  मिलती है कि मैं तो खैर मामूली सा क्लर्क हूं पर मेरा पिट्ठू जीनियस है। “ [15]
समकालीन कवि मायूस है और उसकी कविता अवसाद, चिंता से युक्त क्योंकि उसका साथ देने वाला या उसे दिशा दिखाने वाला भी कोई नहीं है। अपने अकेलेपन में उसे लगता है कि उसके होने या ना होने का किसी पर कोई असर नहीं होता पर वह अपने जैसे लोगों के समान यही इच्छा करता है कि मरने वालों में उसका नम्बर पहले ना आए और निराशा , कुंठा के खोल में दुबका छटपटाता  रहताहै।पराया संघर्ष और दुख दर्द उसे विचलित नहीं करता।

वह शक्तिहीन , मूल्यहीन बनकर जीने को ही उचित समझने लगता है। उसे ज्ञात है कि उसके समस्त प्रयास भी उसकी नियति को बदल नहीं पाएंगे । उसे घृणा , भय, विद्रूप,  निरर्थक तर्क एवं भयावह संशयों में घिरे रहकर ही जीना होगा।डां दूधनाथ सिंह,  ज्ञानरंजन, ममता कालिया,  सुधा आदि के अनुभव ऐसी स्थिति सेउपजे हैं ।श्री गोपाल जैन स्वीकार करते हैं कि —

     ‎”विवश और असमर्थ सा
                 ‎ खड़ा रह जाता हूं और
                 ‎असह्ययंत्रणा के हजार-हजार बिच्छू 
                 ‎मेरी चेतना को डस लेतेहैं।”[16]
 ‎डां धर्मवीर भारती भी मानते हैं कि….
                 ‎ हम सबके दामन पर दाग
                 ‎ हम सबकी आत्मा में झूठ
                 ‎ हम सबके माथे पर शर्म 
                 ‎हम सबके हाथों में टूटी तलवारों की मूठ।”   [17

सुविधा संपन्न वर्ग से सहायता ना मिलने पर भी वह उनसे प्रतिशोध लेने या उनके विरुद्ध विद्रोह करने की सोच भी नहीं पाता।  पेट भरने और परिवार पालने की विवशता उसे शोषकों के अत्याचार और क्रूरता को पशुवत मूक रहकर  सहने को बाध्य करती है। यदि कभी वह अपनी दुर्बल आवाज उठाता भी है तो वह तत्काल दबा दी जाती है। उक्त वैषम्यपूर्ण स्थिति में रहते हुए भी कवि अपने परिवेश के प्रतिपूर्ण सजग है।  वह उभरने वाले किसी भी मुद्दे को अपना बनाने में समर्थ है यथास्त्री  के प्रति पुरूष की निरंकुशता को भी उसने नज़र अंदाज़ नहीं किया है। उसमें वैचारिकता और अनुभूति का संपूर्ण लोपन हीं हुआ। सामाजिक समस्याओं और उनके कारणों को जानने के लिए वह प्रश्नाकुल और निवारण के लिए प्रयत्नशील रहता है। परिवेश का दबाव उसकी संवेदनशीलता पर हावी रहता है तथा विसंगतियों के जनक और स्वयं भूशक्तियां उसे निरंतर उखाड़ने का प्रयत्न करती रहती हैं ।
भोगे जीये जीवन पर सृजित समकालीन कविता वैचारिक और प्रमाणिक है। मनुष्य के रिश्तो में आते संवेदनात्मक परिवर्तनों को खंगालने ,उसके कारणों और औचित्य का परीक्षण, स्वयं अपनी दृष्टि से करता है। हर जीए और जीने  जाने वाले लम्हों की यथार्थता को परखना चाहता है इसलिए समकालीन कविता में जीवन का सुंदर और कुरूप दोनों ही पक्ष उभर कर सामने आता है। अचला शर्मा, नीलम सिंह, सुधा गुप्ता, कन्हैया लाल नंदन, रामावतार चेतन कुमारेंद्र, पारस नाथ सिंह की कविताओं में वैयक्तिकता और वैचारिकता के धूप- छांहीं  रंग मिलते हैं। इन कवियों ने अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को सामूहिक प्रश्नों के रूप देकर व्यक्त किया है यथा नारी विमर्श के संदर्भ में नारी पर पुरुष द्वारा ढाए जाने वाले अत्याचारों का बार बार उल्लेख तथा तत्संबंधी समस्तब तक ही  औरजोड़-तोड़ को व्यर्थ और विलंब से उठा विचार बताकर वह उस समकालीन नारी का उल्लेख करता है जो सुशिक्षित , स्वावलंबी है तथा जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष की समकक्षता मे दृढ़ता से खड़ी है। जो स्वयं अपना रास्ता तय करती है, बनाती है, उस पर चलती है। यहां तक कि विवाह से  पहले भावी पति के साथ रहकर उसकी आदतों का जायका भी लेती है। तलाक, पुनर्विवाह उसे भयभीत नहीं करते। विवाह पूर्व मातृत्व ग्रहण करने में वह संकुचित नहीं होती। संतान हीनता के कारण अथवा कायिक सौंदर्य को बरकरार रखने के लिए सेरोगेसी  द्वारा संतान प्राप्तिक रनाया संतान गोद लेना आदि सामान्य माना जाने लगा है इसलिए सरोगेसी एक प्रकार की आजीविका का साधन बन गई है। वह पुरुष की इच्छा अनिच्छा के अनुरूप स्वयं को ढालने या उसके संकेत पर कठपुतली की तरह नाचने और परिवार में दिन-रात खटकने वाली नारी नहीं है। उसे इच्छा अनुसार जीवन जीना आता है जिसमें वह अपने पति कहे जाने वाले संगी-साथी का पूरा सहयोग चाहती है।
कवियों ने ही नहीं  समकालीन कवियित्रियों ने भी नारी के यथार्थ चित्र अंकित किए हैं। श्री मतीनीलेश रघुवंशी अपने भावी शिशु को लेकर अत्यंत उत्साहित है। वेतत्संबंधी अपनी व्यस्तता व्यक्त करते हुए तनिक भी संकुचित नहीं होती–

