प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोक गीतों, मुहावरों व कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। इनमें लोक कथाओं की अपनी विशिष्ट परम्परा रही है। अपने आरम्भिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है।
ये लोककथाएँ मूलतः जीवन के यथार्थ से जुड़े आदर्शों, नीतियों परम्पराओं एवं विडम्बनाओं को मुखर करती हैं। वाचिक परम्परा की इन कथाओं को समय-समय पर संस्कृति प्रेमियों तथा साहित्य मनीषियों द्वारा लिपिबद्ध कर संरक्षित करने का प्रयास किया जाता रहा है।
स्वयं प्रकाश की कहानियों में लोककथाओं को आज के सन्दर्भ से सन्दर्भित किया गया है। यही कारण है कि ये कहानियाँ लोककथात्मक होने के बावजूद हमारे अपने समय की कहानियाँ लगती हैं । ‘जंगल का दाह’, ‘गौरी का गुस्सा’ ‘बिछुड़ने से पहले’ और ‘कानदांव’ आदि उनकी कुछ प्रमुख कहानियाँ हैं जिनमें लोककथात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
एक मुलाकात में जब मैंने स्वयं प्रकाश जी से पूछा कि लोककथात्मक शैली की तरफ उनका ध्यान क्यों गया ? तो उन्होंने जबाव में कहा कि मुझे लगता है कि आज सूचना तंत्र और व्यस्त दिनचर्या के दवाब में लोककथाएँ हमारे जीवन से गायब होती जा रही हैं। उनका मानना है कि लोककथाएँ हमें किसी भी स्थिति को आसानी से समझने और स्वीकार कराने में सहयोगी होती हैं। इसलिए संप्रेषणीयता के दृष्टि से भी लोक कथाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार वह लोककथाओं को सामाजिक-सांस्कृतिक विकास और मनुष्य के नौतिक उत्थान के लिए एक जरूरी उपकरण मानते हैं।
स्वयं प्रकाश की लोककथात्मक कहानियों में एक प्रमुख कहानी है- ‘जंगल का दाह’। यह कहानी आदिवासी संस्कृति पर संकट की कहानी है। यह एक आदिवासी धनुर्विद्या के गुरू मामा सोन की कहानी है जो जंगली जनजातियों को धनुर्विद्या की शिक्षा देते हैं। परन्तु इनसे जब राजकुमार धनुष चलाना सीखना चाहता है तो मामा सोन का नाम बदल कर आचार्य शोण कर दिया जाता है। इसके साथ इनकी पारम्परिक वेश-भूषा तक बदल दिया जाता है। आचार्य के चारों तरफ सशस्त सैनिकों का पहरा होता है। आचार्य को स्पष्ट राज्य निर्देश प्राप्त होता है कि आज से आचार्य सिर्फ राज परिवार के बच्चों को ही शिक्षा देंगे। इस प्रकार व्यवस्था ने शिक्षा को एक सीमित वर्ग तक सीमित रखने की अपनी चाल चल दी। जो आप अपने आस-पास आसानी से देख सकते हैं।
इसके साथ ही राजज्ञा आयी कि अब से शिकार पर प्रतिबंध लगा दिये गए हैं। ताकि सारे पशु-पक्षी वनवासी ही न मार ले। कुछ राजकुमारों के लिए भी बचे रहे। हालाँकि कहा यह गया कि वन्य जीवों का संरक्षण जरूरी है। वस्तुतः यह आज के ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम’ की एक झलक है जिसमें पूँजीपति और सत्ता के गठजोड़ के लोग चाहे जितना विनाश करें, परन्तु एक आम शिकारी जिसका जीवन शिकार पर अश्रित है यदि वह शिकार करे तो अपराध माना जाये। राजकुमार मामा सोन से कहता है- ‘‘केवल कभी-कभी जब सुखों से ऊब जाऊँगा, अपने साथियों के साथ यहाँ आ जाया करूँगा आखेट क्रीड़ा के लिए।’’ मामा सोन को आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा- ‘‘आखेट को तुम्हारी भाषा में क्रीड़ा कहते हैं ? हमारी तो यह आजीविका है हम तो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आखेट करते हैं। वह भी हमें एक ही दिन नहीं करना है इसलिए इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि किसको मारना है और किसको नहीं मारना है। हमारे आखेट से पशुओं की संख्या कम नहीं होती…।’’
