सारांश : संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने भावों विचारों, तथ्यों, अनुभवों और दृष्टिकोण को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सहभागिता हेतु प्रेषित किया जाता है। समाज की शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक धरोहर को सुरक्षित रखने और अभिव्यक्ति के मूलभूत अधिकार का संरक्षण करने में संचार माध्यमों की उपयोगिता निर्विवाद है। वास्तव में मीडिया जीवन मूल्य है , जीवन दृष्टि है, लोक शिक्षण है, लोक जागृति का साधन है। मीडिया के विभिन्न साधनों को सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास में अभूतपूर्व क्रांति का वाहक माना जाता है। संचार क्रांति और वैश्वीकरण के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अंतर्गत हिंदी की महत्ता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। सिनेमा जनसंचार माध्यम का कलात्मक माध्यम स्वीकारा गया है।सिनेमा लेखन में कथा, विचार, कथासार, पटकथा, पात्र, संवाद आदि तत्वों पर विचार करना होता है। भारत में रविंद्र नाथ टैगोर , शरद चंद्र , कमलेश्वर , फणीश्वर नाथ रेणु , भीष्म साहनी , मोहन राकेश , धर्मवीर भारती , आर. के.नारायण आदि कथाकारों की रचनाओं का फिल्मों में रूपांतरण किया गया है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने की सुधीर जो परंपरा चली आ रही है जिनमें सेवा सदन, गबन, सारा आकाश, बदनाम बस्ती, आंधी, हम आपके हैं कौन, मजदूर, उसने कहा था, गाइड, सरस्वतीचंद्र, काबुलीवाला, अर्थ, रुदाली, साहब बीवी और गुलाम, नौकर की कमीज रचनाएं उल्लेखनीय हैं। सिनेमा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए हिंदी सिनेमा और हिंदी भाषा एक दूसरे के पूरक बनकर उभरे हैं।

बीज शब्द : वैश्वीकरण. लोक जागृति, प्रथम पंक्ति,मानसिकता, रूपांतरण, सार्वभौमिक, वैकल्पिक

मूल प्रतिपादन : संचार एक मूलभूत वैयक्तिक सामाजिक आवश्यकता तथा सार्वभौमिक मानवाधिकार है। आधुनिक युग में सूचना शक्तिशाली हथियार बन चुका है। सूचना, विचारों और मनोरंजन के संचार माध्यमों द्वारा व्यापक रूप में प्रचार और प्रसार किया जाता है। संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने भावों विचारों, तथ्यों, अनुभवों और दृष्टिकोण को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सहभागिता हेतु प्रेषित किया जाता है। संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति भाषा के द्वारा अपने भावों, विचारों, सूचनाओं, अनुभवों, तथ्यों आदि का विनिमय करते हैं। संचार की प्रक्रिया के स्वरुपात्मक अभिव्यक्ति इस प्रकार है….                         

प्रेषक…..संदेश…… माध्यम……प्रापक

जनसंचार अपने संदेश को तीव्र गति से गंतव्य तक पहुंच जाता है। जनसंचार का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव जन-जन पर पड़ता है तथा जनता की प्रतिक्रिया का भी आभास मिलता है। जनसंचार के सभी माध्यमों का लक्ष्य एक ही होता है। समाज की शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक धरोहर को सुरक्षित रखने और अभिव्यक्ति के मूलभूत अधिकार का संरक्षण करने में संचार माध्यमों की उपयोगिता निर्विवाद है। भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का और उसके संप्रेषण का माध्यम होती है। भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अपितु पूरे विश्व में प्रेस को प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाता है। वैश्वीकरण के दौर में मीडिया ने दुनिया को समेट कर रख दिया है। ज्ञान ,विज्ञान, दर्शन, साहित्य, कला, राजनीति, अर्थशास्त्र, अर्थनीति, समाजशास्त्र, इतिहास आदि विभिन्न दिशाओं को प्रतिबिंबित करने में मीडिया की भूमिका अन्यतम मानी गई है।1 मीडिया के संदर्भ में संचार शास्त्री मार्शल मैक्लुहान ने उचित ही कहा है:-

माध्यम ही संदेश है।

प्रत्येक माध्यम के स्वरूप की अपनी सीमाएं और संवेदनाएं होती हैं तथा यह सीमाएं और संवेदनाएं माध्यम के स्वरूप और प्रकृति के अनुसार संदेश की विषय वस्तु का निर्धारण करती हैं। मीडिया आधुनिक दुनिया के परिप्रेक्ष्य में शक्ति का प्रतीक बन चुका है। प्रशासक और आलोचक दोनों इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि मीडिया ने जन समाज को एक सूत्र में अनुचित कर दिया है। वास्तव में मीडिया जीवन मूल्य है , जीवन दृष्टि है, लोक शिक्षण है, लोक जागृति का साधन है।2 मीडिया के विभिन्न साधनों को सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास में अभूतपूर्व क्रांति का वाहक माना जाता है। जनसंचार माध्यमों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है जिनमें मुख्य हैं –

  1. प्रिंट मीडिया
  2. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
  3. नव इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दुधारी तलवार के समान है जो एक और रचनात्मक कार्यों में समन्वित होती है तो दूसरी और उसमें नाश के तत्व भी विद्यमान हैं। तीसरी दुनिया के समाजों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दायित्व केवल मनोरंजन करना नहीं अपितु श्रोता या पाठक वर्ग को विवेचनात्मक शक्ति से समृद्ध भी बनाना होता है। आज मीडिया की पहुंच हर कोने अंतरे तक हो चुकी है जिससे उपभोक्ताओं के मानसिक क्षितिज का विस्तारीकरण हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में श्रव्य दृश्य दोनों माध्यमों को परिगणित किया जाता है जिसमें भाषागत बहुरुपता विद्यमान होती है।3 संचार क्रांति और वैश्वीकरण के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अंतर्गत हिंदी की महत्ता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। हिंदी के महत्व को विश्व मंच पर स्थापित करने की दिशा में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की विशेष भूमिका है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उपकरणों में रेडियो, दूरदर्शन, वीडियो, सिनेमा आदि को शामिल किया जाता है।

भारतीय सिनेमा का सुदृढ़ और लंबा इतिहास माना गया है। आधुनिक संचार माध्यमों में दृश्य श्रव्य माध्यम के रूप में सिनेमा अत्यंत लोकप्रिय माध्यम है। हिंदी सिनेमा जगत को वैश्विक पटल पर मनोरंजन के क्षेत्र में अपार सफलता मिली है। हिंदी सिनेमा जगत में पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए स्वयं को प्रथम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है। सिनेमा जन जन तक पहुंचने वाला गतिशील माध्यम है।4 फिल्मों में दर्शकों को प्रभावित करने की क्षमता विद्यमान होती है।समाज के आचार व्यवहार को परिवर्तित करने में चल चित्रों की अभूतपूर्व भूमिका स्वीकारी गई है।

