लोकाचार या लोकजीवन भारत जैसे ग्राम्य आधारित समाज का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसकी पैठ समाज की अन्तर्षिराओं में रक्त की भाँति है। इस दृष्टि से हिन्दी सिनेमा के सौ साल के इतिहास को यदि खंगाला जाए तो पाएंगे कि अपने गौरवषाली इतिहास में हिन्दी सिनेमा ने कुछ बेहतरीन तथा अविस्मरणीय फिल्में दी हैं। अन्य भाषाओं के सिनेमा की भाँति ही हिन्दी सिनेमा ने भी अपनी शुरूआत धार्मिक फिल्मों से की लेकिन शीघ्र ही उसने यह महसूस कर लिया कि केवल पारसी नाटकों के अनुकरण पर बनने वाली धार्मिक फिल्मों के बल पर सिनेमा को दीर्घजीवी नहीं बनाया जा सकता और नए विशयों तथा जनता से जुड़े सन्देषों-सरोकारों को फिल्मों के माध्यम से प्रस्तुत करना होगा, तभी आम जनता इससे मनोरंजन प्राप्त कर सकेगी।
हिन्दी में लोकजीवन से जुड़ी पहली फिल्म बनाने का श्रेय निर्माता हिमांषु रॉय तथा निर्देशक फ्रेंज ऑस्टिन को दिया जाना चाहिए, जो सन 1936 में अछूत कन्या फिल्म लेकर आए। इस फिल्म में दलित रेलवे चौकीदार दुखिया की पुत्री कस्तूरी (देविका रानी) का ब्राह्मण मोहन के पुत्र प्रताप (अषोक कुमार)से प्रेम को दर्षाया गया है। यह फिल्म इस दृष्टि से विषेश उल्लेखनीय है क्योंकि इस फिल्म में वर्तमान में प्रचलित ‘ऑनर किलिंग’ का प्रारंभिक फिल्मी संस्करण देखा जा सकता है। इस फिल्म में एक प्रगतिषील विचार यह भी है कि शुरूआती शत्रुता के बाद ब्राह्मण मोहन अपने पुत्र का विवाह दलित दुखिया की कन्या से करने को तैयार हो जाता है लेकिन अफवाहों एवं कटुता के वातावरण को सृजित कर समाज इस प्रयास को निष्फल कर देता है। इसी साल यही टीम जीवन नैया फिल्म लेकर आयी, जिसमें तवायफ की बेटी के जीवन के संघर्ष को दिखाया गया है।
सन 1937 में मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की कहानी पर आधारित किसान कन्या फिल्म मोती गिडवानी के निर्देशन में आई। यह फिल्म टिपिकल मंटो की फिल्म थी, जिसकी कहानी निर्धन शोषित किसान रामू तथा शोशक जमींदार ग़नी के इर्द-गिर्द घूमती है। इस फिल्म में रामू पर ग़नी की हत्या का आरोप भी लगता है और उसे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश होना पड़ता है। इसके दो साल बाद सन 1939 में सोहराब मोदी अपनी बहुचर्चित फ़िल्म पुकार लेकर आए, जिसकी पटकथा कमाल अमरोही ने लिखी थी। इस फिल्म की विषेशता यह थी कि इसमें जहांगीर की न्यायप्रियता को दिखाया गया था और दर्षाया गया था कि पत्नी नूरजहाँ द्वारा धोखे से एक धोबी की हत्या हो जाने पर धोबिन के फरियाद करने पर वह ‘खून का बदला खून’ न्याय के सिद्धांत के आधार पर खुद को मौत की सजा दे देता है परन्तु धोबिन द्वारा उसे माफ कर दिया जाता है।