स्पष्ट है कि आदिवासी अपने जीविका के निर्वाह के लिए शिकार करते हैं। यहीं कारण है कि उन्हें वन से और वन जीवों से एक लगाव है तभी तो वे संतुलन और असंतुलन का ध्यान रखते है। एक बार मामा सोन कहते है हमें कठफोड़वा पक्षी को मारना है क्योंकि यह बाकी पक्षियों के अंडो को फोड़ देता है। परन्तु इस व्यवस्था को उनके जीवन और जीविका से कोई मतलब नहीं है। राजकुमार मामा सोन से जवाब देता है- ‘‘आजीविका थी अब नहीं रहेगी, आखेट पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। अब तो मैं ही मारूँगा जितने भी मारूँगा। और जब मुझे ही मारना है तो कितने भी मारूँ, क्या फर्क पड़ता है।’’
इस प्रकार सारे संसाधन पर अपना अध्किार समझना आज सत्ता और व्यवस्था का चरित्रा बन गया है। जो सब कुछ को अपने तक सीमित रखना चाहता है। इस पर भी जब राजकुमार धनुर्विद्या के अभ्यास में चिड़ियों पर निशाना लगाता है तो उसे आपित्त होती है कि चिड़िया हिलती-डुलती क्यों है ? इस पर मामा सोन बड़ी बेध्क बात कहता है- ‘‘क्या तुम यह सोचते हो कि चिड़िया को उड़ना नहीं चाहिए ? क्या तुम यह चाहते हो कि तुम्हारा शिकार परम आज्ञाकारिता पूर्वक तुम्हारे सामने मरने के लिए स्थिर बैठा रहे ?’’
उपर्युक्त प्रश्न सत्ता के उस मानसिकता पर प्रश्न है जो आदिवासी संसाधनों जल, जंगल और जमीन पर जब पूँजीपति वर्ग कब्जा करते हैं तो प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है यही प्रतिरोध सत्ता को नागवार लगता है। वस्तुतः अपने जान और जमीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों के लिए हमेशा सत्ता यहीं चाहती रही कि वे आसानी से समर्पण कर दें । अन्ततः राजकुमार धनुर्विद्या सीख नहीं पाता और राजा इससे नाराज होकर मामा सोन को बंधक बना लेता है और राजकुमार से कहता है तुम इसे ही अपना निशाना बनाओ। स्वयं प्रकाश लिखते हैं- ‘‘मनुष्य से बड़ा कौन सा लक्ष्य हो सकता है? खासकर जब उसकी मुश्कें बँधी हो और पीठ तख्ती से सटी हो चारों तरफ सशस्त्रा सैनिकों का पहरा हो और सरपरस्ती के लिए पीठ पर राजा का हाथ हो।’’
उपर्युक्त कथन वस्तुतः हमारे सामने वह बिम्ब प्रस्तुत करता है जब सैनिक कार्यवाही के द्वारा पूजीपतियों और सत्ता संस्थानों के गठजोड के माध्यम से आदिवासियों से उनकी जमीन खाली करायी जाती है एक साक्षात्कार के दौरान एडवर्ड सईद ने कहा था- कि मेरे लिए मेरे मातृभूमि से काट दिया जाना मेरे जीवन की सबसे गहरी पीड़ा है। यह कहानी भी इसी पीड़ा को हमारे सामने लाती हैे। कहानी का अन्त होते-होते मामा सोन के वंशज शहर में बाँस की टोकरियाँ, तार के छींदे और दफ्रती के तोते-चिड़ियाँ आदि बनाकर बेच रहे हैं। जंगल में आग लगाकर सबकुछ राख कर दिया जाता है। स्वयं प्रकाश कहते हैं सुना है- उस इलाके में कोई बाँध बन रहा है जिससेे देश की बड़ी तरक्की होगी। फिलहाल मामा सोन के बंशजों को जंगल से निकाल दिया गया है।