सिनेमा जनसंचार माध्यम का कलात्मक माध्यम स्वीकारा गया है। फिल्म एक फोटोग्राफिक माध्यम है जिसमें कैमरे का प्रयोग किया जाता है।सन 1839 में फ्रांसीसी लोहे नूरे ने एक ऐसी प्रक्रिया को विकसित करने में सफलता हासिल की जिसके अंतर्गत रसायन प्लेट पर छाया चित्रों को प्रस्तुत किया जा सके। भारत में सिनेमा की शुरुआत करने का श्रेय है न्यू में रूम एयर बंधुओं को जाता है जिन्होंने 1895 में पैरिस में और 7 जुलाई 1896 को मुंबई में सिनेमा का प्रदर्शन किया। प्रथम देसी फिल्म हरीशचंद्र सारे भटवाडेकर द्वारा बनाई गई जिसमें कुश्ती और बंदर को प्रशिक्षित करते हुए व्यक्ति का छायांकन किया गया। दादा साहब फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को पहली भारतीय फिल्म का दर्जा प्राप्त हुआ। ए ईरानी ने 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में ‘आलमआरा’ को प्रस्तुत किया जो की पहली बोलती फिल्म ने भारत में धूम मचा दी।5 इस फिल्म के साथ सिनेमा माध्यम श्रव्य के साथ-साथ दृश्यात्मक बन गया और सवाक होने के कारण आकर्षक और सजीव माध्यम के रूप में उभरा। सिनेमा में परंपरागत कलाओं के साथ-साथ आधुनिक कलाओं का भी संगम होता है। सिनेमा में लेखन , कल्पना , रूप विन्यास , नृत्य कला , प्रकाश व्यवस्था और ध्वनि पद्धति का प्रयोग भी प्रभावी माना जाता है। कहानीकार , संवाद लेखक , पटकथा लेखक , अभिनेता , अभिनेत्री , सहायक कलाकार , गीतकार , संगीतकार , रूप सज्जाकार , ध्वनि संचालक , निर्माता-निर्देशक , छायाकार आदि सभी सिनेमा की पृष्ठभूमि में रहकर फिल्म निर्माण में अपनी भूमिका अदा करते हैं। दादा साहब फाल्के ने लिखा है ,सिनेमा मनोरंजन का उत्तम माध्यम है लेकिन यह ज्ञान वर्धन का भी बेहतरीन माध्यम है। देश में सर्वाधिक फिल्में बनती हैं जो हिंदी के अतिरिक्त प्रादेशिक भाषाओं में भी होती हैं जो फीचर, बाल समाचार, विज्ञापन आदि फिल्मों के रूप में तैयार होती हैं।‘6

हिंदी फिल्मों ने किसी विषय को भी अछूता नहीं छोड़ा चाहे प्रेम, युद्ध, धर्म, एकता, इतिहास, स्वतंत्रता, दहेज की समस्या, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण, अनाचार, अत्याचार, किन्नर आदि सभी विषयों के प्रति सचेतता का भाव मिलता है। सिनेमा लाखों लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के क्षेत्र मुहैया करवाता है। सुशील सिद्धार्थ जी ने लिखा है, ‘’सिनेमा में लेखन क्षेत्र में सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक दक्षता का योग अत्यंत आवश्यक है। 5 या 10 पृष्ठों की कहानी या कल्पना को लंबी पटकथा में डालने हेतु कतिपय प्रसंग जोड़ने घटाने पड़ते हैं। ऐसा करते समय पर्दा माध्यम के अनेक तत्व बजट अभिनय, छायांकन, स्थान, वातावरण, दर्शकों की मानसिकता आदि का ध्यान रखना पड़ता है। सिनेमा लेखन में कथा, विचार, कथासार, पटकथा, पात्र, संवाद आदि तत्वों पर विचार करना होता है।‘’7

