कबीर क्या थे? और अब उनकी क्या-क्या छवियाँ हैं? यह मालूम करना बहुत ही मुश्किल है। क्योंकि अतीत से वर्तमान तक कबीर की छवि में बहुत परिवर्तन आया है और यह परिवर्तन पाठकों एवं आलोचकों की अपनी दृष्टि से निर्मित हुई है। कबीर का समय राजदरबार का था लेकिन कबीर का संबंध कभी राजदरबार से नहीं मिलता था। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कबीर जनता के कवि थे। कबीर कोई कलम उठाकर लिखने वाले कवि नहीं थे, बल्कि जनता के बीच गाने वाले, उपदेशक कवि थे। कबीर मर्यादा के पिछलगू नहीं थे, सीमाओं में कतई विश्वास नहीं करते थे। कबीर एक लीक पर चलने वाले नहीं थे, कबीर शेर की तरह गर्जना करते हुए समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता को दूर करने वाले सुधरक थे। अगर कबीर के विषय में यह-

लीक-लीक पर सब चले, लीकंहि चले कपूत।
ये तीनों बेलीक है, शायर, सिंह, सपूत।।

जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। कबीर को मानने वाले दो प्रकार के लोग हैं- पहला- कबीरपंथी (कबीर के पदों को गायन कर, परम्पराओं से मान्यताओं को मानने वाले), दूसरा- हिंदी साहित्य के आलोचक और सुधी जन। कबीर की हिंदी आलोचना में विविध छवियाँ हैं, जैसे कि संत, महात्मा, निर्गुण पंथ के अग्रदूत, ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि, भक्त कवि, तात्विक एवं रहस्यवादी साध्क, समाज सुधरक एवं चिन्तक, प्रगतिशील एवं क्रान्तिकारी कवि, मानवता के पुजारी, पाखण्डों के विरोधी। कुछ साहित्यकार एवं आलोचक कबीर की छवि को वर्गीय चेतना के आधर पर देखते है, जैसे- वैष्णव कबीर, बनिया कबीर, दलित व निम्नवर्गीय चेतना के कबीर।
कबीर की विविध छवि को हम दो ढंग से देख सकते हैं, पहला- कबीर की स्वरचित पदों से और दूसरा- हिंदी आलोचकों के आपसी बौद्धिक टकराहट में। हिंदी आलोचक कबीर को किस रूप में देखते हैं। कबीर की पहली छवि, दूसरी की अपेक्षा ज्यादा ऊर्जावान, सजीला और प्रमाणिक लगती है। कबीर अनुभव के ज्ञान को महत्व देते है, शास्त्रा के बजाए लोक को तवज्जों देते है, इसलिए उन्होंने कहा- ‘तू कहता कागद लिखी, मैं कहता आँखन देखी।’ कबीर समाज में व्याप्त धर्मिक कट्टरता, ब्राह्मण्डरों, भेदभाव, वर्ण व्यवस्था का विरोध करते है और मानव को उस परमसत्ता का अंश मानते है, उनका मानना है कि परमसत्ता के सामने कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। सभी जाति, धर्म, वर्ण के लोग एक समान होते हैं।

‘‘एक बूँद एक मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक ज्योति से सब उपजा, को बाभन, को सूदा।।’’

समाज में जाति व्यवस्था एक कुरीति के रूप में फैली हुई है, यह एक प्रकार रोग है, जो सामाजिक चेतना को कमजोर करता है। जाति व्यवस्था ही शोषण का एक प्रमुख कारण है इसलिए कबीर इसका विरोध करते हैं-

‘‘तूम कैसे ब्राह्मण पांडे, हम कैसे सूद।’’

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आज भी छूआछुत की बीमारी है, समाज के उच्चवर्ण के लोग नीचले, निर्धन लोगों से दूरी बनाए रखते हैं। यह छुआछुत या अश्पृश्यता ने मानव और मानव के बीच भेदभाव पैदा किया है। कबीर ने मानव और मानवीयता पर जोर देते हुए आज से 600 साल पहले ही इस बुराई की आलोचना की थी। कबीर ने हिंदू की हिंदुाई पर कठोर प्रहार किया था क्योंकि हिंदु लोग मुस्लिम और दलित से दूरी बनाए रखे थे।

