सन् 1967 में प्रकाशित शिवप्रसाद सिंह का ‘अलग अलग वैतरणी’ ग्रामभित्तिक उपन्यासों की चर्चा के प्रसंग में उल्लेखनीय स्थान रखता है। इस उपन्यास का आयतन बड़ा है, पात्रों की संख्या भी अनगिनत है; फिर भी इसे पढ़ते हुए लय नहीं टूटती और न ही मन ऊबता है। इसकी कथा में भरपूर रस है जो पाठक को बाँधकर रखता है। कहने के लिए यह पूर्वांचल के गाज़ीपुर जनपद के करैता गाँव की कहानी है, लेकिन इसका विस्तार यहीं तक सीमित नहीं है। इस उपन्यास का करैता गाँव आजादी के बाद परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहे हिन्दी पट्टी के ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व करता है। सन् 1947 में मिली आजादी ने जनता में जो उम्मीदें जगायी थीं, वे एक दशक बाद ही टूटने लगी थीं। जब सपने टूटते हैं तो उसके परिणाम प्रायः भयावह ही होते हैं। आजादी ने जिस युवा पीढ़ी में सबसे ज्यादा सपने भरे थे उसी के मानस पर इसका सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा। शिवप्रसाद सिंह ने इस उपन्यास में जिस वैतरणी की चर्चा की है वह भी अनन्त है। हर एक पात्र की अपनी-अपनी वैतरणी है। उनकी नियति का आख्यान प्रस्तुत करने वाला यह उपन्यास परिवर्तन की प्रक्रिया को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ इसके शिक्षित युवा पात्र विपिन को अपना ही गाँव नरक लगने लगता है। ‘तट चर्चा’ के अन्तर्गत शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है कि ‘जब शिवत्व तिरस्कृत होता है, व्यक्ति के हक़ छीने जाते हैं, सत्य और न्याय अवहेलित होते हैं, तब जन-जन के आँसुओं की धारा वैतरणी में बदल जाती है। नरक की नदी बन जाती है।’ यह टिप्पणी उपन्यास की दिशा का संकेत करने के साथ उसकी वैचारिक पक्षधरता एवं रचनात्मकता के बारे में बहुत कुछ संकेत कर देती है। वह आजादी के एक दशक बाद का समय था जिसमें अवस्थित होकर इस उपन्यास को रचा गया। वह नैतिक मूल्यों के पतन, मोहभंग, दिशाहीनता और विकृतियों के विकास का समय था जिसमें टूटने-बिखरने की प्रक्रिया अप्रत्याशित रूप से तेज गयी थी, परन्तु इसके बरअक्स ऐसे मूल्यों का विकास नहीं हो पा रहा था जो समाज को स्वस्थ दिशा प्रदान कर सकें। ‘अलग अलग वैतरणी’ की कथा सिर्फ़ करैता गाँव की नहीं है। यह एक कालखण्ड विशेष में घटित हो रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया का रचनात्मक साक्ष्य है। जब सब कहीं बदलाव हो रहा हो तो करैता उससे बच नहीं सकता था। ‘अलग अलग वैतरणी’ के पात्रों में समाजार्थिक स्तर पर विविधता है। पात्रों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक है। किसी एक पात्र को बहुत अधिक या बहुत कम महत्व दिया गया हो, ऐसा भी नहीं हैं। पात्रों की बहुलता के बावजूद सभी के ऊपर ज़रूरत के मुताबिक रोशनी डाली गयी है ताकि उनका चरित्र पाठकों के सामने स्पष्टता के साथ उभर सके। इस उपन्यास का कोई पात्र प्रसन्नवदन नहीं दिखता। सभी दुःखी हैं। सबके अपने-अपने दुःख हैं। कोई किसी के दुःख को कम करने की स्थिति में नहीं हैं। आजादी के दस-पन्द्रह वर्षों बाद ही व्यवस्था पर गम्भीर सवाल खड़े होते हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन के आदर्शों, मूल्यों, सपनों और नैतिकता का इतने कम समय में ध्वस्त होते जाना भविष्य की कठिन चुनौतियों का आभास देता है। कुछ लोगों को इसमें आंचलिकता की झलक मिलती है। निश्चय ही इसकी भाषा में भोजपुरी शब्दों का प्रयोग हुआ है, लेकिन उस तरह नहीं जैसा ‘मैला आँचल’ में दिखायी देता है। ‘अलग अलग वैतरणी’ में अंचल नहीं, पात्र बोलते हैं। स्थितियाँ और घटनाएँ यथार्थ को समग्रता में समेटे हुए हैं। यह उपन्यास स्वातन्त्र्योत्तर भारत के गाँवों में चल रही परिवर्तन की प्रक्रिया का वृहद् आख्यान है जिससे रूबरू होने के बाद कभी-कभी उम्मीद की जमीन पर देर तक पाँव टिकाना मुश्किल हो जाता है। उपन्यास के परिवेश में चारों तरफ टूटन है और इसी के बीच उपन्यास के पात्र साँस लेते हैं। कुछ अपने परिवेश से भागकर दूर चले जाते हैं, बाकी उसी में रहने के लिए अभिशप्त हैं। ऐसे पात्रों की विवशता भी बड़ी मार्मिक है। ‘तट चर्चा’ में शिवप्रसाद सिंह ने स्वीकार किया है कि वे अपने ‘मन के करैता की सही ‘ठनक’ को बाँध नहीं’ पाये हैं। यह स्वाभाविक है। किसी एक रचना में समय विशेष के सम्पूर्ण यथार्थ को बाँध पाना बहुत कठिन होता है। कुछ न कुछ छूट ही जाता है, क्योंकि कोई भी रचना स्वयं में सम्पूर्णता का दावा नहीं कर सकती। फिर भी शिवप्रसाद सिंह को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपनी पहली ही औपन्यासिक कृति में कथानक, परिवेश, भाषा, शिल्प और पात्रों को इस सलीके से रचा है कि इतने व्यापक कलेवर वाले उपन्यास को पढ़ते हुए अथवा पढ़ने के बाद पाठक को ऊब या व्यर्थता की अनुभूति नहीं होती। इसके बरअक्स वह इसके कथारस में डूबता ही चला जाता है। उपन्यासकार ने ‘अलग अलग वैतरणी’ की शुरुआत करैता में हर साल रामनवमी के अवसर पर लगने वाले देवीधाम के मेले के चित्रण से की है। यह मेला एक अवसर विशेष पर लोगों का बटोर ही नहीं, सांस्कृतिक समागम भी है जो ग्रामीण समाज की बनावट, उसकी चेतना, समाजार्थिक स्थिति और उसमें होने वाले बदलावों की भी झलक देता है। ‘गबरू नट का मशहूर भेड़ा ‘करीमन’, ‘देवीचक के केशो बाबू का ‘अबलखा’, ‘छन्नू उस्ताद की मण्डली’ और रामदास की ‘सदा बहार कम्पनी’ की नौटंकी के अलावा ‘करैता की किसी शोख लड़की से छेड़खानी करने के कारण मारपीट और खून-खराबा इस मेले का सालाना रिवाज़’ है।’ एक सांस्कृतिक आयोजन के चित्रण से उपन्यास की शुरुआत करना संयोग नहीं है। शिवप्रसाद सिंह जानते हैं कि ‘अलग अलग वैतरणी’ के औपन्यासिक आख्यान को वे जिस तार्किक परिणति की ओर ले जाना चाहते हैं उसके लिए पूर्वापर सम्बन्ध का बखान करना ज़रूरी है। आरम्भ में ही दयाल महाराज उर्फ़ बुल्लू पण्डित का उल्लेख मिलता है जो प्रायः ‘दूसरों की खुशी के आगमन के अवसर पर चेहरे पर स्वागतम् का पोस्टर चिपकाये घूमते’ दिख जाते हैं। दूसरों के लिए जीवन जीने वाले दयाल को भी अब महसूस होने लगा है कि ‘कहाँ होता है उत्सव-त्यौहार? बस किसी तरह ज़िन्दगानी कट जाये, यही बहुत है।’ सांस्कृतिक क्षरण, उदासी, निराशा और विवशता के मिले-जुले भावों की इस अभिव्यक्ति में करुणा का राग भी मद्धिम स्वर में बजता रहता है। स्वार्थ, अलगाव एवं अभाव की छाया में उत्सवधर्मिता का तत्व क्षीण होता जा रहा है। इस नये दौर में ‘जो जनता को जितना चूतिया बनाता है, उतना ही मज़ा काटता है।’ उपन्यास के कथ्य में इस नये ज़माने के बहुतेरे रंग देखने को मिलते हैं। उपन्यास के विकास-क्रम में स्थितियाँ लगातार जटिल होती जाती हैं। शिवप्रसाद सिंह की औपन्यासिक दृष्टि ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है’ जैसी अवधारणा का विखण्डन करती है। अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी भी है। बदलाव तो हर समय होता है, न चाहने के बावजूद भी। रोमानीपन के विरुद्ध आधुनिक भावबोध के स्तर पर यथार्थ को उसकी बहुआयामिता में ग्रहण करना शिवप्रसाद सिंह के लेखन का अभीष्ट है। इसके वृतान्त में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है।

‘अलग अलग वैतरणी’ के शीर्षक में प्रयुक्त ‘वैतरणी’ शब्द भले ही आधुनिक भावबोध से मेल न खाता हो, लेकिन जब हम धीरे-धीरे इस उपन्यास के भीतर प्रवेश करते हैं तो इस शब्द में निहित अर्थ स्पष्ट हो जाता है और तब हम खुद को उस मोड़ पर खड़ा पाते हैं जहाँ से वर्तमान के परिदृश्य को  व्यापक ढंग से देख सकते हैं। विजयदेव नारायण साही ने लक्ष्य किया है कि ‘‘शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास में संस्कारों की गऊ न जाने कहाँ खो गई है, शेष सिर्फ़ वैतरणी ही वैतरणी है जिसमें सब ऊभ-चूभ कर रहे हैं। इस वैतरणी को पार नहीं किया जा सकता, सिर्फ़ इससे भागकर जाया जा सकता है। गाजीपुर में डिग्री कॉलेज की अध्यापकी करने के लिए।’’(भीष्म साहनी सम्पादित आधुनिक हिन्दी उपन्यास-1, पृ.468) संस्कारों का लोप होना एक बड़े बदलाव का सूचक है। इस उपन्यास ने उस प्रचलित अवधारणा का खण्डन किया है जिसमें गाँव को कथा-लेखन का विषय बनाना पिछड़ी हुई दृष्टि का परिचायक माना जाता रहा। गौरतलब है कि गाँव कोई द्वीप नहीं, हमारे  समाज का अटूट हिस्सा हैं। आधुनिक दृष्टि पर सिर्फ़ शहर का एकाधिकार नहीं होता, न ही परिवर्तन की प्रक्रिया शहरों तक सीमित रहती है। वह ग्रामीण समाज को भी प्रभावित करती है। डॉ. प्रेमशंकर ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘जो लोग आधुनिकता को नगर और उसमें भी विशेष रूप से महानगरों तक केन्द्रित करना चाहते हैं, उन्हें चमरौटी की तेज़ी से बदलती हुई ज़िन्दगी पर नज़र डालनी चाहिए। निर्धन, असहाय, गूँगे लोगों का हुजूम धीरे-धीरे कहाँ से इतनी शक्ति पा जाता है कि ‘चौधरियों की बटोर’ सर्वसम्मति से फैसला करती है कि ‘सुरजू सिंह कल सुबह सुगनी को अपनी पत्नी समझकर खुद आकर चमरौटी से ले जाएँ, नहीं कल शाम को चमार लोग सुगनी को ले जाकर उनके घर बैठा आएँगे।’’(पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु’ सम्पादित शिवप्रसाद सिंह: स्रष्टा और सृष्टि, पृ.139) याद रखना चाहिए कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा आदि मध्यकालीन कवियों के साहित्य में आधुनिक भावबोध की जो झलक दिखती है वह न शहर की देन है, न ही पाश्चात्य सभ्यता की। आधुनिकता का अपना देशज रूप भी होता है जो अपने समाज, परिवेश, परिस्थिति तथा कालविशेष की कोख से पैदा होता है। ‘अलग अलग वैतरणी’ का करैता जिस संक्रमण से गुजर रहा है, उसमें बहुस्तरीयता है। एक ही समय में कई तरह की प्रवृत्तियाँ व्यक्ति और समाज को भिन्न-भिन्न स्तरों पर प्रभावित करती हैं। व्यक्ति और समाज भी समान धरातल पर इनसे प्रभाव नहीं ग्रहण करते। इस उपन्यास में देखें तो लोगों के भिन्न-भिन्न समाजार्थिक स्तर हैं और उनकी समस्याएँ भी अलग-अलग। उनके दुःख-ताप और इच्छा-आकांक्षाओं में अन्तर है, लेकिन किसी न किसी कारण से सभी त्रस्त हैं। यह त्रास उपन्यास के पात्रों को एक धरातल पर आपस में जोड़ता भी है। हालाँकि टूटने की प्रक्रिया इतनी तीव्र है कि कहीं कुछ जुड़ने की बजाय सब कुछ बिखरता ही चला जाता है। जब सपने टूटते हैं तो व्यक्ति हो या समाज, उनको एक साथ बाँधकर रखना कठिन हो जाता है। इस उपन्यास के प्रमुख स्त्री पात्रों-कनिया, पटनहिया और पुष्पी की नियति को एक धरातल पर रखकर तौलें तो इन तीनों में काफी समानताएँ मिलती हैं। ये तीनों ही पितृसत्ता के वर्चस्व, सामाजिक विधि-निषेध, कुल-मर्यादा और विवशताजन्य परिस्थितियों के दबाव का शिकार हैं। देश भले ही आजाद हो गया हो, पंचायती राज व्यवस्था लागू कर दी गयी हो; लेकिन सवाल यह है कि इन बातों से इन स्त्रियों की जीवन-स्थितियों में कोई मूलभूत बदलाव क्यों नहीं आया? सकारात्मक बदलाव की गति इतनी धीमी है कि वह प्रायः दिखायी भी नहीं देती। दूसरी तरफ विकृतियाँ अधिक स्पष्ट एवं गोचर रूप में औपन्यासिक वृतान्त में पसरी हुई हैं। समय एवं समाज की विडम्बनाएँ चटकीली हैं। उपन्यासकार की चिन्ताधारा का यह भी एक उल्लेखनीय पक्ष है। कनिया, पटनहिया और पुष्पी में से किसी के जीवन में सहजता नहीं है। कनिया को बबुआनों की कुल-मर्यादा का बोझ ढोना है। वह कहीं भी अपने दायित्वहीन-लम्पट पति के सम्मुख पत्नी की सहजता के साथ उपस्थित नहीं हुई है। पटनहिया धनी किसान के नपुंसक बेटे के साथ ब्याह दी जाती है, क्योंकि लड़की का विवाह किसी धनी परिवार में किया जाना सम्मान का प्रतीक माना जाता है। झूठी शान के लिए इस तरह के विवाहों का चलन है। पटनहिया की इच्छा के बारे में जानना तो दूर, पैसे के लोभ-लालच में उसके भावी दाम्पत्य पर भी