साहित्य और सिनेमा का पुराना एवं गहरा सम्बन्ध रहा है। साहित्य और सिनेमा ऐसे माध्यम हैं जिसमें समाज को बदलने की ताकत सबसे अधिक होती है। कोई भी साहित्य युगीन-जीवनमूल्यों से निरपेक्ष नहीं होता। साहित्य की जड़ें समाज में होती हैं। वह स्वयं एक सामाजिक उत्पादन है। साहित्य जहाँ वह दर्पण है जिसमें लेखन के माध्यम से प्रतिबिंबित की गयी समस्याओं को देखा जा सकता है वहीं, सिनेमा उक्त विचारों को प्रदर्शित करने का एक सशक्त दृश्य-श्रव्य माध्यम है। सिनेमा और साहित्य दो पृथक विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक संबंध बहुत गहरा है। जब वास्तविक कहानियों पर आधारित फिल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना। साहित्य और सिनेमा कहीं न कहीं हमेशा ही एक दूसरे के विस्तार में सहयोग करते रहें हैं। कहना सर्वथा उचित ही होगा कि साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के पूरक हैं। सिनेमा और साहित्य में गहरा अंतर्सम्बन्ध है। अक्सर हम हिंदी सिनेमा में साहित्य के योगदान की बात करते हैं तो इसे लिखित साहित्य से जोड़ देते है। जबकि साहित्य चाहे लिखित हो या अलिखित वह हमेशा से समाज को प्रभावित करता रहा है।

साहित्य और सिनेमा दोनों ने ही अपने समय की समस्याओं और संभावनाओं को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। सिनेमा के जन्म से ही उसे किसी कथा की आवश्यकता थी। जो साहित्य के द्वारा पूरी हो रही है। कुछ सिनेमाओं के लिए साहित्य लेखन भी हुआ है। साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों पर गुजराती फिल्म समीक्षक बकुल टेलर ने बेहद सारगर्भित टिप्पणी की है। उनका कहना है, साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्म अपने आप अच्छी हो, ऐसा नहीं होता। वास्तविकता यह है कि साहित्यिक कृति का सौन्दर्यशास्त्र और सिनेमा का सौन्दर्यशास्त्र अलगअलग हैं और सिनेमा सर्जक भी साहित्यकृति के पाठक रूप में साहित्यिक आस्वाद तत्वों पर मुग्ध होकर उनका सिनेममेटिक रूपांतरण किए बगैर आगे बढ़ जाते हैं।

भारत में फिल्मों ने 100 वर्षों की यात्रा पूरी कर ली है। सिनेमा में हिंदी साहित्य पर आधारित अधिकांश फिल्मों का सफर बहुत आसान नहीं रहा। अधिकांश फिल्में असफल साबित हुर्इं। बांग्ला लेखक शरतचंद्र के उपन्यास देवदास पर हिन्दी में चार फिल्में बनीं और कमोबेश सभी सफल भी रहीं। प्रेमचन्द की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर सत्यजीत रे ने इसी नाम से फिल्म बनाई, जो वैश्विक स्तर पर सराही गई। भगवतीचरण वर्मा के अमर उपन्यास चित्रलेखा पर भी फिल्में बनीं, जिनमें एक सफल रही। भारतीय सिनेमा में हिंदी साहित्यकारों का सुनहरा दौर सातवें दशक में नजर आता है। हिंदी फिल्मों की इस नई धारा को समांतर सिनेमा भी कहा गया। इसी दौर में हिंदी साहित्य को सबसे ज्यादा महत्त्व और निष्ठाभरी समझ फिल्मकार मणि कौल ने दी। मणि कौल ने बाद में मोहन राकेश, विजयदान देथा, मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं पर फिल्में बनार्इं। कुमार शहानी ने निर्मल वर्मा की कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनाई। इसके अलावा दामुल, परिणति, पतंग, कोख जैसी फिल्में भी साहित्यिक रचनाओं पर बनीं। साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को जोड़े रखने में दूरदर्शन की बड़ी भूमिका रही है। इसमें तमस, चंद्रकांता, राग दरबारी, कब तक पुकारूं मुझे चांद चाहिए, कक्काजी कहिन जैसे धारावाहिक सफल रहे। वर्तमान समय में भी युवाओं के पसंदीदा लेखक चेतन भगत के उपन्यासों को आज के निर्माता-निर्देशकों ने फिल्मों के जरिए प्रदर्शित करने की कोशिश की है। फाइव पॉइंट समवन पर बेस्ड थ्री इडियट्स, थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ पर बेस्ड काय पो चे, वन नाइट ऐट कॉलसेंटर पर आधारित फिल्म हैलो और टू स्टेट्स पर आधारित फिल्म बन चुकी है। निर्देशक विशाल भारद्वाज की ज्यादा फिल्में उपन्यास पर आधारित रहीं हैं।

