(कुबेरनाथ राय और विद्यानिवास मिश्र के विशेष सन्दर्भ में

आदिमानव की अभिव्यक्ति का प्रथम उन्मेष किस रूप में हुआ यह कहना कठिन है | पुराकाल से मानव के मन में संचित कल्पना रूप नृत्य,कला,संगीत,मिथक,वाक्  के रूप में प्रकट होते रहे हैं | आदिमानव ने प्रकृति के साथ रागात्मकता स्थापित करते हुए प्रकृति का मंगलगान उल्लासपूर्वक गाया | उसने गहन गुफाओं में चित्रकला के रूप में अपनी कल्पना को प्रश्रय दिया | प्रकृति के साथ समागम ने धीरे धीरे उसके मन कि गुत्थियों को सुलझाया और मनुष्य कि सहज-सर्जना शक्ति का विकास होता गया | प्रकृति के साथ तादात्मीकरण ने मनुष्य के अंतःकरण के द्वार खोल दिए और वाणी पश्यंती स्तर पर शब्द रूप में अभिव्यक्त हुई | ध्वनी का मानसिक बिम्ब स्थूल ध्वनी के रूप में अभिव्यक्त हुआ |

सर्जनात्मकता कि अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में प्रचुर मात्रा में हुई | मनुष्य ने  संपूर्ण चराचर जगत के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित किया और वह हर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावना को स्थूल रूप दिए बिना संतुष्ट न रह सका | प्रकृति के प्रति रागात्मकता और सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण ने राष्ट्रीय भावना का उदय किया | मनुष्य ने अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम प्रकट किया और अपने देश को एक राष्ट्र पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित किया |

हिंदी साहित्य में भारत बोध की अभिव्यक्ति विभिन्न विधाओं में की गयी | हिंदी साहित्य की गद्य विधा निबंध में संश्लिष्ट रूप से भारतीय वांगमय के चिंतन के आधार पर भारत बोध को समझने की ललित अभिव्यक्ति कि गयी | भारत बोध कि अवधारणा अपने आप में महासागर है , इसे निश्चित परिभाषा में बाँध पाना कठिन है | भारत बोध को जानने के लिए हम भारत के आर्ष चिंतन, वाचिक परम्परा, सनातन धर्म और उसके स्वरुप , लोकशास्त्र के अध्ययन से कुछ मूल तत्वों का चयन कर सकते हैं |

हिंदी के प्रमुख निबंधकार कुबेरनाथ राय के समस्त रचना संसार का केंद्र भारतीय चिंतन ही रहा है | कुबेरनाथ राय की अध्ययन दृष्टि वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन से लेकर नृतत्वशास्त्र, पुरातत्व, मिथकशास्त्र, विभिन्न धार्मिक चिन्तनो, विश्व साहित्य व् चिंतन आदि तक फ़ैली हुयी है |

