हिंदी आलोचना को परिष्कृत एवं समृद्ध करने में जिन आलोचकों का योगदान रहा हैं उनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम सर्वप्रमुख हैं। सूरदास के साहित्य के मूल्यांकन में भी इन दोनों आलोचकों का विशेष महत्व रहा हैं।  इनसे  पूर्व सूर – काव्य को ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता ‘ और ‘दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता’ के आधार पर कवि की अपेक्षा भक्त और श्रद्धा – भाव से व्यख्यायित किया जाता रहा है।  हिंदी आलोचना में महाकवि सूरदास की अपेक्षा महात्मा सूरदास को अधिक महत्त्व दिया गया है । आचार्य शुक्ल ने सूरकाव्य में सहृदयता , कल्पनाशीलता , तन्मयता , नवीन प्रसंगों की उद्भावना शक्ति , वाग्विदग्धता और उनकी काव्य – भाषा की अपूर्व सृजनशीलता की बड़ी आलोचनात्मक ढंग से व्याख्या की ।  आचार्य द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल की सूर सम्बन्धी आलोचना का विकास किया। जिसमें उन्होंने सूर के कवि व्यक्तित्व की स्वाधीनता , प्रेम के विद्रोही स्वभाव , सूरसागर में स्त्री – चरित्रों की प्रधानता , पदों की रचनापद्धति की मौलिकता आदि का मूल्यांकन किया और सूर के काव्य की लोकोन्मुखता और सामाजिकता से हमे अवगत कराया । सूर के काव्य की इसी सामाजिकता का विकासात्मक आलोचकीय रूप हमें प्रगतिशील आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा , शिव कुमार मिश्र , और मैनेजर पांडेय की भक्ति – काव्य सम्बन्धी आलोचना में दिखाई देता है ।

                        परम्परा से प्राप्त जो आलोचक सूर काव्य पर वल्लभाचार्य के संप्रदाय का प्रभाव लक्षित कर उनकी कविता का मूल्यांकन करते हैं , वह सूर के काव्य की मौलिकता को नहीं समझ सकते । सूरसागर में सूर ने मात्र कृष्ण -लीला और रास – लीला के रूप में परम्परा से प्राप्त कथा ही नहीं कहीं बल्कि समाज में व्याप्त सभी प्रकार के संबंधों का जीवित और सार्थक ढंग से वर्णन भी किया है । समाज में व्याप्त नारी के मातृत्व की , गार्हस्थ जीवन की विशद व्यंजनाओं के साथ ही उन्होंने नारी अस्मिता और नारी के आत्मस्वाभिमान जैसे प्रश्न को उठाकर नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व का बड़ा सुंदर चित्रण किया है । जिसमें रसलोलुप्ता के स्थान पर लोकोन्मुखता है । शुक्ल जी ने सूर की प्रेम – भावना पर आक्षेप किया है कि वह एकांतिक है और लोकधर्म की प्रतिपादक नहीं है – “वह भक्ति की एकांत साधना का आदर्श प्रतिष्ठित करती हुई जान पड़ती है , लोक धर्म के किसी अंग का नहीं।”1

                       आचार्य शुक्ल को सूर – काव्य का संयोग प्रेम वर्णन ही नहीं वियोग प्रेम वर्णन भी पसंद नहीं आता । गोपियों का वियोग उन्हें अस्वाभाविक – सा लगता है । उनके अनुसार गोपियां कृष्ण के इतना निकट होते हुए भी विरह में तड़पा करती है पर चार कदम चलकर उनसे मिल नहीं पाती। उन्हें इस पर भी आपत्ति है कि विरह से परेशान सिर्फ गोपियाँ हैं , कृष्ण नहीं । और तो और गोपियों के वियोग में सीता के वियोग की सी गंभीरता नहीं है । सूर के काव्य में वात्सल्य प्रेम और वियोग  चित्रण के प्रसंग में नारी अस्मिता की जो पहचान मिलती है । वह प्रेम के संयोग और वियोग वर्णन में पूरी तरह से उभरकर सामने  आती है । सूर का  वियोग वर्णन  बिहारी आदि रीतिकालीन कवियों की भांति उपहासास्पद या औपचारिकता पूर्ण लिखा वियोग वर्णन नहीं हैं।   सूर के वियोग वर्णन के संदर्भ में “भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य” नामक पुस्तक में शिवकुमार मिश्र लिखते हैं “उसमें वियोग के त्रासद चित्रण को उभारने और उसे लंबे समय तक झेलते रहने की अद्भुत क्षमता है ।”2 उसमें गोपियों के चरित्र का स्वरूप इतना निखर कर सामने आया है कि जो उनकी पहचान , उनके अस्तित्वबोध , स्वाभिमान को उभारता ही नहीं बल्कि उसे बनाए रखने के लिए उसमें शक्ति और ऊर्जा का संचरण भी करता है । वह आगे लिखते हैं “वियोग का तन्मय कर देने वाला त्रासद चित्रण ही नहीं , उस वियोग चित्रण के बीच से मानिनी नारी की , नारी अस्मिता की जो छवि सूर ने उभारी है , उसका कोई भी मुकाबला नहीं है ।”3

