संस्कृति शब्द का सम्बन्ध संस्कार से है जिसका अर्थ है संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना। संस्कार व्यक्ति के भी होते है, जाति के भी। जातीय संस्कारों को ही संस्कृति कहते है। संस्कृति का एक ही मूल उद्देश्य (मानवता) मानते हुए भी यह कह सकते हैं कि संस्कृति देश विशेष की उपज होती है, उसका सम्बन्ध देश के भौतिक वातावरण और उसमें पालित, पोषित एवं परिवर्तित विचारों से होता है।1 श्री ब्रहनानन्द एवं सरस्वती का मत है कि ‘संस्कृति’ शब्द ‘कृ’ धातु से भूषण अर्थ में ‘सुट’ का आगम करने पर बना है जिसका अर्थ है – भूषणभूत सम्यक् कृति याथेष्टा। अतः जिन चेष्टाओं द्वारा मनुष्य अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उन्नति करता हुआ सुख-शांति प्राप्त करता है वही संस्कृति कही जा सकती है अथवा मनुष्य के लौकिक पारलौकिक सर्वाम्युदय के अनुकूल आचार-विचारों को ‘संस्कृति’ कहा जा सकता है।2 कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि संस्कृति का अर्थ रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पीन, रहन-सहन से लिया जा सकता है। मनुष्य का रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा निरन्तर समय के साथ-साथ बदलती रहती है। इस बदलाव में विज्ञापन अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। विज्ञापन ही वह माध्यम है जिससे मनुष्य प्रभावित होकर निरन्तर अपने आप को बदलने की कोशिश करता है अपनी परम्परागत संस्कृति को मूल उपभोक्तावादी संस्कृति की और आकर्षित हो अपने आप को आधुनिक बनाने की कोशिश करता है। अमृत लाल मालवीय ‘संस्कृति’ को मानवीय आचरण का द्योतक मानते हैं ‘‘-इसका सम्बन्ध मनुष्य से है इस कारण इसे मानव संस्कृति भी कहा जा सकता है। वास्तव में संस्कृति किसी भी सभ्यता की आत्मा कही जा सकती है। जिससे हमें उसने सम्पूर्ण संस्कारों का बोध होता है। आज संस्कृति की अभिव्यक्ति भाषा, कला धर्म, शिक्षा-विज्ञान फिल्म, समाचार-पत्र, रेडियो, टेलीविजन आदि के माध्यम से होती है, जो संस्कृति के विकृत, खंण्डित रूप को भी भली भाँति प्रकट करते हैं।3

इन माध्यमों में विज्ञापन की भूमिका भी बहुत अहम् होती है क्योंकि विज्ञापन ही वह माध्यम है जो निरन्तर उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। जिसे बाजारवाद के नाम से भी जाना जा सकता है। ‘‘विज्ञापन अपने संदेश के माध्यम से उत्पाद या वस्तु के प्रति ऐसी तीव्र इच्छा उत्पन्न कर देता है कि उपभोक्ता उसे प्राप्त करने के लिये येन-केन-प्रकारेण अधिक से अधिक धन कमाने की होड़ में लग जाता है। अधिक सुविधा सम्पन्न बनकर वस्तुओं का लाभ प्राप्त करने की मनोदशा भी इस उपभोक्तवादी संस्कृति की ही देन है।4 विज्ञापन उपभोक्ता को इस प्रकार आकर्षित करता है कि आवश्यकता न होते हुये भी ढ़ेर सारी अनावश्यक वस्तुओं से भण्डार भर जाता है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने केवल लोक दिखावे को ही जन्म दिया है, यह लोक दिखावा भीतर से एक दम खोखला है यह उपभोक्ता को कल्पना के पंख लगाकर मायावी संसार की सैर करवाता रहता है और उपभोक्ता अपने आपको इसमें डूबों कर बड़ा आधुनिक बनता है, अपने संस्कारों को निरन्तर भूल पर उपभोक्तावादी संस्कारों को अपनाने की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में इस प्रकार फंसता जाता है कि आज उसका अपना मूल रूप खोता हुआ नजर आता है।
‘‘ विज्ञापन ही है जो उपभोक्ता को एक कल्पना लोक में पहुँचकर उत्पाद की जरूरत को अनिवार्य आवश्यकता में बदल देने का प्रयास करता है। इस प्रकार व्यक्ति उत्पाद को अपनी दैनिक जरूरत में शामिल करने की इच्छा जागृत कर लेता है। एक ही वस्तु को अनेक रूपों में विज्ञापन देकर भी उत्पाद को प्राप्त करने के लिये एक सषक्त इच्छा जागृत की जाती है।’’5 इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने व्यवसायिकता को बहुत बढ़ावा दिया है, नये-नये बाजार, ब्राण्ड और वस्तु की मांग पैदा की है। जहाँ पर उत्पादों या सेवाओं की बिल्कुल माँग नही थी, वहाँ पर भी उनकी माँग पैदा की है। इससे जहाँ उत्पादक को तो लाभ मिलता ही है साथ ही सरकारी आय में भी वृद्धि हुई है, साथ ही रोजगारों को भी बढ़ावा मिला है। सामाजिक उन्नति और विकास में भी इन उपभोक्तावादी संस्कृति का महत्व नजर आता है।’’ विज्ञापन न केवल विद्यान वस्तु अथवा ब्राण्ड की माँग में वृद्धि करता है बल्कि किसी नई वस्तु के बाजार में आ जाने पर उसके माँग वक्र में परिवर्तन भी लाता है। प्रारम्भ में जब कोई वस्तु पहली बाद बाजार में आती है तो उसकी मांग बेलोचदार एवं कम होती है। बाद में अत्याधिक विज्ञापन द्वारा जनता में उसकी मांग बढ़ती है तथा बाद में नई फर्में बाजार में आ जाती है। जो कम्पनी पहले बाजार में आती है उसकी माँग कुछ लम्बे समय तक बेलीचदार होती है। यदि वह ब्राण्ड जनता का मन जीत लेता है तो भी उसकी माँग पर अधिक असर नहीं पडता है चाहे बाद में वत्र्तमान माल के साथ उनके मूल्य सम्बंध बिगड़ ही क्यों न जाये। लेकिन यह स्थिति उस समय तक ही बनी रह सकती है जबकि उसका विज्ञापन लगातार होता रहे। विज्ञापन द्वारा आर्थिक गतिविधियों अधिक उत्पादन, अधिक बिक्री, अच्छी किस्म, नई-2 वस्तुओं की बिक्री, वस्तुओं की किस्म में सुधार अदि में वृद्धि होती है उत्पादन व विक्रय गतिविधियाँ बढ़ने से रोजगार में भी वृद्धि होती है।’’6

उपभोक्तावादी संस्कृति के फलने-फूलने में सोशल मीडिया की भी अहम् भूमिका होती है। सोशल मीडिया ही वह माध्यम है जिसके द्वारा विज्ञापनकत्र्ता अपनी सूचना को करोड़ो उपभोक्ताओं तक पहुँचाता है। सोषल मीडिया का क्षेत्र अत्याधिक विस्तृत हेै इसके अन्तर्गत इन्टरनेट, कम्प्यूटर, ई-मेल फेसबुक टविटर, ब्लाॅग यू टूब आदि आते है। यह सभी विज्ञापन अपनी-अपनी तकनीक द्वारा उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं | इस तकनीक में सोशल मीडिया आदि सूचना औधोगिकियों का तो कहना ही है, इन माध्यमों ने तो ऑनलाइन शापिंग द्वारा उपभोक्तावादी संस्कृति को नये रंग में जिसे पूरी तरह से बाजारवादी संस्कृति कहा जा सकता है उसमें डूबो दिया है। आज उपभोक्ता को कोई वस्तु खरीदनी है तो वह अब घर बैठे केवल कम्प्यूटर और इन्टरनेट की सहायता से दुनिया भर के विक्रेताओं से सम्पर्क स्थापित कर अपने पसन्द की कोई भी वस्तु सरलता से घर बैठे ले सकता है। अतः इस इंटरेक्टिव माध्यम द्वारा विज्ञापनकर्ता सीधे उपभोक्ता से सम्बंध स्थापित करता है। यह राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर हो सकता है। अतः सभी माध्यम अपने-अपने ढंग से इस उपभोक्तावादी संस्कृति को प्रतिस्थापित कर रहे हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसका लाभ वही उठा सकता है, जिसके पास पैसा है किन्तु पैसे वाले उपभोक्ता भी इस उपभोक्तावादी संस्कृति की दौड़ में अपनी मूल संस्कृति को खो रहे हैं। अपनी परम्परागत लोक ‘संस्कृति को विस्मृत कर रहै हैं अशुद्ध और भ्रष्ट संस्कृति को अपना रहे हैं जिसपर कोई सामाजिक नियन्त्रण नहीं है। इसने केवल उपभोक्तावाद और बाजार वाद को ही जम्न दिया है। यह क्षणिक और अस्थिर होती है इसमें अमरता के लिये कोई स्थान नहीं है। इसका सम्बन्ध समाज के प्रत्येक वर्ग तक न होकर केवल इसी वर्ग तक सीमित है।, जो अपने पैसे का सद्प्रयोग करने के साथ-साथ दुरप्रयोग करना भी जानता है और कृत्रिमता, फूहड़ता और बढती फैशन परस्ती में अपने आप को आधुनिक समझ निरन्तर विनाश की गर्त में फंसता जा रहा है। इतना होने पर भी हम उपभोक्तावादी संस्कृति की देन को नहीं भूल सकते, यह हमारे सम्मुख अनेक विकल्प प्रस्तुत करती है। उपभोक्ता को अपनी सामाजिक हैसियत का परिचय करवाती है। इसलिये डॉ. रेखा सेठी का मत सही ही प्रतीत होता हेै कि – ‘‘उपभोक्तावादी संस्कृति को लेकर तमाम संशयों के बावजूद यह स्वीकार करना पड़ता है कि उससे एक नये तरह का लोकतन्त्र भी आया है।’’7

संदर्भ-ग्रंथ सूची

1. भारतीय संस्कृति की रूपरेखा – बाबू गुलाबराय , पृष्ठ – 1-2
2. कल्याण हिन्दू संस्कृति अंक – श्री ब्रहनानन्द सरस्वती, पृष्ठ – 24
3. हिन्दी भाषा साहित्य और संस्कृति – डाॅ॰ पूरनचन्द टण्डन, पृष्ठ – 186
4. भारतीय मीडियाः अंतरंग पहचान – सम्पादक – डाॅ॰ स्मिता मिश्रा, पृष्ठ – 14
5. भारतीय मीडियाः अंतरंग पहचान – सम्पादक – डाॅ॰ स्मिता मिश्रा, पृष्ठ – 314
6. विज्ञापन एवं विक्रय प्रबन्ध – डाॅ॰ एस॰सी॰ जैल, पृष्ठ – 36, 37
7. विज्ञापन डाॅट काॅम – रेखा सेठी, पृष्ठ – 219

 

डाॅ. हरदीप कौर

तिलक नगर, नई दिल्ली

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