मिडिल क्लास की रोजमर्रा की जिंदगी से  रूबरू कराती कहानियाँ

कथाकार रामनगीना मौर्य का एक और कहानी संग्रह “सॉफ्ट कॉर्नर” प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 128 पृष्ठों में 11 कहानियाँ शामिल हैं। इससे पहले उनके दो संग्रह “आखिरी गेंद” और “आप कैमरे की निगाह में हैं” की कहानियाँ पढ़ने को मिली थीं। उन कहानी संग्रहों पर उन्हें कई बड़े सम्मान भी मिले हैं।वह बहुत सजग और सक्रिय कथाकार हैं। देश के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ और कहानी संग्रहों की समीक्षाएँ प्रकाशित हो रही हैं।

            अब जब “सॉफ्ट कॉर्नर” कहानी संग्रह मेरे सामने आया तो इसमें शामिल कहानियों को पढ़ते समय एक बात ध्यान में पहले से रही कि उनके पूर्व के लेखन और अब में क्या बदलाव आया है। दरअसल में रामनगीना मौर्य की कहानियों को पढ़ने से पता चलता है कि उनका अध्ययन बहुत व्यापक है। वह अपने निरीक्षण, सूचनाओं, अध्ययन, अनुभव, ज्ञान और परिस्थितिजन्य स्थितियों के सहारे कहानी का ताना बाना गढ़ने में सिद्धहस्त हैं। अपनी कहानियों में वे भाषायी कला के माध्यम से अनेक बार निबंध की शैली अपनाकर कुछ अलग पहचान बनाने की कोशिश करते हैं।

           वैसे “सॉफ्ट कॉर्नर” संग्रह की कहानियों में पहले की कहानियों की अपेक्षा कुछ बदलाव दिखाई दे रहा है । अब वह निजी विद्वता प्रदर्शन करने के बजाय कहानी को स्वाभाविक स्थिति में विकसित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। कहानी में कथाकार की मौजूदगी कथा को “पुश” करने की होनी चाहिए । जब बहुत जरूरी हो तभी लेखक हस्तक्षेप करें। परंतु नयी कहानी धारा में विवरणात्मक शैली तो चल ही रही है।  यह कहा जा सकता है कि कहानी लेखन में अब प्रेमचंद का समय नहीं है। परंतु यह भी सत्य है कि प्रेमचंद हमारी स्मृति में हैं, बाकी के अनेक आधुनिक कथाकार भुला दिये गये हैं। इसलिए लेखक कहानी के आगे चलकर उसे खींचता नजर आये तो अच्छा नहीं माना जाता। कथाकारों को इसे समझना बहुत जरूरी है । शायद राम नगीना मौर्य उस दिशा में चल पड़े हैं। अब उनकी कहानियों में पहले की अपेक्षा कसाव और गहरी संवेदना के क्षण स्वाभाविक रूप से मिलने लगे हैं। कहानी सुनने-सुनाने की परम्परा की लम्बी यात्रा तय कर आयी है। हालांकि अब वह पढ़ी जाती हैं । फिर भी उसके पीछे से कोई सुना रहा होता है, ऐसा पाठक को पढ़ते समय लगे तो अच्छा है। जो रचनाकार इस बात को महसूस कर लेता है वह शब्दों में ध्वनि को रचता है। फिर उसे कहानियों का अंबार लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। यह देखा गया है कि कुछ कथाकार अपनी एक कहानी से याद किये जाते हैं।