कुबेरनाथ राय अपने निबंध ‘जम्बूद्वीपे भरतखंडे’ में भारत कि कल्पना दिव्य प्रकाशमय चिन्मय जगत के रूप में की है जो सदियों से अपने दिव्य आलोक का प्रसरण हम सबमे कर रहा है | कुबेरनाथ राय अपनी भाषा में भारत का सम्बन्ध भास्वरता से या भास्वर, प्रकाशमय लोक से मानते हैं |  भारत कि व्युत्पत्ति के ऐतिहासिक प्रमाणों के लिए उनकी दृष्टि श्रीमद्भागवत्महापुराण और विष्णुपुराण कि ओर जाती है जहाँ चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस देश के भारत नाम पड़ने का कारण बताया गया है | जैन परम्परा में भी आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र का नाम भी भरत बताया गया है जो कि चक्रवर्ती सम्राट था और उसी के नाम पर इस देश का नाम भारत पडा | परन्तु कुबेरनाथ राय इस तथ्य में संदेह प्रकट करते है और यह नामकरण व्यक्तिवाचक संज्ञा नही जातिवाचक संज्ञा के आधार पर मानते हैं | सरस्वती से गंगा तक फ़ैली कोई जातिवाचक संज्ञा भरत रही होगी  जिसके नेतृत्व में इस देश की वर्तमान आकृति का गठन हुआ | कुबेरनाथ राय ‘जम्बूद्वीपे भरतखंडे’ कि उक्ति को कवि की सुन्दर कल्पना स्वीकार करते है जो विश्वात्मा के विग्रह को , ऐश्वर्य को व्यक्त करता है | चौदह भुवनों में एक लोक पृथ्वी है जिसमे सप्तद्वीप है जिनमे से एक जम्बूद्वीप है | इस जम्बूद्वीप में कई खंड हैं जिसमे से एक भारतवर्ष है | सभी खण्डों में एक मात्र कर्मभूमि होने के कारण कुबेरनाथ राय भरतखंड को भौगोलिक हिन्दुस्तान नही बल्कि संपूर्ण मानवभूमि या मनुजस्तान मानते है जिसमे जीवन कि धुरी कर्म है | कुबेरनाथ राय भारत की  सत्ता के तीन रूप मानते हैं ; मृण्मय भारत(भौगोलिक-आर्थिक-जैविक),शाश्वत भारत(ऐतिहासिक अविछिन्न विकास कि दृष्टि), चिन्मय भारत(मूल प्रकृति कि दृष्टि से ) | कुबेरनाथ राय चिन्मय भारत को ही भारत की सत्ता का मूल मानते हैं | चिन्मय रूप का लक्ष्य शुद्ध आनंद जो याज्ञार्पित जीवन जीने में अभिव्यक्त होता है, मानते हैं | कुबेरनाथ राय  वेदान्त को चिन्मय भारत के बीज के रूप में मानते हैं जो प्रदेश और काल के अनुसार कभी अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, भक्ति, योग, संन्यास के रूप में प्रकट होता रहा | देश और काल के अनुसार  भारत के चिन्मय, मृण्मय और शाश्वत रूप सक्रिय होते रहते हैं | कुबेरनाथ राय चिन्मय भारत को साध्य रूप में दिव्य मनोभूमि, एक दिव्य अनुभवलोक मानते है और साधन अर्थ में उन आत्मिक मूल्यों का समवाय मानते हैं जिनसे यह मनोभूमि प्राप्त होती है कला,शिल्प,धर्म,संस्कृति, कामाध्यात्म,योगाध्यात्म आदि | कुबेरनाथ राय स्पष्ट रूप से भारतवर्ष को भारतमाता कहना भावानुकुलता न मानकर यह मानते हैं कि इस देश कि मृण्मयी काया भी एक देव विग्रह है जिसमे मूलाधार है कन्याकुमारी और सहस्रार है कैलाश | बीच के भूखंड पर शक्ति के षट्चक्र स्थित हैं और अपने भीतर से पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक शक्ति का संचारण करते है |