विचार नहीं किया जाता। कल्पू के साथ उसका विवाह पुरुष के साथ स्त्री का विवाह तो कतई नहीं है। उपन्यासकार ने पटनहिया की विवशता और पीड़ा को जिस संवेदनशीलता के साथ व्यक्त किया है वह उनकी स्त्री-दृष्टि को समझने में हमारी मदद करता है। ऐसे प्रसंग पाठक को भी भावुक कर देते हैं। दरअसल इन प्रसंगों का उद्देश्य पाठक को भावुक बनाना नहीं, स्त्री के प्रति संवेदनशील बनाना है; किन्तु वर्णन की शैली और सहानुभूतिपूर्ण भाषिक प्रयोग से कोई भी सहृदय भावुक हुए बिना नहीं रह सकता। पटनहिया का स्त्रीत्व स्वयं उसे ही चुनौती देता है। हालाँकि उसकी विवशता उसे दयनीय नहीं बना पाती, क्योंकि उसमें दृढ़ता एवं अस्वीकार का साहस है। वह अपने निकट आने वाले युवकों के देहानुराग अथवा यौनाकांक्षा को ठुकरा देती है। पटनहिया सक्रिय एवं सजग स्त्री पात्र है। उसके भीतर अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख पाने का माद्दा है, परन्तु सामाजिक विधि-निषेधों ने उसकी स्थिति को जिस तरह विवश बना दिया है, उसे देखकर पाठक के मन में पटनहिया के प्रति करुणा का सात्विक भाव ही पैदा होता है। आर्थिक अभाव के कारण पुष्पी की जीवन-स्थिति निस्सन्देह दयनीय है। विपिन को अपने समूचे अस्तित्व के साथ चाहने वाली पुष्पी को अन्ततः निराश होना पड़ता है। विपिन के व्यक्तित्व में इतना साहस नहीं है कि वह पुष्पी को अपनाने की सार्वजनिक घोषणा कर सके। समूचे उपन्यास में जग्गन मिसिर की गिरफ़्तारी का विरोध करने के अलावा उसकी सक्रियता कहीं भी लक्षित नहीं होती। ऐसे में गाँव को बदलने का उसका सपना ठोस रूप नहीं ले पाता। इस उपन्यास के शिक्षित युवा पात्रों-विपिन, देवनाथ और शशिकान्त में सिर्फ़ शशिकान्त ही एक ऐसा है जो अपने बलबूते कोशिश करता है, जोखिम उठाता है, टकराता है और फिर हारकर चला जाता है। शशिकान्त की पराजय निश्चय ही ग्रामीण समाज की यथास्थितिवादी सोच की विजय है। अपनी धुन में वह निपट अकेला है। बदलाव का कोई भी प्रयास संगठन अथवा सामूहिकता के बिना सम्भव नहीं होता। क्या उपन्यासकार ने जान-बूझकर सामूहिक चेतना की प्रवृत्ति को नहीं उभारा है अथवा ग्रामीण समाज की तत्कालीन संरचना में उसे किसी बुनियादी बदलाव की गुंजाइश नहीं दिखायी दे रही थी? दरअसल शिवप्रसाद सिंह ने विकृतियों से बजबजाते जिस गाँव का चित्र उपस्थित किया है उसमें किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद कम ही लगती है। शिक्षित युवा पीढ़ी में बदलाव की चाहत है, बदलाव का साहस नहीं। वह स्थितियों से जूझने की बजाय उससे दूर भागती है। निराश और हताश तो वे भी हैं जो अशिक्षित अथवा अर्द्धशिक्षित हैं। इस उपन्यास में व्यवस्था के विरुद्ध सामूहिक प्रतिरोध की स्थितियाँ निर्मित नहीं हुई हैं।

शिवप्रसाद सिंह की आधुनिक दृष्टि को समझने के लिए पात्रों के साथ औपन्यासिक वृतान्त के कुछ बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है। इस उपन्यास के स्त्री पात्रों में प्रतिरोध की चेतना अथवा प्रतिरोध की कार्रवाई बहुत मुखरता से व्यक्त तो नहीं हुई है, किन्तु उनके हाव-भाव एवं व्यवहार पर गौर करें, तो इसके कुछ संकेत अवश्य मिलते हैं। कनिया और बुझारथ में परस्पर वार्तालाप होते नहीं दिखाया गया है। पटनहिया और कल्पू के बीच में भी संवाद का कोई दृश्य नहीं दिखता। यह भी प्रतिरोध का ही एक रूप है, किन्तु यह व्यक्तिगत स्तर पर किया जाने वाला प्रतिरोध है जिसमें कहीं भी टकराव नज़र नहीं आता। कुल-मर्यादा और सामाजिक विधि-निषेध के नाम पर जो थोप दिया गया है, ये स्त्री पात्र उसका निर्वाह तो करते हैं; लेकिन पुरुष की दासी बनकर नहीं। जग्गन मिसिर का अपनी विधवा भौजाई के साथ पत्नीवत् जीवन का निर्वाह भी एक तरह का प्रतिरोध ही है। स्वीकार अथवा अस्वीकार दोनों ही स्थितियों में स्त्री पात्रों का निर्णय उनके भावबोध का यत्किंचित् प्रक्षेपण अवश्य करता है। इसका आयतन भले सीमित हो, उपस्थिति शून्य नहीं है। शिवप्रसाद सिंह के लेखन में आधुनिक भावबोध को महत्व के साथ उभारा गया है, किन्तु वह परम्परा से विच्छिन्न अथवा मुखर विरोध का रूप नहीं ले सका है। उपन्यासकार को आधुनिकता की समझ है। फिर भी वे परम्परा को सम्पूर्णता में नकारने के पक्षधर नहीं दिखायी देते। स्त्री पात्रों, उपेक्षित व्यक्तियों और निचली जाति के पात्रों के प्रति जो संवेदनशीलता शिवप्रसाद सिंह की रचनाओं में मिलती है वह उन्हें विशिष्ट पहचान देती है। इस सन्दर्भ में उनकी ‘पापजीवी’ और ‘विन्दा महाराज’ जैसी कहानियों को याद किया जा सकता है। उनकी रचनात्मकता का उल्लेखनीय पक्ष यह है कि वे दलित, शोषित, वंचित, उपेक्षित एवं उत्पीड़ित पात्रों की पीड़ा में स्वयं के सहभागी होने की अनुभूति कराते हैं। यान्त्रिक सहानुभूति का प्रदर्शन करना उनके लेखन का अभीष्ट नहीं है। शिवप्रसाद सिंह के सर्जनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण में भावुकता, करुणा और तार्किकता तीनों की सक्रिय भूमिका दिखायी देती है। वे अपनी रचनाओं में आत्मीयता की तलाश करते हैं। यह आत्मीयता समाज को मानवीय बनाये रखने के लिए आवश्यक है। मानव-जीवन की सुन्दरता के लिए आवश्यक तŸवों की खोज करने वाले शिवप्रसाद सिंह प्रेम और घृणा के परस्पर विरोधी भावों के चित्रण में सिद्धहस्त हैं। ‘अलग अलग वैतरणी’ के विपिन, देवनाथ और शशिकान्त की गाँव के प्रति प्रेम एवं विरक्ति के बीच खिंची विडम्बना की रेखाओं को उन्होंने जिस संयम और सहानुभूति के साथ उभारा है वैसा कम देखने को मिलता है। उनके प्रेम-चित्रण में भी संयम है, लेकिन अनैतिक सम्बन्धों के चित्रण में उनकी लेखनी उग्र हो उठती है। देवीधाम के मेले में बाहरी गाँव की स्त्रियों से छेड़छाड़ का प्रसंग हो अथवा सुगनी-बुझारथ, पुष्पी-बुझारथ, दुलारी-सिरिया या पुष्पी पर सिरिया की अशोभनीय टिप्पणी से क्रोधित हुए जग्गन मिसिर का प्रसंग; उन्होंने अनैतिकता, मर्यादाहीनता एवं अशोभन का प्रखर विरोध किया है। उनके भावबोध पर नैतिकता की छाया बराबर बनी रहती है जो अपनी प्रकृति में खोखले आदर्शवाद से भिन्न है। शिवप्रसाद सिंह परिवर्तन के पक्षधर होते हुए भी अपने समय की परिवर्तन की प्रक्रिया, उसकी स्थिति एवं गति से असन्तुष्ट प्रतीत होते हैं। वे जिस परिवर्तन की कामना करते हैं उसमें सार्थकता पर जोर है। वे परिवर्तन की दिशा को मानवता के पक्ष में झुका हुआ देखना चाहते हैं। सिर्फ़ परिवर्तन के लिए परिवर्तन न उनकी चेतना का अंग रहा है, न ही उनके लेखन का अभीष्ट।

