पिछली सदी शुरू होने से पूर्व ही जब देश अपनी स्वतन्त्रता पाने की ओर अग्रसर था और देश में राजनैतिक और सामाजिक सुधार का व्यापक दौर चल रहा था, उसी समय पारसी थियेटरों को पीछे छोडते हुए मनोरंजन के नये स्वरूप सिनेमा का सूर्योदय हुआ। यह चलचित्र के नाम से जाना गया। इसका प्रथम प्रदर्शन भारत में 1896 में हुआ। लुमिरै भाईयों ने छह मूक फिल्मों का प्रदर्शन 7 जुलाई को बम्बई के वाटसन होटल में किया था। तब से लेकर आज तक भारतीय फिल्में तकनीकी और अन्य कलात्मक सुधारों के साथ इस मुकाम पर पहुंच गई हैं।

पिछले पांच दशकों की बात करें तो देखने को मिलेगा कि भारतीय सिनेमा ने शहरी दर्शकों को ही नहीं गांव के दर्शकों को भी प्रभावित किया है। फिल्मी गानों को गुनगुनाने और संवादों की नकल का क्रम मुगले-आज़म, शोले और सत्या तक चल कर आज भी जारी है। दक्षिण भारत की ओर नजर डालें तो देखेंगे कि वहां की जनता फिल्मी कलाकारों को भगवान स्वरूप मानकर उनकी पूजा तक करती है। फिल्मी कलाकार व निर्माता समय-समय पर राज्यों व केन्द्र की राजनीति में भी सक्रिय होते रहे हैं।

एक तरह से सिने आलोचक चिदानंददास गुप्ता के अनुसार ‘सिनेमा का जन्म उस समय एक संप्रेषणीय कला के रूप में हुआ जब बहुत सी अन्य कलाएँ इस कार्यभार से पदस्थ हो रहीं थी। दूसरे शब्दों में गुप्ता का मानना है कि सिनेमा एक महत्वपूर्ण संप्रेषणीय कला है। वह रेनुआ की इस मान्यता से भी पूर्णतः सहमत हैं कि विश्व ने अब तक जितनी बुरी किताबों का उत्पादन नहीं किया है, यहाँ तक कि शेक्सपीयर काल में भी उतनी अच्छी किताबों का उत्पादन नहीं हुआ किन्तु सिनेमा अब तक केवल वही उत्पादित करने में सफल सिद्ध हुआ है जो कलात्मक रूप से मान्य है एवं विश्व में प्रसिद्ध है इसलिए सिनेमा कला की सर्वोच्च मान्यताओं को भी प्राप्त करने में सफल है।

जिस तरह कवि को आधुनिकता एवं औद्यौगिक विकास के बरक्स एक समांतर सरकार का दर्जा प्राप्त है उसी प्रकार सिनेमा समांतर सिनेमा ने यह काम किया है दरअसल पचास के दशक में बनने वाली यथार्थवादी फिल्मों पर कई तरह के प्रभाव थे। इन्हें सामाजिक यथार्थवादी फिल्मों की भी संज्ञा दी जाती है। इप्टा जिसकी स्थापना 1943 में हुई थी उसका प्रभाव भी इस सिनेमा पर है। सन् 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने बंगाल के अकाल पर ‘धरती के लाल’ फिल्म बनाई थी। मास्को में 1949 में दिखाई यह पहली फिल्म थी। धरती के लाल को यथार्थवादी धारा की एक महत्वपूर्ण फिल्म माना जाता है ।

