सृष्टि निर्माण में पुरुषों के समक्ष स्त्रियों का भी बराबर का योगदान रहा किन्तु समाज निर्माण के क्रम में पुरुषों द्वारा स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ । विदित है कि पुरुष, स्त्री को धर्म, परिवार, समाज के नीति-नियमों व संस्कार आदि के नाम पर हमेशा बांधने तथा उसकी सत्ता को सीमित करने का प्रयास करता रहा है । दरअसल आदि समय से पुरुषों ने अपनी जिस सत्ता और वर्चस्व के लिए स्त्री के अधिकारों का हनन और शोषण का क्रम आरंभ किया था वह आज भी अनवरत जारी है । पुरुषों द्वारा निर्मित इस पितृसत्तात्मक समाज में अपने अधिकारों और स्वतंत्रता से वंचित स्त्रियों को समाज की मुख्यधारा से अलग हाशिये पर डाल दिया गया । स्त्री और पुरुष समाज की दो महत्त्वपूर्ण इकाई हैं, अर्थात समाज निर्माण में दोनों की समान भूमिका है, इसके बावजूद एक स्तम्भ की उपेक्षा कर उसकी आत्मनिर्भरता को खत्म करने व उसे सदैव के लिए उपेक्षित बनाये रखने का षड्यंत्र सदियों से चला आ रहा है । यह उपेक्षित स्तम्भ कोई और नहीं स्त्री ही है । पुरुषों ने स्त्रियों का उपयोग कभी दासी के रूप में अपनी सेवा के लिए, कभी अपने मनोरंजन के लिए, कभी अपने वंश वृद्धि के लिए, तो कभी स्वयं को मात्र सुशोभित करने के लिए किया । पुरुषों ने अपने वर्चस्व के लिए न सिर्फ स्त्रियों के अधिकारों व स्वतंत्रता का हनन किया बल्कि कई रूपों में उसका आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक आधार पर भरपूर शोषण भी किया ।

स्त्री शोषण के विरुद्ध 1779 में फ़्रांस में समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्ता के लिए राज्य क्रांति हुई जिसने देखते ही देखते विश्व क्रांति का रूप धारण कर लिया । इस क्रांति ने जहाँ एक तरफ स्त्री को अपने अधिकारों के प्रति व शोषण के विरुद्ध जागरूक किया, वही दूसरी तरफ स्त्रियों में एकता व संघर्ष का भाव उत्पन्न किया जो आगे चलकर स्त्रीवाद के रूप में परिणत हुआ । इस स्त्रीवादी आंदोलन ने स्त्री को कलम तथा शोषण के विरुद्ध प्रतिकार की शक्ति प्रदान की । इस आंदोलन ने ऐसे कई स्त्रीवादी लेखिकाओं व लेखकों को जन्म दिया जिन्होंने स्त्री शोषण के खिलाफ स्त्री के लिए समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व की मांग की तथा स्त्री के शोषण व दमन का नया इतिहास लेखन आरंभ किया । एलिजाबेथ कैंडी स्टैंण्टन, सिमोन द बोआर, वर्जिनिया वुल्फ, बेट्टी फ्राइडेन, सुशान बेसनेट आदि रचनाकारों ने स्त्री स्वाधीनता और उसके अधिकार जैसे विषयों पर भरपूर लेखन किया तथा स्त्रीवादी आंदोलन को एक नया आयाम व नींव प्रदान की ।