‘अलग अलग वैतरणी’ के प्रसंग में ही बात करें तो हम देख सकते हैं कि उपन्यासकार की केन्द्रीय चिन्ता इस बात को लेकर है कि अब गाँव का क्या होगा? वैतरणी का रूपक परम्परावादी लग सकता है। इसमें नियतिवाद की गन्ध को भी महसूस किया जा सकता है। फिर भी मूल प्रश्न अपनी जगह बना रहता है। उपन्यासकार के पास भी इसका कोई जवाब नहीं सूझता। आजादी के बाद एक दशक बीतते-बीतते कहीं न कहीं विचार के धरातल पर एक प्रकार के संशय, सम्भ्रम, अनिश्चय और खालीपन की स्थितियाँ निर्मित होने लगी थीं। राजनीति की परिचालक शक्तियाँ महान् दायित्व को निभाने की बजाय अपने निहित स्वार्थों को प्राथमिकता देने लगीं और वृहत्तर समाज का हित उनकी चिन्ताधारा से छिटककर क्रमशः दूर होता चला गया। ऐसे में शिवप्रसाद सिंह ने अपने समय के यथार्थ के जिन सूत्रों की पहचान करके इस उपन्यास का ताना-बाना बुना है, वे विविधवर्णी और आधारभूत हैं। यही कारण है कि अनगिनत पात्रों और उपकथाओं के होते हुए भी यह उपन्यास अपने पाठकों को विश्वसनीय लगता है। इसकी संरचना में गहरी रागात्मकता है। हालाँकि औपन्यासिक आख्यान की निर्मिति में पूर्वस्मृतियों की महती भूमिका है। फिर भी वर्तमान से जुड़ाव कहीं भी कम नहीं दिखता और अपने समग्र प्रभाव में यह उपन्यास वर्तमान की व्यथा-कथा कहने के दायित्व से तनिक भी विचलित नहीं हुआ है। समाज, राजनीति, धर्म और संस्कृति–ग्रामीण जीवन के विविध पहलुओं का स्पर्श करता, उन्हें झिंझोड़ता, उनमें कोलाहल पैदा करता यह उपन्यास अपनी ओर से कोई निष्कर्ष अथवा समाधान नहीं प्रस्तुत करता, बल्कि वर्तमान में अवस्थित होकर भविष्य की ओर संकेत देता हुआ मूल्य-निर्णय का दायित्व पाठक के विवेक पर छोड़ देता है। उल्लेखनीय है कि इसके संकेत की दिशा में सटीकपन है। इससे राजनीति और समाज के बारे में उपन्यासकार की समझ का भी पता चलता है। यह भी कहना होगा कि ‘अलग अलग वैतरणी’ के शिक्षित युवा पात्रों में राजनीतिक चेतना का अभाव है। ये पात्र राजनीति से घृणा करते हैं। दरअसल आजादी के बाद भारतीय राजनीति में जिस तरह के लोगों की घुसपैठ होनी शुरू हुई थी उनमें से अधिकांश का विचारधारा एवं सामाजिक प्रतिबद्धता से जुड़ाव की बजाय लोभ-लालच, स्वार्थपूर्ति और पद-प्रतिष्ठा अर्जित करने से ज्यादा रहा है। आज की राजनीति तो भ्रष्टाचार और अपराध में आकण्ठ डूबी हुई है। इस उपन्यास में उल्लेख मिलता है कि वर्षों तक कांग्रेस का झण्डा ढोने वाले सुखदेव राम को आजादी मिलने के बाद हाशिये पर धकेल दिया गया है। उन्हें टिकट देने की बजाय उपदेश दिया जाता है। यह सिर्फ़ कांग्रेस के चरित्र में होने वाले परिवर्तन की सूचना नहीं, समूची भारतीय राजनीति के चाल-चरित्र एवं प्राथमिकताओं में होने वाले  बदलाव का द्योतक है। राजनीतिक दलों के अधःपतन से क्षुब्ध होकर उपन्यासकार ने ऐसे युवा पात्रों की सृष्टि की है जो राजनीति को बुरी बला समझकर उससे दूर भागते हैं। कई दशकों तक चले राष्ट्रीय आन्दोलन के परिणामस्वरूप जो आजादी मिली, उसके एक दशक बाद ही देश की युवा पीढ़ी में राजनीति के प्रति नकारात्मक सोच का पैदा होना राजनीति, राजनीतिक प्रक्रिया और भारतीय लोकतन्त्र के लिए कोई सकारात्मक संकेत नहीं है। उपन्यास में ग्राम-राजनीति का जो स्वरूप व्यक्त हुआ है वह तो और भी अधिक निराशाजनक है। यहाँ कोई चाहे तो राजनीति के बारे में शिवप्रसाद सिंह की समझ पर अँगुली उठा सकता है, लेकिन उपन्यास में राजनीति के जिस स्वरूप का दर्शन होता है वह वस्तुगत सत्य के विपरीत नहीं है। ऐसी स्थिति में राजनीति और व्यवस्था के प्रति जनता के भीतर विकर्षण एवं अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक है।

‘अलग अलग वैतरणी’ में दलित समुदाय के बीच जिस चेतना का उभार होता दिखाया गया है, उसकी पृष्ठभूमि में किसी राजनीतिक विचारधारा अथवा दल की भूमिका स्पष्ट नहीं है। विद्वानों के बीच इस बात को लेकर काफी विवाद है कि बिना वैचारिक आधार के बदलाव की चेतना का निर्माण एवं प्रसार नहीं हो सकता। अपने समय की राजनीतिक प्रक्रिया में विपिन, देवनाथ और शशिकान्त जैसे युवा पात्रों की अरुचि के कारण यह एक तरह से अराजनीतिक उपन्यास बन गया है। दरअसल उपन्यासकार ने राजनीति के चरित्र को जिस तरह उभारा है उससे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का उससे अलगाव  स्वाभाविक है। यह उपन्यास उसी कालखण्ड की कथा को विन्यस्त करता है जब समाज में मोहभंग की प्रवृत्ति तेजी से फैल रही थी। युवा पीढ़ी की सोच एवं व्यवहार में इसकी सघन अभिव्यक्ति हुई है। वैसे तो शिवप्रसाद सिंह ने इस उपन्यास में समाज के सभी वर्गों, उनकी जीवन-स्थितियों में हो रहे बदलावों तथा उनकी चुनौतियों को गम्भीरता के साथ चित्रित किया है, लेकिन युवा पीढ़ी की सोच, उसकी मानसिक बनावट, सामाजिक व्यवहार और वर्तमान के प्रति उसकी प्रतिक्रियाओं की पहचान करने में उन्होंने ज्यादा दिलचस्पी दिखायी है। वे इस पीढ़ी की शक्ति एवं सम्भावनाओं में तो विश्वास व्यक्त करते हैं, लेकिन उन्होंने युवा पीढ़ी के चरित्र एवं उसमें परिवर्तन की प्रक्रिया का जो चित्र निर्मित किया है उसे देखकर कहा जा सकता है कि यह पीढ़ी एक ऐसे दौर से गुजर रही थी जिसे सही दिशा देने वाला कोई नहीं था-न राजनीति और न ही समाज। इतने