समांतर सिनेमा को आलोचकों ने ‘नया सिनेमा’ की संज्ञा दी है। निर्देशक श्याम बेनेगल भी समांतर सिनेमा को ‘नया सिनेमा’ कहना अधिक सटीक समझते हैं उनकी नजर में समांतर शब्द बेतुका है। उनके अनुसार समांतर सिनेमा का ध्येय आजादी के बाद तेजी से औद्योगीकरण के प्रभाव एवं बुरी सरकारी नीतियों का जो प्रभाव देश पर पड़ रहा था उसके कारण परिवर्तित हो रहे भारत की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करना था। समांतर सिनेमा ने गाँव पर पड़ रहे औद्योगीकरण के प्रभाव को भी अपना विषय बनाया। विमल राय की दी बीघा जमीन इसका उदाहरण है। समांतर सिनेमा की पहली लहर नवजागरण की भूमि बंगाल से उठी थी। सिनेमा के इतिहास में बंगाली निर्देशक मृणाल सेन की फिल्म भुवन शोम (1968) को यह श्रेय प्राप्त है। हिन्दी कहानीकार और फिल्म समीक्षक ब्रजेश्वर मदान ने ‘सारा आकाश’ से हिंदी में नये सिनेमा की शुरुआत मानी है। एक अन्य समांतर फिल्म उसकी रोटी (1969) के निर्देशक मणिकौल के

मुताबिक ‘एक नया चिंतन-मेरी फिल्मों का यही उद्देश्य है। यदि फिल्म में वही सब दिखाया जाए जो दर्शक और फिल्मकार दोनों का मालूम है तो वह हमें अभिज्ञता की दीर्घा में आगे कैसे बढ़ाएगा? वह कहते थे सिनेमा मेरे निकट एक प्रतिभाविधायक एक रूपंकर दृश्य कला है। वह नाटक या मुख्यधारा की वृत्तांतमूलक मन बहलाने वाली अभिनय के माध्यम से संप्रेषण करने वाली विधा नहीं है। वह तो समय के आयाम में उकेरा चित्रण है- मूर्तिकला या भास्कर्य की तरह। वह दृष्टि के माध्यम से बोधगम्य बिम्ब विधान है, काल के पटल पर समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता सृजन। उसकी तुलना पेंटिग और मूर्तिकला से ही की जानी चाहिए।

इसलिए श्याम बेनेगल भी इसे सिनेमा में एक नयी शुरुआत के रूप में देखते हैं और समांतर की जगह ‘नया सिनेमा’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं जिसमें आजादी के बाद के भारत या उभरते हुए भारतीय राष्ट्र की झलक देने के प्रेरणा निहित थी। उसके समय एवं समाज की समस्याओं से जनता को अवगत कराना ही इस सिनेमा का अभीष्ट था। उस समय समाज में हो रहे जरूरी परिवर्तनों एवं बदलाव को सिनेमा में दर्ज करना इन नए निर्देशकों एवं फिल्मकारों का ध्येय था। श्याम बेनेगल सिनेमा में ही नहीं अन्य कलाओं का भी सबसे जरूरी तत्व ‘परिवर्तन’ को मानते हैं। श्याम बेनेगल ने सत्तर के दशक में अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका, चक्र आदि फिल्में बनायी थी जिनका नायक कोई सुपर हीरो न होकर साधारण या आम था। तब तक की फिल्मों में यह बहुत क्रन्तिकारी परिवर्तन था।

इससे पूर्व राजकपूर श्री 420, आवारा, बूट पालिश, जागते रहो, अनाड़ी आदि बन चुके थे। जिनका नायक आम आदमी था उधर वी शान्ताराम, ख्वाजा अहमद अब्बास, महबूब आदि भी प्रयोगशील सिनेमा बना चुके थे। तब तक कोई मूवमेंट उभर कर नहीं आई थी मगर सत्तर के दशक की इन फिल्मों पर इटली के नवयथार्थवाद एवं फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव का प्रभाव भी आँका गया है। इस संदर्भ