कुबेरनाथ राय अपने निबंध महीमाता में पृथ्वी सूक्त की चर्चा करते हैं जिसकी रचना एक निषाद कवि ने की थी | महीमाता निबंध में कुबेरनाथ राय भारत के मृण्मय रूप का वर्णन पृथिवी सूक्त के माध्यम से करते हैं | पृथ्वी सूक्त में पृथ्वी का बाह्य रूप जिसमे श्वेत( रेट व धूसर ), पिंगल या वभ्रू (मटियार या दोमट ) कृष्ण (करईल) आदि बिम्बो के माध्यम से व्यक्त हुआ है | कुबेरनाथ राय ने पृथ्वी को वर्णगत विशेषता के तौर पर दो भागों में बांटा है | एक सादा भारत और एक रंगीन भारत | सादा भारत के अंतर्गत राय जी आर्यावर्त भारत को रखते हैं | आर्यावर्त भारत में विभिन्न संस्कृतियाँ अपना रूप खोकर आर्य हो गयी जो आर्याशुभ्रता कि रचना करती है | रंगीन भारत के अंतर्गत निषाद-द्राविड़-किरात भारत को रखते हैं | वह भारत जिसे भूगर्भवेत्ताओं ने गोंडवाना प्रदेश कहा | राय जी इसे धरती के आदिम रूप का एक अंश मानते हैं | रंगीन भारत कहीं लाल,कहीं काला है | लाल मिटटी का क्षेत्र खनिज बहुल क्षेत्र है | अवश्य ही कही मिटटी लाल और झांवर लाल हो गयी है | विदर्भ को केंद्र करके चारो ओर का क्षेत्र काली मिटटी का क्षेत्र है | इस प्रकार कुबेरनाथ राय ने  भारत वर्ष को त्रिवर्णी भूमि के रूप में त्रिगुणात्मिका प्रकृति का विराट मृत्तिका विग्रह कहा है | कुबेरनाथ राय लिखते हैं कि नृतत्वशास्त्री देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का मानना है कि दुर्गा उपासना का विकास अनार्य स्त्रियों द्वारा पूजित कृषि मात्रिका पूजा से हुआ है | राय जी इस पर सहमती व्यक्त करते हुए पुरातन मृत्तिका पूजन को आज की दुर्गा पूजन में घट पूजन से सम्बंधित मानते हैं जिसमे गीली मिट्टी में जौ बोकर कलश को सिन्दूर से टीक देते हैं | अतः कुबेरनाथ राय निषादों को मातृसत्ता प्रधान मानते हुए मात्रिशाक्तियों को निषादों कि कल्पना से प्रसूत मानते हैं |

कुबेरनाथ राय अपने निबंध निषाद बांसुरी में भारत कि निषाद-द्राविड़-किरात संस्कृतियों के स्वरुप को स्पष्ट करते हैं | राय जी भारतीय भाषाओं में मूल संज्ञा,कृषि के मूल,भारतीय मन के आदिम संस्कारों के मूल में निषादों को ही मानते हैं | परन्तु निषाद आर्यत्व में इतना घुल मिल गया कि इसने अपनी मूल पहचान ही खो दी | कुबेरनाथ राय का मत है कि अवतारवाद कि अवधारणा निषादों ने दी है क्योंकि वैदिक आर्यों में अवतारवाद स्वीकृत है परन्तु बहुत ही हल्के रूप में | राय जी मानते हैं कि वाल्मीकि के रामायण में मिथक तत्व का प्रवेश निषादों में पूर्वप्रचलित दूर्वादलश्याम कि मान्यताओं के कारण हुआ होगा | निषाद जाती किसी परम पुरुष देवता के अवतरण कि प्रतीक्षा कर रही थी उसी समय इक्ष्वाकुवंश के आर्याकुल में किसी प्रतापी राजा का जन्म हुआ होगा जिसे निषादों ने अपने महादेवता का अवतरण माना होगा | आगे राय जी तर्क देते हैं कि वाल्मीकि गंगा और तमसा के बीच अरण्य में रहते थे ऐसे में निषादों से उनका संपर्क न हुआ हो ऐसा अस्वाभाविक लगता है | निषादों के शुद्ध आनंदवादी स्वभाव के विषय में राय जी मानते है कि नाचने,कूदने,परिश्रम करने वाले स्वभाव कि वजह से होली पर्व का मूल स्रोत निषाद जाति ही थी |

द्राविड के विषय में राय जी लिखते है कि वे संचयवादी थे | इस प्रवृत्ति के कारण नगर संस्कृति व व्यापार कि रचना उन्होंने कि |   भारतीय खेती का मूल निषादों को बताते हुए कहते हैं कि चावल शब्द निषाद शब्द है | जो जाम-चाम-चाव-चावल से बना है | गंगातीरे पाए जाने वाला कांटेदार बबूल जिसे असमिया में तरुकदम्ब कहते हैं , शुद्ध निषाद शब्द है | आगे चार्वाक ऋषि के ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ को निषादों के मनमौजी स्वभाव के समानांतर मानते हुए आज कि भारतीयता का पिता आर्य, पितामह द्रविड़, प्रतिपितामह निषाद को मानते हैं |

