भाषा और साहित्य किसी भी प्रकार की भौगोलिक सीमाओं को स्वीकार नहीं करते क्योंकि साहित्य मानवीय अनुभवों की अभिव्यक्ति होता है। इन अनुभवों का काल एवं स्थान की सीमाओं से मुक्त होना स्वाभाविक है। यह स्थिति विशेषतया विभिन्न देशों और उनमें विकसित होने वाली विभिन्न सांस्कृतिक इकाईयों में उभरती है जो अपने साहित्य एवं संस्कृति की पहचान कायम रखने के लिए प्रयत्नषील रहती है। आज हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति भारतवर्ष से दूर इंग्लैंड, कैनेडा, अमेरिका, माॅरीशस, थाईलैंड, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया एवं डेनमार्क जैसे देशों में किसी न किसी रूप में अपना स्थान प्राप्त करने में समर्थ हो रही है।
प्रवास की परिभाषा संबंधी सामग्री भिन्न-भिन्न शब्द-कोशों में से प्राप्त होती है।
प्रवासी (Emigrant) – “A person who leaves his country to live in another.”
प्रवासी वे लोग हैं जो अपना देश छोड़कर बेगाने देश अनिश्चित समय के लिएजाते हैं, पर दूसरे देश में बस जाने का फैसला कर लेते हैं । प्रवासी की स्थिति अनिश्चित होती है । वह प्राप्ति करने के पश्चात वापिस लौटने का फैसला भी कर सकता है । ‘प्रवास’ शब्द से अभिप्राय है विदेष वास या अपना घर या देष त्याग कर दूसरे देष में निवास करना। इसी आधार पर प्रवास में रचित साहित्य प्रवासी साहित्य कहलाता है।

प्रवासी साहित्य
‘प्रवासी हिन्दी साहित्य’ हिन्दी जगत में एक नया वाक्यांश व चेतना है। ’प्रवासी’शब्द ’प्रवास’ शब्द का विशेषण है। प्रवासी एक मनोविज्ञान है,एक अंतर्दृष्टि है। जिसे स्वत:स्पष्ट होने में पर्याप्त समय लगा है। एक तरह से प्रवासी वे कलमें हैं जो अपने पेड़ से कटी हुई टहनियाॅँ होने के बावजूद वर्षों किसी और मिट्टी-खाद-पानी में अपनी जड़ें रोपती हुईं अपना बहुत कुछ खोने और नया बहुत कुछ उस नई भूमि से लेने-पाने के साथ अपने भीतर की गहराईयों में नई ऊर्जा सृजित करती हुईं नई चेतना की कोंपले विकसित करती हैं । तमाम विरूद्ध परिस्थितियों में रहते हुए प्रवासी लेखक द्वारा ऐसी भाषा में लिखना जो वहाँ की भाषा न हो, बहुत ही कठिन कार्य है। प्रवासी साहित्यकारों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। हवा का बहाव हक में न होने पर भी उनके भीतर बैठा साहित्यकार मौन धारण करके नहीं बैठा। अपनी मातृभूमि की मिट्टी की सुगंध उनको वहाॅँ भी उत्साहित करती रही। उनके द्वारा रचित इससाहित्य में धरती के रंग, सोच और आज के मनुष्य की समस्याओं को लिया गया है।सुषम बेदी हिन्दी साहित्य लेखन में एक जानी पहचानी लेखिका हैं । सुषम बेदी का जन्म जुलाई 1945 में फिरोजपुर, पंजाब में हुआ था। आजकल वह न्यूयार्क में रह रही हैं। उन्होंने स्कूल की शिक्षा के दौरान ही लेखन कार्य प्रारम्भ कर दिया था और यह कार्य काॅलेजतक चलता रहा। इनकी प्रारम्भिक रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुईं इन्होंने भारत में दिल्ली यूनिवर्सिटी और पंजाब यूनिवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण की 1960 से 1970 तक वह भारतीय टेलीविजन की प्रसिद्ध अदाकारा और सलाहकार भी रहीं। बैल्जियम के ब्रसल्स शहर में 1947 से 1970 तक वह ‘टाईमस आॅफ इंडिया’ समाचार पत्र की संवाददाता भी रहीं। 1979 में सुषम बेदी अमेरिका चली गई क्योंकि उनके पति वहां ‘इंडियन टी बोर्ड’ में डायरैक्टर के पद पर तैनात थे। 1990-91 में उन्होंने बी.बी.सी. के साप्ताहिक कार्यक्रम ‘Letters from abroad’ में अपना योगदान दिया जिसमें वह न्यूयार्क की जिंदगी के मसलों पर विचार-विमर्श करतीं थीं।