में डा॰ अनुपम ओझा ने अपनी किताब भारतीय सिने-सिद्धान्त में लिखा है- ‘ऐसा नहीं है बेनेगल यूरोपीय सिनेमा के प्रभाव से अछूते रहे हैं। अंकुर से ‘निशान्त’ तक उनकी सभी फिल्मों पर तकनीक और कथ्य दोनों दृष्टियों से कला सिनेमा एक तरह से हावी रहा है। नवयथार्थवादी सिनेमा जैसे ‘बाइसाइकिल थीव्स’ से काफी प्रभावित होने के बाद भी बेनेगल को उससे ऊपर उठने की जरूरत महसूस हुई क्योंकि, भौतिक यथार्थ ही अन्तिम सिनेमाई सत्य नहीं होता।’

पारम्परिक फिल्मों के उत्तर भारतीय परिवेश से सर्वथा भिन्न आन्ध्र प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रें का वातावरण, वेशभूषा, रीति-रिवाज, हैदराबादी हिन्दी के संवाद और अपरिचित कलाकार आदि विशेषताएँ श्याम बेनेगल की फिल्मों को पारंपरिक तो क्या नया सिनेमा की अन्य फिल्मों से भी अलग करती है। अंकुर की कहानी जहाँ पुराने और नवीन सामंती रवैये को स्पष्ट करती है, वहीं आधुनिक सांमती प्रवृत्तियों का चित्रण भी करती है।

इसी संदर्भ में कुमार शाहनी के बारे में उनकी धारणा है कि कुमार साहनी ने मायादर्पण (1972) बनाकर सिने-भाषा के प्रति गंभीरतम सोच का प्रमाणपत्र देते हुए कला फिल्मकारों की श्रृंखला में अपना नाम दर्ज कराया ‘मायादर्पण’ को लोकार्नो फिल्म समारोह में ‘कार्ज एवं रीगर’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

कुमार साहनी का नाम प्रयोगवादी फिल्मकारों में मणिकौल के बाद सर्वाधिक महत्वूर्ण है। कुमार साहनी पेरिस के न्यू वेव के महत्वपूर्ण फिल्मकार राबर्ट ब्रेसाँ के सहायक के रूप में काम कर चुके हें। ‘मायादर्पण’ पर ब्रेसाँ के प्रभाव को लक्षित किया गया, तो यह स्वाभाविक था। कुमार साहनी ने ब्रेसाँ को अच्छी तरह आत्मसात किया है, और अपना निजी मुहावरा गढ़ा है। ‘फ्रेंच न्यू वेव’ की सबसे बड़ी विशेषता है कि फिल्मकार की वैयक्तिक छाप उसकी फिल्मों में दिखाई देती

है।

बाद के दौर में यह प्रवृत्ति उनमें व्यक्तिवाद के रूप में विकसित हो उन्हें दिग्भ्रमित कर देती है, किन्तु शुरु की दो फिल्मों ‘मायादर्पण’ और ‘तरंग’ के द्वारा वे सिनेमा के इतिहास में अलग सिने भाषा शैली की अमिट छाप बना सके। ‘मायादर्पण’ फिल्म निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित है, किन्तु कुमार साहनी का फिल्मकार कथानक पर इस तरह हावी है कि उपन्यास और सिनेमा में कोई स्पष्ट रूपान्तरण बिन्दु ढूँढ पाना कठिन है। इनकी दूसरी महत्वपूर्ण फिल्म ‘तरंग’ है। कुमार साहनी ने वैयक्तिकता का प्रश्न सामाजिक या राजनीतिक विचारों के सन्दर्भ में नही उठाया है। उनका संदर्भ कलात्मक है। मुख्य रूप से यह प्रश्न फिल्मकार की भाषा और उसकी शैली से जुड़ा हुआ है। कुमार साहनी में जो वैयक्तिकता का आग्रह है, उसका सम्बन्ध सिने भाषा के उपयोग अर्थात् शॉट, कोण, ध्वनि और प्रकाश के वैयक्तिक उपयोग के ढंग से है। प्रस्तुत दो फिल्मकारों श्याम बेनेगल एवं कुमार साहनी के उदाहरण से स्पष्ट है कि समांतर सिनेमा में पॉपुलर सिनेमा की तरह एक-सी फिल्में बनाने वाले फिल्मकार नहीं बल्कि अलग-अलग ढंग से फिल्म बनाने वाले निर्देशक थे। इन्होंने अपने-अपने ढंग से फिल्म के मुहावरे गढे़। भाषा एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर इन्होंने फिल्म बनाने की कला को गहरे एवं गहन संदर्भों में परिवर्तित किया जिससे सिनेमा को कला जगत में नए आयाम मिले।