भारत का विभाजन(हिन्दू राष्ट्र-मुस्लिम राष्ट्र) इस देश के स्वर्णिम इतिहास का काला अध्याय साबित हुआ। धर्म के ठेकेदारों ने, राजनीतिक दलों ने अपनी विकृतियों का परिणाम गरीब व शोषित जनसाधारण को भोगने के लिए विवश कर दिया। भारत-पाकिस्तान विभाजन आज भी दुनिया की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी कही जा सकती है। धर्म, राजनीति, साम्राज्यवाद, पुरुषत्व के मंच पर खेला गया यह एक ऐसा खौफनाक नाटक था, जिसका पर्दा आज भी गिरा नहीं है। नए पात्र आते हैं और नाटक का कथानक फिर आगे बढ़ जाता है। कुछ अंतराल बीतने के बाद जब इसका आकलन किया जाता है तो पता चलता है कि हर बार आम जन ही अपना कुछ या सब कुछ खोता आया है।

1947 में देश का विभाजन हुआ, सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक-मूल्य कांच के बर्तनों की तरह टूट गये और उनकी किरचें लोगों के पैरों में बिछी हुई थीं। भारत के विभाजन से करोड़ों लोग प्रभावित हुए। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 5 लाख लोग मारे गये और करीब 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर बहुमत संप्रदाय वाले देश में शरण ली। धार्मिक विद्वेष और अविश्वास की जिस पृष्ठभूमि में भारत का विभाजन हुआ, उससे न केवल यहाँ के भूगोल को प्रभावित किया बल्कि समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को भी। विभाजन का दर्द इतना गहरा था कि आज भी इसकी टीस हर किसी को महसूस होती है।

आजादी की सबसे बड़ी कीमत विभाजन के तौर पर चुकानी पड़ी। इस त्रासदी के लाखों लोग शिकार हुए और उन्हें बेघर होना पड़ा। कत्लेआम हुआ और कई जिंदगियां इसकी भेंट चढ़ गईं। आज भी जब आजादी का जश्न मनाया जाता है, तो यह त्रासदी जेहन में ताजा हो जाती है। हिंदी साहित्य में भी विभाजन का विषय हमेशा आता रहा है, और लेखकों ने अपने हिसाब से इस त्रासदी को लिखा है। भारत के विभाजन और उसके साथ हुए दंगे-फ़साद पर कई लेखकों ने उपन्यास और कहानियाँ लिखीं हैं, जिनमें से मुख्य हैं: झूठा सच(यशपाल), तमस(भीष्म साहनी), पिंजर(अमृता प्रीतम), पाकिस्तान मेल(खुशवंत सिंह), आधी रात की संतानें(सलमान रुशदी), सिक्का बदल गया(कृष्णा सोबती) इत्यादि। इनमें से कई साहित्यिक रचनाओं पर फिल्मकारों की दृष्टि भी गयी, एवं उन्होंने विभाजन की त्रासदी को ले कर कई फिल्मों का निर्माण किया।