कम समय में राष्ट्रीय आन्दोलन की चेतना का समाज की स्मृति से गायब हो जाना आश्चर्यजनक, किन्तु दुःखद है। उपन्यास में दलितों के भीतर आत्मसम्मान की भावना और प्रतिरोध की चेतना के उभार को दिखाकर शिवप्रसाद सिंह ने गतिशील यथार्थ को ही व्यक्त किया है। वे अपने समय की चुनौतियों से टकराने का प्रयास करते हैं। जो कुछ अप्रिय, अश्लील, अराजक और अमानवीय है उस पर गहरा क्षोभ व्यक्त करते हैं, किन्तु वे अपने सम्भावनाशील पात्रों को जुझारू नहीं बना पाते। उनके प्रमुख पात्र किसी संकल्प के तहत अपने उद्देश्य को निर्णायक बिन्दु तक नहीं ले जाने में असमर्थ दिखते हैं। वे अपने लक्ष्य की दिशा में कुछ दूर आगे जाने के बाद पीछे लौट आते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि शिवप्रसाद सिंह के पात्रों में प्रतिरोध की चेतना का अभाव है। जहाँ तक दलित-चेतना की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, नयी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में उपन्यासकार ने अपने अधिकारों के प्रति दलितों को जागरूक एवं एकजुट होते तो दिखाया है, परन्तु अपनी अस्मिता की रक्षा अथवा मर्यादा-भंग होने की स्थिति में पूर्व जमींदार अथवा धनी किसानों के सामने प्रतिरोध की निरन्तरता को बनाये रखना उनके दलित पात्रों के लिए आसान नहीं लगता। इसे समझने के लिए उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है। बहुस्तरीय सामाजिक संरचना में जो जटिलता है, उसे सीधी रेखा में चलकर परिभाषित नहीं किया जा सकता। इस उपन्यास को पढ़ते हुए कहीं यह भी महसूस होता है कि लेखक समाज के छीजते संस्कारों से क्षुब्ध है। जब भी ग्रामीण जीवन का प्रसंग आएगा तो संस्कारों पर बात होगी ही। संस्कारों की बात करना पिछड़ी मानसिकता नहीं है। संस्कारों का सम्बन्ध उन मूल्यों-मान्यताओं से भी है जो मनुष्य और उसके समाज के चरित्र का निर्धारण एवं निर्देशन करते हैं, जिनसे व्यक्ति की सोच की दिशा तय होती है। शिवप्रसाद सिंह संस्कारों के प्रति जब अपना आग्रह व्यक्त करते हैं, तो उनका मन्तव्य मनुष्यविरोधी विचारों एवं आचरण का अनुमोदन अथवा अनुसरण करना तो कतई नहीं है। उनके लिए संस्कार का मतलब उस व्यापक सोच से है जिसमें सामुदायिकता, साहचर्य, सहयोग और पारस्परिकता के साथ दूसरों के प्रति संवेदनशीलता, सहानुभूति तथा सम्मान का भाव निहित हो। इसे दिखाने के लिए उन्होंने ‘अलग अलग वैतरणी’ में जग्गन मिसिर को इसका प्रतिनिधि पात्र बनाया है। कहना न होगा कि आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर अनैतिक और संस्कारविहीन हो जाना शिवप्रसाद सिंह के रचनाकार को स्वीकार्य नहीं है। किसी भी प्रकार की उच्छृंखलता उनके लिए अस्वीकार्य है। एक प्रकार का अनुशासन उनकी सर्जनात्मक चेतना पर छाया की भाँति मँड़राता रहता है।

‘अलग अलग वैतरणी’ का आख्यान ग्रामीण जीवन की गन्ध से रचा-बसा, जाना-पहचाना लगता है। यहाँ कुछ भी अपरिचित नहीं, सब कुछ देखा-सुना है। उपन्यास में रचनाकार के क्षोभ और  छटपटाहट को विपिन के चरित्र में देखा जा सकता है। वैसे तो इस उपन्यास में कोई केन्द्रीय पात्र नहीं है, लेकिन जग्गन मिसिर और विपिन को लेखक के निकटवर्ती पात्रों के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। जग्गन भीतरी पात्र हैं जो गाँव के बीच रहते हुए उसका अनुभव करते हैं और अपने ढंग से हस्तक्षेप करते हैं। विपिन गाँव का होते हुए भी बाहरी पात्र है जो गाँव को भीतर से नहीं, बाहर से देखता है। वह गाँव के वातावरण से त्रस्त होकर शहर चला जाता है। जग्गन ऐसा नहीं करते। उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। शिवप्रसाद सिंह ने विपिन के प्रति कोई नरमी नहीं दिखायी है और उसके चरित्र को इस तरह रचा है कि पुष्पी के प्रति उसके निर्मोहीपन के कारण पाठक उसे अपनी सहानुभूति नहीं दे पाता और पुष्पी के एकाकीपन के लिए कहीं न कहीं विपिन को दोषी ठहराने लगता है। इस वृतान्त में पुष्पी को अनायास ही पाठकों की सहानुभूति प्राप्त हो जाती है। पुष्पी को जो सहानुभूति सहजता से मिलती है, वैसी नगर जीवन एवं परिवेश के मध्यवर्गीय वृतान्त में मिलनी कठिन है। इसकी एक वजह गाँव और शहर की बुनियादी बनावट है। उपन्यास के बाहर का परिवेश रचना के भीतर जिस तरह अन्तर्गुम्फित किया गया है, उसे देखकर लेखक की सर्जनात्मक सामथ्र्य पर हमारा भरोसा और अधिक पुष्ट होता है। कथानक, भाषा-शैली, पात्रों के चारित्रिक विकास एवं परिवेशगत यथार्थ के स्तर पर कोई बनावट नहीं है। सन् 1950 के बाद ग्रामभित्तिक उपन्यासों के लेखन में जो तीव्रता देखने को मिलती है, उससे यह स्पष्ट होता है कि कथाकारों ने यथार्थ को उसके विस्तृत परिप्रेक्ष्य में विन्यस्त करके अपने लेखकीय दायित्व का ही निर्वाह किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि नगरीय समाज की अपेक्षा ग्रामीण समाज अधिक विस्तृत है। इसे विन्यस्त करना उतना आसान नहीं है जितना नगरीय बोध के कथाकारों ने दावा किया है। नगरीय बोध के कथाकारों ने तो उपन्यास को एक सीमित दायरे में कैद कर दिया था। ग्रामीण बोध के कथाकारों ने उपन्यास को उस दायरे से निकालकर यथार्थ के विस्तृत धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसमें विविधता है, जीवन के विभिन्न रंग-रूप और छटायें हैं, आत्मीयता है, भावों का प्रसार है, परिवेश एवं जीवन-स्थितियों का विस्तार है। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यासों की चर्चा के प्रसंग में ‘अलग अलग वैतरणी’ का उल्लेख करना अपरिहार्य हो जाता है। इसकी समीक्षा करते हुए विजयदेव नारायण साही ने लिखा है कि ‘‘इधर अरसे से एक हवा ऐसी रही है कि गाँवों को लेकर कथा-रचना एक तरह का पिछड़ापन है, आधुनिकता से वंचित होना है। आधुनिकता का लक्ष्य जब लक्षणों की तरह गिनाया जाने लगे, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि यह सवाल पूछा जाय कि आधुनिकता भी एक साहित्यिक रूढ़ि तो नहीं होती जा रही है जिसके फन्दे से बाहर निकला जाय।’’