‘‘हिन्दु अपनी करे बड़ाई, गागर छुअन न देई।
वेश्या के पायन तर सोवें, यह देखों हिन्दुआई।।’’

कबीर तत्कालीन समय के सामाजिक अगुवा थे, सामाजिक मुखिया थे, इन्होंने समाज में फैले हुए सभी बुराईयाँ चाहे वे किसी भी ध्र्म की हो, सभी को आलोचना करते हैं और उन बुराई को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध भी थे। कबीर तार्किकता, वैज्ञानिक सोच, सामंजस्य की बात करते हैं, रूढ़ियाँ, अंध्विश्वास, बाह्याडम्बर, मूर्तिपूजा आदि का खंडन करते हैं।

‘‘मूड, मुडाए हरि मिलै, सब जन लेहु मुड़ाए।
बार-बार के मुड़ते, भेड़-बैकुण्ड न जाए।।’’
‘‘काॅकर-पाॅथर जोरि के मस्जिद् लाई चुनाए।
ता चहि मुल्ला बाग दे, का बहरा हुआ खुदाए।।’’

कबीर के पदों में एक बहुत बड़ी विशेषता है- तार्किकता, आत्मविश्वास और प्रमाणिकता के साथ विरोधों (धार्मिक नौकरशाही) का खण्डन। धर्मिक नौकरशाही का तात्पर्य है कि कबीर के समकालीन धर्मिक मुखिया-पण्डित, मुल्ला, मौलवी आदि जो धर्मिक अनीतियों से लोगों से लोगों के बीच में भेदभाव पैदा करते, अपने को ही श्रेष्ठ मानने के पक्षधर थे। कबीर ऐसे धर्मिक मुखिया की अपने स्वरचित पदों में खिंचाई करते हैं। कबीर के इन सभी पदों उपदेशपरक, नीतिपरक, गुरू की महत्ता, आत्मा-परमात्मा का संबंध का भारतीय भजन-गायन और कबीर पंथी गायनों में मिलता है।
कबीर की दूसरी छवि अर्थात् आलोचकों एवं साहित्यकारों के बीच में स्वीकृति, की बात करें तो हम देखते हैं कि प्रारम्भिक साहित्येतिहास लेखन में उनकी पहचान नहीं बन पाती क्योंकि जार्ज गियर्सन और मिश्रबंधु, कबीर की विराट चेतना को पहचान नहीं सके, जबकि बाद के साहित्यकारों और आलोचकों ने कबीर की विराट सत्ता को स्वीकार किया और स्थापित भी किया। प्रसिद्ध साहित्यकार अयोध्यासिंह उपाध्याय ने 1916 में ‘कबीररचनावली’ के नाम से पुस्तक लिखा तो साहित्यकार एवं भाषाविद् डाॅ. श्यामसुंदर दास ने ‘कबीर ग्रंथावली’ के नाम से कबीर के पदों का संकलन किया। कबीर को समझने के लिए डाॅ. श्यामसुंदर दास की ‘कबीर ग्रंथावली’ की 40 पेज की भूमिका महत्वपूर्ण है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की धर्म, साधना, प्रेम, भक्ति स्वरूप की सहारना करते हैं क्योंकि कबीर से पहले नाथपंथियों की एक ऐसी साधना विकसित हो रही थी, जिसे हठयोग कहते हैं, जिसमें शरीर को विभिन्न प्रकार से पीड़ा दी जाती है, तब साध्ना की जाती है। कबीर ने इस परंपरा अर्थात् हठयोग को तोड़ा और उन्होंने प्रेम, भक्ति, सहज धर्मिक भावना पर जोर दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने भाव के स्तर पर कबीर की प्रशंसा करते हैं लेकिन भाषा-शैली के स्तर पर कबीर की आलोचना करते है। हिंदी साहित्य के बड़े आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, कबीर में वैष्णवों की अहिंसा, सूपिफयों का प्रेम, हठयोगियों का साध्नात्मक-रहस्यवाद को खोजते है।
आचार्य शुक्ल कबीर की सीमा भी बताते है कि कबीर की बड़ी-बड़ी गर्वोक्तियाँ और साधुक्कड़ी भाषा शिक्षित जनता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकती। शुक्ल जी का मानना था कि शिक्षित जनता के लिए कबीर के पंथ में कोई नयीं बात नहीं थी, न ही आकर्षक था- ‘‘संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हृदय और संस्कृतवाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता, जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता, परंतु निम्नश्रेणी और अशिक्षित जनता पर इन संत महात्माओं का बड़ा भारी उपकार उच्च विषयों का आभास देकर, आचरण की शुद्धता पर जोर देकर, आडम्बरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होंने इसे उफपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया।’’
आचार्य शुक्ल जी ने बहुत कुछ वैसा ही कहा है कि जैसा उनके पहले डाॅ. श्यामसुंदर दास, कबीर के बारे में कह चुके थे। डाॅ. श्यामसुंदर दास ने कबीर के अविर्भाव को नया नहीं माना बल्कि कहा कि कबीर के उद्भव के समय परिस्थिति ही ऐसी थी। जिस सामान्य भक्तिमार्ग का नाम डाॅ. श्यामसुंदर दास ने लिया है, वही नाम आचार्य शुक्ल ने भी माना है। आचार्य शुक्ल कबीर का थोड़ा-सा महत्व स्वीकार करते हैं- ‘‘मुसलमानों के आगमन से हिन्दू समाज पर एक और प्रभाव पड़ा, पद दलित शूद्रांे की दृष्टि में उन्मेष हो गया।’’
जहाँ शुक्ल जी, कबीर की भाषा को शिक्षित जनता की भाषा नहीं मानते है और कबीर की भाषा को पंचमेल खिचड़ी कहते हैं। वहीं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर की वाणी को डिक्टेटर के रूप में देखते है। यानि कबीर को, जो बात कहनी हैं या तो सीधे-सीधे व्यक्त कर देते है या नहीं बन पड़ता तो दरेरा देकर। आचार्य शुक्ल जी के लिए कबीर योगियों से प्रभावित और वैष्णव संस्कार के मिश्रण के रूप में है, तो वहीं द्विवेदी जी कबीर को पक्के प्रेमी के रूप में देखते है। द्विवेदी जी अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास’ में कबीर के इस दोहे-