कृतित्व
सुषम बेदी की सृजन यात्रा का आरम्भ तेरह वर्ष की अवस्था में हो गया थाजब वह नवीं कक्षा की छात्रा थीं। विदेशों में बसे भारतीयों की द्वन्द्वमय मनः स्थितियों को कहानियों और उपन्यासोंके माध्यम से अभिव्यक्त करने में सुषम बेदी का हिन्दी साहित्य को विशेष योगदान है। इनके आज तक सात उपन्यास-‘हवन’, ‘लौटना’, ‘इतर,’ ‘गाथा अमरबेल की’, ‘नवाभूम की रस कथा’,‘कतरा-दर-कतरा’, ‘मोरचे’ और एक कहानी संग्रह ‘चिड़िया और चील’ भी प्रकाशित हो चुकाहैं।

सुषम बेदी के कथा-साहित्य में प्रवासी जीवन की समस्याएँ
सुषम बेदी हिन्दी की एक ऐसी लेखिका हैं जिन्होंने प्रवासी समाज को आधारबनाकर अपने साहित्य की रचना की। उनके साहित्य में सृजित कथा वस्तु जीवन के यथार्थ पर आधारित है। सुषम बेदी एक संवेदनशील लेखिका हैं। उन्होंने उसका सजीव और सहज चित्रण अपने कथा-साहित्य में किया। जिसमें उन्होंने प्रवासी जीवन की समस्याओं को भी प्रमुखता से उजागर किया है ।

नस्लवाद की समस्याः-
आज विश्व के सभी देशों में नस्लवाद की नीति दिखाई देती है। लगभग प्रत्येक प्रवासी भारतीय को इसे भोगना पड़ता है। वे चाहकर भी इसका खंडन नहीं कर पाते। विदेश में रहते प्रवासियों को नौकरी प्राप्त करते समय इस समस्या से जूझना पड़ता है। वैसे अंग्रेजों के पास नस्ली घृणा का कोई ठोस तार्किक आधार नहीं है किन्तु फिर भी वे बार-बार उन्हें दबाने का प्रयत्न करते हैं। ‘हवन’ उपन्यास में अणिमा को नौकरी लेते समय इसी भेदभाव की नीति का शिकार होना पड़ा किन्तु अपनी योग्यता के आधार पर वह नौकरी प्राप्त कर ही लेती है। यूनिवर्सिटी कैफेटेरिया में बैठी वह नौकरी पाने के सारे संघर्ष की कहानी अपनी सहेली नजमा को सुनाती है।‘‘इस काॅलेज की नौकरी के लिए भी इंटरव्यू से पहले सब इसी तरह का शकमन में डाल रहे थे – ऐशियाई महिला और अंग्रेजी पढ़ाए अमरीकनों को। पर मेरे क्रेडेशियल सबसे बढ़िया थे। इनका खेल इन्हीं के पत्तों से खेलों, तब मिलती है सफलता।’’ कई बार अपने आसपास व्याप्त नस्लवाद का यथार्थ रूप प्रवासी भारतीय उतनी गहराई से नहीं देख पाते जितना नौकरी पाते समय देखते हैं। उस समय नस्लवाद का घिनौना रूप सामने आता है। ‘लौटना’ उपन्यास में एड मीरा से कहता है, ‘‘तुम्हारी बात नहीं करता…क्योंकि तुम तो मुझे अच्छी लगती हो…पर यह नहीं कह सकता कि फर्क नहीं पड़ता। अभी हिन्दुस्तानी तो फिर भी यहाँ इतने ज्यादा आ गए हैं कि सारी इकाॅनाॅमी पर बहुत बोझ डाल दिया है । नौकरियों के लिए प्रतियोगिता बढ़ती चली जा रही है।मॅँहगाई बढ़ रही है। अपने ही देश में हम लोग आपरेसर कहलाए जा रहे हैं…एक तो सारे ऐशियाई आकर हमारी नौकरियाॅँ छीनते जा रहे हैं, ऊपर से हमीं पर जातीय वैमनस्य और रंग भेद का आरोप लगाया जाता है । अपने देश में चाहे भूखों मरें, यहाॅँ आकर सभी अपने समानअधिकारों की बात करने लगते हैं।’’ इस प्रकार देखा जा सकता है कि ‘हवन’ और ’लौटना’ उपन्यास के माध्यम से सुषम बेदी ने नौकरी में नस्लवाद जैसी गम्भीर समस्या को उठाया है। प्रवासी भारतीय चाहेजितनी भी शिक्षा प्राप्त कर लें किन्तु नौकरी के समय उनके साथ भेदभाव की नीति को अपनाया जाता है। इस तरह की स्थिति उन्हें भीतर तक चोट पहुॅँचाती है। इस समस्या के फलस्वरूप प्रायः भारतीय हीन-भावना, बेगानापन और अजनबीपन का शिकार हो जाते हैं। इन उपन्यासों के पात्र अक्सर ही ऐसी स्थिति का सामना करते हैं परन्तु अपनी योग्यता के बल पर वह सफल भी होते हैं और अच्छी नौकरी प्राप्त करते हैं।