(आधुनिक हिन्दी उपन्यास-1, पृ.466) नगरीय बोध के कथाकारों ने ग्रामभित्तिक उपन्यासों पर पिछड़ेपन का आरोप लगाते हुए पाठक समुदाय को जिस तरह भ्रमित किया, उससे ग्रामीण बोध के कथाकारों की चुनौतियाँ और दायित्व दोहरा हो गया था। ग्रामीण बोध के कथाकारों ने अपने ऊपर लगे आरोपों को खारिज़ करते हुए अपनी रचनाओं के माध्यम से आधुनिक जीवन-दृष्टि का भरपूर परिचय दिया, जिसे पाठकों ने भी हाथों हाथ लिया। कोई भी साहित्य समाज के इतने बड़े हिस्से की अनदेखी करके अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता को कैसे सुनिश्चित कर सकता है? यहाँ हमारा मन्तव्य ग्राम बनाम नगर की बहस में उलझना नहीं, सिर्फ़ यह कहना है कि आधुनिक भावबोध के नाम पर उपन्यास को मध्यवर्गीय नगरीय जीवन तक सीमित कर देना वृहत्तर जीवन के यथार्थ की अनदेखी करना है। इससे वृहत्तर यथार्थ की अभिव्यक्ति को सम्भव नहीं बनाया जा सकता। आधुनिक भावबोध पर नगरीय जीवन एवं परिवेश का स्वामित्व नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिवप्रसाद सिंह समेत हिन्दी के अन्य कथाकारों ने लेखकीय दायित्व के तहत सचेत ढंग से ग्रामीण जीवन-यथार्थ को अपनी औपन्यासिक कृतियों में संवेदनशीलता के साथ उभारा है। इसमें उनके आधुनिक भावबोध की भूमिका भी उल्लेखनीय है। ऐसा नहीं होता कि ग्रामीण समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया चलती ही नहीं। हाँ, धीमी अवश्य होती है।

‘अलग अलग वैतरणी’ में आजादी के बाद की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक धरातल पर चलने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया को दिखाने का प्रयास है। जमींदारी उन्मूलन, पंचायती राज, मताधिकार जैसे आधारभूत बदलावों के अलावा दलित-चेतना एवं स्त्री-अस्मिता के सन्दर्भ में उपन्यासकार की आधुनिक दृष्टि लक्षित होती है। उपन्यासकार ने स्त्री पात्रों के चित्रण में संवेदनशीलता का परिचय दिया है। ये स्त्री पात्र मर्यादित, शालीन तथा गहरे दायित्वबोध से भरे हुए हैं। सरूप भगत की बेटी दुलारी के चरित्र को उपन्यासकार ने सहानुभूति के साथ उभारा है। सरूप भगत और दुलारी दोनों ही उपन्यास के मूल्यवान पात्र हैं। उनका होना रचना को गरिमा एवं वैधता प्रदान करता है। ठाकुरों और दलितों के संघर्ष में निरपराध सरूप की हत्या झकझोरती है। यह प्रसंग ग्रामीण समाज में ऊँची और निचली जातियों के मध्य विकसित हो रहे तनावपूर्ण सम्बन्ध का द्योतक है। शिवप्रसाद सिंह ने ‘अलग अलग वैतरणी’ के वृतान्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि उनकी चिन्ता ग्रामीण जीवन एवं परिवेश में पैदा हो रही विकृतियों को लेकर अधिक गहरी है। वे सकारात्मक परिवर्तन का स्वागत करते हैं, लेकिन सामाजिक-मानवीय सम्बन्धों की क्षति को लेकर क्षुब्ध भी दिखायी देते हैं। उनकी सर्जनात्मक दृष्टि में एक प्रकार की तरल आत्मीयता है। जब बहुत कुछ टूट-फूट रहा हो, तो उसमें से अच्छे और सुन्दर को बचाकर बिल्कुल सुरक्षित कैसे रखा जा सकता है? शिवप्रसाद सिंह की दृष्टि में समूची परम्परा अथवा सारा अतीत त्याज्य नहीं है। परम्परा का जो अंश संग्रहणीय है उसके क्षरण पर लेखक की मौन वेदना पाठक को भी क्षुब्ध और मर्माहत करती है। यह भी कहा जा सकता कि उपन्यासकार ने विपिन और जग्गन मिसिर-इन दोनों पात्रों के माध्यम से स्वयं को व्यक्त किया है। इनको मिलाकर जो छवि निर्मित होती है, उसे उपन्यासकार का छायाभास मान सकते हैं। लेखक का व्यक्तित्व इन दोनों पात्रों के बीच विभाजित लगता है। उपन्यासकार का विपिन पक्ष करैता में रहते हुए और उसे छोड़कर जाते हुए लगभग अकेला है। सिर्फ़ कनिया की भरभरायी आँखों में बसी विवशता, सूनापन एवं अव्यक्त वेदना ‘उसके गले में अटक गयी है।’ इसे वह निगल नहीं पाता। ‘उसने एक लम्बी साँस ली।…तभी विपिन को कनिया याद आ गयीं, छावनी के दरवाजे पर बाजू से सटी कनिया। वे अपनी वीरान, उदास आँखों से उसे एकटक देखे जा रही थीं।’ यह सिर्फ़ देखना भर नहीं है। इसमें समाहित हैं प्यार, दुलार, साहचर्य, आश्वासन, उम्मीद और चिन्ता के कई रंग। हमें शिवप्रसाद सिंह की सूक्ष्म-संवेदी सहृदय दृष्टि के प्रति आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इस उपन्यास के समापन क्षण में मानवीय संवेगों का ऐसा सघन रूप उपस्थित किया है जो मन को व्याकुल कर देता है। उपन्यासकार का जग्गन पक्ष भी कम मार्मिक नहीं है। कहते हैं: ‘हमारे गाँवों से आजकल इकतरफा रास्ता खुला है। निर्यात। सिर्फ़ निर्यात। जो भी अच्छा है, काम का है, वह वहाँ से चला जाता है।…जाते वक़्त हमें बेगाना बनाकर मत जाओ। गाली देकर न जाओ। तोहमत लगाकर लोग मेहरारू छोड़ते हैं, महतारी नहीं।…अब आदमी का मन ही बदल गया है। कुछ ऐसा निर्मोही स्वभाव होता जा रहा है कि अपने अलावा कोई किसी के बारे में कुछ सोचता ही नहीं।’ नगरोन्मुखता, परायापन, अपरिचय, निर्मोहीपन और आत्मकेन्द्रिकता की प्रवृत्ति के विस्तार से क्षुब्ध जग्गन का ठेठ ग्रामीण मानस अपने वर्तमान यथार्थ के साथ तादात्म्य नहीं स्थापित कर पाता। कहने की ज़रूरत नहीं कि आजादी के बाद इस प्रवृत्ति में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।

ऐसा नहीं है कि आजादी मिलने के बाद समाज में सब कुछ अचानक बदल ही गया। दरअसल परिवर्तन की प्रक्रिया में निरन्तरता होती है और गोचर होने वाला हर एक बदलाव समय के अटूट प्रवाह का हिस्सा होता है। समूचा युग-यथार्थ एकदम नहीं बदल जाता। आखिर ऐसा क्या हो गया कि हमारे गाँव समय की गति के साथ चलने की बजाय पीछे रह गए। इसमें दोष सिर्फ़ गाँव का ही नहीं, उनका भी है जिनके ऊपर गाँव को आधुनिक एवं विकसित बनाने का दायित्व है। इसमें राजनीति, प्रशासन, बुद्धिजीवी सभी शामिल हैं। सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और सामन्ती मनोवृत्ति में जकड़े ग्रामीण समाज को जिस उदार एवं विवेकसम्पन्न नेतृत्व की आवश्यकता थी, वह उसे नहीं मिला। शिवप्रसाद सिंह की चिन्ता इसी बात को लेकर है कि एक नवस्वाधीन राष्ट्र के सपने, इच्छा-आकांक्षाएँ, उमंग, उत्साह और संघर्ष-चेतना इतनी जल्दी कैसे तिरोहित हो गये? इस उपन्यास की चिन्ताधारा में सिर्फ़ ग्रामजीवन का यथार्थ ही समाहित नहीं है। इसमें वृहत्तर समाज के भविष्य की दशा-दिशा पर भी दृष्टिपात किया गया है। करैता के शिक्षित युवक चुनौतियों से मुँह मोड़कर जिस तरह कस्बे और शहर में पलायन कर जाते हैं, वह निराशा पैदा करता है। जग्गन मिसिर के लिए यह स्थिति चिन्ताजनक है। ‘अलग अलग वैतरणी’ के महाकाव्यात्मक विस्तार में अनगिनत पात्र स्थितियों के अनुरूप अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभाते हैं। ये सभी जीवन्त लगते हैं, सबकी अपनी अलग पहचान है। आख्यान के प्रवाह में ये सिर्फ़ बहने के लिए नहीं रचे गए हैं। इनका अपना पृथक् अस्तित्व है। इनके बिना उपन्यास अधूरा रह जाएगा। बस इनका पलायन कर जाना खलता है। पात्रों की पराजय, निराशा और पलायन उन्हें वैतरणी में धकेल देती है, ऊभ-चूभ करते रहने के लिए। इस उपन्यास में शिवप्रसाद सिंह जो कुछ ढूँढ़ने के लिए वृतान्त की गलियों में भटकते हुए आगे बढ़ते हैं, वह रास्ता उन्हें उस वैतरणी के तट पर लाकर छोड़ देता है जहाँ उनके पात्र उसमें फिसलकर गिरते हैं तो वहाँ से साबुत नहीं निकल पाते। यह आजादी के बाद का वह ग्रामीण यथार्थ है जिसकी तरफ कम लेखकों का ध्यान गया है, लेकिन इसका हिस्सा बनने वालों की संख्या अनगिनत है। शिवप्रसाद सिंह ने कई तरह का जोखिम उठाते हुए इस उपन्यास को परिणति तक पहुँचाया है। उन्हें लगता है कि वे अपने ‘मन के करैता की सही ‘ठनक’ को बाँध नहीं’ पाये हैं। किसी एक रचना में समूचे सरोकार, पक्षधरता, बेचैनी और संवेदना को बाँध पाना वाकई मुश्किल होता है। करैता के माध्यम से उन्होंने जो कहा है उसमें उनका आकांक्षित पूरी तरह व्यक्त न भी हो सका हो, तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि ग्रामीण जीवन की विविधता को उसकी बहुआयामिता के साथ उद्घाटित करने का उनका प्रयास सार्थक बन पड़ा है। ‘अलग अलग वैतरणी’ के औपन्यासिक वृतान्त में शिवप्रसाद सिंह ने शिक्षित युवाओं में गाँव के प्रति वितृष्णा का जो भाव दिखाया है उससे एक सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में इसकी पहचान और धारणाओं पर प्रश्न खड़ा होता है। आजादी के बाद अगर गाँवों में इतनी सड़ाँध पैदा हुई है, तो क्या इसे दूर नहीं किया जा सकता? क्या यह सिर्फ़ ग्रामीण समाज की ही समस्या है? क्या नगरीय समाज विकृतियों से अछूते हैं कि हर पढ़े-लिखे व्यक्ति को अपनी अस्मिता बचाने, सपनों को साकार करने तथा सामाजिकता को सुरक्षित रखने के लिए वहीं भागकर जाना पड़ता है? उपन्यास में ‘अनत गौन’ की प्रवृत्ति को एक सन्दर्भ विशेष में रखकर देखने की आवश्यकता है। विपिन, देवनाथ और शशिकान्त का गाँव से विस्थापन समूचे गाँव को अपराधी बना देता है। उपन्यासकार को लगता है कि नगरोन्मुखता गाँव की विकृतियों से बचने का एक उपाय हो सकता है। ग्रामीण जीवन की विकृतियों से त्रस्त होकर युवा पात्र जिस तरह नगरीय जीवन का विकल्प चुनते हैं वह बहुत तर्कसंगत नहीं लगता, क्योंकि नगर भी वृहत्तर समाज का हिस्सा हैं जो न तो विकृतियों से पूरी तरह मुक्त हें, बल्कि वहाँ व्यक्तित्व के विलीन होने की सम्भावना भी अधिक होती है। हाँ, यह सही है कि नगर युवा पीढ़ी के लिए सम्भावनाओं के द्वार खोलता है जहाँ वह सपनों को मूर्त करने का प्रयास कर सकती है। गाँवों को लोकतन्त्र और सत्ता की आधारभूत इकाई बनाने का जो सपना देखा गया था, ग्राम पंचायतों के गठन के बाद वह पूरा नहीं हो सका। पंचायती राज व्यवस्था ने गाँवों को ओछी राजनीति का अड्डा बना दिया जहाँ गुटबन्दी, तनाव, हिंसा और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ भी सार्थक नहीं दिखता। ‘अलग अलग वैतरणी’ के प्रकाशन के लगभग चार दशक बाद मौजूदा ग्रामीण समाज की स्थिति तो और भी दयनीय हो गयी है। उपन्यास में कुछ सकारात्मक परिवर्तन की रेखाएँ उभरती हैं, लेकिन वे विकृतियों के कुहासे में लिपटकर विलीन हो जाती हैं।

‘अलग अलग वैतरणी’ में सरूप भगत के चरित्र को जिस आत्मीयता के साथ उभारा गया है वह इस कृति का उल्लेखनीय पक्ष है। सरूप इस उपन्यास का स्मरणीय पात्र है। इसका कारण है उसके व्यक्तित्व में निहित साहस, ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा। अनुभव सत्य तथा निडरता सरूप के व्यक्तित्व को अतिरिक्त गरिमा देते हैं। उपन्यास में जातिगत संघर्ष में भले ही उस निर्दोष की हत्या कर दी जाती है, लेकिन इससे पाठकों की दृष्टि में उसका सम्मान तनिक भी कम नहीं होने पाता। शिवप्रसाद सिंह ने ऐसे पात्र की सृष्टि करके निश्चय ही कथा साहित्य को एक मूल्यवान पात्र दिया है। इस पात्र की निर्मिति में उपन्यासकार की संवेदनशीलता, सरोकार एवं अन्तर्दृष्टि की भूमिका को महत्व के साथ रेखांकित किया जाना चाहिए। ‘अलग अलग वैतरणी’ पर विचार करते हुए खलील मियाँ और उनके साथ देवी चैधरी के दुव्र्यहार के प्रसंग को भुला देना बहुत बड़ी गलती होगी। खलील मियाँ को इस उपन्यास में एक सच्चे मनुष्य के रूप में चित्रित किया गया है। वे ऐसे व्यक्ति हैं जो दूसरे धर्मावलम्बियों के साथ घुल-मिलकर रहना पसन्द करते हैं, अपनी जन्मभूमि से प्यार करते हैं और पाकिस्तान बनने के बाद भी अपने बेटे के साथ वहाँ नहीं जाते। ऐसे व्यक्ति के साथ देवी चैधरी एवं उसके बेटे जगेसर का अपमानजनक व्यवहार न सिर्फ़ पाठकों को क्षुब्ध करता है, बल्कि आजादी के बाद विकसित सम्पन्न पिछड़ी जातियों के भीतर उभरने वाली अमर्यादित, उद्दण्ड एवं अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति को रेखांकित करता है। यह प्रवृŸिागत बदलाव राजनीतिक-आर्थिक सशक्तिकरण के बिना सम्भव नहीं है। शिवप्रसाद सिंह के लेखन की यह उल्लेखनीय विशेषता है कि वे अपने पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को उभारने के क्रम में उनकी अन्तर्निहित चेतना, मनःस्थितियों, संवेगों और वेदना को बिम्बों के माध्यम से दृश्य बना देते हैं। इस उपन्यास की सम्भवतः एकमात्र शिक्षित स्त्री पटनहिया भाभी की ‘आँखों में अजीब उदासी से भरी वेदना’ को कौन भुला सकता है? उसके शारीरिक सौन्दर्य की पृष्ठभूमि में उभरती दाम्पत्य जीवन की विवशता, निरर्थकता एवं सूनेपन से पाठक में करुणा की तीव्र अनुभूति होती है। यह एक पात्र की ठोस सच्चाई और उसके प्रति लेखक के तादात्म्य से ही सम्भव होता है।

‘अलग अलग वैतरणी’ के आख्यान में छोटे-बड़े बहुत से प्रसंग हैं। इन्हें देखकर इस उपन्यास को अगर कथा कोलाज कहा जाय तो अनुचित न होगा। ये प्रसंग ग्रामजीवन के विभिन्न पक्षों, स्थितियों, चुनौतियों तथा सम्भावनाओं को अपने भीतर समेटे हुए हैं। इनमें बहुआयामिता है। ‘अलग अलग वैतरणी’ की मूल्य-चेतना के प्रसंग में यह कहना आवश्यक है कि कई बार इसके पात्र नियतिवाद का शिकार होने की दशा में पहुँच जाते हैं और तब उपन्यासकार की बौद्धिक चेतना पर अस्तित्ववाद के प्रभाव के लक्षण उभरते हुए प्रतीत होते हैं। हालाँकि समग्रता में देखा जाय तो इसकी व्याख्या करने के लिए हमें अस्तित्ववादी-नियतिवादी दर्शन को आधार बनाने की आवश्यकता नहीं है। यह भी माना कि मेले की हलचल से प्रारम्भ होकर उपन्यास का अन्त उदासी एवं अभिनिष्क्रमण में हुआ है। फिर भी रचना-विधान में प्रसंगों की बहुलता, घटनाओं की अनेकरूपता और स्थितियों की बहुआयामिता के साथ यह उपन्यास जिस तार्किक परिणति को प्राप्त होता है वह हमारे राजनीतिक, समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की धड़कनों को सुनने का अवसर देता है। इस उपन्यास में चित्रमयता है, कहीं नाटकीयता भी मिलती है। जीवन का उल्लास भले ही क्षीण हुआ है, लेकिन कहीं कोई बेचैनी है जो पात्रों को गतिशील एवं परिस्थितियों को सजीव बनाये रखती है। चेतना के भिन्न-भिन्न रंगों से भरा है इस उपन्यास का फलक, जिसमें वेदना और करुणा के भाव झिलमिलाते रहते हैं। शिवप्रसाद सिंह के इस उपन्यास में प्रतिरोध की चेतना और संघर्ष की स्थितियों का जो निरूपण हुआ है, वह आजादी के बाद होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया का हिस्सा है। इस सन्दर्भ में यह देखना महत्वपूर्ण है कि सृजन के क्षणों में उपन्यासकार ने परिवर्तन की चेतना से स्वयं को कितना एकात्म किया है? समूचे औपन्यासिक वृतान्त में ऐसा कहीं नहीं लगता कि लेखक विगत के प्रति मोहग्रस्त है। इसके बरअक्स वह अपने समय और समाज की विकृतियों से इतना क्षुब्ध है कि कभी-कभी अतीत की स्मृतियाँ उसके अन्तर्मन को कुरेदने लगती हैं। समग्रता में देखें तो शिवप्रसाद सिंह की सर्जनात्मक चेतना पर आधुनिक भावबोध का स्पष्ट प्रभाव झलकता है। यह कहना भी आवश्यक लगता है कि भावबोध की आधुनिकता के बावजूद उनके शिक्षित पुरुष पात्रों में एक तरह का संकोच निहित है जिसके कारण वे राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर पनप रही विकृतियों का डटकर सामना नहीं करते और न ही कोई हस्तक्षेप कर पाते हैं। अनगिनत पात्रों, प्रसंगों एवं स्थितियों के समुच्चय से बुना हुआ यह उपन्यास अपने सम्पूर्ण प्रभाव में उमंग और उत्साह से उदासी एवं करुणा की ओर अग्रसर होता है। आशा से निराशा की ओर सन्तरण करते उपन्यास की अन्तःप्रकृति को समझने की आवश्यकता है। जिसके कारण लोगों का जीवन पहले की अपेक्षा अधिक दूभर हुआ है, वही इस उपन्यास की चिन्ताधारा का केन्द्रीय कथ्य है। वैतरणी का रूपक इसी को आधार बनाकर ग्रहण किया गया है। उपन्यासकार को लगता है कि जब पुराना सब कुछ टूट रहा है और नये जीवन-मूल्य निर्मित नहीं हो रहे हैं, तो ऐसे में मानवीय समाज की नियति वैतरणी ही हो सकती है जिसको पार नहीं किया जा सकता, सिर्फ़ डूबा-उतराया जा सकता है। यह वैतरणी व्यक्ति को प्रत्येक क्षण त्रास की सघन अनुभूति कराती है। शिवप्रसाद सिंह अतीत के प्रति मोहासक्त रचनाकार नहीं हैं। उनमें एक प्रकार की द्वन्द्वात्मकता है। वे नयी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में अंकुरित हो रहे विचारों या बदलावों से तालमेल बैठाने का प्रयास करते हैं। औपन्यासिक आख्यान का उन्होंने जिस कुशलता के साथ निर्वाह किया है उसे देखकर उनकी सर्जनात्मक सामथ्र्य के बारे कोई सन्देह नहीं रह जाता। जहाँ तक भावबोध का प्रश्न है, शिवप्रसाद सिंह उसे तार्किक परिणति तक ले जाने का प्रयास करते दिखते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि रचनाकार ही असम्भावना के बीच सम्भावना की तलाश करता है। इस उपन्यास के अन्त तक पहुँचकर अगर ऐसा लगने लगे कि सब कुछ समाप्त हो गया है, अब कुछ भी नहीं हो सकता; तो यह औपन्यासिक दृष्टि एक स्तर पर हमें निराश भी करती है। हालाँकि शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहन शैली से पाठक को निराशा की मनःस्थिति से निकालकर द्वन्द्वात्मक स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। इसमें लोकतत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ग्रामीण जीवन और लोक के साथ आधुनिक भावबोध का सामंजस्य बैठाते हुए शिवप्रसाद सिंह ने जिस गतिशील यथार्थ को उद्घाटित किया है वह परम्परा और आधुनिकता में टकराव की बजाय इनके बीच सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध पर आधारित है।

 

राम विनय शर्मा
अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
महाराज सिंह काँलेज, सहारनपुर (उ.प्र.)

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