                     सूर की गोपियाँ स्वाभिमानिनी और अपने आत्मसम्मान को बनाए रखने वाली गोपियाँ है । वह चाहती तो दो कोस दूर कृष्ण से मिलकर अपनी विरह – वेदना को कम  कर सकती थीं । परन्तु  नहीं , उन्होंने ऐसा नहीं किया , क्योकि उन्होंने कृष्ण से सच्चा प्रेम किया था , पर अपना आत्मसम्मान खोकर नहीं । इसके अलावा सूर के  काव्य में सामंती – परिवेश भी कहीं प्रत्यक्ष रूप में कहीं सांकेतिक  रूप में दिखाई देता है , परन्तु उसकी अभिव्यक्ति सभी आलोचकों के यहाँ नहीं हुई  ।

                     प्रगतिशील आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने विशेष रूप से तुलसी के काव्य का मार्क्सवादी दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन किया तो नामवर सिंह ने कबीर का पुनर्मूल्यांकन किया । एक ने आचार्य शुक्ल की स्थापनाओं का विकास तुलसी के सम्बन्ध में  किया , तो दूसरे ने आचार्य द्विवेदी की स्थापनाओं का  विकास कबीर के सम्बन्ध में किया । चाहे रमेश कुंतल मेघ हों या फिर तुलसी को लोकवादी कहने वाले डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी सभी का झुकाव तुलसी काव्य और कबीर काव्य की आलोचना पर ही वशेष रूप से रहा है । इन आलोचकों की तुलना में मैनेजर पांडेय और शिवकुमार मिश्र ने मार्क्सवादी दृष्टि से सभी भक्त कवियों का पुनर्मूल्यांकन  किया।  जिसमें सूर  के काव्य का मार्क्सवादी दृष्टि से मूल्यांकन अति महत्वपूर्ण है ।

                     मैनेजर पांडेय ने सूर  के काव्य की सामाजिकता को उजागर कर निर्गुण काव्य की सामाजिकता के समकक्ष रखकर उसका मूल्यांकन किया और कहा कि निर्गुण काव्य में जो सामाजिक चेतना के स्वर दिखाई देते हैं , वैसा ही सामाजिक परिवेश की व्यख्या का वर्णन सूर ने अपने काव्य में किया । उन्होंने लिखा है -“निर्गुण संतों की तरह सगुण भक्तों की कविता में सामंती समाज और उसकी विचारधारा के विरुद्ध ललकार की भाषा में उग्र विद्रोह घोषणाएँ कम हैं , लेकिन उनकी कविता में चरित्रों का निर्माण , कथा की संरचना , यथार्थ बोध , भावबोध और जीवन मूल्य के बोध के स्तर पर सामंती व्यवस्था और विचारधारा का विरोध प्रकट हुआ है । सूर और तुलसी ने कृष्ण और राम की जिन कथाओं को आधार बना कर काव्य रचना की , वे संस्कृत काव्य की उदात्त परम्परा की उपज और लोकजीवन में प्रचलित कथाओं के नायक अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने वाले वीर पुरुष हैं । सामंती समाज – व्यवस्था के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने वाली जनता इन कथा -नायकों के संघर्ष में अपने संघर्ष की आकांक्षा का मूर्त रूप देखती है । यही इन कथाओं की व्यापक लोकप्रियता का रहस्य है । सूर और तुलसी के कृष्ण और राम अन्यायी , अत्याचारी और दमनकारी शासकों को मारकर उनकी दमनकारी सत्ताओं के स्थान पर लोकहित – कारी राज्य – व्यवस्था की स्थापना करते हैं ।”4