कुबेरनाथ राय अपने निबंध संग्रह ‘चिन्मय भारत’ में भारतीय बौद्धिक आत्मिक धरोहर को पुनर्परिभाषित करके पुनर्व्यवस्थित करने का आह्वान करते हैं | इसके लिए राय जी भारतीय आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्रों को प्रस्तुत करते हैं | आर्य चिंतन ऋषि प्रदत्त धर्म है जिसमे मात्र नीति है जो विश्वव्यापी ऋत और शाश्वत सत्य पर आश्रित है | कुबेरनाथ राय आर्ष चिंतन कि मूल प्रवृत्ति ‘ऊर्ध्वमूलम अधोशाखा’ के रूप में मानते हैं | चिंतन कि हरेक शाखा में उस ‘एक’ को प्रतिष्ठित करना आर्ष चिंतन पद्धति का मूल है | अर्थात चिंतन के प्रत्येक आयाम में ब्रह्म बोध को स्थापित करना | आर्ष चिंतन पद्धति कि दूसरी विशेषता है कि वह ऋत पर आधारित है | ऋत को परिभाषित करते हुए राय जी ने ऋत को ब्रह्म कि क्रियात्मक प्रकृति का द्योतक माना है | वास्तव में ऋत और सत्य का युग्म ही ब्रह्म का व्यक्त रूप है | ब्रह्म का शाश्वत स्वरुप जो स्थिर है वह सत्य है तथा जो विविध क्रियात्मक रूपात्मक है वह ऋत है | भारतीय आर्ष पद्धति जो कि ऋत आश्रित है परस्पर विरोधी युग्मो में रचनात्मक सामंजस्य बिठाते चलती है | यह रचनात्मक सामंजस्य ही आर्ष चिंतन कि प्रमुश विशेषता है | कुबेरनाथ राय यज्ञ को आर्ष चिंतन का तीसरा प्रमुख लक्षण मानते हैं | राय जी का मानना है कि भारतीय चिंतन का पितामह ऋषि था इसलिए उसने क्रत्येक कर्म को यज्ञ मानकर किया | इसी सेवा यज्ञ भाव का विस्तार राय जी गांधी के सर्वोदय में भी देखते हैं | कुबेरनाथ राय भारतीय आर्ष चिंतन कि चौथी प्रमुख विशेषता चिंतन और कर्म में ‘छंद’ कि प्रतिष्ठा को मानते हैं | यहाँ पर छंद से तात्पर्य प्रत्येक क्रिया के एक प्रारूप से है जिसमे वह घटित होती है | जब वह प्रारूप टूटता है हलचल पैदा हो जाती है | भारतीय आर्ष चिंतन कवि दृष्टि पर आधारित होने के कारण प्रत्येक छोटी बड़ी वस्तु या घटना में एक वैश्विक प्रारूप देखती है | जिस प्रकार भारतीय कला में सिंह.हंस,कमल,यक्ष आदि अपने भौतिक रूप में नही बल्कि वैश्विक प्रारूप में व्यक्त किये गए हैं | राय जी उदाहरण देते हैं कि कमल अपने भौतिक आयतन में एक पुष्प मात्र है परन्तु मानसिक व भावात्मक आयतन में सौंदर्य, श्री, सौभाग्य का प्रतीक है | अतः कुबेरनाथ राय यह प्रतिपादित करते हैं कि भारतीय चिंतन में प्रतीकवादी रुझान परोक्षप्रियता को प्रतिष्ठित करता है | भारतीय आर्ष चिंतन कि इसी प्रवृत्ति के कारण राय जी यह मानते हैं कि भारतीय चिंतन और साहित्य में अभिधा और लक्षणा कि बजाय व्यंजना को अधिक महत्व दिया गया है | कुबेरनाथ राय भारतीय आर्ष चिंतन कि आखिरी प्रमुख विशेषता चिंतन के बुनियादी शब्दों कि अवधारणा का समयानुकूल विकास करते जाना तथा जातीय या विजातीय चिंतन के ढाँचे को एवं शब्दों को अपने अनुरूप अर्थ ग्रहण करके संशोधन करते जाना मानते हैं | राय जी के इस मत का तात्पर्य है कि विजातीय अवधारणाओ को निरस्तवादी या बहिष्कारवादी प्रवृत्ति के बजाय अपनी चिंतन की प्रकृति के समनुरूप एवं पुनर्व्यवस्थित कर लेना | कुबेरनाथ राय इसे महाभारतीय समन्वय पद्धति कि संज्ञा देते हैं |