विकास की इसी अवधारणा को बेपर्दा करती हुयी एक औेर कहानी है ‘बिछुड़ने से पहले’ जिसमें खेत और पगडंडी की बात-चीत के माध्यम से स्थिति स्पष्ट की गयी है। पगडंडी की जगह एक चौड़ी सड़क बन रही है जिस पर खेत से पगडंडी कहती है- ‘‘तू सड़क से दोस्ती कर लेना।’’ इस पर खेत बड़ी मर्मातक बात कहता है- ‘‘क्यों जले पर नमक छिड़क रही हो ? आज तक किसी सड़क ने खेत से दोस्ती की है।’’ खेत ने फिर कहा- ‘‘तेरे बिना दिल नहीं लगेगा बिल्कुल।’’ पगडंडी- ‘‘दिल को कौन पूछता है मितवा! विकास तो होके रहेगा।’’ पगडंडी ने सांस छोड़ी। दोनों चुपचाप रोने लगे। विकास की अंधी दौड में दौडे़ जा रहे लोगों में आत्मीयता और मानवीयता के लिए कोई जगह नहीं है ‘प्रसन्नता सूचकांक’ का ध्यान न रखना कहीं न कहीं हमें अन्दर से खोखला कर रहा है।
यही कारण है कि ‘गौरी का गुस्सा’ में रतनलाल अशांत को गौरी के आशीर्वाद से सबकुछ मिल जाता है परन्तु कुछ है जो नहीं मिलता। जिससे उसे हमेशा एक ऊब होती है क्योंकि- वहाँ भोजन था, भूख नहीं थी। प्यास थी, पेय पदार्थ भी थे पर तृप्ति नहीं थी। नींद थी लेकिन सपने नहीं थे। भोग था लेकिन तुष्टि नहीं थी। बच्चे थे लेकिन बचपन नहीं था। यौवन था लेकिन अल्हड़पन नहीं था। सूचनाएँ अपार थी, बोध नदारद था। दर्दनाशक बहुत थे, हमदर्द एक भी नहीं। सम्पर्क था लेकिन संवाद नहीं था। मनुष्य थे लेकिन मनुष्यता ढूढ़नी पड़ती थी। बस्तियाँ थी लेकिन बसावट नहीं थी, लोग थे लगावट गायब थी।
वस्तुतः ‘गौरी का गुस्सा’ में रतनलाल को गौरी के आशीर्वाद से महल, बंगला सुन्दरियाँ सबकुछ तो मिल गया लेकिन इसके साथ ही कहीं साम्प्रदायिक दंगा तो कहीं सत्ता की तानाशाही मिलती है। पता चला कि शहर में पन्द्रह पंथी और सोलहपंथी के बीच दंगा हो गया है जबकि दोनों चौदहपंथी की औलादें हैं। कोई सरकार दाढ़ी रखना अनिवार्य करती तो कोई शिखा रखने का फरमान जारी करती है।
अंततः इन सब झंझावतों से तंग आकर रतनलाल गौरी से कहता है कि सब कुछ दिया तो एक अच्छी दुनिया देने में क्या हर्ज थी ? इस पर पार्वती को बुरा लगा। उन्होंने सोचा ऐसा लग रहा है कि दुनिया हमने ही खराब बनाया है। पार्वती ने बोला- ‘‘ठीक है, कुछ खराबी हो तो ठीक कर लो। बदल लो दुनिया को। इतना सारा काम तुम्हारे लिए किया क्या एक काम तुम अपने आप नहीं कर सकते? पार्वती के इस बात पर रतनलाल बड़े लापरवाही से बोला- ‘‘अम्मा तू तो ऐसे बोलती है जैसे मैंने दुनिया को बदलने का ठेका ले रखा है’’ इस बार पार्वती को सचमुच ही बहुत बुरा लगा यह मूर्ख सोचता है कि दुनिया ठेके पर बदली जाती है ? या कहीं ऐसा तो नहीं कि यह नालायक दुनिया बदलने की कोशिश करने वालों को ही ठेकेदार समझ रहा हो ? इस प्रकार गुस्से में आकर पार्वती ने उससे सबकुछ छीन लिया।
स्वयं प्रकाश जी की कहानियों में समाज की विभिन्न यथार्थ समस्याएँ बड़ी ही चुटीले ढंग में भी कभी-कभी आयी है। ऐसी ही एक लोकप्रिय कहानी है- ‘बाबूलाल तेली की नाक’। किस तरह एक तेली समाज के व्यक्ति के नाक पर एक बलिष्ठ व्यक्ति ने घूंसा मारा और देखते ही देखते बाबूलाल की नाक पूरे समाज की नाक बन गयी। बाबूलाल अपने हल्की फैक्चर नाक को लेकर अस्पताल पहुँचे तो उन्हें बुरी तरह लूट लिया गया और अस्पताल का औपचारिक प्रशासन किसी व्यक्ति के लिए कितना असंवेदनशील और अमानवीय है इसका बखूबी जिक्र इस कहानी में है। बाबूलाल के नाक का इलाज शुरू भी नहीं होता कि अस्पताल का बिल देखकर उनका होश उड़ जाता है।
परन्तु कहानी जिस सामाजिक सच्चाई पर कुठाराघात करती है वह है समाज का जाति और धर्म के नाम पर सभी छोटे-बड़े जरूरी व गैर जरूरी मुद्दे को अस्मिता से जोड़कर जातिवाद व साम्प्रदायिक शक्तियों का उभार। बाबूलाल तेली से पूछा जाता है- ‘आप हिंदू हो ?, कौन जात है?… हम लोग तेली समाज से आए हैं।’
अब बाबूलाल की नाक का इलाज उनके समाज का व्यक्ति करता है तो मामला बिगड़ जाता है और बाबूलाल को मुम्बई ले जाना पड़ता है। अब बाबूलाल की नाक पूरे समाज की नाक बन जाती है- ‘‘अब यह एक गंभीर समस्या थी, अब सवाल बाबूलाल तेली की नाक का नहीं समाज की नाक का था।’’
वस्तुतः समाज में जातीय विभाजन का जो खेल शुरू हुआ उसमें ‘अस्मिता की राजनीति’ करने वाली शक्तियाँ लगातार मुद्दों को कैश कराने में लगी है। इस विद्रूपता को उद्घाटित करते हुए समाज की विभाजनकारी मानसिकता को इस वाक्य से दर्शाते हैं- ‘‘… पर एक बात बताओ।। हो तो तेली ही न? कोई और तो नहीं हो ?।’’
स्वयं प्रकाश की कहानियाँ गंभीर विचारों को हल्के संवाद शैली में लाती हैं। यही कारण है कि स्वयं प्रकाश जी का कहानी पाठ श्रेताओं को अन्दर तक प्रफुल्लित करता है। इसी संवाद शैली में स्वयं प्रकाश लिखते हैं कि बाबूलाल तेली जब वापस इलाज कराकर लौटे तो जोरदार स्वागत हुआ प्रशंसा में ऐसे पुल बांधे गए मानो देश के नाम बलिदान करके लौटे हों- ‘‘…भाई बाबूलाल जी ने अपनी नाक देकर समाज के लिए अद्भुत और अनुकरणीय त्याग का उदाहरण पेश किया है।’’
स्वयं प्रकाश जी समाज में व्याप्त बुराई को पहचानते हैं और हमारे सामने लाकर रख देते हैं कि देखो यह है वस्तु स्थिति। अब निर्णय तुम करो कि यह अच्छा है या बुरा। नैतिक शिक्षा और उपदेश देने का कोई प्रयास इनके साहित्य में सायास नहीं मिलता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दुनिया में प्रकृति ने हमें सबकुछ दिया है परन्तु मुनष्य ने स्वयं ही से अपने लिए इतनी समस्याएँ पैदा कर लिया है कि आम-आदमी का जीना मुश्किल लगता है- साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, सत्ता संघर्ष लोभ-लालच ने मानव जीवन को यंत्राीकृत कर तबाह कर दिया है। मानव संस्कृति से मानवता तबाह कर तिरस्कृत कर दी जा चुकी है।
मानवता के सर्वोच्च स्वरूप की बात करते हुए ही प्राचीन भारत के सहिष्णु संस्कृति पर ‘कानदांव’ में कहते हैं कि किसी जमाने में मुसलमान की बेटी की शादी हो तो हिन्दू कन्यादान लेकर जाते थे और हिन्दू की बेटी की शादी हो तो मुसलमान जोड़ा लेकर। पूरी कहानी में एक बनिए और एक पठान के माध्यम से भारत की सामासिक हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति को दिखाया गया है। लेखक का मानना है कि भारत की इस सौहार्दपूर्ण स्थिति से अंग्रेज भी घबड़ाते थे।
इस प्रकार स्वयं प्रकाश लिखते हैं- ‘‘इस महान सांस्कृतिक हरकत ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए ऐसा सौहार्द, ऐसी समरसता, ऐसा भाईचारा, ऐसा इत्तिहाद पैदा किया कि अंग्रेजों को भी उसे तोड़ने में एड़ी-चोटी करना पड़ा।’’ वस्तुतः भारत की सामासिक संस्कृति में साम्प्रदायिक घटनाएँ महज ‘घटना’ हुआ करती थीं परन्तु राजनीति और स्वार्थ के दुरभि संधि ने भारतीय समाज को इतना तोड़ा कि तब से अब तक साम्प्रदायिक कटुता, दंगा, फसाद इस देश में सामान्य प्रक्रिया के रूप में सामने आने लगे। इस पर व्यंग्य और टिप्पणी में लेखक लिखता है कि करीब ढाई सौ साल बार 1947 में जाकर यह हुआ कि एक तरफ बैठे गाँधी, नेहरू, पटेल और जिन्ना दूसरी तरफ माउंटबेटेन। लाट साहब ने पूछा- ये आपका आखरी जवाब हो ? कान्पिफडेंट ? ताक कर दे इसे?
और मजा देखिए कि सब एक साथ बोल उठे- यस्स!
1947 में भारत-पाक विभाजन के साथ ही इस सौहार्द का गला घोंट दिया गया और दो मुल्कों के बनने के साथ ही दोनों समुदायों के दिलों में भी एक विभाजनकारी रेखा पड़ गयी। यही कारण है इसी का विस्तार ‘पार्टीशन’ कहानी में दिखता है जब कुर्बान भाई कहता है- ‘‘क्या आप खाक हिस्ट्री पढ़ाते हैं ? कह रहे हैं पार्टीशन हुआ था ! हुआ था नहीं, हो रहा है, जारी है…।’’
इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वयं प्रकाश लोककथाओं के माध्यम से आधुनिक समय की समस्याओं की तरफ हमारा ध्यान सहज तरीके से आकृष्ट करते हैं। संस्कृति की संवाहक माने जाने वाली ये लोककथाएँ मनाव मूल्यों की स्थापना का ही उद्देश्य लेकर आती है। इन्हीं मूल्यों के बल पर ही जाति, धर्म एवं विभिन्न भेदों-उपभेदों को नकार कर मानव जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास किया जाता रहा है।
लोककथाओं का मूल उद्देश्य मनोरंजन कभी नहीं रहा है, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का संदेश दिया जाता रहा है। इसलिए इन कथाओं में कल्पना और मिथकों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। जिससे मनुष्य ऐसे कार्य न करें जिससे मानवजाति व मानवीय संस्कृति के कल्याण में बाधा उत्पन्न हो। स्वयं प्रकाश का उद्देश्य भी इन लोककथाओं के माध्यम से दुनिया को खूबसूरत बनाने का है। उन्होंने अन्यत्रा कहा भी है- ‘‘हम एक अधिक सुन्दर, कम क्रूर, अधिक न्यायपूर्ण और अध्कि समतापूर्ण समाज बनाने का सपना देखते हैं। जो शक्तियाँ समाज को बाजार बना रही हैं, अपने स्वार्थ के लिए विश्व नामक इस खूबसूरत नीले ग्रह को बर्बाद कर रही हैं, मनुष्य और मनुष्य के बीच भयानक असमानता पैदा कर रही हैं… उनसे ही तो निपटना है।’’
सन्दर्भ ग्रन्थ –
- संधन-स्वयं प्रकाश ;वाणी प्रकाशन-2008, द्वितीय संस्करण पृष्ठ 64
- संधन- स्वयं प्रकाश ;वाणी प्रकाशन-2008, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ संख्या- 64
- संधन-स्वयं प्रकाश ;वाणी प्रकाशन-2008 द्वितीय संस्करण, पृष्ठ स. 64
- संधन स्वयं प्रकारा ;वाणी प्रकाश- 2008 द्वितीय संस्करण, पृष्ठ स. 66
- संधन स्वयं प्रकारा ;वाणी प्रकाश- 2008 द्वितीय संस्करण, पृष्ठ स. 67
- छोटू उस्ताद- स्वयं प्रकाश ;किताब घर 2016 प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 19
- छोटू उस्ताद- स्वयं प्रकाश ;किताब घर 2016 प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 20
- छोटू उस्ताद- स्वयं प्रकाश ;किताब घर 2016 प्रथम संस्करण, पृष्ठ सं. 20
- स्वयं प्रकाश की चुबिंदा कहानियाँ सं. हिमांशु पाण्ड्या ; साहित्य भंडार-2012, पृष्ठ सं. 82
- स्वयं प्रकाश की चुबिंदा कहानियाँ सं. हिमांशु पाण्ड्या ; साहित्य भंडार-2012, पृष्ठ सं. 82
- मेरी प्रिय कथाएँ- स्वयं प्रकाश, ज्योतिपर्व प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 110
- मेरी प्रिय कथाएँ- स्वयं प्रकाश, ज्योतिपर्व प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 112
- मेरी प्रिय कथाएँ- स्वयं प्रकाश, ज्योतिपर्व प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 112
- मेरी प्रिय कथाएँ- स्वयं प्रकाश, ज्योतिपर्व प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 112
- स्वयं प्रकाश की चुबिंदा कहानियाँ सं. हिमांशु पाण्ड्या ;साहित्य भंडार-2012, पृष्ठ सं. 82