                      इस आधार पर अगर हम यहाँ सूर और तुलसी के काव्य की सामाजिकता या उनके काव्य में सामंती व्यवस्था के प्रति विद्रोह की बात आचार्य शुक्ल की आलोचनात्मक दृष्टिकोण में करें तो हम पाते हैं कि आचार्य शुक्ल निर्गुणियों की काव्य धारा में ‘लोक – संग्रह का अभाव’  बताकर  उसकी आलोचना करते हैं। साथ ही उन्हें सगुण भक्त में सूर और तुलसी में से तुलसी के काव्य में चरित्रों के निर्माण , कथा की संरचना , यथार्थ बोध , भावबोध और जीवन मूल्यों के बोध के स्तर पर सामंती व्यवस्था और विचारधारा का विरोध तो होता दिखाई देता है , पर सूर के काव्य में  ये सभी स्तर कम या नहीं के बराबर दिखाई देते हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार पारिवारिक और सामाजिक जीवन के बीच हम सूर के बाल कृष्ण को ही थोड़ा बहुत देखते हैं । इस संबंध में उन्होंने लिखा है -“बाल लीला के भीतर कृष्ण चरित्र का लोक – पक्ष अधिकतर आया है , जैसे कंस के भेजे हुए असुरों के उत्पात से गोपों को बचाना , काली नाग को नाथकर लोगों का भय छुड़ाना । इंद्र के कोप से डूबती हुई बस्ती की रक्षा करने और नन्द को वरुण – लोक से लाने का वृतांत यद्यपि प्रेमलीला आरम्भ होने के पीछे आया है , पर उससे सम्बद्ध नहीं है ।”5

                     बड़ी ही आश्चर्य की बात है कि आचार्य शुक्ल इन सभी सामाजिक कृत्यों के पीछे प्रेम – भावना का कारण बताकर उसे  ‘लोकसंग्रह के भाव’ से अलग कर देते हैं और उनके प्रेम को भी वासनायुक्त कह उसकी निंदा करते हैं । इंद्र के कोप से पूरी बस्ती को बचाने , असुरों से गोप – गोपियोँ की रक्षा करने या फिर काली नाग से गाँव वालों को बचाने में क्या कहीं भी व्यक्तिगत प्रेम वासना दिखाई देती है?

                     इस सम्बन्ध में डॉ.रामविलास शर्मा लिखते है -“शुक्ल जी ने मारीच , ताड़का और खरदूषण के निपात -वर्णन की प्रशंसा की है। लेकिन तुलसी के ये अपेक्षाकृत कमजोर अंश हैं , इसे कौन नहीं जानता ? स्वयं शुक्ल जी को ये अंश बहुत प्रिय न थे । पथिक वेश में वन जाते हुए राम , लक्ष्मण और सीता का वर्णन शुक्ल जी को कितना प्रिय था , यह इससे मालूम हो जाता है कि तुलसी की भावुकता का विवेचन करते हुए उन्होंने बार – बार उस प्रसंग के उद्धरण दिये हैं और यह जानकर की एक ही जगह से बहुत उद्धरण दे रहे हैं , उन्होंने यह सरस् वाक्य लिख भी दिया है -“क्षमा कीजियेगा , यह दृश्य हमें बहुत मनोहर लगता है , इसी से बार – बार सामने आया करता है ।”6

                    डॉ. शर्मा तुलसी और सूर के काव्य में मौलिकता को आदि से अंत तक स्वीकारते हुए कहते हैं – “यदि लोक संग्रह का भाव वन जाते हुए राम , लक्ष्मण और सीता में है , तो वैसा ही भाव कृष्ण की बाल लीला , रासलीला और उद्धव – गोपी संवाद में भी है ।”7  इस प्रकार सूरसागर में डॉ. शर्मा ने कई जगहों पर कृष्ण का लोकरक्षक रूप दिखाकर उसमें ‘लोक – संग्रह भाव’ की अपनी स्वीकृति दी । सूरसागर में इसी लोक -संग्रह भाव ‘ और स्वच्छन्द एवं उन्मुक्त प्रेम की अभिव्यक्ति का आलोचनात्मक विकसित रूप मैनेजर पांडेय की आलोचना में दिखाई देता हैं । मैनेजर पांडेय ने सूर के काव्य को किसान – जीवन से जोड़कर देखा । और वह पाते हैं कि सूर के काव्य में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से किसान – जीवन की झलकियाँ लोगों के सुख – दुख , हर्ष , उल्लास , प्रेम के आलम्बन रूप में अपने पूरे परिवेश के साथ विद्यमान हैं । वह डॉ. रामविलास शर्मा की इस बात से सहमत है कि -“भक्ति आंदोलन किसी एक वर्ग का आंदोलन नहीं था , उसमें किसान , शिल्पकार , व्यापारी आदि सभी शामिल थे । वास्तव में भक्ति आंदोलन सामंती व्यवस्था से पीड़ित और उससे मुक्ति के लिए छटपटाते संघर्षशील सभी वर्गों का व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन था । लेकिन उसमें मुख्य भूमिका शिल्पकारों और किसानों  की थी , इसलिए वह जनसंस्कृति के उत्थान का आंदोलन बन सका ।”8

                      डॉ. रामविलास शर्मा ने कबीर को शहरी कारीगर , सूरदास को चारागाह संस्कृति और तुलसी को किसान जीवन का कवि माना है । परंतु सच यह है कि सिर्फ तुलसी ही नहीं बल्कि कबीर , सूर और जायसी में भी किसान – जीवन अपने पूरे विकसित रूप में दिखाई देता है।  ‘भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य‘ नामक अपनी पुस्तक में मैनेजर पांडेय ने आरम्भ में ही कहा है कि भक्ति काव्य की व्याख्या आचार्य शुक्ल , आचार्य द्विवेदी , डॉ. शर्मा और डॉ. नामवर सिंह सभी आलोचकों ने अपने – अपने मानदंड और स्थापनाओं के आधार पर की । वही मानदंड वह सभी भक्त कवियों की आलोचना करते समय समान रूप से लागू करते हैं।  और बाद में यह समस्या आती है कि कौन -सा कवि श्रेष्ठ है ? जबकि सभी भक्त कवि अपनी – अपनी अलग – अलग विशेषताएं लिए हुए हैं और उनका मूल्यांकन अपनी इन्हीं विशेताओं के आधार पर किया जाना चाहिए न कि तुलसी के समक्ष कबीर या सूर को रखकर उनका मूल्यांकन करना चाहिए।

                        मैनेजर पांडेय ने कहा कि आचार्य शुक्ल की सूर के काव्य संबंधी आलोचना से यह संकेत मिलता है कि सूरसागर में पशुचारण – काव्य की प्रवृत्ति मिलती है ।  इस सन्दर्भ में वह आचार्य शुक्ल का यह उद्धरण प्रस्तुत करते हैं कि -“बाललीला के आगे फिर उस गोचारण का दृश्य सामने आता है , जो मनुष्य जाति की अत्यंत प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों के काव्य का प्रिय विषय रहा है…….।”9

                       आचार्य शुक्ल का संकेत पा कर डॉ. शर्मा ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि सूर पशुपालकों के कवि हैं , तुलसी किसान जीवन से जुड़े हैं ,और उस युग में किसान – जीवन के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास ही हैं । आचार्य शुक्ल जब सूरसागर में बाल लीला के बाद गोचारण के मनोरम दृश्य का जिक्र करते हैं , तो उनका मतलब सूर के सम्पूर्ण काव्य को गोचारण काव्य या प्रागैतिहासिक पशु – चारण काव्य सिद्ध करना नहीं है । बल्कि ऐसा वही आलोचक सूर के काव्य के सम्बन्ध में कहते हैं , जो सूर – काव्य के मूल्यांकन के नाम पर सरलीकरण करते हैं या फिर वह जो तुलसीदास के समक्ष तुलनात्मक स्वरूप किसी अन्य कवियों को आने ही नहीं देते । पांडेय जी के अनुसार गोचारण या पशु – चारण काव्य के संकेत सूरसागर में दिखाई देते हैं । वह प्रसंगवश आए भी है । परंतु किसान – जीवन का सम्पूर्ण परिवेश ही सूरसागर में कही प्रत्यक्ष और कही अप्रत्यक्ष रूप में विद्यमान है । इसीलिए उनके काव्य को किसान – जीवन से जोड़कर देखा जाए न कि गोचारण या पशु – चारण काव्य संस्कृति से ।

                         सांकेतिक रूप या प्रत्यक्ष रूप में लगभग सभी भक्त कवियों के काव्य में किसान जीवन के चिह्न अवश्य मिलेंगे । मुगलों के समय और उससे पहले सामन्त या राजाओं की आमदनी का मुख्य स्रोत थी कृषि । यह आकारण ही नहीं था कि डॉ. शर्मा भक्ति – आंदोलन को किसान चेतना से जोड़कर देखते हैं। इस संबंध में वह लिखते हैं -“इतिहासकारों का यह कहना है कि शाहजहां के समय में किसानों की बुरी दशा हो गई । किसान जमीन छोड़ – छाड़कर भागने लगे और औरंगजेब को यह आज्ञा देनी पड़ी की अगर कहने से किसान जमीन न जोते तो उन्हें कोड़ों से पिटवाकर खेत जुतवायें जायें । उस समय का मुख्य संघर्ष सामन्त और किसानों के बीच था । ज्यों – ज्यों हम औरंगजेब की ओर बढ़ते हैं , त्यों -त्यों संघर्ष तीव्र होता जाता है । अकबर से पहले विभिन्न युद्धों के कारण उस पर पर्दा पड़ा रहा । दूसरी – दूसरी समस्याओं में लोग उलझे रहे । इसलिए हम किसी मध्यकालीन कवि से यह आशा नहीं कर सकते कि वह इस वर्ग – संघर्ष का स्पष्ट चित्रण करेगा । किसी न किसी रूप में उस समय के महान साहित्यिकों की रचनाओं में उसकी छाया मिलेगी ही ।”10

                     मैनेजर पांडेय ने सूर – काव्य की साजिकता के पक्ष में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही है वह हैं उसकी भाषा । सूर के काव्य में भाषा के उपकरणों के माध्यम से किसान – जीवन का चित्रण हो पाया है । उस समय की सामंती – व्यवस्था , सामाजिक सम्बन्ध , ग्राम प्रबंध , भूमि व्यवस्था और किसान जीवन का चित्रण सूरदास ने अपनी काव्य – भाषा के उपकरण रूपक , अलंकार , बिम्ब , प्रतीक , मुहावरों , लोकोक्तियों इत्यादि के माध्यम से किया है ।

                      सूर की काव्य भाषा के सन्दर्भ में मैनेजर पांडेय ने लिखा हैं -“सूर ने परम्परा से पाई भाषा में कविता लिखने के बदले किसान – जीवन की वास्तविक भाषा से अपनी कविता की दुनिया बनाई है , इसलिए उनकी काव्य – भाषा में अनेक स्तरों पर ग्राम -समाज और किसान – जीवन प्रतिबिम्बित है । वे ही यौवन को ‘हरियर खेत’ और प्रिय को ‘हारिल की लकड़ी’ कह सकते हैं । वास्तव में सूर की भाषिक संवेदना में उनकी सामाजिक सम्वेदनशीलता प्रकट हुई है।”11

सन्दर्भ

  1. भ्रमरगीतसार , आचार्य रामचंद्र शुक्ल , लोकभारती प्रकाशन , संस्करण 2007 , पृष्ठ (19)

2 . भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य , शिवकुमार मिश्र , अभिव्यक्ति प्रकाशन , संस्करण 2005

  1. वही………..
  2. भारतीय साहित्य के निर्माता , मैनेजर पांडेय , साहित्य अकादमी , प्रथम संस्करण 2008 , पृष्ठ (भूमिका से)
  3. भ्रमरगीतसार , आचार्य रामचंद्र शुक्ल , लोकभारती प्रकाशन , संस्करण 2007 , पृष्ठ (19)
  4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना , डॉ. रामविलास शर्मा , राजकमल प्रकाशन , संस्करण 1993 , पृष्ठ (93-94)
  5. वही……… पृष्ठ (94)
  6. वही………
  7. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना , डॉ. रामविलास शर्मा , राजकमल प्रकाशन , संस्करण 1993 , पृष्ठ (22)
  8. साहित्य: स्थाई मूल्य और मूल्यांकन , डॉ. रामविलास शर्मा , पृष्ठ (39)
  9. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य , मैनेजर पांडेय , वाणी प्रकाशन , प्रथम संस्करण पृष्ठ (302)
अनिल कुमार
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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