सन 1939 में आई फिल्म रोटी में निर्देशक ज्ञान मुखर्जी एक औद्योगिक सभ्यता तथा आदिवासी संस्कृति की तुलना अत्यंत प्रभावषाली तरीके से करते हुए यह निष्कर्ष निकालते हैं कि न तो आदिवासी संस्कृति शहर में आकर सुखी हो सकती है और न ही एक तबाह उद्योगपति आदिवासी सभ्यता में खुषियाँ हासिल कर सकता है। दोनों की मुक्ति अपने-अपने खोलों के भीतर ही है। सन 1940 में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण किन्तु वर्तमान समय में अचर्चित फिल्म आयी, जिसका नाम था अछूत, यह फिल्म महात्मा गाँधी के अछूतोद्धार कार्यक्रम से प्रभावित होकर बनाई गई थी।
सन 1941 में अबला, चरणों की दासी, सर्कस की सुंदरी जैसी स्त्रियों की दुर्दषा को मुखरित करने वाली फिल्में आई, तो सन 1943 में ज्ञान मुखर्जी किस्मत नामक एक सुपरहिट फिल्म लेकर आए, जिसे हिन्दी सिने इतिहास की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में स्थान दिया जाता है। इस फिल्म में अविवाहित लड़की के गर्भवती हो जाने से उपजी सामाजिक परिस्थितियों का अंकन हुआ था। सन 1944 में रतन फिल्म से नौषाद का फिल्म जगत में पदार्पण हुआ। वे अपने साथ ढोलक जैसे ग्राम्यांचल में प्रचलित भारतीय संगीत वाद्यों को फिल्मों में लेकर आए। सन 1946 में दो महत्त्वपूर्ण फिल्में आईं। पहली थी, धरती के लाल, जो कृश्न चंदर की कथा तथा बिजॉय चक्रवर्ती के नाटक पर आधारित थी और पटकथा लेखन एवं निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास का था।
इसके बाद के कुछ साल आज़ादी की मस्ती से सराबोर थे, इसलिए सामाजिक समस्याओं एवं लोकजीवन की दुस्सहता पर कोई उल्लेखनीय फिल्म इस दौरान नहीं दिखाई देती। इस परंपरा का बड़ा विस्फोट फिल्म आवारा से होता है। यह फिल्म इस धारणा को झुठलाती है कि अपराधी तथा अच्छे लोग जन्मजात होते हैं और इन्हें अच्छा या बुरा परिस्थितियाँ नहीं वरन इनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि बनाती है। टाइम पत्रिका ने इसे विष्व की 20 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में स्थान दिया तथा सन 1964 में आवारे नाम से तुर्की भाषा में इसका रीमेक बनाया गया।
हिंदी सिनेमा ने स्त्रियों की बहुत सी पारम्परिक व औपचारिक छवियां गढ़ी, ये छवियां उस दौर की मान्यताओं से मेंल खाती थी और तात्कालीन रुढ़ियों को मजबूत भी करती रही | फिल्म उद्योग की यह विवशता कुछ अर्थो में आज भी देखी जा सकती है जिससे हमारे दर्शक और फिल्मकार बंधे हुए है | यहाँ पर यह समझना आवश्यक है कि ऐसा क्या हुआ है कि फिल्मकार आज भी उन छवियों और रुपों से बाहर नहीं निकल पाएं? साथ ही, इसमें पूंजी की क्या भूमिका रही है? और, यह भी समझने की कोशिश करेंगे की कैसे नवउदारवाद की प्रक्रिया ने सिनेमा को एक औजार के तौर पर प्रयोग करते हुए बाजार पर अपनी पकड़ और उपभोक्ताओं तक अपनी पहुँच बनाने के लिए इसे कैसे इस्तेमाल किया?