प्रवासी भारतीयों में हीन भावना की समस्या:-
प्रवासी भारतीय अपने विदेशी जीवन मूल्यों की ओर चिन्तित होता चला जाता है। एक तो वह अपने मूल से पूर्ण रूप से टूटने में असमर्थ होता है और दूसरी ओर प्रवासी होने की हालत में बेगानी संस्कृति को भी पूर्ण रूप में अपनाना उसकी मानसिक समर्थता से परे होता है। पश्चिम का राजनीतिक, नैतिक और आर्थिक ढांँचा पूर्व से आए प्रवासियों को भीतर तक हिलाकर रख देता है। उसको कदम-कदम पर पूर्व के मानसिक मूल्य टूटते नजर आते हैं। दूसरी ओर जीवन स्तर ऊँंचा करने के प्रयास में मशीनी जिंदगी जीने लगता है। इस स्थिति में वह टूटन का शिकार होता है। विदेशी जीवन की सुख समृद्धि ओर विदेशी लोगों के उच्च स्तरीय जीवन को देखकर प्रवासी भारतीयों के मन में हीनता की ग्रंथियां उत्पन्न होती हैं।भारतीय गोरे लोगों के सामने स्वयं को हीन समझते हैं और अपनी इसी हीन भावना के कारण नस्लवाद का शिकार होते हैं। नस्लवाद के भय से बचने के लिए अनेक बार वे अपने आपको भारतीय नहीं कहलाते। ‘हवन’ उपन्यास की राधिका नस्लवाद के कारण हीन-भावना की शिकार है। उसने अपनी सहेलियों को अपना नाम लोरा बताया है। राधिका के साथ शाॅपिंग करते हुए स्टोर में गीता को उसकी सहेली मिली तो अपना परिचय देते हुए गीता को मिसेज जोनसन नाम से संबोधित किया। आपको गलतफहमी हुई कि राधिका उन्हें टोककर टूटी-फूटी हिन्दी में समझाने लगी, ‘‘ममी, वह तो मजाक में मैंने अपना नाम इन्हें लोरा जाॅनसन बतला दिया था, करें क्या आपके हिन्दुस्तानी नाम किसी की समझ में नहीं आते। मुझे सब बुलाते थे-रै…डि…खा इट इज सो फनी, इजंट इट!’’
सुषम बेदी का साहित्य फ्राॅयड की मनोवैज्ञानिक युक्तियों और माक्र्स केफलसफे को आधार बनाकर चलता है। वह बड़ी कुशलता से हीन भावना के कारण उत्पन्न तनावका सृजन अपनी रचनाओं में करती हैं। हीन भावना से उत्पन्न आतंक के बहुत ही कलात्मक और मनोवैज्ञानिक चित्र लेखिका के कथा साहित्य में देखने को मिलते हैं।

जीवनयापन के साधन व प्रवासी भारतीयों की समस्या:-
प्राचीन काल से ही व्यापारियों का आवागमन एक देश से दूसरे देश में चलता आ रहा है । लेकिन आज भूमंडलीकरण के दौर में भारतीयों को प्रवासी बनाने वाली स्थितियाॅँ और कारण बिल्कुल अलग प्रकार के हैं । उनका स्वरूप इस प्रकार भिन्न है कि उनसे एक नए घटनाक्रम का आभास होता है। इतिहास में शायद ही कभी लाखों नहीं, करोड़ों की संख्या में भारतीय अपना घर-बार छोड़कर पेट पालने, कमाने और अपने आश्रितों के भरण-पोषण के लिए बाहर निकल पड़े हों । आज भारत ही नहीं दुनिया के तमाम शहरों में बहुत पर्याप्त बेरोज़गारी है, जीवनयापन मुश्किल है, तनाव बेइंतहा हैं । भारतीय जब उत्कृष्ट कमाई और उत्कृष्ट जीवन स्तर के लिए विदेश पहुॅँचता है तो संघर्ष द्वारा धीरे-धीरे वहीं जमता जाता है। परिवार लाता या बसाता है और लगभग वहीं का होकर रह जाता है । सुषम बेदी के कथा-साहित्य में प्रवासी भारतीयों की इस संघर्ष की कहानी को बखूबी प्रस्तुत किया गया है । प्रवासी भारतीय विदेश में वास करने के लिए अनेक साधनों का प्रयोग करते हैं । कुछ प्रवासी भारतीय कुशल श्रमिक (Skilled Labour) होते हुए भी अकसर अकुशल श्रमिक (Unskilled Labour) का काम करते हुए दिखाई देते हैं । लेखिका के कथा साहित्य में जीवनयापन के जिन साधनों का प्रयोग किया गया है वे दो तरह के हैं – निम्न स्तरीय जीविकोपार्जन के साधन और उच्च स्तरीय जीविकोपार्जन के साधन । भारतीय लोग अपने जीवन स्तर को ऊँचा करने के लिए विदेश पहुँचते हैं किन्तु जाते ही उन्हें ऊँची नौकरियाँ प्राप्त नहीं होतीं । इसका कारण शायद अल्प-शिक्षा और अंग्रेजी का अल्प-ज्ञान भी है। अपने जीवन को आर्थिक तंगी से बचाने के लिए प्रवासी भारतीयों को छोटी-छोटी नौकरियों में धक्के खाने पड़ते हैं । इनके अधिकतर काम मजबूरी वश होते हैं । भारत से ऊँची शिक्षा हासिल करके युवक-युवतियाँ विदेश आते हैं । शुरू-शुरूमें उनके सपने ऊँची नौकरियों के होते हैं और इन्हें हासिल करने के लिए वे भागदौड़ भी बहुत करते हैं किन्तु जल्दी ही वे निम्न स्तरीय नौकरियों पर आ जाते हैं । भारत की बेरोजगारी से तंग आकर ये विदेश पहुँचते हैं और हर तरह की नौकरी के लिए अपने-आपको तैयार कर लेते हैं । ‘‘दीवाली थी न, कपड़े तो बढ़िया पहनने ही थे। खैर, अनुमान आपका भी ठीक ही है। मैं इंजीनियरिंग खत्म करके यहाॅँ तीन महीने के लिए ही आया था विजिटर वीसा पर। फिर मन हुआ यहीं क्यों न कोई न कोई नौकरी ढूंढ लूॅँ। हिन्दुस्तान में भी कोई ढंग की नौकरी तो मुझे मिली नहीं थी। इधर जहाॅँ-जहाॅँ भी पता लगाया, उन्होंने बिना वर्क परमिट के नौकरी देने से इनकार कर दिया। जिस रिश्तेदार के यहाॅँ टिका था उनकी सिफारिश पर एक हिन्दुस्तानी रेस्तरां में वेटर की नौकरी मिल गई। कुछ दिन तो मुझे मजा आया । पैसे भी मिलते थे और खाना रेस्तरां में मुफ्त हो जाता था। काम तो करीब दस-बारह घंटे करना पड़ता था पर एक दिन के पच्चीस डाॅलर मिल जाते थे। एक-दो और हिन्दुस्तानी वेटर और कुक थे सो मन भी लग गया था। वे लोग भी गैरकानूनी तौर पर ही टिके थे यहाॅँ। एक दिन इमिग्रेशन वालों ने रेस्तरां पर छापा मारा और हम सब पकड़कर जेलों में डाल दिये गये।’
भाषा की समस्या के कारण भी प्रवासी भारतीय अच्छी नौकरियों से पिछड़ जाते हैं। छोटी उम्र में विदेश पहुँचे बच्चे तो बहुत जल्दी अंग्रेजी सीख जाते हैं किन्तु बड़ों को अंग्रेजी पकड़ने में समय लग जाता है । यही कारण है कि अच्छी नौकरियों के अवसर हाथ से निकल जाते हैं। अंग्रेजी भाषा के अल्प ज्ञान के कारण प्रवासी भारतीय हीन-भावना का शिकार हो जाते हैं किन्तु फिर भी इसी हीन-भावना को मन में समाए वे संघर्ष जारी रखते हैं। ‘‘नौकरी के लिए गुड्डो को बहुत ठोकरें खानी पड़ीं। जिस मध्यम किस्म की तनख्वाह की उम्मीद उसे थी वैसी नौकरियों पर उसे हर दफ्तर से अस्वीकार ही मिला। एक-दो जगह उसे महसूस हुआ कि यह उसकी अंग्रेजी का हिन्दुस्तानीपन भी शायद अखरता है क्योंकि एक दो जगह पर इंटरव्यू लेने वालों ने उससे बार-बार वाक्य दुहराये। पर गुड्डो जब अमरीकनों की तरह लफ्जों को खींचकर ‘आ’ को ‘ऐ’ जैसे कि ‘कांट’ को ‘केंट’ या ‘आॅर नाट’ को ‘एंट’ कहती थी तो अपनी आवाज परायी और उपहासजनक-सी लगती थी । मन में भाषा का यह दोगलापन नहीं कचोटता । क्योंकर उसे दूसरों की नकल करनी पड़ रही है ? अपना बोलचाल का सहजपन भी बरकरार नहीं रख सकती। गुड्डो अंग्रेजी स्कूलों में नहीं पढ़ी थी। आर्य समाज स्कूलों में उसकी ज्यादातर शिक्षा हुई थी, पर उसने अंग्रेजी में एम.ए. की थी। उसका भाषाज्ञान, उसकी शब्द-क्षमता कई अमरीकियों से भी बेहतर ही थी पर बोलने का उतना अभ्यास न होने से फर्राटे से अंग्रेजी नहीं बोल पाती थी। वाक्य-रचना भी हिन्दी से प्रभावित थी। शब्द-प्रयोग और उच्चारण ब्रिटिश अंग्रेजी वाले थे। इंस्ट्रक्टर के बताने पर गुड्डो आईने के सामने खड़ी होकर अमरीकी तरीके से बोलने का अभ्यास करने लगी। अमरीकी हाव-भाव और कंधे उचकाकर जबाव सबाल करती पर थोड़ी देर में खीझ जाती और कंधे गिराकर कहती ‘यू हेल विद इट’(यह अमरीकी मुहावरा अनायास सहपाठियों से पाया था)। पिंकी के अमरीकी एक्सेंट  का गुड्डो मजाक बनाया करती थी । अब खुद को यही करना पड़ रहा था। राजू के लिए गुड्डो का अभ्यास खासा मनोरंजक होता । राजू कच्ची उम्र का था, पढ़ा भी अंग्रेजी स्कूल में था । उसे उच्चारणों के अंतर पकड़ने में देर नहीं लगी । वह ममी से मजाक भी कर देता, ‘ममी, यह शिडयूल क्या होता है, ‘स्कैजल’ कहो न’! ’ इस तरह कहा जा सकता है कि सुषम बेदी ने अपने कथा-साहित्य में जीवनयापन के निम्न स्तर के साधनों की यथार्थ अभिव्यक्ति की है और उसमें सफल भी हुई हैं।

प्रवासी भारतीयऔर पीढ़ीगत अंतरः-
पीढ़ीगत अंतर से अभिप्राय है दो पीढ़ियों के बीच की दूरी जो जीवन-मूल्यों, संकल्पों, वैज्ञानिक प्राप्ति और सामाजिक यथार्थ के परिवर्तन के अनुरूप ढलने की भिन्नता के कारण उत्पन्न होती है। पहली पीढ़ी के विचार, मान्यताएं और प्राप्तियांँ दूसरी पीढ़ी से नहीं मिलतीं। पहली पीढ़ी बीते हुए समय और दूसरी पीढ़ी भविष्य से संबंध रखती है। यह अंतर परम्परा और प्रगति के बीच का है। जब प्रगति तीव्र होती है तो दोनों पीढ़ियों में तनाव बढ़ता है। प्रत्येक युग में, प्रत्येक समाज में और संस्कृति में पहली और दूसरी पीढ़ी के बीच अंतर अनिवार्य होता है। इस तनाव का घोर संकट आज के समय में प्रवासी भारतीयों पर छाया हुआ है। यह संकट उस समय और भी गहरा जाता है, जब विदेश में जन्मी और पली पीढ़ी अपने सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा करती है। माता-पिता की पुरानी सोच अपने बच्चों की मशीनी, पूंँजीवादी और औद्योगिक माहौल से संबंधित सोच पर हावी नहीं होती। माता पिता के मूल्य,जाति-पाति, धार्मिक और सामाजिक मूल्य नई पीढ़ी के मन को नहीं भाते और न ही ये इनके बारे में जानने के लिए उत्सुकता प्रगटाते हैं। नई पीढ़ी अपने बनाए मूल्यों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करना चाहती है। ऐसी स्थिति में दो पीढ़ियों के बीच फासला बढ़ता ही जाता है। यह पीढ़ीगत अंतर का तनाव अपनी चरम सीमा पर तब पहुंँचता है जब प्रवासियों की नई पीढ़ी पूर्ण तौर पर विदेशी संस्कृति को अपना लेती है। सुषम बेदी ने अपने कथा साहित्य में इस समस्या से जूझ रहे प्रवासियों कीमानसिकता को सूक्ष्मता से व्यक्त किया है। इनके कथा साहित्य में दो पीढ़ियों का टकराव दिखाई देता है और इस द्वन्द्वात्मक खींचातानी में दूसरी पीढ़ी की पहली पीढ़ी पर विजय दिखाई है और इसके फलस्वरूप पहली पीढ़ी का तनाव व्यक्त किया है। जहाँ पहली पीढ़ी की विजय नहीं होती तो उनकी निराशा, उदासी, कुंठा और तनाव को व्यक्त किया है। ‘हवन’ उपन्यास में राधिका अपना एक अलग संसार बसाए हुए है। ज्यूइश,स्पैनिश और चैथी पांँचवी पीढ़ी के वासी अमरीकियों की संताने उसकी सहेलियांँ है। जब राधिकाको उसकी मांँ गीता समझाती तो वह समझने की बजाय आगे से बहस करती। एक दिन वहउसे कनिका की उदाहरण देती हुई समझाती है परन्तु राधिका समझने की बजाय उन परचिल्लाने लगती है, ‘‘आई कांट स्टैंड द टिरेनी आॅफ दिस सिस्टर। तुम हमेशा उसकी तारीफ हीकरती हो चाहे वो कितनी भी कसूरवार हो, कितना ही मुझे तंग करे। वाय यू वांँट मी टू बिकमए लोनर लाइक हर।’’ राधिका के लिए सबसे अधिक अहमियत उसकी सहेलियों की थी। उसके लिए माता-पिता का काम तो केवल उन्हें हिदायतें देना और अपना रहन-सहन और रीति रिवाज उन पर लादना है।भारतीय वैवाहिक रस्मों को लेकर तो अंगे्रज भी आश्चर्यचकित हैं। उन्हें विश्वास नहीं होता कि ये लोग कैसे अपना मन मारकर माता पिता की मर्जी से विवाह करते हैं। लड़कियों से तो उनकी मर्जी तक नहीं पूछी जाती। दूसरी पीढ़ी पहली पीढ़ी के पीछे आँंखें बंद करके कैसे चल सकती है? जेन अणिमा से भारतीय विवाह के बारे में बात करते हुए कहती है, ‘‘तुम जैसीइतनी आधुनिक हिन्दुस्तानी लड़कियाँ मांँ बाप द्वारा चुने लड़के से कैसे विवाह के लिए मान जाती हैं। शादी में तो लड़के लड़की का आपसी आकर्षण और सहवास की इच्छा ही बुनियादी बात है।उसके बिना यह रिश्ता संभव ही कैसे हो सकता है?’’

प्रवासी भारतीयों में असुरक्षा की भावना:-
‘असुरक्षा’ शब्द सदियों से मनुष्य के साथ जुड़ा आ रहा है और आज भी जुड़ाहै। चाहे वह शिक्षित हो चाहे अशिक्षित परंतु अपने दामन से ‘असुरक्षा’ रूपी दाग को हटा नहीं सका है। प्रवासी भारतीय माता-पिता अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। स्कूल हो, पार्क हो, बाजार हो प्रत्येक स्थान पर उन्हें बच्चे असुरक्षित लगते हैं। ‘ब्राॅडवे’ कहानी में पत्नी अपने पति को कहती है, ‘‘सुनो, अब किसी अच्छी जगह घर लेना…बिटटू अगले साल से स्कूल जाएगा सो इलाका अच्छा होना चाहिए। यहांँ के स्कूल में तो उस दिन एक लड़के ने अपने साथ पढ़ने वाले को ही गोली से मार दिया…सुना था न तुमने…बारह-तेरह साल के लड़के…न बाबा, ऐसे स्कूल में मैं तो कभी न भेजूं अपना बच्चा।’’ राह चलते या घर बैठे किसके साथ कौन सी घटना घटित हो जाए कोई नहींजानता। भारत के साथ-साथ विदेशों में भी आतंकवाद बढ़ता जा रहा है। कब कौन किसी की बंदूक की गोली का निशाना बन जाए पता नहीं।