इससे समांतर सिनेमा का पॉपुलर सिनेमा से जो स्पष्ट अंतर हमें मिलता है वो यह है कि समांतर सिनेमा ने फिल्म बनाने का कोई फार्मूला ईजाद नहीं किया बल्कि कहानी एवं पात्रें के अनुरूप फिल्म की कथा कहने के ढाँचे को परिवर्तित किया जबकि पॉपुलर सिनेमा में भावनात्मक एवं मैलोड्रामाई शैली के ढंग पर फिल्म बनाने का फार्मूला ज्यों का त्यों सुरक्षित रहा। इस ढाँचे में पिता, बेटे, बाप, भाई एवं माँ बहन आदि की भावनाओं के इर्द-गिर्द ही फिल्म की कहानी बुन दी जाती है जिस तरह के किरदार औसत भारतीय परिवारों में होते हैं। यह परिवार पितृसत्तात्मक है।

इन फिल्मों में रिश्तों की संवेदनशीलता के अतिरिक्त कोई प्रभावशाली बात नहीं होती। यह एक सुरक्षित या एक साँचे में ढला हुआ सिनेमा है जबकि विविधता समांतर सिनेमा की पहचान है। इस संदर्भ में सिने समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता का मत है कि समांतर सिनेमा की बहुत सारी  व्याख्याएँ की जा सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किससे समांतर सिनेमा के बारे में बात की जा रही है। समांतर सिनेमा के विदेशी एवं स्वदेशी  निहितार्थ भिन्न किस्म के हैं। कुछ लोग इसे मुख्यधारा के सिनेमा का सूक्ष्म प्रतिरूपमानते हैं तो कुछ ऐसा बिल्कुल नहीं मानते। उनकी नजर में समांतर सिनेमा आत्माभिव्यक्ति का सच्चा साधन है। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को लेकर इसके निर्देशकों में भी आपस में मतभेद रहा है।

गैर हिन्दी भाषी निर्देशकों जिन्होंने हिन्दी  में भी सिनेमा बनाया उनकी फिल्मों में क्षेत्रीयता के तत्व अथवा प्रभाव दृष्टिगोचरहोते हैं और इनमें श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक भी है जिनकी फिल्में तो हिन्दी में है लेकिन स्थानीयता के तत्व उनकी फिल्मों के पात्रें उनकी वेशभूषा, रहन-सहन, बोली आदि को प्रभावित करते हैं। जैसे निशान्त फिल्म में हैदराबादी बोली, क्षेत्रीय  जमींदारों की भाषा का अच्छा उपयोग है उसी तरह मिर्च मसाला में राजस्थान की बोली, वेशभूषा का उपयोग किया गया है। वैसे तो समांतर से मुख्यधारा के सिनेमा  के बहुत से भेद हैं। समांतर सिनेमा पात्रें की पारंपरिक निर्मिति में हस्तक्षेप करता  है और मुख्यधारा का सिनेमा उसे पुष्ट करता है। यह बात सिर्फ अनपढ़ व्यक्तियों की नही बल्कि पढ़े-लिखे व्यक्तियों को लेकर भी दिखाई पढ़ती है। श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म निशान्त को धारवाड़ में ग्रामीणों के साथ देखा जिसमें औरत अन्त में भाग जाती है। ग्रामीणों ने इस अंत को स्त्री की दृष्टि से समझा जबकि शहर के लोग अपनी थोपी गई नैतिकताओं के साथ फिल्म को देखने आए थे। वह इसे स्वीकृत नहीं कर पाए।

मुख्यधारा के सिनेमा में जहाँ कृत्रिम वातावरण में स्टुडियो में शूटिंग करने का चलन था वही समांतर सिनेमा ने उचित यथार्थवादी प्रभाव के चित्रण के लिए

स्वाभाविक एवं उन्मुक्त वातावरण में शूटिंग की पद्धति विकसित की। अंकुर फिल्म की शूटिंग आन्ध्र प्रदेश के एक गाँव में की गई थी। समांतर की कथा कहने की शैली तो एकदम मुख्यधारा के सिनेमा से हटकर एवं नयी थी इसमें विम्बात्मकता, कवितात्मकता, गति, लय, ताल आदि का उपयोग संप्रेषणीयता के लिए किया गया  था जिसका उपयोग समांतर सिनेमा में एकदम नहीं दिखता। इसके अतिरिक्त इसमें लम्बे दृश्यों की जगह छोटे किंतु महत्वपूर्ण एवं अर्थवान दृश्यों का उपयोग था।

इससे पात्रें की संवाद अदायगी के स्तर पर, उनके व्यवहार के स्तर पर यह सिनेमा  मुख्यधारा के सिनेमा से एकदम अलग हो जाता है। इस तरह के कई अंतर हमें समांतर एवं पॉपुलर सिनेमा के बीच देखने को मिलते हैं। समांतर सिनेमा में जहाँ  प्रतीकात्मक दृश्यों की भरमार मिलती है वहीं मुख्यधारा के सिनेमा में एक भी  प्रतीकात्मक दृश्य नहीं मिलता। निशांत का वह दृश्य रेखांकन करने योग्य है जिसमें एक दिन हताश मास्टर गाँव वापिस लौट रहा है, चारों ओर बंजर जमीन है सूखीपहाडि़याँ और पत्थर हैं। वह टूट जाता है और आसपास की झाडि़यों को पीटता है। चीखता-चिल्लाता है। दूर-दूर तक उसकी आवाज या वेदना को देखने सुनने वाला कोई नही है।

इसी तरह समांतर सिनेमा की फिल्मों का अंत भी ज्यादातर अलग तरह का या अनपेक्षित होता है जबकि मुख्यधारा के सिनेमा में वही परिस्थितिजन्य अंत होता है कि बिछुड़े अंत में मिल जाते हैं। जबकि समांतर सिनेमा के निर्देशकों  के लिए सिनेमा यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि उससे कहीं आगे की चीज है।  जब एक सिनें-मीमांसक आर्द्रें बाजें (फिल्म समीक्षक नई सिनेमाई-धारा नूवेल वाग के मर्मज्ञ) ने यह प्रश्न उठाया कि सिनेमा क्या है?

दूसरे सिने मीमांसक क्रिश्चियन मेत्ज ने उत्तर कि सिनेमा एक ‘भाषा’ है। और फिल्म में भाषा का निर्माण नहीं किया जाता बल्कि वह पात्रें के व्यवहार एवं उनकी पात्रता के अनुरूप अपने आप बनती है। ऐसी भाषा कृत्रिम नहीं पात्रें की स्वाभाविक भाषा होती है कई बार तो भावों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा की आवश्यकता भी नहीं होती। अभिनेता सम्राट चार्ली चैप्लिन के संबंध में राडलोज-आर्नहाइम ने कहा है ‘‘मानवीय संबंधों को दर्शाने वाले ऐसे सैंकड़ो विभिन्न प्रसंगों को उन्होंने अपनी फिल्मों में अभिनीत किया है उन्हें कभी वाणी जैसे सामान्य माध्यम की आवश्यकता नहीं पड़ी। और ये प्रसंग (बिना कोई संदेश खोए) बराबर संप्रेषित होते रहे। दर्शक अपने पूर्व इंद्रियगत अनुभव तथा पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और अन्य ड्डोतों से अर्जित विभिन्न संहिताओं की मदद से तो साधारण चीजों को समझता ही है परंतु जब वह देखता है कि उसके अनुभव संसार के अर्जित कोड कहीं टूटते हैं तो वह इस टूटन के नये कोड़ों के अर्थ पहचानने लगता है और एक विशेष परिस्थिति में जहां शब्द व्यंजना और लक्षणा की ओर ले जाता है वहां तक की यात्र वह इन  कोड़ों की सहायता से करता है। चार्ली चेप्लिन जब फिल्म में कंधों को सिकुड़ाकर रखने वाला कोट पहनता है या झब्बेदार थैलेनुमा लटकती पैंट पहनता है तो यह भले ही बने बनाए सामाजिक कोड (संहिता) के विरोध में जाए परंतु इससे जो व्यंजना के कोड (व्यंग्यात्मकता) उत्पन्न होती है फिल्म में वही काम करती है जो साहित्य में शब्द करते हैं। इस प्रकार संवाद को उसके रूप (फार्म) अन्तर्वस्तु (कन्टेन्ट), प्रसंग (कान्टेक्सट) के संदर्भ में देखा जाता है साथ ही उसके द्वारा संप्रेषित संदेश को विभिन्न अभिप्रायों या सिद्धान्तों जैसे, प्रयुक्ति (रजिस्टर), वृत्ति

(मूड) आदि के रूप में विवेचित किया जाता है। सिनेमाई भाषा अपने आप में एक अलग एवं विशिष्ट भाषा है इसलिए उसके संदर्भ में निम्नलिखित मुद्दों को ध्यान में रखा जाता है- (1) सिनेमाई भाषा अपने आप में एक अलग भाषा है जो अपने संदेश को अन्य भाषाओं की भांति, संप्रेषित करने का कार्य करती है। संवाद भी संप्रेषण का कार्य करता है। (2) संवाद चूंकि मूलरूप से भाषा कालान्तर में नाट्यभाषा से जुड़ा है पर सिनेमा में वह सिनेमाई भाषा के साथ तालमेल बिठाकर उस भिन्नवर्गी (हेटरॅजीनियस) भाषा के साथ अपने को खपा देता है अतः उसका मूलरूप भी किसी न किसी रूप में (गुणात्मक, मात्रत्मक, शब्दात्मक आदि) परिवर्तित हो जाता है। (3) सिनेमाई भाषा के तकनीकी एवं गैरतकनीकी कोड, संवाद के पारंपरिक कोडों (भाषिक स्तर पर और शिल्प के स्तर पर) को, अपने साथ तालमेल बिठाकर चलने के लिए तैयार करते है। अगर संवाद इन कोड़ों के अनुसार मेल न खाएँगे तो वे सिनेमाई भाषा से अलग-थलग पड़ जाएँगे और अटपटे लगकर दर्शकों के लिए ऊब एवं खीज पैदा करेंगे। (4) सिनेमा औद्योगिक, व्यावसायिकता से जुड़ा है अतः अपनी विषयवस्तु को दर्शकों की माँग एवं उनके स्तर के अनुसार, ढालता रहता है ऐसी स्थिति में संवादों को उसके अनुरूप गढ़ना पड़ता है। इसीलिए फिल्मों के संवाद विवेचन विश्लेषण में (हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, अथवा मिश्रित), विशेष बोली रूपों (बम्बईया, हैदराबादी आदि) (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक आदि के संदर्भों, कोडों कलात्मक तत्वों, मूल्यों, वैयाकरणिक, भाषावैज्ञानिक इकाइयों, वाक्य प्रकार, वाक्य विश्लेषण, वृत्ति (मूड), आदि) शैली वैज्ञानिक बिन्दुओं (रजिस्टर, कथ्य, अर्थ, चरित्र आदि) जैसे मुद्दों का ध्यान रखना पड़ता है।

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डॉ. माला मिश्र
पत्रकारिता और हिंदी विभाग
अदिति महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

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