‘‘कबिर यहु घर पे्रम का, खाला का घर नाँहि।
सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर माँहि।।’’

के माध्यम से कबीर के प्रेम को और प्रेम की प्रक्रिया को व्याख्यित करते है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नाथ-सिद्धों की रचनाओं को साम्प्रदायिक शिक्षा मानते हैं, जबकि इसके विपरीत हजारीप्रसाद द्विवदी नाथ-सिद्धों की रचनाओं को कविता और साहित्य की कोटि में बांधते है। यहाँ द्विवेदी जी, कबीर को नाथ-सिद्धों से विषय के स्तर पर ही नहीं छन्द, लय के स्तर पर भी प्रभावित मानते है।
आचार्य शुक्ल, कबीर के ज्ञानात्ममक और योग-साध्नात्मक-रहस्यवाद से बुनी कविता को अपने साहित्य परिधि में शामिल नहीं करते क्योंकि शुक्ल जी केवल भावनात्मक एवं अनुभूतिपरक रहस्यवाद को स्थान देते है। जबकि डाॅ. श्यामसुंदर का मानना है कि कबीर के रहस्यवाणी से ज्ञान का प्रस्पफुटन और मायावाणी से जीवन-जगत की निरर्थकता सिद्ध होती है। कबीर संसार के दुःख को मायाकृत मानते हैं। जो व्यक्ति माया में लिपटा रहता है, उन्हें दुःख का अनुभव नहीं हो पाता। दुःख का ज्ञान उन्हीं को सकता है, जिन्होंने माया का अज्ञानावरण हटा दिया है- सुखिया सब संसार है, खावै अरू सोवै।, दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै।।
द्विवेदी जी, कबीर के व्यक्तित्व को मस्तमौला मानते है। मस्तमौला रहने वाला साधक अतीत, वर्तमान और भविष्य की परवाह नहीं करता। वह दुनिया के माप-जोख से अपनी सपफलता का हिसाब नहीं करता, कबीर मतवाले थे-