” क्या तुम मार्च के अंतया अप्रैल के शुरू में आओगे ?
अब तो इर्ष्या  होने लगी है तुमसे
ढेरों काम याद आ रही है इन दिनों।
‎तुम्हारे लिए कपड़े, मालिश की व्यवस्था
‎ एक आया ढू़ंढनी है अभी से 
‎ताकि जब ऑफिस जाऊं तो वह तुम्हें अपनी सी लगे।
‎ गर्भवती स्त्री और शिशुपालन जैसे किताबे पढ़ती हूं इन दिनों 
‎ढेर सारे काम खोजती फिरती हूं 
‎हर दिन दूधवाले की जान खाती हूं 
‎दिन भर इन चक्करों में उलझी रहती हूं
‎ फिर भी काम है कि खत्म होने का नाम नहीं लेते।”[18]

‎                     अनामिका की भाषा दृश्य बंधो को सजीव कर देती है तथा पाठक के मन मस्तिष्क में देर तक गूंजती  है —

‎”मां हूं मैं,  मेरे भरोसे ही 
‎बीमार पड़ता है चांद।
‎ जाओ, अब दूध पिलाऊंगी मैं
‎सोओ कि  इसे सुलाऊंगी मैं 
‎उफ! करवट फेरने की जगह करो 
‎मत खींचातानी बेवजह करो।”[19]

कात्यायनी राजनीतिक, सामाजिक बदलाव पर जोर देने के साथ उत्पीड़ित मनुष्य के संघर्षशील जीवन को भी अंकित करती हैं। उनके विस्तृत कैनवास परस्वयं भूआलोचकों,  प्रकाश को, साहित्यकारों के विविध वर्णचित्र मिलते हैं।

 “बडे कवि लगातार सोचते हैं 
और वे सोचते हैं
कि सिर्फ वे ही सोचते हैं
‎ जो वे सोचते हैं
‎वह सिर्फ वे ही सोचते हैं 
‎वे लगातार सोचते हैं 
‎और सोचना उन्हें अकेला कर देता है।”    [20]

