“प्रभु  जू , यौँ  किन्ही हम खेती ।

                     बंजर    भूमि, गाउ   हर जोते, अरु   जेती की तेती ।

                    काम-क्रोध  दोउ बैल बली मिली, रज-तामस  सब किन्हौ ।

                    अति   कुबुद्धि    मन हांकनहारे,   माया जुआ दीन्हौ ।

                    इन्द्रिय-  मूल- किसान-    महातृन- अग्रज-   बीज बई ।

                    जन्म   जन्म की   विषम- बासना,   उपजत लता नई । 

                    कीजै   कृपा- दृष्टि  की बरषा, जन की  जाति लुनाई ।

                    सूरदास   के प्रभु   सो करियै,   होई न कान- कटाई ।”

 

कविता में जीवन के यथार्थ और अनुभव की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है- प्रत्यक्ष और सांकेतिक। एक में यथार्थ और अनुभव का सीधा वस्तुपरक वर्णन होता है और दूसरे में अलंकारों, बिम्बों, प्रतीकों तथा भाषा के अन्य इशारों के माध्यम से कवि यथार्थ और अनुभव की ओर संकेत करता है। प्रत्यक्ष रूप में चित्रित यथार्थ और अनुभव की पहचान सरल होती है, लेकिन जहाँ सांकेतिकता होती है वहां पहचान की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। सूरदास के काव्य में किसान-जीवन के याथार्थ का जितना प्रत्यक्ष चित्रण है, उससे अधिक किसान जीवन के अनुभवों की सांकेतिक व्यंजना है। विनय के पदों में किसान-जीवन के यथार्थ के प्रितिनिधि चित्र अधिक हैं, जबकि भ्रमरगीत में मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों और अलंकारों के माध्यम से जीवन के अनुभव सांकेतिक रूप में आये हैं।

                          सूर के काव्य में ऐसा समाज है जिसमें पशुपालन कृषिव्यवस्था का अंग है और गोचारण किसान- जीवन के व्यापक अनुभवों का हिस्सा। इस और संकेत करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते है-बाललीला के आगे फिर उस गोचारण का मानोरम दृश्य सामने आता है, जो मनुष्य जाति की अत्यंत प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों के काव्य का प्रिय विषय रहा है। युनान के पशुचारण-काव्य का मधुर संस्कार यूरोप की कविता पर अब तक कुछ न कुछ चला ही आता है। कवियों को आकर्षित करने वाली गोप-जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में विचरने के लिए सबसे अधिक अवकाश। कृषि वाणिज्य आदि और व्यवसाय जो आगे चलकर निकले, वे अधिक जटिल हुए- उनमें उतनी स्वछंदता न रही।2

आचार्य शुक्ल जब कहते हैं कि सूरसागर में बाललीला के बाद गोचारण का मनोरम दृश्य सामने आता है तब उनका आशय यह नहीं है कि सूर का सम्पूर्ण काव्य गोचारण- काव्य है, और यह भी नहीं कि प्रागैतिहासिक पशुचारण -काव्य है। फिर भी हिंदी के कुछ प्रगतिशील आलोचकों ने सूर को चरागाह संस्कृति का कवि घोषित कर दिया है। आ.शुक्ल को आदर्श मानकर उनके चरण कमलों पर चलने वाले आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा भी सूर को पशुपालकों का कवि मानते हैं। डॉ. शर्मा कबीर को शहरी कारीगरों का, सूरदास को चरवाहा संस्कृति का और तुलसी को कृषक-संस्कृति का कवि मानते हैं। उन्होंने ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’ में लिखा है कि – “कबीर शहरी कारीगरों के, सूर पशु- पालकों के, तुलसी किसानों के जीवन से जुड़े हैं। दार्शनिक मतवाद की छानबीन में  विवेचक इनके भौतिक परिवेश की विशेषताएं भूल जाते हैं। किसान- जीवन के चित्र कबीर और सूर के काव्य में नहीं हैं, वे तुलसी के काव्य की विशेषताएं है।”3

                  रामविलास शर्मा  के द्वारा कबीर एवं सूर के सन्दर्भ में कहा  गया उपर्युक्त कथन उनकी भारी भूल साबित हुआ।  एक वर्ष बाद ही संभवतः सूरसागर का गहन अध्ययन करने के पश्चात् उनके विचारों में कुछ परिवर्तन अवश्य आता हैं तभी तो वे अपनी पुस्तक ‘लोक जागरण और हिंदी साहित्य’ में लिखते हैं -“किसान जीवन के चित्र कबीर और सूर के काव्य में नहीं हैं- मेरी यह बात केवल सापेक्ष रूप में सही है। कबीर और सूर किसान-जीवन से परिचित है पर इस जीवन की समग्रता तुलसी के काव्य में हैं, उस युग के अन्य किसी कवि में नहीं।”4

साल भर के भीतर डॉ. रामविलास शर्मा के मत में यह परिवर्तन और फिर उसका स्वीकार आश्चर्य जनक है, डॉ. शर्मा जैसे प्रख्यात प्रगतिशील आलोचक के विचारों में इतना गहरा अंतर्विरोध यह शोध का विषय हो सकता हैं कि ऐसा क्यों हुआ? इस अंतर्विरोध का मूल कारण क्या था? क्या मूल पाठ की अवहेलना ही इसका मूल कारण था? कह सकते है कि सूर के सम्बन्ध में डॉ. शर्मा की पहली मान्यता शुक्ल जी का अन्धानुकरण रही होगी और सूरसागर  के गहन अध्ययन के पश्चात् साल भर बाद उस मान्यता में बदलाव करते हुए उसे केवल सापेक्ष रूप से सत्य कहकर अपनी भूल को सुधारने का प्रयास किया गया होगा।

                   मैनेजर पाण्डेय जी इस सन्दर्भ में प्रश्न करते हैं- क्या सचमुच ऐसा है कि सूरदास तो किसान- जीवन से सिर्फ परिचित हैं, लेकिन तुलसी किसानों के प्रतिनिधि कवि ?आखिर किसान-जीवन की वह कौन सी समग्रता है जो तुलसी के काव्य में है, पर सूर या उस युग के किसी अन्य कवि में नहीं ?5 इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए वह आगे लिखते है- “तुलसी के काव्य में खेती से सम्बंधित कुछ बातें मिल जाती हैं। उनमें से एक यह है- कृषि निरावहि चतुर किसान’। कुछ तुलसी भक्त इसकों बार-बार उद्धत करते हुए कहते हैं कि उस युग में किसानों के प्रतिनिधि  कवि केवल तुलसीदास हैं। शायद वे यह नहीं जानते कि तुलसी से पहले और अधिक काव्योचित ढंग से यही बात सूरदास कह चुके हैं।6

 तुलसी की वेदना भूमि से शुक्ल और शर्मा दोनों आलोचक इतना अभिभूत हैं कि भक्तिकाल के दूसरे कवियों के काव्यों को उतनी विशदता और सहृदयता से नहीं देख पायें हैं। इन दोनों विद्वानों ने तुलसी को मूलतः किसान संवेदना का कवि  माना है। संभवतः यही सही है कि गोस्वामी जी किसानों के संस्कारों को अपनी संवेदना में लपेटे हुए हैं और स्थान-स्थान पर कृषक-जीवन के ये संस्कार उनकी संवेदना से छनकर उनके काव्य रूप में व्यक्त हुए हैं। जहा तक कृषि समाज की संवेदना, संस्कृति और संस्कारों का प्रश्न  है, इसे नकारा नहीं जा सकता है। यही कारण है कि पाण्डेय जी ने किसान-जीवन के सन्दर्भ में सूरदास के काव्य का विश्लेषण करते हुए यह तथ्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि इनके काव्य में गोचारण का जो सन्दर्भ है, उसका किसान जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध है। पाण्डेय जी के मतानुसार-सूर के काव्य में ऐसा समाज है जिसमें पशुपालन कृषि-व्यवस्था का अंग है और गोचारण किसान जीवन के व्यापक अनुभवों का हिस्सा। यहाँ किसान जीवन सूर के काव्य में प्रत्यक्ष और सांकेतिक दोनों रूपों में आया है। विनय के पदों में किसान-जीवन के यथार्थ के प्रतिनिधिक चित्र अधिक हैं, जबकि भ्रमरगीत में मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों और अलंकारों के माध्यम से उस जीवन के अनुभव सांकेतिक रूप में आए हैं।7

             वस्तुतः उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सूरदास कृषक- समाज के  दुःख -सुख , हर्ष-उल्लास, तथा छोटी -से-छोटी बातों की गहराई से परिचित थे। कृषक जीवन के जितने भी चित्र सूरदास के काव्य में हैं, वे पूरे संवेदनात्मक एकात्म के साथ चित्रित हुए हैं। समग्रतः किसान जीवन की संवेदना से जुड़े प्रसंगों में सूरदास का काव्य अत्यंत समृद्ध है।

 सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-

  1.   सूरसागर (भाग-1) : संपा. नंददुलारे वाजपेयी, नागरी प्रचारिणी सभा, द्वितीय सं.1952, पद (185), पृष्ठ (60)
  2.   सूरदास : आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, संस्करण(2016), पृष्ठ (111-12)
  3.   मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य : डॉ. रामविलास शर्मा, पृष्ठ (344)
  4.   लोक जागरण और हिंदी साहित्य : डॉ. रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2004 पृष्ठ(74)
  5.   भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य : मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, आवृत्ति संस्करण 2012, पृष्ठ (294)
  1.   वही,  पृष्ठ (296)
  2.   वही,  पृष्ठ (294-95)

 

अनिल कुमार
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय 

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