स्त्रीवादी लेखन परम्परा के आधुनिक युग में तसलीमा नसरीन का नाम काफी चर्चित है । बांग्ला मूल की तसलीमा नसरीन का नाम एक रेडिकल स्त्रीवादी के रूप में जाना जाता है जिन्होंने सदैव अपनी कलम से स्त्री शोषण व उसके दमन का मार्मिक चित्रण करते हुए उसके मुक्ति का उद्दघोष किया है । तसलीमा नसरीन मूल रूप से बांग्लादेशी लेखिका जो नारीवाद से सम्बंधित विषयों पर अपनी प्रगतिशील विचारों के लिए चर्चित और विवादित रही हैं । बांग्लादेश जैसे इस्लामिक देश (जन्मस्थान व आरंभिक लेखन क्षेत्र) में भी उन्होंने स्त्री के सम्बन्ध में अपने प्रगतिशील विचार और बेखौफ लेखनी से धर्म, समाज, परिवार की स्त्री विषयक रूढ़ मानसिकता का विरोध किया, जहाँ स्त्रियों को अपना चेहरा तक दिखाने की स्वतंत्रता नहीं है । इस पुरुष प्रधान समाज व धर्म के विरुद्ध 1994 में अपनी कृति ‘लज्जा’ के लिए वहां के धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा उनके लिए फांसी की मांग की गयी तथा उन्हें अपने ही देश से निर्वासित होना पड़ा । तसलीमा अपनी रचनाओं में मूलतः उन रूढ़, पितृसत्तात्मक मानसिकता व धर्म का खुलकर विरोध करती है जो स्त्री को एक भोग्य वस्तु, दासी, असहाय व अबला के रूप में प्रस्तुत करती है ।

तसलीमा के विरोध का स्वर उनकी अन्य कृति ‘औरत के हक में’ में भी उतना ही प्रखर दिखाई पड़ता है । प्रस्तुत कृति मुस्लिम समाज को केंद्र में रखकर, उन विभिन्न संप्रदायों के समाज का भी चित्र प्रस्तुत करती है, जिसमें पुरुष शासित समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का हुबहू स्थिति देखने को मिलती है । इस कृति में तसलीमा ने अपनी बचपन से लेकर अब तक की निर्मम, नग्न और निष्ठुर घटनाओं और अनुभवों के अलोक में कई नए सवाल उठाये हैं । आधुनिक समय के इस समाज में स्त्रियों के अधिकार और नारी-मुक्ति को लेकर चाहे जितने बड़े-बड़े दावें व आकड़ें पेश किये जाये किन्तु तसलीमा ने अपने इस कृति में स्पष्ट किया है कि आज भी (कृति रचना का समय) पुरुष शासित इस समाज में स्त्री भोग्या मात्र है और धर्म शास्त्रों ने भी उसके पावों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं । ईश्वर की कल्पना तक में परोक्षतः नारी-पीड़ा का समर्थन किया गया है । सामाजिक रुढियों के पालन में, और दाम्पत्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, यानी स्त्रियों के किसी भी मामले में पुरुषों की लालसा, नीचता, आक्रमकता और निरंकुश अधिकार भाव को तसलीमा ने खुलेआम चुनौती दी है ।

उपन्यास विधा की मूल प्रवृति से सर्वथा भिन्न यह कृति संस्मरणात्मक लेखों का संग्रह है । चूँकि यह तसलीमा का शुरुआती गद्य लेखन है जो उन्होंने बांग्लादेश में ही रहकर किया इसलिए इस कृति के सम्पूर्ण अंकों में मुस्लिम समुदाय की स्त्री जाति की समस्या व उसकी पीड़ा को ही उभरा गया है । ‘स्त्रियाँ पैदा नहीं होती समाज द्वारा बनाई जाती हैं’ जैसी स्त्रीवादी कथनों का विस्तार इस कृति में स्पष्ट देखने को मिलता है जिसमें तसलीमा नसरीन ने उन सभी तत्वों की पहचान की है जो एक स्त्री को स्त्री बनाने में सहयोग व बाध्य करते हैं । तसलीमा का विरोध पुरुषों से कम तथा उन सभी रूढ़ धारणाओं, परम्पराओं व मानदंडों से अधिक है जो किसी समाज या व्यक्ति के पितृसत्तात्मक सोच व मानसिकताओं को दर्शाती हैं । यथा वे कहती हैं- “‘नष्ट’ या ‘कलंकित’ या ‘पतित’ शब्द पुरुषों के लिए नहीं स्त्रियों के लिए व्यवहृत होते है । जैसे कि अंडे ख़राब हो जाते है, दूध बर्बाद हो जाता है, नारियल सड़ जाता है, वैसे ही औरत ‘पतित’ हो जाती हैं । हमारे समाज में ऐसी ही दूसरी तमाम चीजों के तरह ऐसी किसी स्त्री को भी ‘नष्ट’ या ‘बर्बाद’ या ‘पतिता’ कहा जाता है ।”1 निसंदेह तसलीमा नसरीन की दृष्टि समाज की उस मानसिकता पर चोट करती है जो किसी स्त्री को उसके चरित्र से ही जानती या पहचानती है । पितृसत्तात्मक मानसिकता का तसलीमा ने हमेशा खुलकर विरोध किया जो यहाँ भी उसी रूप में दिखाई पड़ता है । तसलीमा पुस्तक के पहले ही अंक में अपने साथ घटित उस घटना का भी जिक्र करती हैं जिसमें एक पुरुष ने जलती सिगरेट तसलीमा नसरीन के बांह पर दाग दिया, किन्तु तसलीमा नसरीन एक लड़की होने के नाते कुछ नहीं कर पाई क्योंकि तसलीमा नसरीन को यह अनुभव है कि सहायता के बहाने एकत्रित हुए लोग उसे किस नजर से देखेंगे और कितनी संवेदना जताएंगे और कितने उसके शरीर के उतार-चढाव का आनंद लेंगे । तसलीमा से साथ घटित इन घटनाओं ने ही उनके लेखन को और अधिक विद्रोही बनाया है ।