परिदृश्य प्रभावित जीवन कहीं गहरे खिलते रंगों तो अन्यत्र गंद लाए धूसर रंगों से युक्त होने के कारण पहले से भिन्न है। परस्पर सुख दुख से प्रभावित होने और सबके साथ उन्हेंभोगते-झेलते प्रेमिल संयुक्त परिवारों का स्थान पति पत्नी और उनके बच्चों वाले एकल परिवारों ने ले लिया है। संयुक्त परिवारों में मुखिया की जायज ना जायज हुकूमत, नौकरी में होने वाले स्थानांतरण , सदस्यों की सम्मिलित आय रहने से व्यक्तिगत संपत्ति का अभाव , शिक्षित आधुनिकता प्रभावित सदस्यों की उच्च स्तर का जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा का पूर्ण ना होना आदि  कारण बताएं गए। इसे किसी हद तक मान भी लेंतो भी एकल परिवारों में भी समस्याएं उठती है और कहीं अधिक भयंकर रुप ले लेती है क्योंकि उनको समझाने वाले बुजुर्गों का वहां अभाव होता है।

माता-पिता और छोटे भाई सांझी जिम्मेदारी हो गए हैं।  मां एक के साथ  तो पिता दूसरे के साथ रहने के लिए विवश है। वृद्धावस्था में अलगाव की पीड़ा को झेलते उनकी दशा का एहसास किसी को नहीं होता। परिणाम है वृद्धाश्रम और आत्महत्याओं की उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या ।उक्त स्थिति  पश्चिम प्रभावित परिदृश्य के कारण है। समकालीन कविता अस्थिर ,डांवा डोल स्थिति में जन्मी।  194 7 में प्राप्त स्वतंत्रता वास्तव में स्वतंत्राहीन हीं थी क्योंकि विदेशी परतंत्रता से मुक्त होते ही जनमानस स्वदेशी शासकों के चंगुल में जकड़ गया। वह घोर  अर्थाभाव , कुंठा, हताशा भरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहा। इस स्थिति से साहित्य भी अछूता नहीं रहा। अनेक काव्य आंदोलन चले– मार्क्सवादी, नई कविता ,अकविता आदि किंतु किसी एक को केंद्रीय नहीं कहा जा सका क्योंकि कोई मार्गदर्शक अगुआ व्यक्ति नहीं था । बहुसंख्यक  पत्रिकाएं भी निकली जो पूर्व प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से स्पर्धा कर उन्हें उखाडने  लगी परिणामतः कुछ उखड़े , कुछ उखड़ते- उखड़ते फिर जमीं। 1981 में अकविता का दौर समाप्त हो गया और कविता ने एक नए दौर में कदम रखा।दिविक रमेश के काव्य संग्रह( निषेध ) मे संकलित कवियों –अवधेश कुमार , तेजी ग्रोवर , राजेश जोशी,  राजकुमार सुमन, चंद्रकांत देवताले, सोमदत्त, श्याम विमल, अब्दुल बिस्मिल की रचनाओं में इसकी झलक मिलती है ।निर्मला पुत्तल, उमाशंकर चौधरी, दिनेश कुमार शुक्ल, प्रताप सहगल, दुर्गा प्रसाद गुप्त 1972  से ही काव्य जगत में सक्रिय थे। कुंवर नारायण, रामदरश मिश्र , कैलाश वाजपेयी, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जैन , अशोक वाजपेयी, विश्वरंजन , मंगलेश डबराल आदि का भी कविता को आगे बढ़ाने में उल्लेखनीय योगदानहै।

बद्रीनारायण ने ( शब्द पदीयम)  में लोक संस्कृति को जीवंत किया है तो अशोक वाजपेयी की प्रेम परक रचनाओं की प्रयोगशीलता दर्शनीय  है। ‘ इबादत से गिरी मात्राएं’ की  एक एक पंक्तिवाली रचनाएं उनके भाषा अधिकार की साक्षी है। ‘सरनाम सिंह की मृत्यु पर’ कविता मनुष्यता की उद्घोषक है –

“पर तुम्हारी मृत्यु के दो दिनों के बाद भी यह सौभाग्य है कि हम जीवित हैं 
‎लेकिन यह सच है कि तुम्हारे मरने  में कुछ हमारा भी मर गया
‎ और यह क्या था, हम जीते जी कभी नहीं जान पाएंगे
‎ हम तुम्हें भूलेंगे ताकि हमें अपना कुछ मरना याद ना आए सरनाम।”  [21]

‎              श्री विष्णु खरे गंभीरतम, उत्तेजना पूर्ण विषयो को भी अत्यंत संयम के साथ व्यक्त करने के लिए जाने जाते हैं। अपने देश की धरती पर हिंदी और हिंदीतर प्रदेशों में तो प्रभूत काव्य रचना हुई ही है प्रवासी साहित्यकार भी काव्य, नाटक, गजल , गीत, छोटी -लंबी, तुकांत अतुकांत रचनाएं कर रहे हैं। समकालीन कविता विविध वर्णी,  अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से उत्कृष्ट और समृद्ध है। सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था और विश्वास के साथ संवेदनशीलता और आत्मीयता से युक्त है। जाहां तक कवियों का प्रश्न है इस तथ्य को नकारना संभव नहीं है कि कुछ कविगण यश, धन प्राप्ति के लिए नुमाइशी रचनाएं लिख रहे हैं तथा विभिन्नो मंचों से पूरे उल्लास और दमखम से सुनाकर वाह वाही लूटने का प्रयास कर रहे हैं। वे कविता के वास्तविक मुहावरे से अपरिचित है और निरर्थक शब्द प्रतीकों का प्रयोग कर रहे हैं। इनमें से कुछ प्रभावशाली आलोचकों , प्रतिष्ठित प्रकाशको का संबल पाकर पाठ्यक्रम में लग भी जाते हैं और विदेशों में भी अपनी पहुंच बना लेते हैं। इसके साथ ही तथ्य परक, गंभीर , सुंदर रचनाओं का भी अभाव नहीं है  जो सरल सपाट होने पर भी गूढ अर्थ गांभीर से युक्त है तथा पाठक द्वारा पूर्वाग्रह मुक्त मानसिकता में बार-बार पढ़े जाने की अपेक्षा रखती है।
‎        डॉक्टर हरदयाल के मतानुसार समकालीन हिंदी कविता में 1960 के पूर्व और पश्चात की प्रवृत्तियां न्यूनाधिक रुप में समाहित हैं –” समसामयिक हिंदी कविता के परिदृश्य पर दृष्टिपात करने पर बड़ी विविधता दिखाई देती है।पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली कविताओं में द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता , छायावादी रोमानियत एवं रहस्यमयता, गीतों की संगीतात्मकता, कोमलस्वप्नमयता, प्रयोगवादी कविता का आक्रोश,  खुरदुरापन , राजनीतिक नारेबाजी, प्रयोगवाद और नई कविता को प्रयोगशीलता, 1960 के बाद के आंदोलनों का घमासान सब अपनी-अपनी धज के साथ क्रीडा करते दृष्टिगत होते हैं और इनमें से हर एक का दावा है कि समकालीन भारतीय जीवन की वास्तविकता को वही अभिव्यक्त कर रहा है।”  [22]  समकालीन परिदृश्य से गहरे जुड़ाव ने कविता के शिल्प को भी प्रभावित किया है।अनुभवो की निजता, वैयक्तिकता, वैचारिकता और प्रासंगिकता से आए कथ्य विस्तार और वैविध्य के साथ ही उसका अभिव्यक्ति पक्ष प्रभावित हुआ है। समकालीन कवि वैचारिक जकड़न और नारेबाजी से मुक्त रहते हुए कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियो से अपने दृष्टिकोण , अनुभव,  संतुलित प्रगतिशील सोच को प्राथमिकता देता है जिससे उसमें विषय वैविध्य आया है।राजनीति ,अर्थ, धर्म , समाज,  अशिक्षित, आदिवासी, ग्रामीण , महानगर के संभ्रात शिक्षित नागरिक, यहां तक कि आतंकवादी और हत्यारे तक उसकी रचनाओं के कथ्य हैं।  प्रकृति के क्षुद्र, महत्वहीन व्यापार भी उसे आकृष्ट करते हैं।  दिविक रमेश कहते हैं–

‎” जब चोंच में दबा हो तिनका
‎  तो उससे ज्यादा खूबसूरत
‎ कोई पक्षी नहीं होता।”   [23]

‎विध्वंस और मृत्यु कवि को आक्रांत  करती है अतः वह सायास उससे बचने का उपक्रम करता है।  दिव्या माथुर को अमेरिका का विध्वंसकारी घटना का स्मरण आज भी दहलाता है। [24]
‎वह समाज  कोअशांति कारक , सामाजिक दबाव, भ्रमित करने वाली विसंगतियों से दूर रहने की सम्मति देती हैं।’जिल्लत की रोटी’ संग्रह मे मनमोहन कहते हैं–

‎-” देश हमारा कितना प्यारा 
‎उसकी आंखों का तारा
‎ हम ही क्यों अमेरिका जाए
‎ अमेरिका को भारत लाएं।”  [25]

‎श्री पंकज चतुर्वेदी मनुष्य की छोटी और नगण्य अभिलाषा को व्यक्त कर रक्तपात और युद्ध की विभीषिका को अनावश्यक बताते हैं-

‎” हम अणुयुग की ताकत का दुख नहीं चाहते
‎ धरती पर विस्फोट नहीं चाहते 
‎हम थोड़ी सी धरती और थोड़ा सा आकाश चाहते हैं
‎ हम धरती का प्यार चाहते हैं
‎ हम तितली और फूलों का प्यार चाहते हैं।”[26]

‎    निष्कर्षतः समकालीन कवि बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव को अभिव्यक्त करता है जिससे कहीं कहीं आत्मश्लाघा आ गई है।  वह देशज शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करता है।उल्लेखनीय है कि वह उन्हें दैनन्दिन की भाषा में से खोजता, बीनता  नहीं बल्कि अपने परिवेश से ही उठाता है। उनका प्रयोग भी सुरुचिपूर्ण ढंग से हुआ है।फैंटेसी शिल्प काअवलम्ब  लेकर वह प्रतिकूल परिस्थितियों के  सहजांकन में सफल हुआ है। लोकसाहित्य और संस्कृति के प्रतिलगाव के कारण समकालीन कवि लोककथाओं, मिथकों और संगीतात्मक अभिव्यक्तियों को भी अपना रहे हैं।  समकालीन कविता अपने परिदृश्य से गहरी से जुड़ी है।

संदर्भ

  1. रक्तपात ,नरेंद्र मोहन, हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य , डॉ हरदयाल पृष्ठ 95-96 पर उद्घृत
  2. हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, डां हरदयाल, पृष्ठ 96 पर उद्घृत
  3. हरिशंकर अग्रवाल की कविता ,बिंदु , जनवरी-मार्च 1971-पृष्ठ 75
  4. श्री चंद्रकांत की कविता ,हिन्दी कविता का समकालीन परिदृश्य,हरदयाल, पृष्ठ 97 पर उद्घृत
  5. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,गरीबी हटाओ’, ,हिंदी कहानी का समकालीन परिदृश्य,डा हरदयाल, पृष्ठ 18 पर उद्घृत
  6. श्री दिनकर सोनवलकर , हिंदी कहानी का समकालीन परिदृश्य,डा हरदयाल, पृष्ठ 70 पर उद्घृत
  7.   मलखान सिंह,सुनोब्राह्मण, पृष्ठ 20
  8. मलखान सिंह, एक पूरी उम्र, सुनोब्राह्मण,पृष्ठ 11
  9. ओमप्रकाश वाल्मीकि,सदियों का संताप, ,पृष्ठ 3
  10. श्यौराज सिंह बेचैन
  11.  डॉ. रामदरश मिश्र, ‘कोयले और चूल्हा’
  12. केरल कवि अरविंदाक्षन , घोड़ा
  13. हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, डां हरदयाल, पृष्ठ 70 पर उद्घृत
  14.  कवि धूमिल की कविता,हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, डॉक्टर हरदयाल, पृष्ठ 72 पर उद्घृत
  15. स्वर्गीय भारत भूषण अग्रवाल ,’मैं और मेरा पिट्ठू
  16. ‎श्री गोपाल जैन की कविता ,हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, डा हरदयाल, पृष्ठ 70-71 पर उद्घृत
  17. डां धर्मवीर भारती की कविता हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, डा हरदयाल,पृष्ठ 72पर उद्घृत
  18. श्रीमती नीलेश रघुवंशी, ढेर सारे काम
  19. अनामिका ‎, ऋषिका
  20. कात्यायनी,जादू नहीं कविता
  21. अशोक वाजपेयी   ,सरनाम सिंह की मृत्यु पर’,
  22.  डा हरदयाल,हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य , पृष्ठ 89
  23.  दिविक रमेश ,  निषेध,
  24. दिव्या माथुर,11 सितंबर,
  25. मनमोहन ,जिल्लत की रोटी’ संग्रह
  26. श्री पंकज चतुर्वेदी की कविता, हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, डां हरदयाल, पृष्ठ 89 पर उद्घृत

 

 डॉ. रूचिरा ढींगरा
एसोसिएट प्रोफेसर
शिवाजी कालेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

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