वर्ष 1935 में प्रदर्शित होमी वाडिया निर्देशित ‘हंटरवाली’ एक ऐसी फिल्म है जिसकी नायिका ने उस दौर में प्रचलित मान्यताओं के बाहर जाकर एक ऐसा किरदार निभाया जिसमें स्त्री के लिए पुरुषों के साथ लड़ाई के दृश्य थे तथा जिसमें मुख्य भूमिका करने वाली अभिनेत्री नाडिया ‘फियरलैस नाडिया’ के तौर पर लोकप्रिय हुई | हालांकि यह रोचक है कि इस अभिनेत्री की लोकप्रियता और उस दौर की भारतीय स्त्रियों की स्थिति के साथ कोई सीधा संबन्ध नही था | ‘नाडिया’ की एक ‘रॉबिनहुड’ वाली छवि थी जिसमें वो गरिबों और निर्बलों की रक्षा करने और अत्याचारियों को सजा देने की भूमिका में रहती थी | यह स्त्री छवि दर्शकों को अपने ‘स्टंट’ और लड़ाई के दृश्यों से लुभाती थी, जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया |
हालांकि बाद के वर्षो में सिनेमा के रुपहले पर्दे पर ऐसी छवियों को बार बार पेश किया जाता रहा जो पुरुषों की तरह ‘स्टंट’ कर सकती थी | इस प्रस्तुतीकरण को लेकर नारी चेतना का सवाल नहीं था बल्कि इसके पीछे भी पितृसत्तात्मक सोच ही काम कर रही थी | इन फिल्मों के कथानक में आमतौर पर इस तरह प्रयासों के बाद ‘पुरुष स्वामी’ के आगे नतमस्तक होकर उसकी अधीनता स्वीकार करने का मानस ही प्रमुख था | उदाहरणस्वरुप ‘सीता और गीता’ (1972), ‘चालबाज’ (1989) जैसी फिल्में बनी | इसी क्रम में स्त्रियों को केंद्र में रखकर महबूब ख़ान की 1957 में बनी ‘मदर इण्डिया’ जो एक स्त्री के संघर्षो की कहानी है | ब्रिटीश हुकुमत से भारत की आजादी और बँटवारे के 10 साल बाद प्रदर्शित यह फिल्म आजाद भारत में भारत की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर को ‘राष्ट्र’ और ‘भारत माता’ के बिंब के तौर पर हमारे सामने प्रस्तुत करती है | दूसरी तरफ, यह फिल्म एक ‘भारतीय नारी’ की आदर्श छवि को ही हमारे सामने रखती है जो पारम्पुरिक, नैतिक, कानूनसम्मत तथा सामाजिक मान्यताओं को सबसे उपर रखने वाली हो | गौरतलब है कि इससे पूर्व महबूब खान ‘औरत’ (1940) नाम से भी एक फिल्म बना चुके थे |
1970 के बाद से हिंदी सिनेमा ने मुख्यधारा की लीक से हटकर यथार्थवादी फिल्मों एक नई धारा प्रस्तुत की जिसे सिनेमा की नई लहर (न्यू वेव) कहा गया | इस धारा के फिल्मकारों में अग्रणी श्याम बेनेगल, मणि कौल, कमल स्वरुप, कुमार साहनी, गोविंद निहलानी, एम |एस | सथ्यू प्रमुख रहे | इस दौर में श्याम बेनेगल ने स्त्रियों को केंद्र में रखकर कुछ गैर-पारम्परिक फिल्मे बनाई जिसमें ‘अकुंर’ (1973), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976), ‘भूमिका’ (1977) प्रमुख रही | इसी क्रम में केतन मेंहता निर्देशित ‘मिर्च-मसाला’ (1985) भी महिलाओं के विरुद्ध शोषण और अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती फिल्म है | इसके बाद एक लबां दौर ऐसी फिल्मों का रहा जिसमें स्त्री किरदारों को पुरुष की सहायक भूमिका में और समाज के पारम्परिक स्वरुप के अनुरुप व्यवहार कुशल स्त्री की छवि गढ़ी गई जिसका अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं है और जो पितृसत्ता के नियमों के अनुकूल ही स्वयं को देखती है |