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री अपने जन्म से ही भेद-भाव, शोषण, प्रताड़ना आदि की पीड़ा झेलने को विवश है । स्त्री जीवन की इसी पीड़ा को तसलीमा ने अपने साहित्य का आधार बनाया है । पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था ने स्त्री पर धर्म, संस्कार, रीति-रिवाज की बेड़िया डाल न सिर्फ उसे शारीरिक बल्कि मानसिक रूप में भी गुलाम बना रखा है । इस सन्दर्भ में तसलीमा नसरीन ने जर्मन ग्रीयर की पुस्तक ‘फिमेल युनाक’ का उल्लेख किया है जिसमें लड़कियों के ऊँची ऐड़ी वाले सैंडल के अविष्कार के पीछे की पुरुष द्वारा स्त्री शोषण की मानसिकता को व्याख्यायित किया है । “पुरुष जब किसी लड़की पर आक्रमण करता है तब वह खुद को बचाने के लिए दौड़ती है । वह ज्यादा तेज न दौड़ सके इसीलिए उनके पावों में ‘हाईहील’ यानी ऊँची ऐड़ी वाले सैंडल की व्यवस्था की गई ।”2 ऐसे ही लडकियों के अन्य शौक पायल-पाजेब के अविष्कार के पीछे तसलीमा नसरीन ने पुरुषों की उस मानसिकता की व्याख्या की है जिसके तहत वें स्त्रियों के प्रत्येक गतिविधियों पर नजर रखना चाहते हैं । अर्थात स्त्रियों के सौन्दर्य प्रसाधन के बहाने स्त्रियों के पांवों में बेड़ियाँ किस प्रकार डाली जाती है इसका खुला चित्रण तसलीमा नसरीन अपने लेखन में करती हैं ।

तसलीमा का स्पष्ट मानना है कि ऐसे किसी भी समाज में स्त्री के शोषण का प्राय एक सा रूप देखने को मिलेगा जो धर्म की मान्यताओं से संचालित होते हैं । इस रूप में धर्म, किसी भी समाज में स्त्री के शोषण में सबसे अधिक व महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । धर्म, स्त्री जीवन को कैसे बांधता है इसका उदाहरण धार्मिक ग्रंथों में भी देखने को मिलता है यथा ‘मुस्लिम हदीस शरीफ’ में लिखा है – “दुनिया में सब कुछ भोग्य सामग्री है और दुनिया कि सर्वोत्तम भोग्य सामग्री है- स्त्री ।”3 दूसरा उद्धरण महाभारत का है जिसके एक श्लोक के अनुसार “न स्त्री स्वातंत्रमर्हति: अर्थात स्वतंत्रता पर नारी का कोई अधिकार नहीं है ।”4 एक अन्य मुस्लिम धर्म ग्रन्थ के अनुसार “तुम्हारी स्त्रियाँ तुम्हारे अनाज का खेत है इसलिए तुम अपने खेत में जैसे चाहो, जा सकते हो ।”5 धर्म के सन्दर्भ में तसलीमा नसरीन ने ईसाई धर्म का भी जिक्र किया है जिसके एक विद्यवान ने यह स्वीकार किया है कि ईशु ने भी नारी स्वतंत्रता के लिए कोई कदम नहीं उठाया । अर्थात प्रत्येक धर्म ने स्त्रियों के लिए सामान शोषण व्यवस्था का निर्माण किया है । चूँकि “कोई भी अशिक्षित व्यक्ति अच्छे-बुरे की सीख अपने धर्म से ग्रहण करता है और जहाँ धर्म नारी जाति के खिलाफ तलवार उठाये है वहां स्त्री मुक्ति की बात या प्रयास मात्र दिखावे के और कुछ नहीं । धर्म ने स्त्री को लेन-देन की सामग्री के रूप में, कीमती सामान के रूप में, मूल्यवान दासी के रूप में पहचाना है ।”6 नारी के स्वाभाविक विकास में धर्म आज भी मुख्य बाधा है । धर्म नारी को ‘अमानुष’ के रूप में परिणत करता है, धर्म नारी को पुरुष की क्रीतदासी बनाये रखता है । किसी भी धर्म ने स्त्री को मनुष्य का सम्मान नहीं दिया । इसीलिए तसलीमा नसरीन ने ऐसे धर्म को ध्वस्त करने की कामना की है जो इंसानों को आपस में जोड़ न सके । यथा वे कहती हैं- “यदि धर्म की ईमारत एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से प्रेम ख़त्म करती है तो ध्वस्त हो जाएँ ये मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और पैगोड़ा का सारा अस्तित्व । ईट पत्थर से बड़ा मनुष्य है । ईट-पत्थर से बड़ा प्रेम है ।”7

21वीं सदी के इस दौर में, जब मनुष्य अपने आपको शिक्षित और सभ्य मानने लगा है, आज भी स्त्री की दशा में कोई विशेष सुधार देखने को नहीं मिलता है । अक्सर पुरुष सभ्यता के विकास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का दंभ भरता है जिसका खंडन करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने निबंध ‘महिलाओं की लिखी कहानियां’ में लिखते हैं कि “कहते हैं सभ्यता का आरंभ स्त्री ने किया था । वह प्रकृति के नियमों से मजबूर थी; पुरुष की भांति वह उछृंखल शिकारी की भांति नहीं रह सकती थी । झोपड़ी उसने बनाई थी, अग्नि संरक्षक का आविष्कार उसने किया था, कृषि का आरंभ उसने किया था; पुरुष निरर्गल था, स्त्री सुश्रृंखल ।”8 वास्तव में आज जिन लोगों ने समाज में नारी मुक्ति, व नारी स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कन्धों पर उठाया है, वें ही अपने घरों में अपनी पत्नियों को दो-चार बर्तनों और साड़ी-गहनों में उलझाकर रखते हैं  और बाहर स्वाधीनता की बातें ऊँची आवाज में कहते फिरते हैं । स्त्री स्वतंत्रता और स्त्री मुक्ति की बात करने वाले प्रबुद्ध वर्ग के लोग भी अपने शिशु जन्म के समय लड़के की कामना करते हैं । अर्थात उनका स्त्री स्वाधीनता के लिए संघर्ष, स्त्री मुक्ति की बातें, स्त्री-पुरुष समानता की दृष्टि सब दोहरे चरित्र का ही प्रतिफल दिखाई पड़ता है । तसलीमा नसरीन ऐसे प्रबुद्ध वर्ग के लोगों के दोहरे चरित्र पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती हैं ।