           रामनगीना मौर्य आधुनिक कथाकार हैं तो जाहिर है उनमें नयापन मिलेगा। वह कुछ अलग कर अपनी पहचान बनाने का प्रयास करेंगे ही। इसलिए उनपर लीक पर चलने का दवाव क्यों डाला जाय। और वह अपनी अलग पहचान बना भी रहे हैं। भाषा और बोलियों के स्तर पर कहानियों में किया जा रहा उनका प्रयोग उन्हें बाकी लोगों से अलग करता है। वह हिंदी,अँग्रेजी,उर्दू,फारसी, अवधी, भोजपुरी आदि का प्रयोगकर साहित्य की एक नयी भाषिक संरचना के लिए जमीन बना रहे हैं। उनमें तत्सम और तद्भव शब्दों का एक साथ गजब का मेल दिखाई देता है। वह अपने आसपास के मुहावरों, लोकोक्तियों, संस्कृत के सूत्रों, फिल्मी गीतों की पंक्तियों का भरपूर प्रयोग कहानी को गति देने के लिए करते हैं। वह बोलचाल में प्रयोग होने वाले ध्वन्यात्मक एवं व्यंग्यात्म शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं। बल्कि कई बार नये शब्द भी गढ़ लेते हैं।

             पिछले पचास वर्षों में रचनात्मक लेखन में हिंदी को काफी सरलरूप देने का प्रयास किया गया है। रामनगीना मौर्य ने क्लिष्ट मानकर बहुत सारे छूटे शब्दों को लेखन की धारा में लाने का प्रयास अपनी कहानियों में किया है। यह उनका स्टाइल भी हो सकता है। ऐसा प्रयोग कई लोगों को अस्वाभाविक लगे तो कोई आश्चर्य नहीं। यह भी संभव है कि सामान्य पाठक को ये शब्द समझ में न आयें। परंतु शब्द तो परिचय के लिए प्रयोग की माँग करते हैं। उनका प्रयोग होगा तभी लोकप्रिय होंगे।

           रामनगीना मौर्य की लगभग सभी कहानियों में कॉलोनियों में नये पनपे एवं आधुनिक बनने की कोशिश में लगे उस समाज के लोगों की व्यथा-कथा है जो पुरातन को छोड़ नहीं पा रहे हैं और बाजारवाद के शिकार भी हैं। उनकी कहानियों में अक्सर ऐसे लोगों का बखान है जिनकी सोच अपनी हैसियत से आगे की है। घर हो या बाहर हर कोई अपने तरीके से जीने का प्रयास कर रहा है। बल्कि अब तो हर कोई सिर्फ अपने लिए जी रहा है। इसीलिए विसंगतियाँ  बढ़ती जा रही हैं। यही आज के समय का मूल स्वर है। जिसे रामनगीना मौर्य ने अपनी कहानियों में उठाया है।

          “सॉफ्ट कॉर्नर” संग्रह की पहली कहानी “बेवकूफ लड़का” है। इसमें कथाकार रामनगीना मौर्य जाने-अंजाने कई विमर्शों को उठाते हैं। यहाँ बालमन की तटस्थता है तो महिला विमर्श के बीच से बालिका विमर्श भी उभरता है। कथाकार जिस कहानी का तानाबाना एक बालक को लेकर गढ़ता है उसका आधार लेकर कहानी कई चक्रव्यूह पारकर आगे निकल जाती है। मसलन प्रसव की पीड़ा कल अपने तरह से थी, आज अपने तरह से है। बाल विमर्श में बालक की अपेक्षा बालिका से अधिक उम्मीद की गयी है। लड़के की बेवकूफी की चर्चा है तो लड़की के पैदा होते ही उसके ललाट से विद्वता की झलक मिलने लगती है। आज का समय बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ का है। समय की सोच के इसी परिवर्तन का कथाकार ने कुछ और आगे बढ़कर स्वागत किया है।

           दूसरी कहानी “अनूठा प्रयोग” में आज के मिडिल क्लास के आदमी के रोजमर्रा के मसायल को एक मंच पर लाने का पूरा प्रयास किया गया और उसी के बीच से अनूठा प्रयोग भी उभर कर सामने आ जाता है। आधुनिक जीवन में शहरों के विस्तार ने लोगों के बीच की दूरियाँ बढ़ा दी हैं। लोगों के पास अपनों से मिलने का वक्त नहीं है। अपने वाहन के वावजूद पेट्रोल भी एक आवश्यकता है, कहीं जाने के लिए । लोग जब मिलते-बैठते हैं तो अपने समय की पूरी बखिया उधेड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। यहाँ भी राजनीति, बच्चों की नौकरी, महिलाओं का परिधान, गृह प्रवेश, लेन देन, आदि बहुत कुछ परीक्षण का विषय बना है।

          तीसरी कहानी “अखबार का रविवारीय परिशिष्ट” है। हमारे जीवन का खास रिश्ता अभी भी अखबार से बना हुआ है। तमाम टीवी चैनलों की अद्यतन जानकारी के बावजूद सोकर उठते ही सुबह अखबार की तलब महसूस होती है। अखबार से जुड़े कई प्रसंगों और विसंगतियों को बड़ी सहजता से इस कहानी में उठाया गया है। यह कहानी रचनाकार के निजी अनुभव जैसी है जिसमें आज से जूझते बेचैन और लाचार आदमी की दैनंदिनी की एक झलक है।

          चौथी कहानी “लोहे की जालियांँ ” में किराये के मकान के बहाने आर्थिक तंत्र और रिश्तों के तालमेल की नापजोख की गयी है। रिश्ता एहसानमंद और एहसानफरामोश के बीच झूलता है। क्योंकि जीवन हमेशा दो और दो चार नहीं होता। कहीं हम अपने हक और अधिकार के लिए खड़े होते हैं तो कहीं समझौता कर लौटने की मजबूरी होती है।

           पाँचवीं कहानी “छुट्टी का सदुपयोग” में छुट्टी को लेकर आफिस और घर के बीच के रिश्तों-संबंधों और त्रासदियों की सच्चाई का स्वाभाविक चित्रण किया गया है। इसी बहाने घर और आफिस के चरित्र का आकलन करने में कथाकार कोई कोताही नहीं बरतता।

          आफिस के ही कार्य व्यवहार को उकेरती छठी कहानी “बेकार कुछ भी नहीं होता” में स्टेटस और उपयोगिता के बीच के द्वंद्व को उभारा गया है। किसी वस्तु के सड़क पर पड़े होने से उसका महत्व कम नहीं हो जाता। उसे बस अपनी सही जगह चाहिए, जहाँ वह अतिमूल्यवान और जरूरी होती है। आफिस के अंदर की कार्य प्रणाली और अधिकारियों-कर्मियों के व्यवहार का सटीक चित्रण इस कहानी में हुआ है।

           सातवीं कहानी “ग्लोब” है। नेट की आभासी दुनिया के विस्तार ने कई तरह की चिंताएं खड़ी की हैं। मसलन नेट अपार सूचनाएँ तो दे रहा है परंतु सीखने की व्यावहारिक इच्छाशक्ति समाप्त कर दे रहा है। यहाँ एक छोटा बच्चा नेट से बहुत सारी जानकारियाँ जानने के बाद बड़ा होने के एक भ्रम का शिकार होकर बड़े लोगों से ठीक से पेश नहीं आता। नेट सूचनाएँ तो दे सकता है परंतु व्यावहारिक ज्ञान, आचरण और विवेक कहाँ से देगा। इनके अभाव में बच्चे फ्रस्टेशन के शिकार हो रहे हैं। घर में माता-पिता,अभिभावक से लड़ रहे हैं, मनमानी कर रहे हैं। घर वाले अपने बच्चों से डरे हुए हैं।

            संग्रह की आठवीं कहानी “आखिरी चिट्ठी” का ताना बाना संग्रह की पहले की कहानियों से भिन्न है। इसमें स्कूली जिंदगी का जिक्र है। नयी उम्र में मन और भावनाएँ जितने करवट बदलती हैं उन्हे  निरीक्षण-परीक्षण के साँचे से गुजारने का स्वाभिक चित्रण राम नगीना मौर्य ने किया है। चाहे क्लास में टीचर की डाँट हो, केमेस्टी लैब की खुराफात हो या सिनेमा देखने के लिए की गयी जद्दोजहद हो। यह सारा अतीत एक पुरानी पड़ी चिट्ठी के जरिये सामने आता है और पाठक में उत्सुकता बनाये रखता है।

          नौवीं कहानी “संकल्प” में मानवीय संवेदना उभरती है, तब संकल्प टूट जाता है। वह भी जूता पालिश करने वाले एक बच्चे के लिए। कहानी बहुत सारे उन लोगों के लिए संदेश दे जाती है जो घर को बाजार बनाने में लगे हैं। फिजूलखर्ची में लाखों रुपये लुटा रहे हैं और जिन्हें रोटी के लाले हैं, उनको देख कर मुँह बनाते हैं।

            कथाकार ने दसवीं कहानी “उसकी तैयारियाँ” में घर की जूझती कामकाजी महिला की दिक्कतों के बहाने स्त्री विमर्श का एक खाका प्रस्तुत किया है। नये पनपे भारतीय समाज में भी घर का सारा काम महिलाओं के जिम्में है। शायद चौबीस घंटे घर संभालना और डाँट खाना उनकी नियति है। परंतु यहाँ स्त्री अपने को बराबरी में खड़ा करने की जद्दोजहद करती है। यह खास बात है।

             इस संग्रह की अंतिम कहानी “सॉफ्ट कॉर्नर” है जो इस संग्रह की शीर्षक कहानी है। आदमी हो या औरत वह अपने अंदर कई समय समेटे होता है। कुछ व्यक्त हो पाता है,कुछ नहीं। पति-पत्नी के रिश्तों के बीच भी स्मृतियों के ऐसे कई प्रसंग खुलने का मार्ग तलासते रहते हैं। इस कहानी में भी लम्बे समय तक साथ रहने के बावजूद एक-दूसरे को जानने की उत्सुकता जोर मारती है।

          अपनी कहानियों में रामनगीना मौर्य न तो आदर्शवादी हैं और न ही शुद्धतावादी । वह आज के आदमी को उसके मनोभावों के साथ बिना लागलपेट के प्रस्तुत करते हैं। वह आदमी जो अपनी चंचलता के चलते विचलन का शिकार होता रहता है। वह आदमी जो स्वार्थी भी है और एहसानफरोश भी है। वह आदमी जो अंध श्रद्धा के बजाय तर्कशील है। उनके यहाँ आदमी ईश्वर नहीं है। इसलिए उनका आदमी भले-बुरे दोनों से गुजरता है।

            रामनगीना मौर्य यथार्थवादी कथाकार हैं। वह अपनी कथा के माध्यम सें पाठक पर बहुत कुछ विचार के लिए छोड़ देते हैं कि सोचे कि क्या उपयुक्त अथवा क्या हानिकारक है। कथाकार रामनगीना मौर्य अपनी भूमिका में स्वयं लिखते हैं– ” लिखना चुनौतीपूर्ण है। हमारे इर्द-गिर्द , नित-प्रति काफी कुछ ऐसा घटित होता रहता है ,जिसे लक्ष्य कर बहुत कुछ लिखा जा सकता है । हालांकि, यथार्थ से परिपूर्ण लेखन किसी मानसिक यंत्रणा से कम नहीं है। यद्यपि यह आपको कहीं-न-कहीं मजबूत भी करता है। इसी बहाने आपको अपनी खूबियों-खामियों को जानने-समझने का अवसर भी मिलता है…।”

           राम नगीना मौर्य का कहानी संग्रह “सॉफ्ट कॉर्नर” पाठक पसंद करेंगे , इस उम्मीद के साथ उनको बधाई और शुभकामनाएँ ।

पुस्तक- सॉफ्ट कॉर्नर (कहानी संग्रह)

लेखक- राम नगीना मौर्य

प्रकाशक- रश्मि प्रकाशन, कृष्णा नगर, लखनऊ

सहयोग राशि – 175 रुपये


 

समीक्षक- भोलानाथ कुशवाहा
                        बाँकेलाल टंडन की गली
                        वासलीगज
                        मिर्जापुर

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