1990 के बाद से फिल्मों का एक ऐसा दौर भी आया जब स्त्रियों की भूमिका को लेकर नए तरह के बदलाव हुए और हमें पर्दे पर स्त्री की एक गैर-पारम्परिक छवि देखने को मिली। हालांकि, ये फिल्में भी पूरी तरह से स्त्री-प्रधान फिल्में तो नहीं रही लेकिन स्त्रियों को लेकर नए तरह के किरदार लिखने की शुरुआत हो चुकी थी। दूसरी तरफ बाजार की यह मांग भी थी कि जब नए दौर में स्त्रियां अपने घरों से निकल रही है, और अपने फैसले स्वयं लेने लगी है | ऐसे में फिल्म का कथानक इससे अछूता कैसे रह सकता था | यहां पर यह भी गौर करना चाहिए कि यही कामकाजी महिलाए इन नए दर्शकों का एक बड़ा वर्ग भी बन कर उभर रही थी | इसी बीच स्त्री यौनिकता (सेक्सुएलिटी) को लेकर कुछ फिल्मे आई और स्त्रियों की पर्दे पर प्रस्तुति को लेकर कुछ विवाद भी सामने आए | फूलन देवी पर बनी फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), अपने विषय-वस्तु और कुछ दृश्यों को लेकर विवादों में रही | अंतत: कोर्ट से मंजूरी मिलने के बाद ही फिल्म रिलीज हो पाई | इसी तरह दीपा मेंहता कि चर्चित फिल्म ‘फायर’ (1996) जो दो स्त्रियों के बीच समलैंगिक संबंधो के कारण विवादों से घिरी रही |
प्रकाश झा जातिय हिंसा पर बनी अपनी पहली फिल्म ‘दामूल’ के कारण चर्चा में थे, ने एक स्त्री को मुख्य किरदार में रखकर ‘मृत्युदंड’ (1997) बनाई। इसी तरह और भी फिल्मकार नए-नए स्त्री किरदारों को लेकर आ रहे थे | जिसमें राजकुमार संतोषी की ‘लज्जा’ (2001), चंद्र प्रकाश द्विवेदी की ‘पिंजर’ (2003), प्रदीप सरकार की ‘परिणिता’ (2005), मधुर भण्डारकर की ‘पेज 3’ (2005), दिपा मेंहता की ‘वाटर’ (2005), संजय लीला भंसाली की ‘ब्लैक’ (2005), अनुराग कश्यप की ‘दैट गर्ल इन यैल्लो बूट्स’ (2010), राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्लड जेसिका’ (2011), मिलन लूथरिया कि ‘द डर्टी पिक्चर’ (2011), आनंद राय की ‘तनु वेड्स मनु’ (2011), विशाल भारद्वाज की ‘7 खून माफ’ (2011), गौरी शिंदे निर्देशित ‘इग्लिश विग्लिश’ (2012), सुजोय घोष की ‘कहानी’ (2012), ओमंग कुमार की ‘मैरी कॉम’ (2014), सौमिक सेन की ‘गुलाबी गैंग’ (2014), इम्तियाज़ अली निर्देशित ‘हाइवे’ (2014), विकास बहल की ‘क्वीन’ (2014), आनंद राय निर्देशित ‘तनु वेड्स मनु रिटर्नस’ (2015) प्रमुख रही है | इसी बीच आई ‘रिवॉल्वर रानी’ (2014), और ‘मर्दानी’ (2014) कुछ ऐसी फिल्में है जिन्होने विशिष्ट तौर पर मुख्यधारा के सिनेमा के पैटर्न का अनुसरण करते हुए ‘पुरुष’ की जगह ‘स्त्री’ को रखकर एक कथानक का निर्माण किया | इस तरह के ‘रोल-रिवर्सल’ से उपजी कहानियों में स्त्री मुख्य भूमिका में होते हुए भी मुख्य भूमिका में नजर नहीं आती और फिल्म एक खराब पैरोड़ी बनकर रह जाती है।
2011 में आई नीलमाधव पाण्डा की फिल्म आई एम कलाम एक चाय की दुकान पर काम करने वाले राजस्थान के बारह वर्षीय बच्चे छोटू की कहानी है, जो एक दिन टीवी पर राष्ट्रपति कलाम को देखकर खुद भी उनके जैसा बनना चाहता है और अपना नाम भी कलाम रख लेता है। वह किस प्रकार अपने जीवन के संघर्ष को पूर्ण आत्मसम्मान के साथ जारी रखता है, यही इस फिल्म की विषेशता है।