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुबेरनाथ राय के निबंधों में भारत बोध की अवधारणा भारत के चिन्मय,मृण्मय,शाश्वत रूप व आर्ष चिंतन कि व्याख्या में दृष्टिगोचर होती है |

हिंदी निबंध साहित्य में भारतीय जीवन दृष्टि से लेखन करने वालो में विद्यानिवास मिश्र जी का नाम लिया जाता है | विद्यानिवास जी ने भारतीय चिंतन को व्यवहारिक हिन्दू जीवन में खोजने का प्रयास किया है | किस प्रकार हिन्दू अपनी उपासना पद्धति के माध्यम से ‘यत पिंडे तद ब्रह्मांडे’ कि संकल्पना को अपने जीवन में जीता रहता है, इसकी व्याख्या विद्यानिवास जी के निबंध संग्रह ‘भारतीयता कि खोज’ और ‘हिन्दू धर्म जीवन में सनातन कि खोज’ में देखने को मिलती है |

विद्यानिवास जी अपने निबंध ‘भारत के लोक और शास्त्र’ में भारतीय परम्परा के विशिष्ट अभिलक्षण में वाक्केंद्रित परम्परा को स्थान देते हैं | मिश्र जी का मानना है कि वाचिक परम्परा में केवल वाक्य नही सौपे जाते वाक्यार्थ को ग्रहण करने वाला ध्यान,योग व समर्पण भाव भी सौपा जाता है | जब तक शास्त्रविधि से शास्त्र का अर्थ ग्रहण नही किया जाता शास्त्र का कोई अर्थ नहीं रहता | शास्त्रविधि का अर्थ है विविध मतों के बीच समाधान ढूंढना | विद्यानिवास जी का मत है कि भारतीय परम्परा बाह्य प्रकृति को अन्तःप्रकृति का प्रक्षेप मानती है | मिश्र जी के अनुसार मनुष्य द्वारा अपनी प्रकृति का अतिक्रमण कर जाना और बाह्य सत्ता के साथ रागात्मक सामंजस्य स्थापित कर लेना भारतीय परम्परा कि मुख्य विशेषता है |

विद्यानिवास मिश्र जी भारतीय संस्कृति कि विशेषता आर्य,द्रविड़,कोल,किरात कि सामासिक,मिली जुली संस्कृति में देखते हैं | भारतीय चिंतन में समष्टि भाव को श्रेष्ठ माना गया है | अतः मिश्र जी ‘क्रिन्वंतों विश्वमार्यम’ का अर्थ सारे संसार को हिन्दू बनाने से नहीं सबको पूर्णतर बनाने और पूर्णतर होने की भावना उत्पन्न करना बताते हैं | भारतीय परम्परा में लोक के महत्व को बताते हुए कहते हैं कि लोक प्रचलित व्यवहार शास्त्र कि रक्षा करते हैं | मांगलिक अनुष्ठानों में मंत्र और लोकगायन दोनों की परस्परपूरक भूमिका को स्वीकार करते हैं | विद्यानिवास मिश्र भारतीय परम्परा के जड़ न होने के पीछे तर्क देते हैं कि भारतीय परम्परा में बहुत सी तर्कातीत बातों कि परीक्षा होती है जब तर्क थक जाते हैं तब यह मान लिया जाता है कि जो बचता है वह पूर्वानुमेय नही है | यही भारतीय परम्परा कि सर्जनात्मकता,प्रयोगशीलता,उदारता बनाये रखता है |

विद्यानिवास मिश्र जी अपने निबंध ‘भारतीय संस्कृति कि प्रासंगिकता’ भारतीय संस्कृति के अतिक्रमण कि क्षमता को रेखांकित करते हुए राम कथा का उदाहरण देते हैं रामकथा इतिहास और भूगोल में आबद्ध नही है, वह अलग अलग ज़मीन में उसी कि गंध लेकर नए कलेवर में विस्तृत होती गयी | विद्यानिवास मिश्र आत्मविस्मृति को लेकर चिंतित होते हैं और अपने आप को पहचानने का कोई दर्पण ,कोई पैमाना विकसित करने का आह्वान करते हैं | मिश्र जी ‘आत्मदीपो भव’ का स्मरण दिलाकर अपना उद्धार स्वयं करने का आह्वान करते हैं | साथ ही भारतीय दर्शन के आत्मचिंतन कि प्रक्रिया कि व्यापक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं | आत्मचिंतन के व्यापक अर्थ से तात्पर्य ‘आत्मार्थे पृथ्वीम त्यजेत’ अर्थात आत्मा का समस्त जीवन कि अर्थवत्ता से एकाकार हो जाना |

विद्यानिवास मिश्र अपने निबंध ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के माध्यम से इसकी व्यापक व्याख्या एक विशाल आँगन के रूप में करते हैं जिसमे लोगों के परिश्रम से पैदा किया हुआ अनाज फैला हुआ है | सभी किसान जिन्होंने अनाज उगाया अपना हिसा ले जाते है, चिड़िया आती है दो चार दाने चुग ले जाती है, गाय का बछडा आता है और अनाज खाकर चला जाता है , वे लोग भी अपना हिस्सा ले जाते हैं जो सूपा, डलिया आदि बनाने में लगे रहे | बिना स्वार्थ से मिल बाँट कर खाने में जो तृप्ति है यही वसुधैव कुटुम्बकम कि अवधारणा है | इस स्तर  पर किसने लिया किसने दिया यह महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता है |

विद्यानिवास मिश्र ‘भारतीय एकता के सूत्रधार’ निबंध में आदि गुरु शंकराचार्य जी को भारत का प्राण पुरुष स्वीकार करते हैं जिनके बिना भारतीयता अस्पष्ट रह जाती है | जगज्जननी के उपासक शंकराचार्य ने भारतीय चिंतन को अतिक्रमण कराके उसे विश्व चिंतन के धरातल पर लाकर खडा कर दिया | ऐसी मातृदेवी कि उपासना कि प्रतिष्ठा की जो सबकी है , सबको अपना पुत्र मानती है और सबको अपने मोह पाश में बानधे रहती है | शंकराचार्य के अद्वैतवाद ने मनुष्य को सर्वात्म से एकाकार स्थापित करने को प्रेरित किया |

विद्यानिवास मिश्र अपनी निबंध संग्रह ‘जीवन में सनातन कि खोज’ में हिन्दू दृष्टि जो कि भारतीय दृष्टि का मूल है के सामान्य लक्षणों,उपासना पद्धति में भारतीय चिंतन को समझने का प्रयास करते हैं |

सर्वप्रथम मिश्र जी प्राचीन भूमध्य सागरीय लोगों की विश्व दृष्टि और हिन्दू दृष्टि के मुख्य अंतर स्पष्ट करते हैं | पहली दृष्टि में मनुष्य व प्रकृति को भिन्न शक्तियां मानते हुए दोनों में संघर्ष को स्थापित करते हैं | मिश्र जी हिन्दू दृष्टि में स्पर्धा नही सहकार का भाव मानते हैं | हिन्दू चिंतन को बहुकेंद्रित मानते हुए समस्त चराचर में सामंजस्य स्थापित करने को ही साध्य मानते हैं |