भाषा की समस्या:-
प्रत्येक मनुष्य के संसार की सीमा उसकी भाषा पर आधारित होती है। भाषा सेही व्यक्ति के समुदाय का पता चलता है। संसार में सभी भाषाओं में से अंग्रेजी भाषा को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के बिना व्यक्ति अधूरा माना जाता है। इस भाषा की कमी के कारण भारतीय प्रवासियों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यदि किसी भी प्रवासी ने विदेश में अपनी जड़ें जमानी हैं तो अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। प्रवास के दौरान बच्चे बहुत जल्दी स्कूल या टी.वी. द्वारा अंग्रेजी बोलना सीख जाते हैं परन्तु मांँ-बाप बच्चों जितने तीव्र नहीं हो पाते। सुषम बेदी के उपन्यास ‘हवन’ में गुड्डो को नौकरी के समय इस समस्या का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार लेखिका ने ‘हवन’ उपन्यास के माध्यम से भाषा की समस्या को भलीभाँंति प्रस्तुत किया है। इस समस्या से प्रत्येक प्रवासी भारतीय उलझा हुआ है। नौकरी, शिक्षा,यहांँ तक कि अपने परिवार में भी वह भाषा संबंधी समस्याओं का सामना करता है। ‘हवन’ उपन्यास इस समस्या का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है।

विदेश में नैतिक मूल्यों की टकराहट:-
नैतिक मूल्य मनुष्य के जीवन पर निर्भर करते हैं और जब-जब जीवन व उसकी परिस्थितियों में परिवर्तन आता है, तब-तब मनुष्य के नैतिक मूल्य बदलते हैं ।आधुनिक युग में प्रवासी भारतीयों के जीवन व उनकी भौतिक और सामाजिकपरिस्थितियों में भारी परिवर्तन आया है। इनका कारण पश्चिमी समाज में विज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति, आधुनिक तकनीकी विकास, यातायात के आधुनिक साधन, व्यवसाय, आर्थिक व्यवस्था का पुर्नगठन, औद्योगीकरण और समाज के नवीन वर्गों का प्रार्दुभाव, समाचार पत्र व राष्ट्रवाद का उग्र रूप आदि हैं। इन सब की लपेट से प्रवासी भारतीय अपने आपको अलग नहीं रख सका। इस बात का सबसे बड़ा नुक्सान यह हुआ कि नैतिक मूल्यों की टकराहट शुरू हो गई। हर व्यक्ति सुखमय जीवन व्यतीत करना चाहता है और इसके लिए वह हर तरह के जायज और नाजायज कार्य करता है। यही कारण है कि रिश्तों में भी बेगानापन बढ़ रहा है। नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। पश्चिमी समाज के व्यस्त जीवन में स्वार्थपरता और व्यक्तिवाद का आधिपत्य हो चुका है। वह धोखा देना चाहता है और धोखा देकर प्रफुल्लित होना चाहता है। वह सुखवादी बन चुका है और अपने हित व स्वार्थ को केवल सुख के तराजू पर तोलता है कि उसको कितना सुख मिला है, चाहे उसके सुख का अर्थ दूसरे का दुख ही क्यों न हो । ‘हवन’ उपन्यास में अमेरिका में वास करती पिंकी अपनी बहन गुड्डो और उसके बेटे को अपने पास बुला लेती है । कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहता हैकिन्तु धीरे-धीरे दोनों बहनों के परिवारों में दूरियाँ बढ़नी शुरू हो जाती हैं और बहुत ही कड़वाहट से अलग होती हैं । दोनों के रिश्तों में कड़वाहट इस कदर बढ़ जाती है कि दोनों गाली-गलौच तक उतर आती हैं । गुड्डो बेहाल बोले चली जा रही थी… बर्रो के छत्ते को छेड़ दिया था किसी ने,‘‘थू… थूकती हॅूँ तेरे घर पर… भगवान ही बदला लेगा जो सुलूक किया है तूने मेरे साथ…तू क्या निकालेगी मुझे, मैं ही खुद जाती हूॅँ । जो लाया है वह ठिकाना भी बनाएगा। तू कुछ नहीं कर सकती किसी को। भगवान है असली करने वाला। मैं फालतू में अहसान मानती रही तेरा। तू होती कौन है मुझे बुलाने वाली या निकालने वाली ?’’ प्रवासी भारतीय चाहे पश्चिम की विकसित धरती पर वास कर रहे हैं किन्तु अपनी भारतीय मानसिकता का त्याग नहीं कर सके। इसके कारण होने वाली हानि को तो सहन करते हैं किन्तु इस मानसिकता को बदलने की कोशिश नहीं करते। नयी पीढ़ी के विचार पहली पीढ़ी से मेल नहीं खाते। इसी कारण प्रवासी भारतीय परिवारों में नैतिक मूल्यों की टूटन दिखाई दे रही है। सुषम बेदी के उपन्यास ‘गाथा अमरबेल की’ में शन्नो अपने बेटे गौतम और बहू दिव्या के पास अमेरिका रहने आती है किन्तु अपने बेटे और बहू के साथ तालमेलनहीं बैठा पाती। वह चाहती है कि भारतीय परिवारों की बहू की तरह दिव्या चैबीस घंटे उसकीदेखभाल करती रहे।
‘‘शन्नो के मुँह पर था कि तेरी बीबी खुशकिस्मत है जो बाहर ही रहती है इसलिए उसे इंतजार नहीं करना होता वरना सभी औरतें अपने पतियों का इंतजार करती हैं पर कह नहीं पायी। कहीं यह उसके बाहर रहने पर शिकायत करने जैसा न लगे। यूँ भी शन्नो को लगता था कि दिव्या वैसी कोई दफ्तर की नौकरी तो करती नहीं थी फिर भी जब-तब घर सेबाहर होती थी और यह बात वह बेटे तक पहुँचा ही देना चाहती थी कि अगर कुछ गलत होरहा है तो उसे खबर तो होनी ही चाहिए। पर गौतम इस पर ज्यादा गौर नहीं करता था। यूँ गौतम की जानकारी में कुछ गलत था भी नहीं, बल्कि जो कुछ भी हो रहा था, उसमें उसकीसहमति थी। पर शन्नो को इसका कोई अंदाजा नही था। जहाँ तक वह जानती थी बेटा उसकाअपना था, लड़की परायी। इसलिए बेटे को हर बाहर वाले से होशियार करना शन्नो का फर्ज बनता था।’’ प्रवासी भारतीय समाज में परिवारिक नैतिक मूल्यों की टकराहट की गूँज दूर दूर तक सुनाई देने लगी है। परिवार नामक संस्था टूट रही है। परिवार के सदस्य एक दूसरे के विचारों को कोई अहमियत नहीं देते।

प्रवासियों के अनेक गहन-गम्भीर मसले हैं जो सुषम बेदी की गतिशील रचनात्मक दृष्टि के केन्द्र-बिन्दु पर उपस्थित हुए हैं। सुषम बेदी ने उस सामाजिक यथार्थ के भाव बोध को पकड़ने की कोशिश की है जिसमें मनुष्य का विश्वास उसके आसपास निर्मित आर्थिक ढाँचे की कुरूपता के तौर पर उपजता है।सुषम बेदी का कथा-साहित्य पश्चिमी समाज के गतिसंकुल परिवेश का प्रामाणिक अनुभव चित्र है। सामाजिक-धार्मिक मूल्यों संदर्भों से संलग्न यह कथा-दृष्टि जीवन को जीवन में से तलाशने की प्रक्रिया है, जो व्यक्ति-धर्मा भी है और समाज धर्मा भी। लेखिका अपने व्यक्तिगत अनुभवों द्वारा नैतिक मूल्यों की टकराहट अभिव्यक्त करती हुई व्यापक आयाम प्रदान करती है। यह सामाजिक यथार्थ की निर्मम उदघ््ााटना करके, मूल्यगत अवसंगतियों पर प्रहार करती है,सामाजिक, धार्मिक विद्रूपताओं को उभारती है उपर्युक्त लिखित भारतीय प्रवासी समाज के विविध पक्षों का अध्ययन करने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि भारतीय प्रवासी समाज इसी तरह की समस्याओं से जूझता रहा तो एक दिन यह अपर्ना अस्तित्व खो देगा। यदि इसी तरह प्रवासी समाज में पीढ़ियों का आपसी द्वन्द्व बना रहा तो धीर-धीरे नवीन पीढ़ी उन मूल्यों और संस्कारों को भूलतीरहेगी जो उन्हें उनके अतीत से जोड़ती है। यदि माता-पिता इस आधुनिक समाज में पल रहे बच्चों की मानसिकता को सामने रख कर नहीं चलेंगे तो इसके नकारात्मक नतीजे सामने आएंगे।

 

सन्दर्भ ग्रंथ सूची – 

  1. Oxford Advance Learner’s Dictionary; Dictionary Section, P-498, 7th edition, 2005
  2. बेदी सुषम: हवन (1996) य पृष्ठ 70
  3. बेदी सुषमः लौटना य (1997) पृष्ठ 43
  4. बेदी सुषमः हवन; (1996), पृष्ठ 55
  5. बेदी सुषम: हवन ; (1996) पृष्ठ 17
  6. बेदी सुषम: हवन ; (1996) पृष्ठ 48
  7. बेदी सुषमः हवन; (1992) पृष्ठ 51
  8. बेदी सुषमः हवन; (1992) पृष्ठ 72
  9. बेदी सुषमः चिड़िया और चील; (1997) पृष्ठ 146
  10. बेदी सुषमः हवन ; (1996) पृष्ठ 23-24
  11. बेदी सुषमः गाथा अमरबेल की; (1999) पृष्ठ 181-182

 

मनीषखारी
हंसराज कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *