समस्त प्रकृति परिवर्तनशील है। यदि इसमें समय-समय पर परिवर्तन ना हों तो इसकी एकरूपता, नीरसता बनकर रह जाएगी। प्रकृति के साथ साथ परिवर्तन का यह नियम समाज और सामजिक मूल्यों पर भी लागु होता है। किसी भी समाज के मूल्य उसमे रहने वाले लोगों की विचारधारा पर निर्भर करते हैं। इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि देश, काल या परिस्थितयों में परिवर्तन आने पर अनुपातिक रूप से मूल्यों में भी बदलाव होने लगता है। रामायण काल में जहाँ दो भाई एक दूसरे को राज्य सौंपने के लिए आतुर थे वहीं थोड़े समय पश्चात् महाभारत युग में ऐसे ही दो भाई एक दूसरे से राज्य छीनने पर आमादा हो गए। महत्वपूर्ण बात ये है कि जब संबंधों में कोई अंतर नहीं आया तो विचारों में कैसे आ गया। वस्तुतः यह काल और परिस्तिथि का प्रभाव था जहाँ पूरा समाज भिन प्रकार के मूल्यों की स्थापना करने में लीन हो गया। अतः एक समय में जो मूल्य हमारे लिए महत्वपूर्ण हों ज़रूरी नहीं की दूसरे समय भी हम उनके प्रति वैसा ही दृष्टिकोण अपनाएं। बदलते समाज की इस रूपरेखा को साहित्य में लम्बे समय तक उकेरा गया। अनेक भाषाओँ में भिन्न-भिन्न प्रवृतियों का वर्णन करते हुए विपुल साहित्य का निर्माण हुआ। बदलता समाज, बदलता मनुष्य और बदलती परिस्थितियों का साहित्य से इतर यदि कहीं सटीक विशलेषण मिल सकता है तो वह माध्यम है सिनेमा।

सिनेमा को मात्र मनोरंजन का साधन मानना उसके केवल एक पहलु का विश्लेषण अर्थात् एकांगी दृष्टिकोण का परिचायक होगा। सिनेमा ने अपने सौ साल से अधिक समय के सफर में यह साबित किया है कि बदलते सामाजिक मूल्यों को जितने बेहतरीन ढंग से वह प्रस्तुत कर सकता है उतना कोई अन्य विधा नहीं। इसमें दो राय नहीं है की सिनेमा, समझ का दर्पण होने के साथ-साथ साहित्य का दर्पण भी है। संस्कृत काल से लेकर हिंदी के आदिकाल, भक्ति एवं आधुनिक काल के लंबे दौर तक जितनी भी साहित्यिक एवं सामाजिक गतिविधियां रहीं, उन सभी को अलग-अलग विषयों के रूप में ढालकर फिल्मों का निर्माण होता रहा। हालांकि यह दौर लंबा था, फिर भी सिनेमा ने तुलनात्मक रूप से अत्यल्प अवधि में लगभग को समेटने का प्रयास किया। उदाहरण के तौर पर महाकाव्यों में नायक एवं नायिका की साफ-सुथरी आदर्श छवि सिनेमा का विषय रही। नायक धीरोदात्र, महाबलशाली, पराकर्मी, उच्च गुणों से युक्त, नायिका के अतिरिक्त किसी अन्य युवती पर आंख भी न उठाने वाला होना चाहिए। महाकाव्यात्मक नायक कि इन सभी शर्तों को सिनेमा ने लंबे समय तक पूरा किया। फिल्मों में यह सर्वथा ध्यान रखा जाता है कि यदि नायक पर बलात्कार का आरोप लग जाए तो किसी तरह ऐसी कहानी का ताना-बाना बुना जाता था कि असली गुनहगार खलनायक साबित होता था। धीरे-धीरे सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होने पर मनुष्य की तरह नायक भी हालात का शिकार होने लगा और उसकी ग्रे छवि समाज में ग्राहय मानी जाने लगी। हिंदी सिनेमा एकमात्र ऐसा साधन है जहां एक ही विषय को आधार बनाकर एक से अधिक फिल्मों का निर्माण हुआ है। इसमें ना केवल समाज की बदलती नब्ज़ को पहचाना गया है बल्कि दर्शकों के एक बड़े वर्ग को ही उससे सहमत होने पर मजबूर किया है। इस कड़ी में डॉन, नदिया के पार, हम आपके हैं कौन फिल्मों की पटकथा को समझा जा सकता है। जिस प्रकार आत्मा एक ही है लेकिन समय-समय पर वह अलग-अलग शरीर धारण करती है। कभी वह स्त्री के शरीर में निवास करती है तो कभी पुरुष के शरीर में, किंतु उसका आचरण शरीर परिवर्तन के अनुरूप ढल जाता है। वैसे ही फिल्म की पटकथा मनुष्य की आत्मा की तरह कार्य करती है। यदि पटकथा कमज़ोर होगी तो फिल्म भी बेजान साबित होगी दूसरी तरफ पटकथा में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि फिल्म का दर्शक वर्ग कौन सा है। एक समय जो परिस्थितियां दर्शायी गयी ठीक पचास साल बाद समाज में परिवर्तन आने पर वही परिस्थितियां अंधविश्वासी एवं दकियानूसी मानी जाएँगी इसलिए निर्देशक के लिए यह आवश्यक है की वह फिल्म से उन अंधविश्वासों को निकाल कर दर्शक वर्ग की रूचि के अनुसार घटनाओं का ताना बाना बने जिसमे फिल्म किसी बासीपन की शिकार ना हो, साथ ही दोहराव की स्तिथि से बचा जा सके। उदाहरण के लिए सत्तर के दशक में एक फिल्म आयी थी डॉन| जिसमें नायक दो भूमिकाएं निभाते हुए दिखाई देता है। एक खलनायक की, दूसरी सद्गुणों से युक्त महाकाव्यीय नायक की। फिल्म के आरम्भ में ही खलनायक की मृत्यु हो जाती है क्योंकि उस दौर की फिल्मों में खलनायक की मृत्यु होना अथवा उसे कानून के द्वारा सज़ा मिलना आवश्यक था यह सही भी है क्योंकि साहित्य हो या सिनेमा अच्छाई की बुराई पर जीत दर्शाना अवश्यम्भावी है , भले ही इस सत्य से हम सभी वाकिफ हैं की बुराई कभी समाप्त नहीं होती लेकिन सिनेमा में यही दिखाया जाता है कि खलनायक की मृत्यु के साथ अच्छाई और बुराई की स्थापना हो गयी। दर्शकों ने भी दिल खोलकर इस पटकथा को सराहा किन्तु जान इसी फिल्म का रीमेक आया तो समाज की विचारधारा एवं नायक के प्रति सहानुभूति में परिवर्तन आ  चुका था| अब यह ज़रूरी नहीं रह गया था कि नायक ही दर्शकों की तालियां बटोरे  बल्कि यहाँ उसी पटकथा ने दूसरा चोला पहन लिया था और सद्गुणों वाले नायक के स्थान पर खलनायक अपनी समर्थता का प्रदर्शन करता हुआ सबको चकमा देने में कुशल साबित हुआ। साथ की ग्यारह मुल्कों की पुलिस की आंख में धूल झोंकने में भी सफल हुआ। दर्शकों के एक बड़े वर्ग की सराहना फिल्म को मिली | इसके पीछे के कारणों पर विचार करें तो पाएंगे की जनता अब महाकाव्यीय नायक के धीरोदात्र चरित्र के स्ताहन पर मनचले, मनमौजी एवं सर्वशक्तिमान पुरुष को ही नायक के रूप में देखना पसंद करती है।यह सही है की सत्तर के दशक में सीधा-सादा नौजवान नायकत्व का पद पा जाता था किन्तु इक्कीसवीं सदी में जहाँ पद, पैसा, प्रतिष्ठा और पहचान ही प्रेम की पराकाष्ठा के लिए प्रयाप्त हैं वहां बाकी सब कुछ बेमानी हो जाता है।

प्रसिद्ध बांग्ला लेखक शरतचंद्र के उपन्यास देवदास को आधार बनाकर अनेक बार फिल्मों का निर्माण हो चुका है| सब की आत्मा वही है जिसमें पारो के प्रेम के प्रति दान के बदले में समय पर निर्णय न ले पाने की ग्लानि को देवदास शराब पीकर मिटाने का प्रयास करता है।ग्लानि भागने के लिए चंद्रमुखी के कोठे पर भी जाता है लेकिन अंत में ग्लानि पारो की दहलीज पर उसकी मृत्यु के रूप में ही समाप्त होती है। सन 1955 में पहली बार शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित जब देवदास फिल्म का निर्माण हुआ तो दर्शकों ने देवदास की ग्लानि एवं पारो के बेमेल विवाह को खूब सराहा, लेकिन पारो और चंद्रमुखी एक साथ बैठकर खूब हंस बोल सकती हैं यह शरद चंद्र ने नहीं लिखा क्योंकि उस समय कुली परिवार की स्त्रियों का नाचने वाली के फोटो पर जाना समाज को ग्रहण नहीं था साथ ही सामाजिक मानसिकता के अनुरूप इसमें ठाकुर की शान ओ शौकत एवं बेमेल विवाह की समस्या को भी उठाया गया था। 2002 तक आते-आते पारो, चंद्रमुखी और देवदास तीनों के स्वभाव में परिवर्तन आ गया। हालांकि फिल्म की आत्मा (पटकथा) के साथ ज्यादा छेड़छाड़ ना करते हुए मसाला परोसने की नियत से निर्देशक ने अपने लिए कुछ सहूलियतें बना ली। अब पारो अपने बूढ़े पति के सामने सन्यासिन की तरह नहीं रहती बल्कि खूब सज धज कर पूरी शानो शौकत के साथ जीना सीख चुकी है। हालांकि देवदास की अभी भी वही स्थिति है वह अब भी समय और जरूरत के अनुसार निर्णय न ले पाने की गिलानी शराब पीकर ही मिटाने में लगा है इतना ही नहीं वह चंद्रमुखी के कोठे का मार्ग भी नहीं भूला। समय की धारा ने चंद्रमुखी को अवश्य एक छोटा सा अवसर दिया है जहां वह जमीदारों की स्त्रियों के साथ थोड़े समय के लिए ही सही चिंटू हंसने बोलने लगी है। यहीं वह पारो से देवदास को भी मांग लेती है। निर्देशक यहां यह जानता है कि यदि देवदास की ग्लानि चंद्रमुखी तक ही सीमित होकर रह गई तो कदाचित दर्शक उसे नकार ना दें इसलिए वह अंत में देवदास को उसी पारो की दहलीज तक ले जाता है जहां ग्लानि अपना दम तोड़ देती है।  (इस समय तक आते-आते विवाह संबंधी जो सामाजिक बाधाएं हैं उसे यह पटकथा भली-भांति परिचित है यह खाप पंचायतें यह जाति बंधन जब तक जीवित है तब तक यह मान लेना चाहिए कि कहीं ना कहीं कोई ना कोई देवदास और पारो भी बनते रहेंगे।)

देवदास और पारो की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती यह वह प्रेमी है जो समाज और जाति के बंधनों को ना जाने कितनी सदियों से झेल रहे हैं। इसी परंपरा की अगली कड़ी है ‘देव डी’ परिस्थितियां यहां भी वही हैं देवदास और पारो का मिलन भाग्य को यहां भी स्वीकार नहीं किंतु देवदास इस बार शराब पीते पीते कोठे पर जाने के स्थान पर सेक्स वर्कर के यहां जाने में ज्यादा सहज महसूस करता है| पारो की स्थिति भी सुधर गई है। अब उसे जबरदस्ती बेमेल विवाह का शिकार होना नहीं पड़ता बल्कि वह एक जवान पति के साथ विवाह के आनंद में लीन है। हां कभी-कभी वह पति से झगड़ा होने पर पुराने प्रेमी को याद कर लेती है किंतु कभी-कभी। चंद्रमुखी भी अब सेक्स वर्कर होने के नाते समाज में स्वयं को एक दर्जे ऊपर ले आई है। यदि दोनों स्त्रियों की तुलना में पुरुष की स्थिति पर गौर करें तो पाएंगे कि वह यहां भी निर्णय न ले पाने की ग्लानि शराब के द्वारा मिटाने में लीन है। इतने लंबे अरसे बाद भी पुरुष अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाया और आज भी स्वयं को स्त्री से ऊंचे पायदान पर खड़े होने की गलतफहमी का शिकार बना हुआ है। यह अवश्य है कि पारो की दहलीज पर दम तोड़ने की इजाजत अब समाज उसे नहीं देता| हाल ही के दिनों में देवदास की ही दास्तां को एक नए अंदाज में परोसने का प्रयास हुआ फिल्म का नाम था कबीर सिंह। समाज में नायक का वर्णन इसी रूप में हुआ है कि वह पुरुष किसी भी परिस्थिति में अपना अपराध स्वीकार नहीं करता। ना ही उसमें इतना धैर्य ही है कि निर्णय की घड़ी में वह स्थिर रह सके और अनुकूल परिस्थितियों का इंतजार कर सके। हर बात में केवल जल्दबाजी चाहता है। चाहे वह प्रेम हो या संबंध।  कबीर सिंह भी इस दृष्टि से सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता लेकिन देवदास से दो कदम आगे बढ़कर शराब के स्थान पर तक पहुंच जाता है। 1955 का देवदास ड्रग्स लेने के बारे में सोच भी नहीं सकता था ना ही 2002 के देवदास की दृष्टि ही यहां तक जा पाई थी बल्कि यह कहना चाहिए इस समाज ने उसे इसकी इजाजत नहीं दी थी। किंतु यह उत्तर आधुनिक समाज का दौर है यहां सिनेमा में यदि नायक नायिका को बचाने जाएगा तो वह किसी विश्वयुद्ध से काम नहीं होगा। कबीर सिंह की ग्लानि इन सभी देवदास से एक दर्जे ऊपर की है वह भले ही लड़की के पिता का सामना ना कर पाए किंतु अव्वल दर्जे की ड्रग्स लेने में माहिर है। चंद्रमुखी अब फिल्म स्टार बन गई है लेकिन देवदास से प्रेम करने की गलती वह यहां भी करती है। इन सब में यदि किसी की स्थिति सुधरी है तो वह है पारो वह पिता की मर्जी से शादी तो कर लेती है किन्तु अपने पति से विद्रोह की स्थिति में ससुराल छोड़ समाज में अपनी जगह ढूंढने निकल पड़ी है यही से शायद स्त्री अस्मिता अपनी एक अलग पहचान का स्वप्न साकार करती महसूस होती है। हालाँकि इस समय तक आते-आते विवाह संबंधी जो सामाजिक बाधाएं हैं उसे यह भली-भांति परिचित करवाती है, ये खाप-पंचायतें, जाति बंधन जब तक जीवित हैं तब तक यह मान लेना चाहिए कि कहीं ना कहीं कोई ना कोई देवदास और पारो भी बनते रहेंगे। इनके माध्यम से समाज के मूल्य भी हर बार एक नए रूप में हमारे सामने उपस्थित होते रहेंगे।

1982 में बनी नदिया के पार फिल्म ने नायक नायिका के लिए उपयुक्त पात्र को समाज के स्थान पर घर में ही तलाशना आरंभ कर दिया। अब दीदी का देवर भी नायिका के लिए उपयुक्त पात्र बन चुका था। फिल्म की सफलता ने नए आयाम निर्मित किए, किंतु इसी पटकथा पर बनी फिल्म हम आपके हैं ने दर्शकों को बताया कि दीदी का देवर अब कंकरिया मारकर भी छेड़छाड़ कर सकता है।ये नायक-नायिकाएं अब गाँव के भोले भाले युवक-युवती नहीं रह गए हैं बल्कि शहर में रहने वाले लोग हैं जिनके पास मिलने के अनेक अवसर मौजूद हैं। अब यह परिवार की नजरें बचाकर बाकी समाज के सामने खुल्लम-खुल्ला प्रेम आलाप में लीन हो सकते हैं। नदिया के पार एवं हम आपके हैं कौन में केवल 12 वर्ष का अंतराल है किंतु इस अंतराल में समाज ने बेहद तरक्की कर ली है। प्रेम पूरे तौर पर बदल चुका है अब वह पेड़ के आसपास खड़े होकर और मन के भीतर महसूस किया जाने वाला भाग नहीं है बल्कि उसे सामाजिक स्वीकृति भी मिलने लगी है। इतना ही नहीं नायक नायिका के मिलन स्थलों की संख्या में भी आनुपातिक रूप से वृद्धि हुई है।

डॉ. नीतू गुप्ता
दौलतराम कॉलेज
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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