तसलीमा नसरीन का समग्र साहित्य लेखन स्त्री मुक्ति की कामना से प्रेरित है । पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के पैरों की बेड़ियों पर चोट करती उनकी लेखनी की स्त्री मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है । पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री मुक्ति का संघर्ष उनका निजी संघर्ष भी है । यही मूल कारण है कि उनकी अन्य रचनाओं यथा दुखियारी लड़की, लज्जा व उनकी स्वयं की आत्मकथाओं में स्त्री मुक्ति का संघर्ष व उसकी छटपटाहट सहज ही देखा जा सकता है । अपनी बहुचर्चित उपन्यास ‘लज्जा’ में उन्होंने बांग्लादेश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ-साथ स्त्रियों के प्रति धर्म, समाज व परिवार के अमानवीयता व संवेदनहीनता को बड़े बेबाक रूप में दर्शाया है । पुरुष के आपसी संघर्ष व समाज में सांप्रदायिक संघर्ष की स्थिति में पुरुषों द्वारा स्त्रियों के प्रति अमानवीय व क्रूर व्यवहार वास्तव में पितृसत्तात्मक समाज की उस मानसिकता को उजागर करती है जिसमें स्त्री की यौन सुचिता ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है, इसीलिए ऐसी परिस्थितियों में स्त्रियों का बलात्कार व यौनाचार अधिक देखने को मिलता है । इस सन्दर्भ में तसलीमा ‘लज्जा’ में बांग्लादेश में हिन्दू परिवार के साथ हो रहे अत्याचारों को दर्शाते हुए बताती हैं कि “4 तारीख को सूडीगाती गाँव के क्षितीश मण्डल के घर पर पुलिस ने धावा बोला । घर पर कोई पुरुष न रहने के कारण क्षितीश मण्डल की पत्नी और बेटी के साथ पाशविक अत्याचार किया गया । 5 तारीख को उसी गाँव के श्यामल विश्वास के घर पर भी पुलिस ने हमला किया । श्यामल बाबू को न पाकर पुलिसवालों ने उनकी बेटी के साथ बलात्कार किया और घर की कीमती वस्तुओं को लूट लिया ।”9 दरअसल पुरुषों द्वारा स्त्रियों की यौन सुचिता को घर की इज्जत व सम्मान के साथ जोड़कर स्त्री को घर में बंद रखने की साजिश है । इसीलिए स्त्री की यौन सुचिता को लेकर तसलीमा नसरीन ने पुरुष समाज की इस मानसिकता का खंडन करते हुए सवाल उठाया है कि जिस समाज में एक स्त्री के चरित्र की पहचान उसकी यौन सुचिता के आधार पर होती है उस समाज में पुरुषों को इससे सर्वदा मुक्त क्यों रखा गया है ? तसलीमा नसरीन का यह प्रश्न उस मानसिकता पर भी चोट है जिसके तहत स्त्री के शरीर को सम्पति समझा जाता है । यथा वे कहती हैं- “नारी का चरित्र उस कमजोर शीशे की तरह है जिसके तरफ मुह करके फूंक देने पर भी वह चूर-चूर हो जाता है ।”10

एक स्त्री के लिए उसकी सुरक्षा का सबसे बड़ा स्थान उसका परिवार होता है किन्तु जब वही परिवार उसके स्वतंत्रता और स्वाधीनता को बाधित करने लगता है तो तसलीमा समस्त स्त्रियों से ऐसे परिवार के त्याग आग्रह करती हैं । वे वर्जिनिया वुल्फ की कृति ‘ए रूम ऑफ वन्स ऑन’ की तर्ज पर स्त्रियों के लिए एक ऐसे घर की कल्पना करती हैं जहाँ उसको पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो । परिवार के भीतर की इस छटपटाहट और अपनी पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अपने घर की कल्पना को तसलीमा की आत्मकथाओं में भी देखा जा सकता है । वास्तव में स्त्री का शोषण समाज से अधिक परिवार में होता है, जहाँ लड़की के जन्म पर, बांझपन की स्थिति में सिर्फ और सिर्फ स्त्री को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है । स्त्री की उक्त समस्या को तसलीमा अपनी चर्चित कृति ‘दुखियारी लड़की’ में दर्शाती हैं जहाँ पुत्र संतान की कामना का बोझ घर की बहू को ही ढोना पड़ता है यथा -“दो-दो बेटियां पैदा करने के बाद, घर में बीवी को तलाक देने की बात उठने लगी । नौबत यहाँ तक आ पहुंची कि आज तलाक हो जाए या कल! हर सुबह नींद से जागते ही माँ की छाती धक्-धक् करती रहती कि पति के घर में आहार पाने का शायद आज ही आखिरी दिन है । शायद आज ही फूलदार ट्रंक हाथ में झुलाए, उन्हें असहाय, निरुपाय मुद्रा में पीहर के दरवाजे जाकर खड़ी होना होगा ।”11 वास्तव में एक विवाहित स्त्री के जीवन का यह कड़वा यथार्थ है जिसे तसलीमा ने अपनी रचना में दर्शाया है । मूलतः तसलीमा ने स्त्री के सम्पूर्ण (विवाह से पूर्व व बाद का) जीवन को ही अपनी रचनाओं का आधार बनाया है, जहाँ वे स्त्री जीवन के सम्पूर्ण संघर्ष व पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना का गहन अध्ययन व विश्लेषण करती हैं । स्त्री मुक्ति की लड़ाई में जहाँ उन्हें एक तरफ प्रगतिशील लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ वहीं दूसरी तरफ कुछ कट्टर लोगों की घृणा का शिकार भी होना पड़ता है । अपनी इस स्थिति का जिक्र वह अपनी आत्मकथा द्विखंडित में खुलकर किया है ।  वे लिखती हैं- “कई-कई माएं, अपनी बेटियों को लेकर आती हैं । बेटियों को मेरे पांव छूकर प्रणाम करने की हिदायत देती हैं । कई-कई लोग सिलहट, चटगाँव, राजशाही, बगुड़ा जैसे दूर-दूर के शहरों से ढाका के पुस्तक मेला में सिर्फ एक ही इरादे से आते हैं, पास से न सही, दूर से ही मेरी एक झलक पाकर, अपना सपना पूरा कर सकें । अपने प्रति इतने-इतने इंसानों का प्यार और घृणा- दोनों ही मुझे रुलाते हैं ।”12

निष्कर्ष रूप में यदि हम तसलीमा नसरीन के सम्पूर्ण साहित्य का अनुशीलन करें तो निश्चित ही उसमें स्त्री शोषण का लम्बा इतिहास व उसके विविध आयाम देखने को मिलते हैं । कई जगह तसलीमा का भोगा हुआ यथार्थ उनके लेखन में मुखर होकर सामने आता है जो उन जैसे ही तमाम स्त्रियों की स्थिति को बयां करता है । इस रूप में तसलीमा का लेखन स्त्री मुक्ति के स्वर को मजबूत व उसके संघर्ष को साकार बनाता है ।

 

सन्दर्भ ग्रंथ – 

1- औरत के हक में- तसलीमा नसरीन, वाणी प्रकाशन, 2005, पृष्ठ- 27

2- वहीं, पृष्ठ- 49

3- वहीं, पृष्ठ- 67

4- वहीं, पृष्ठ- 67

5- वहीं, पृष्ठ-67

6- वहीं, पृष्ठ- 169

7- वहीं, पृष्ठ- 105

8- कल्पलता, हजारी प्रसाद द्विवेदी, महिलाओं की लिखी कहानियां, राजकमल प्रकाशन, 2007, पृष्ठ- 78-79

9- लज्जा, तसलीमा नसरीन, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ- 36

10- औरत के हक में, तसलीमा नसरीन, पृष्ठ- 81

11- दुखियारी लड़की, तसलीमा नसरीन, वाणी प्रकाशन, 2005, पृष्ठ- 10

12- द्विखंडित, तसलीमा नसरीन, वाणी प्रकाशन, 2010, पृष्ठ- 260

शिव दत्त
शोधार्थी
हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय

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