जीवन में निरंतरता और अखण्डता का अनुभव करते रहना हिन्दू जीवन कि प्रमुख विशेषता मानते हैं | आगे कहते हैं कि इसीलिए हिन्दू पूर्ववर्ती ही नही परवर्ती पीढ़ियों के साथ भी खुद को जोड़ता है | मिश्र जी के अनुसार यज्ञ कि पूरी व्याख्या सूक्ष्म और स्थूल के भीतरी सम्बन्ध पर आधारित है| यज्ञ में यजमान के साथ देवता भी नया जन्म लेता है | हिन्दू धर्म में ज्ञान को आचरण से जोड़ने को महत्व दिया गया है | जब मनुष्य मंत्रोच्चारण के साथ खुद को जोड़ता है तब वह एक लम्बे आर्ष चिंतन से जुड़ता है |

विद्यानिवास जी दूसरी प्रमुख विशेषता कर्मवाद कि अवधारणा को मानते हैं | कर्मवाद के अंतर्गत कर्म कि इच्छा त्यागकर,फल से मुक्त होकर कर्म करना या कर्मफल को अनासक्त भाव से भोगना | ये दोनों ही रास्ते ममता व अहम् के त्याग कि ओर ले जाते हैं | मिश्र जी तीसरी प्रमुख विशेषता आऩृण्य़-व्यवस्था को मानते हैं | इस व्यवस्था में ऋषि,पितृ,देव,मनुष्य ऋण से मुक्त होने कि बात कही गयी है | मिश्र जी के अनुसार जब मनुष्य ऋषियों द्वारा प्राप्त अनुभव को अपने जीवन का अनुभव बना ले , व्यक्ति अपने पितरों के देय का उत्तराधिकारी दे , अपने अन्दर सुप्त देवता का आह्वान करे , मनुष्य सभी में एकात्म होकर रमता रहे तभी इन ऋणों का परिशोध संभव है |

इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य में भारत बोध जो कि मुख्य रूप से वेद,पुराण,उपनिषद्,स्मृतियों आदि में संचित है उसकी एक छटा कुबेरनाथ राय और विद्यानिवास जी के वैचारिक व ललित निबंधों में दृष्टिगोचर होती है | दोनों ही निबंधकारों ने अपने निबंधों में जिस बात के प्रति चिंता व्यक्त की है वह है आत्मविस्मृति की | आज का साहित्यकार भारत को उस दृष्टि से नही देख रहा है जो उसकी अपनी प्रज्ञा दृष्टि है | वह भारत को विदेशी दार्शनिको की समझ से समझने का प्रयास कर रहा है | समस्या है कि  विदेशी दार्शनिकों कि अपनी संस्कारगत सीमाएं है | भारतीय भूमि के कई ऐसे आयाम है जिन्हें भारतीय होकर ही जाना जा सकता है | अपने देश के शास्त्रीय विचारों और उनकी विवेकपूर्ण सामंजस्य पर आधारित व्याख्या कि आवश्यकता है | भारतीय चिंतन जो कि द्वंद्वात्मक न होकर ऋत और सत्य के युग्म पर आधारित है | बौद्धिक उपनिवेशवाद के दौर में यह और आवश्यक हो गया है कि अपनी जड़ों को पहचानते हुए ग्रहण कि अनुकरणात्मक प्रक्रिया कि बजाय रचनात्मक प्रक्रिया को अपनाया जाय |

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –

  • राय , कुबेरनाथ ; चिन्मय भारत , हिन्दुस्तानी अकादमी इलाहाबाद , द्वितीय संस्करण, २००६ , पृष्ठ- १८- ५१
  • कुबेरनाथ राय ; रचना संचयन , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली सम्पादन ; हनुमानप्रसाद शुक्ल , प्रथम संस्करण ; २०१४, पृष्ठ ;२९-७४
  • मिश्र , विद्यानिवास ; जीवन में सनातन कि खोज , राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली ,तीसरा संस्करण २०१३, पृष्ठ १९-६९
  • मिश्र , विद्यानिवास ; भारतीयता कि पहचान, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली , संस्करण २००८, पृष्ठ; ३०-५२ , ७५-८५

 

व्योमकांत मिश्र
दिल्ली विश्वविद्यालय

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