‘‘हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या।
रहें आजाद या जग से, हम दुनिया से यारी क्या।।’’

डाॅ. रामविलास शर्मा, भक्ति आन्दोलन के आधार की खोज करते हुए देश की केन्द्रिय राजसत्ता, एक जैसी मुद्रा का चलन, घोड़े की नाल जैसी आवश्यक आवश्यकता का बड़े स्तर पर उत्पादन, सौदागरी पूंजीवादी की विकसित होती स्थिति, इन सारे कारकों से निष्कर्ष निकालते है कि वह वर्ग जो भोजन और जीवन के लिए सामंतों और केवल सामंतों पर आधरित था, वह उत्पादन से जुड़कर खुद अपनी आजीविका कमाने लगा। इस संदर्भ में डाॅ. शर्मा कबीर की छवि को धर्मिक एवं राजनीतिक सत्ता को चुनौती के रूप में देखते है- ‘‘जो तू बाथन, मै। काशी का जुलाहा।’’
आचार्य द्विवेदी ने लोक और शास्त्रा के बीच भेद किया था। कबीर को लोकधर्मी श्रेणी में रखा था और लोकधर्मी का अर्थ रचनात्मकता से था। जबकि डाॅ. नामवर सिंह जी ने द्विवेदी के लोक का अर्थ तंत्रा-मंत्रा, जादू-टोना में फंसी जनता से माना है। अगर लोक का अर्थ ऐसी फंसी जनता से है, जो अनपढ़, अशिक्षित है तो नामवर जी पिफर आचार्य शुक्ल की कबीर के सन्दर्भ में धरणा को स्वीकार रहे है, जो कि द्विवेदी जी की मान्यता से अलग और उलट है। इसी क्रम में डाॅ. मैनेजर पाण्डेय का कबीर के लोक के सन्दर्भ में मत है- ‘‘लोक में बहुत-सारी जनवादी और सामाजिक शक्तियाँ होती है, जिसका प्रतिपफलन कबीर है।’’ कबीर की छवि के विषय में गजानन माधवमुक्तिबोध का मानना है कि कबीर की छवि निम्नवर्गीय उस चेतना का प्रस्पफुटन है। जिसे हिन्दुस्तान की मनीषा ने एक कदम नीचे झुककर अपने में मिला लिया।
पुरुषोत्तम अग्रवाल, कबीर को देशज आध्ुनिकता के कोख में जन्म लेने वाला मानते है। यूरोपीय देशों का मानना था कि आधुनिकता का उद्भव यूरोप से हुआ, और वहीं से अन्य देशों (पूर्वी देशों) में फैला। जबकि अग्रवाल जी व अन्य प्रसिद्ध इतिहासकारों का मानना है कि भारतीय आध्ुनिकता आयातित नहीं है बल्कि स्वनिर्मित है, जिसका परिणाम कबीर का समय है। अग्रवाल जी का कहना है कि ‘सच्चाई यही है कि आधुनिकता का व्यापार से संबंध वस्तुतः है, बहुत गहरा।’’ कबीर की कविता का प्रचार-प्रसार व्यापारियों द्वारा हुआ। अग्रवाल जी अपनी पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की, कबीर की कविता और उनका समय’ में कबीर को मानवता के कवि माना है, और मार्टिन लूथर किंग (यूरोपीय आधुनिकता के अग्रदूत) के मानवीय मूल्य से अधिक कबीर में मानवीय मूल्य की खोज करते हैं। अग्रवाल जी, कबीर की कविता में ‘‘नाथपंथ और इस्लाम का प्रभाव नहीं बल्कि सामाजिक धरातल पर समतापरक और साधना के ध्रातल पर रहस्यवादोन्मुख वैष्णक्ता का प्रभाव देखते है।’’
कबीर की आलोचना की कड़ी में डाॅ. धर्मवीर का नाम बहुत चर्चित है क्योंकि डाॅ. धर्मवीर ने एक नये तरीके से या दलित दृष्टि से कबीर को शिनाख्त की है। डाॅ. धर्मवीर, आचार्य शुक्ल की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि ‘‘वे जायसी की वहीं प्रशंसा करते हैं, जहाँ तक उन्हें कबीर की निन्दा करनी होती है। इसके बाद जब उनका जी चाहता है वे तुलसी के मुकाबले में जायसी को छोटा सिद्ध कर देते हैं। वे कबीर को, जायसी से पिटवाते है और जायसी को तुलसी से रूँदलवा देते हैं।’’ द्विवेदी जी की जिस पुस्तक को कबीर के सन्दर्भ में ऐतिहासिक महत्त्वतता मिली थी, उस महत्वतता को डाॅ. धर्मवीर अपने तरीके से वखिया उघाड़ते है। डाॅ. धर्मवीर का मानना है कि द्विवेदी जी कबीर को केवल व्यष्टिवादी और भक्त स्वीकार करते है और समाज सुधारक पंथ निर्माता नहीं मानते- ‘‘यह बात सौ प्रतिशत सही है कि डाॅ. द्विवेदी की रूचि इतनी कबीर को समझने की नहीं थी जितनी उन्हें कबीर को हिन्दू और वैष्णव सिद्ध करने की पड़ी थी।’’
जहाँ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, कबीर में समन्वयवादी तत्व की खोज करते है, तो वहीं डाॅ. धर्मवीर इसे हिन्दुओं की अन्तिम चाल मानते हैं, जब कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मो को फटकारा तो किसका समन्वय?
हिंदी आलोचना ने अपने विकास के साथ-साथ अपनी परंपरा और कविता का बार-बार मूल्यांकन किया है। चूंकि आलोचना, साहित्य को केन्द्र में रखती है। आलोचना को अपनी शक्तियाँ समकालीन समाज और राजनीति से प्राप्त होती है। जब तक हिन्दुस्तान मेें उच्चवर्गीय लोगों की प्रतिष्ठा थी, तब तक कबीर को अशिक्षितों, अर्द्धशिक्षितों का कार्य माना गया, परंतु धीरे-धीरे जैसे भारतीय राजनीति में किसान, मजदूरी हाशिए पर पड़े लोगों का प्रश्न केन्द्र में आया, वैसे-वैसे हिंदी साहित्य और आलोचना किसान, मजदूर, हाशिए पर लोगों को केन्द्रिय स्थिति प्राप्त हुई। इसलिए बाद में, कबीर को भक्त, कवि से होते हुए दलित और बनिया कबीर के रूप में देखा जाने लगा। कबीर की महान चेतना में बाह्य और आन्तरिक अनेक छवियाँ अन्तर्निहित है।

संदर्भ –

  1. कबीर ग्रंथावली, डाॅ. श्यामसुंदर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2027, पृष्ठ 27
    2. वही, पृष्ठ 31
    3. वही, पृष्ठ 65
    4. वही, पृष्ठ 18
    5. वही, पृष्ठ 40
    6. वही, पृष्ठ 31
    7. हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सन् 2002, पृष्ठ 46
    8. वही, पृष्ठ 40
    9. कबीर ग्रंथावली, डाॅ. श्यामसुंदर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2027, पृष्ठ 69
    10. वही, पृष्ठ 78
    11. कबीर, डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 127
    12. महावीर प्रसाद द्विवेदी और नवजागरण, डाॅ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, सन् 1972, पृष्ठ 145
    13. साहित्य के समाजशास्त्रा, प्रो. मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 102
    14. आलोचना त्रौमासिक पत्रिका, अंक 46, जुलाई-सितम्बर 2012, पृष्ठ 158
    15. वही, पृष्ठ 8
    16. कबीर से आलोचक- डाॅ. ध्र्मवीर, वाणी प्रकाशन, सन् 1997, पृष्ठ 65
    17. वही, पृष्ठ 77

 

विनय कुमार गुप्ता
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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