फिल्म लेखन ने सैद्धांतिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक दक्षता का योग भी अनिवार्य माना जाता है। डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का उद्देश्य जनसाधारण को विकास की सूचना देना और विभिन्न विषयों के संबंध में प्रशिक्षित करना भी होता है। यह डॉक्यूमेंट्री सूचना पर आधारित होती है और सूचनाओं को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। पटकथा लेखक अपने अनुभव , व्यवहारिक ज्ञान और घटित घटनाओं आदि का सहारा लेकर कहानी का विस्तारण करते हैं। साहित्य की विधाओं का दृश्य माध्यमों में रूपांतरण एक नई विधा बन कर उभरा है । भारत में रविंद्र नाथ टैगोर , शरद चंद्र , कमलेश्वर , फणीश्वर नाथ रेणु , भीष्म साहनी , मोहन राकेश , धर्मवीर भारती , आर. के.नारायण आदि कथाकारों की रचनाओं का फिल्मों में रूपांतरण किया गया है ।8 फिल्मों के इतिहास में आनंदमठ और दो बीघा जमीन फिल्में भी बनी है। फिल्म निर्देशकों में सत्यजीत राय, मृणाल सेन, मणिकांत, श्याम बेनेगल, गिरीश कर्नाड, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी आदि ने भारत में विख्यात साहित्यकारों की प्रसिद्ध रचनाओं को चुनकर फिल्में बनाई हैं। इस संबंध में जबरी पारिख का कथन अवलोकनीय है, ‘’साहित्यिक रचना के रूप में फिल्मकार को एक बनी बनाई कहानी मिल जाती है।एक रचनाएं कच्चे माल की भांति हैं जिन्हें मनोरंजन और उत्पाद के रूप में परिवर्तित करके दर्शकों के सामने परोसा जाता है।‘’9 हिंदी फिल्मों के गीत, संगीत में हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में अभूतपूर्व योगदान दिया है। पर्यटन स्थलों पर हिंदी फिल्मों के गीत संगीत की धुन सुनी जा सकती है। फिल्मी गीतकारों में नरेंद्र शर्मा, शैलेंद्र कुमार, सरस्वती कुमार, दीपक, प्रदीप, आनंद बक्शी, अमृतलाल नागर, गोपालदास नीरज और संवाद लेखन में कमलेश्वर जैसे हिन्दी साहित्यकारों का नाम लिया जाता है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने की सुधीर जो परंपरा चली आ रही है जिनमें सेवा सदन, गबन, कफन, निर्मला ,गोदान,चित्रलेखा, सारा आकाश, बदनाम बस्ती, आंधी, मौसम, नदिया के पार, हम आपके हैं कौन, दुविधा, नदिया के पार, सूरज का सातवां घोड़ा, ,मजदूर, उसने कहा था, तीसरी कसम, उसकी रोटी, रजनीगंधा, सद्गति, परिणति , गाइड, सरस्वतीचंद्र, काबुलीवाला, अर्थ, सारा आकाश, कोख, पतंग, आधे अधूरे, रुदाली, साहब बीवी और गुलाम , नौकर की कमीज रचनाएं उल्लेखनीय हैं।।

हिंदी सिनेमा एशियाई संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। जुरासिक पार्क, जंगल बुक, डिज्नी लैंड आदि अंग्रेजी फिल्मों ने हिंदी भाषा में अनूदित होकर आर्थिक व्यवस्था का रिकॉर्ड तोड़ा है। हिंदी फिल्मों के सहारे हिंदी भाषी समाज भी हिंदी में अभिरुचि लेने लगा है। सत्यजीत रे के शब्दों में, ‘’सिनेमा साधन है चरित्र और स्थिति के विकास की सच्ची अभिव्यक्ति का।  छायांकन की बारीकियों और गहराई में, भावना की प्रखरता में, साधनों की सीधे-साधे सही और सशक्त प्रयोग में, सिनेमा के समानता कोई कला नहीं कर सकती।10  यूनेस्को के एक प्रतिवेदन के अनुसार सुझाया गया है कि दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 700 फिल्म साल में भारत में बनती हैं जो कि फिल्म निर्माण क्षेत्र में सबसे अग्रणी है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हिंदी फिल्मों को प्रगति की दिशा की ओर उन्मुख कर रहे हैं। जर्मनी में भारतीय फिल्मों अनुदित करके हिंदी भाषा का अत्यधिक प्रसार हुआ है। इटली का चैनल रियोउनो सप्ताह में दो बार हिंदी फिल्में दिखाने के लिए घोषणा कर चुका है।11 विदेशों में मनाए जा रहे फिल्म समारोह हिंदी फिल्मों के माध्यम से वैश्विक धरातल पर हिंदी को पहुंचाने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।  जर्मनी में भारतीय फिल्मों को जर्मन में डूब कर गानों को मूल रूप में सुरक्षित रखा जाता है। भारतीय हिंदी फिल्मों के निर्माण में विदेशी सरकारों से भी सहायता मिली है। 2006 में सिंगापुर सरकार के सहयोग से राकेश रोशन ने कृश फिल्म का निर्माण किया। अंग्रेजी फिल्मों का हिंदी संस्करण भी हिंदी भाषा को वैश्विक स्तर पर प्रचारित और प्रसारित करने में योगदान दे रहा है। जुरासिक पार्क, जंगल बुक, डिज्नी लैंड आदि फिल्मों ने हिंदी में डब होकर रिकॉर्ड तोड़ पैसा कमाने का कमाल कर दिखाया है।12 टाइटेनिक फिल्म के हिंदी संस्करण में कुछ काव्यात्मक पंक्तियां हिंदी संवादों में सुनाई पड़ती हैं:-

                          औरत के जज्बात समंदर की तरह होते हैं।

                   उस परी को पाने का ख्वाब मानव परी को कैद करने जैसा है।13

हिंदी फिल्में वैश्विक धरातल पर भी लोकप्रियता अर्जित करने में सफल रहे हैं, इससे हिंदी भाषा का सार्वभौमिक रूप दिखाई देता है। हिंदी सिनेमा और हिंदी भाषा का भावनात्मक जुड़ाव होने के कारण हिंदी भाषियों के बीच वैकल्पिक भाषा अधिगम के रूप में हिंदी को स्थान मिला है। सिनेमा और हिंदी के समीकरण का भविष्य अधिक भव्य दिखाई दे रहा है। उपयोगिता और प्रतियोगिता के युग में हिंदी अपने विचार तथा उन तकनीकों पर युक्तियों के कारण व्यापक रूप में विस्तार धारण कर रही है। हिंदी भाषा की संभावनाओं पर सिनेमा विभिन्न योजनाएं तैयार कर रहा है जिससे संचार माध्यमों में हिंदी का स्वरूप और निखर कर सामने आएगा। सिनेमा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए हिंदी सिनेमा और हिंदी भाषा एक दूसरे के पूरक बनकर उभरे हैं। निश्चित रूप से भविष्य का सिनेमा साहित्य को चित्रित करने वाला सिनेमा ही होगा और सिनेमा को संस्कारवान बनाने वाला साहित्य ही है।

 

सन्दर्भ ग्रन्थः

  1. चन्द्र कुमार, जनसंचार माध्यमों की हिंदी, क्लासिक पब्लिकेशन्ज़, नई दिल्ली,पृ 85
  2. अमरनाथ अमर, टेलीविजन : साहित्य और सामाजिक चेतना, आलेख प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृ. 37
  3. प्रहलाद अग्रवाल, हिंदी सिनेमा : बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, 2009, ,पृ 63
  4. सुधीश पचौरी, मीडिया और साहित्य, राजसूरय प्रकाशन, दिल्ली, 2000 ,पृ 134
  5. विनोद भारद्वाज, सिनेमा कल, आज, कल, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 2006, पृ.139
  6. वीरेंद्र सक्सेना, हिंदी सिनेमा: नीति और अनीति, पंकज बुक्स, नई दिल्ली, 2005, पृ.126
  7. विजय अग्रवाल, सिनेमा की संवेदना, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, 1995, पृ 42
  8. राही मासूम रजा, सिनेमा और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,2003, ,पृ 63
  9. जबरीमल्ल पारिख, हिंदी सिनेमा कि समाजशास्त्र, ग्रन्थ शिल्पी, नई दिल्ली,2006,पृ 69
  10. विद्युत सरकार, द वर्ल्ड आफ सत्यजीत रे, यू.बी.एस.पी.डी., दिल्ली,1993,पृ 27
  11. अनिल सारी, हिंदी सिनेमा : ऐन एनसाइडर्ज व्यू, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, नई दिल्ली,, 2010, ,पृ 63
  12. जबरीमल्ल पारिख लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, अनामिका, पब्लिशर्स, दिल्ली, 2001,पृ.136
  13. विश्वनाथ मिश्रा, हिन्दी चलचित्रों में साहित्यिक उपादान, हिंदी परचारक संस्थान, वाराणसी, 1980,पृ 120
  14. अमरनाथ अमर, इलैक्ट्रोनिक मीडिया : बदलते आयाम, हिन्दी बुक सैन्टर, नई दिल्ली, 2017, पृ. 89

ई स्त्रोत:-

www.cinemawithoutborders.com

www.southasiapost.org

Www.Indiareport.com

Www.world.rediff.com

डॉ. किरण ग्रोवर
एसोसियेट प्रोफेसर
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग , डी ए वी कॉलेज
अबोहर

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