विभाजन एवं साम्प्रदायिकता के प्रसंग में तमस की याद स्वाभाविक है। एक उपन्यास के तौर पर तमस एक ख़ास युग की त्रासदी से जन्म लेने वाली ऐसी कृति है, जिसे लिखा तो भीष्म साहनी ने है, पर रचा एक समूचे युगबोध या इतिहासबोध ने। यह एक बेहद संघनित संवेदना के स्फोट की तरह है जो भिन्न स्तरों पर, भिन्न भावबोध के साथ, अपने से बाद के समयों में भी, न केवल अपने लिए नए अर्थ खोजती है बल्कि उन समयों के गहरे अर्थों को भी संकेतित करने का सामर्थ्य रखती है। तमस जिन्दगी की छोटी-बड़ी लड़ियों की कहानी नहीं है। यह विभाजन जैसी ऐतिहासिक घटना का, संघर्ष का, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है, जिसमें एक साथ लाखों लोग अपने-अपने ठिकानों से उखड़े थे। भीष्म खुद उस तूफ़ान की चपेट में थे जिसे बंटवारे का नाम दिया जाता है। बंटवारे के दरम्यान नफ़रत एक ऐसे पैमाने तक पहुँच गयी थी जहाँ न सिर्फ जमीन की बाँट थी- मानवीय संबंधों के टूटने, ख़त्म हो जाने की तिड़कन और टूटन भी थी। तमस की रचना कैसे हुई? भीष्म साहनी ने इस प्रश्न पर कहा है कि आजाद भारत में हुए दंगों के कारण उन्हें अपने शहर रावलपिंडी के दंगे याद आए जिनकी आग गांवों तक फैल गई थी। 1986-87 में दूरदर्शन पर आए फिल्मांकन के कारण यह उपन्यास एकाएक चर्चित हो उठा था लेकिन उसकी असली ताकत दंगों और घृणा के घनघोर अन्धकार में भी मनुष्यता के छोटे-छोटे सितारे खोजने में है। मजे की बात यह है कि इसकी कथा विभाजन से पहले की है लेकिन इसकी सफलता और सार्थकता इस बात में है कि यह विभाजन के मूल कारणों की पड़ताल करने में पाठक को विवेकवान बनाता है। भीष्म साहनी की किताब तमस पर आधारित एक फिल्म से इतर यह एक टीवी सीरीज है। ओमपुरी की यह फिल्म पर्दे पर विभाजन के दौर में पलायन की कहानी कहती है। विभाजन की घोषणा और उससे पहले ही देश में दंगे शुरू हो गए थे। सड़कें या तो सूनी थीं या खून, आग और धुएं के बीच इंसानियत के खत्म होने की गवाही दे रही थीं।

भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन, अमृता प्रीतम ने निर्भीकता के साथ पंजाबी साहित्य में किया है। अमृता प्रीतम को 28 वर्ष की आयु में ही विभाजन के कारण लाहौर छोड़कर नयी दिल्ली आना पड़ा। शायद इसलिए उनके शब्दों में विभाजन का दर्द साफ़ झलकता है। उनकी रचना के सरोकार विश्व चिंतन के सरोकार हैं। उनकी रचनाओं में उन मूल्यों के खिलाफ बगावत झलकती थी जिन्हें वे गलत और अन्यायपूर्ण मानती थीं। विभाजन की विभीषिका, समाज में औरत की स्थिति, उसके संघर्ष का, हाशिये पे आये हुए इंसानी रिश्तों का, कट्टरता का पोषण और समाज की रुढियों का जीवंत चित्रण है ‘पिंजर’(कंकाल)। अमृता प्रीतम के इस उपन्यास के सन्दर्भ में बिल्कुल ठीक ही कहा गया है कि इसकी कहानी भारत के विभाजन की उस व्यथा को लिए हुए है, जो इतिहास की वेदना भी है और चेतना भी। भारत और पाकिस्तान के विभाजन पर आधारित पिंजर फिल्म सही मायनों मे एक औरत की सादगी और धीरज का विवरण करती है। आज भी हमारे देश के अनेक हिस्सों में एक लड़की का जीना मुश्किल है। एक लड़की का परिवार में जन्म लेना एक बोझ माना जाता है। उर्मिला मतोंडकर की यह फिल्म एक हिंदू महिला की कहानी है, जिसे एक मुस्लिम परिवार किडनैप कर लेता है। विभाजन का समय है। हर तरह गुस्सा, मार-काट, द्वेष की भावना है। वह महिला किसी तरह बचकर भाग निकलने में कामयाब हो जाती है। लेकिन उसके घरवाले उसे अपनाने से इनकार कर देते हैं। ऐसे में वह महिला वापस उस मुसलमान शख्स के पास लौट जाती है, जिसने उसे किडनैप किया था। कल्पाना कीजिए उस दौर की, जब परिवार के लोग भी अपनाने से इनकार कर देते थे।

भारत विभाजन की त्रासदी पर केन्द्रित ‘पाकिस्तान मेल’ सुप्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार खुशवंत सिंह का अत्यन्त मूल्यवान उपन्यास है। सन् 1956 में अमेरिका के ग्रोव प्रेस अवार्ड से पुरुस्कृत यह उपन्यास मूलतः उस अटूट लेखकीय विश्वास का नतीजा है, जिसके अनुसार अन्ततः मनुष्यता ही अपने बलिदानों में जीवित रहती है। घटनाक्रम की दृष्टि से देखें तो यह उपन्यास 1947 का भयावह पंजाब, चारों तरफ हजारों-हजार बेघर-बार भटकते लोगों का चीत्कार, तन मन पर होने वाले बेहिसाब बलात्कार और सामूहिक हत्याएँ लेकिन मजहबी वहशत के उस तूफान को दर्शाता है जो मानो-माजरा नामक एक गाँव को देर तक नहीं छू पाया, और जब छुआ तो भी उसके विनाशकारी परिणाम को इमामबख्श की बेटी के प्रति जग्गा के बलिदानी प्रेम ने उलट दिया। उपन्यास के कथा क्रम को एक मानवीय उत्स तक लाने में लेखक ने जिस सजगता का परिचय दिया है, उससे न सिर्फ उस विभीषिका के पीछे क्रियाशील राजनैतिक और प्रशासनिक विरूपताओं का उद्घाटन होता है, बल्कि मानव चरित्र से जुड़ी अच्छाई-बुराई की परंपरागत अवधारणाएँ भी खंडित हो जाती हैं। इसके साथ ही उसने धर्म के मानव-विरोधी फलसफे और सामाजिक बदलाव से प्रतिबद्ध छद्म को भी उघाड़ा है। फिल्म ‘ट्रेन टू पाकिस्तान मशहूर लेखक खुशवंत सिंह की इसी नाम से आई किताब पर आधारित है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कहानी के केंद्र में ट्रेन है। पाकिस्तान की ओर जा रही है। विभाजन का दौर है। दंगे का माहौल है। फिल्म में विभाजन के दौरान मानव मन में बैठे दर्द, डर और चिंता को अभिव्यक्त किया गया है।

भारत-पाक विभाजन की अनसुनी कहानी है ‘पार्टीशन’। फिल्म की कहानी आधारित है 11 साल पहले आई एक गुमनाम सी किताब ‘The shadow of the great game: The untold story of India’s Partition’। इस किताब को लिखने वाले थे लॉर्ड माउंटबेटन के जूनियर स्टाफ अधिकारी और बार में भारत के सीनियर सिविल सेवा अधिकारी रहे नरेंद्र सिंह सरीला ने। किताब में सरीला लिखते हैं और उसी आधार पर फिल्म में गुरिंदर चड्ढा ने दिखाया है कि, भारत के बंटवारे के पीछे असली वजह रूस को एशिया में प्रवेश करने से रोकना था ताकि मिडिल ईस्ट के तेल के कुओं पर रूस नज़र ना डाल पाए। फिल्म बताती है कि बंटवारे पर फैसला भले ही 1946 में हुआ लेकिन इसका खाका 1945 में ही तैयार हो गया था, यहां तक की उसके कागज़ात तक बना लिए गए थे, 1947 में भारत के विभाजन होने के दौरान लोग किस तरह की परिस्तिथियों से जूझ रहे थे कहानी में दिखाया गया है।

छलिया फिल्म रूसी उपन्यासकार Fyodor Dostoyevsky की कहानी पर आधारित है। राज कपूर की आम फिल्मों से अलग इस कहानी में प्यार के साथ विभाजन का दर्द है। विभाजन ने दो देश ही नहीं बनाए, दो समुदायों का भी बंटवारा किया। जमीन पर लकीर के कारण दो दिलों का भी बंटवारा हो गया। यह फिल्म विभाजन के दौर में छोड़ दी गई पत्नियों की भी दर्दभरी दास्ताँ को बयां करती है। इन सबके अतिरिक्त भारत विभाजन पर आधारित कई फिल्मों का निर्माण हुआ है, जिसमें विभाजन के समय तथा उसके बाद की स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है। जैसे- गर्म हवा(एम. एस. सथ्यु), धर्म-पुत्र(यश चोपड़ा), हे राम(कमल हासन), गदर-एक प्रेम कथा(अनिल शर्मा), खामोश पानी(), अर्थ(दीपा मेहता), इत्यादि।

बंटवारे के गम को कभी भरा नहीं जा सकता। लेकिन सिनेमा की दुनिया में जो घाव इसने दिए थे उनका असर आज तक दोनों देशों के सिनेमा पर देखने को मिलता है। बॉलीवुड आज हॉलीवुड की फिल्मों को टक्कर दे रहा है, हर हिन्दुस्तानी सितारे का नाम पाकिस्तान में मशहूर है। जबकि पाकिस्तान का सिनेमा अब भी कई परेशानियों से जूझता नज़र आता है। हिंदी सिनेमा को शिखर पर ले जाने वाले साहित्य को पुष्पवित-पल्लवित करना जरूरी है। आज हिंदी फिल्में, हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर विश्वस्तर पर हिंदी की पताका फहरा रही है। ऐसे में जरूरत है इसकी पुनर्व्याख्या करने की। तभी हिंदी सिनेमा कुछ नकरात्मकता के बाद भी अपने मजबूत सकारात्मक पक्षों के बल पर अपनी खोई हुई विरासत को पा सकेगा और अपनी जड़ों को सिंचिंत कर पाएगा। हिंदी फिल्मों को मौजूदा परिदृश्य बहुत बदल चुका है हर तरह की फिल्में बन रही हैं विषयों में इतनी विविधता पहले कभी नहीं दिखाई दी। छोटे बजट की फिल्मों का बाजार भी फूल-फल रहा है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने की समझ रखने वाले युवा हिंदी भाषी फिल्मकारों की जमात तैयार हो चुकी है लेकिन फिलहाल हिंदी फिल्में पत्रकारिता से फायदा उठा रही हैं। अभी जोर बायोग्राफिकल फिल्में बनाने पर अधिक है शायद अगला नंबर साहित्यिक कृतियों का हो।

 

सन्दर्भ सूची – 

  1. साहनी, भीष्म . (1974) . तमस. नयी दिल्ली : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड . दूसरा संस्करण . ISBN- 978-81-267-1573-2
  2. प्रीतम, अमृता . (1959) . पिंजर. कलकत्ता : न्यू एज पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड . तीसरा संस्करण . ISBN- 978-81-83860-97-0
  3. सिंह, खुशवंत . (2010) . पाकिस्तान मेल . नयी दिल्ली : राजकमल प्रकाशन . ISBN- 9788126705078
  4. प्रियंवद . (2007) . भारत विभाजन की अन्तःकथा . नयी दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ . प्रथम संस्करण
  5. तिवारी, सचिन . साहित्य और सिनेमा: अंतर्संबंध . हिंदी समय
  6. लोहिया, राम मनोहर . (2008) . भारत विभाजन के गुनहगार . इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन . पांचवां संस्करण . ISBN- 978-81-8031-347
  7. डॉ. ओझा, अनुपम . प्रतिबिम्ब-सर्जना(पत्रिका) . अंक- सितम्बर, 2010
  8. रिजवी, इकबाल . सिनेमा और हिंदी साहित्य . हिंदी समय

आशीष कुमार
एम. फिल. तुलनात्मक साहित्य
 वर्धा

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