सन 2012 की तिग्मांषु धुलिया निर्देषित पान सिंह तोमर फिल्म पान सिंह तोमर नामक सैनिक के जीवन पर आधारित है, जो राष्ट्रीय खेलों में बाधा दौड़ का स्वण्ज्ञंपदक विजेता था किन्तु गाँव आकर परिस्थितियों के वषीभूत होकर उसे बीहड़ में कूदकर डाकू बनना पड़ता है। इस फिल्म की भाषा में बुन्देलखण्ड जीवंत हो उठा है। इरफान के सहज स्वाभाविक अभिनय एवं संजय चौहान की कसी हुई पटकथा के कारण यह फिल्म बेहतरीन फिल्म बन गई है। मुझ समेत अनेक फिल्म विष्लेशकों का मत है कि ऑस्कर हेतु पान सिंह तोमर एक बेहतर विकल्प हो सकती थी। इस साल ऑस्कर हेतु भारत से नामित फिल्म बरफी संवेदनाओं के अथाह सागर में डुबो देने वाली मार्मिक फिल्म है। यह फिल्म मूक बधिर व्यक्ति की संवेदनाओं एवं उसके निष्छल प्रेम की अभिव्यक्ति करती है। निर्देशक अनुराग बसु के बेहतरीन निर्देशन एवं रणवीर कपूर तथा प्रियंका चोपड़ा के मार्मिक अभिनय के कारण इस फिल्म को दर्षकों का भी ढेर सारा प्यार मिला है। इस साल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर रही, जिसे निर्देशक अनुराग कष्यप ने दो भागों में बनाकर प्रर्षित किया। इस फिल्म में बिहार और झारखण्ड विषेशकर धनबाद के माफियाओं का सच्चाई के बेहद निकट वर्चस्व संघर्ष दिखाया गया है। फिल्म का पहला हिस्सा मनोज बाजपेई की बेहतरीन अदाकारी के लिए याद किया जाएगा तो दूसरे हिस्से में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अपने अभिनय के जौहर दिखाए हैं। मुझे लगता है कि अभिनय की इस रस्साकषी में नवाजुद्दीन मनोज बाजपेई पर भारी पड़े हैं। इस फिल्म में पात्रों की भीड़ में उभरे प्रेम, वासना, सत्ता संघर्ष और हिंसा के दृष्य सहज स्वाभाविक बन पड़े हैं। फिल्म के गीत संगीत में भोजपुरी माधुर्य इसे औरों से अलग और विषिष्ट बनाता है लेकिन इस फिल्म में भी शोले की भाँति सब कुछ है, परन्तु गाँव गायब है। कुछ विष्लेशक इस फिल्म को ऑस्कर हेतु दावेदार मानते हैं।
सम्पूर्ण हिन्दी सिनेमा में लोक चेतना के विष्लेशण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सिनेमा में लोक तत्व की जड़ें अत्यंत गहराई तक पैठी हुई हैं, परन्तु मोह भंग के दौर में एंग्री यंग मैन के उदय के साथ सिनेमा से गँवई रिष्ता कुछ नेपथ्य में चला गया किन्तु कला फिल्मों के आने के बादइसके चिह्न पुनः दिखाई देने लगे और फिल्म लगान के आने के बाद हिन्दी सिनेमा में गाँव और लोक संवेदना का पुनरूत्थान हुआ, जिसे नए तथा युवा निर्देशकों ने नवोन्मेषी विचारों के द्वारा नए क्षितिज प्रदान किए। आज हिन्दी सिनेमा में जिस प्रकार लोक चेतना और लोक संगीत को स्थान दिया जा रहा है, वह भविष्य के लिए आशान्वित करता है।
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अर्चना पाठक
शोधार्थी
राजनीति विज्ञान विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय