जब साहित्य को सिनेमा में रूपांतरित किया जाता है। तो कई प्रकार की समस्याएं सामने आती हैं। क्योंकि साहित्य और सिनेमा दोनों अलग-अलग विधा हैं। दोनों के निर्माण का तरीका-प्रक्रिया सब अलग है। कथा-साहित्य लेखन की एक रचनात्मक कला है और सिनेमा उपादेयता हेतु प्रमुख जरूरत है। कहानी और कहानी को सिनेमा में रूपांतरित करते हुए, कई ऐसी समस्याएं आती हैं जिनका सामना सभी फिल्मकारों को करना पड़ता है। ये समस्याएँ कई प्रकार की होती हैं। “साहित्यिक कृतियों को फिल्मी भाषा और संरचना में व्यक्त करने में कई स्तरों पर ढाँचागत तनाव उत्पन्न होता है। पटकथा, चरित्र, साज-सज्जा जैसे अनेक संबंधों के साथ कहानी को फिल्म के जरिए कहने में एक अलग भाषा की दरकार होती है।”[i] अक्सर ये समस्याएँ लगभग हर फिल्मकार के लिए एक समान होती हैं। जैसे प्री-प्रोडक्शन के लिए लेखन की समस्या, पटकथा, फिल्मांकन, मूलकथा का बचाव, समय और दर्शक की मांग का दबाव आदि इस प्रकार कई समस्याएँ साहित्य से सिनेमा माध्यम रूपांतरण में आती हैं। इन सभी समस्याओं और उसके समाधानों की हम संक्षेप में निम्नलिखित विमर्शों के रूप में चर्चा करेंगे। जैसे-

प्रीप्रोडक्शन (पूर्व प्रस्तुति) की समस्याएँ:- फिल्म को बनाने से पूर्व सम्पूर्ण कथा को यहाँ तक की पूरी कहानी को परदे के अनुसार लिखा जाता है। इसमें पटकथा, संवाद और सारी ऐसी बातें जो फिल्मांकन करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए। वो सभी  एक व्यवस्थित तरीके से लिखे जाते हैं। इस विषय पर हम उपरोक्त फिल्म की प्रक्रिया के दूसरे चरण के रूप में चर्चा कर चुके हैं। इस विषय पर कई पुस्तकें लिखी गईं। जैसे राजेन्द्र पांडे की पटकथा कैसे लिखें, असग़र वजाहत की पटकथा लेखन व्यवहारिक निर्देशन, डॉ. हरीश नवल की छोटे परदे का लेखन, मनोहर श्याम जोशी की पटकथा लेखन: एक परिचय और अनुपम ओझा की ‘भारतीय सिने सिद्धांत’ और कई पुस्तकें हैं। प्री-प्रोडक्शन करते समय मनोहर श्याम जोशी ने लिखा है कि “पटकथा लिखते समय आपको अपने मन की आँखों से सारी घटना अनिश्चित वर्तमान काल में घटित हुई देखनी होगी और उसी रूप में उसे कागज पर उतारना होगा।”[ii]   वास्तव में फिल्म प्रक्रिया के इस चरण की कई सारी समस्याएँ और प्री-प्रोडक्शन के सामने आने वाली रुकावटें सभी का वर्णन विस्तृत रूप सा है। आज पटकथा यानी स्क्रिप्ट का निर्माण करते समय, फिल्म उत्पादन से संबंधित सभी जरूरतों, प्रबंध, प्रकाश-व्यवस्था, सारी व्यवस्था को प्री-प्रोडक्शन में लिखा जाता है। दृश्य-श्रव्य माध्यम का लेखन अलग प्रकार से होता है, टीवी लेखन अलग है सिनेमा का लेखन अलग है।

वास्तव में सिनेमा लेखन की कई शैलियाँ हैं जिसमें उसे लिखा जाता है। जैसे ‘इसकी निम्नलिखित शैलियाँ हैं- कल्पनावादी शैली और यथार्थवादी शैली, इसे लिखते हुए दर्शकों का भी ध्यान रखा जाता है क्योंकि इनमें कई कलाओं का संगम है और इसमें रोचकता लाना बड़ा ही कठिन होता है। इसलिए उसे लिखते समय स्थाई तौर पर सुलझी शैली, रोचकता, दर्शकों के दिल तक पहुँचने वाली आत्मीय कला अपनानी पड़ती है।’[iii] पूरी फिल्म को निर्देश से पूर्व पटकथा ही दिशा निर्देश करती है। पश्चिम में पटकथा को पहले सजिल्द तैयार किया जाता है। फिर किसी फिल्म को शुरू किया जाता है उससे पहले स्क्रिप्ट सभी संबंधित लोगों तक पहले ही पहुँच जाती है। सभी पहले ही स्क्रिप्ट पढ़ लेते हैं। रिहर्सल और उसके बाद सेट पर सब अपनी स्क्रिप्ट पढ़कर और लेकर आते हैं। यही फिल्म का अनुशासन भी है। मगर इसके विपरीत हमारे यहाँ स्क्रिप्ट पढ़ना भी जरूरी नहीं समझा जाता है। एक बड़ा अभिनेता ज्यादातर पूरी प्रोडक्शन एक तरफ वो अपने को अलग ही आंकता है और दर्शक के प्रेम के चलते उसमें अहम आ जाता है। दर्शक उनके काम को प्यार करते हैं, मगर वो उसे अहम् में तब्दील कर देते हैं। वास्तव में यह एक ऐसी स्थिति है जो अभिनेता को उसकी योग्यता से बहुत दूर ले जाती है। आज इंडिया में सिनेमा के अनुशासन का अनुसरण करने वाले गिनती के ही फ़िल्मकार और फिल्म प्रेमी हैं। क्योंकि सभी आसान रास्ते अपनाते हैं और अपनी सहूलियत के हिसाब से फिल्म बनाते हैं। जो फिल्म को कमजोर बना देती है। इसका सबसे बड़ा उपाय या समाधान यही है कि आज हम पहले फिल्म के पूरे अनुशासन को समझें और उसका अनुसरण, फिर उसका निर्माण करें। ताकि फिल्म को उसकी ईमानदारी के साथ तैयार किया जा सके; दर्शकों और समाज को एक उत्तम कोटी का सिनेमा प्रादन करें। इस प्रकार सिनेमा की प्री-प्रोडक्शन की समस्याओं और समाधान को संक्षेप में जान सकते हैं।

फिल्मांकन (उत्पादन) में मूलकथा को बचाने की समस्या :

आज के बदलते दौर में सिनेमा और उसके सिद्धांत और उसका प्रारूप समय के अनुसार बदल रहा है। जिसका प्रभाव फिल्मांकन के तरीके पर भी पड़ रहा है। वास्तव में आज के समय के अनुरूप जो सिनेमा का निर्माण किया जा रहा है। उसमें आज के अनुसार कई ऐसे तथ्य या चीजें हैं जो जोड़े और घटायें जाते हैं। साथ ही तत्कालीन परिवेश के अनुसार फिल्म को प्रभावी बनाने के लिए तैयार किये जाते हैं और कई बार ऐसा होता है इसके चलते मूल कहानी की कथावस्तु के खोने का भी खतरा होता है।

आज लगभग ज्यादातर निर्देशक फिल्म को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए आज के और यथार्थ से जोड़ने के लिए फिल्म में नई-नई चीजें जोड़ते हैं। जो कई बार फिल्म के लिए चयनित की गई कहानी का भी मूल सन्देश और कथानक पर हावी हो जाता है जिससे फिल्म में मूल कथा को बचाना मुश्किल हो जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सन् 1934 में प्रेमचंद द्वारा लिखी फिल्म ‘मजदूर’ है। यही नहीं, आज इसका प्रभाव साहित्य आधारित कई फिल्मों पर पड़ा है और ये एक विडंबना है कि किसी फिल्म का फिल्मांकन करते हुए जब तक फिल्म अपने अंतिम रूप में तैयार होती है। “फिल्म निर्देशन सिर्फ निर्देशनहीन है बल्कि प्रबंधन’ (Management) भी है जिसमें निर्देशक को फिल्म निर्माण से जुड़ी हुई विभिन्न आवश्यकताओं तथा व्यक्तियों का समुचित प्रबंध करना होता है और इस कार्य के लिए उसे तकनीकी ज्ञान के अतिरिक्त मनोविज्ञान का ज्ञान भी होना चाहिए ताकि आवश्यकता के अनुरूप हर व्यक्ति को उचित रूप से प्रेरित किया जा सके।”[iv] जब फिल्म की कहानी का रूप बदल चुका होता है। इसका एक और बड़ा कारण है कि ‘सिनेमा की दुनिया का सबसे बड़ा सच है कि किसी भी सिनेमा में लिखा हुआ कुछ भी अंतिम नहीं होता है। पहले लेखक लिखता है फिर अपने हिसाब से निर्देशक लिखता है, फिर DOP यानी छायांकन का निर्देशक लिखता है, फिर फाइनेंसर अपने और बाज़ार के हिसाब से कुछ दृश्य उसमें लिखवाता है और फिर अंत में संपादक के टेबल पर वो अपने अनुसार फिल्म के समीकरण बनाता है और अपने अनुसार फिर फिल्म लिखता है। इस प्रकार पूरी फिल्म को न जाने कितनी बार अंत तक लिख दिया जाता है। इसलिए कई बार फिल्म की मूल कथा मर जाती है ।’[v] फिल्म में लेखक की मूल कहानी के आज के दौर या यथार्थ से जोड़ने और प्रभावी बनाने के चलते उसमें लेखक की मूल संवेदनाओं की हत्या हो जाती है। जो फिल्म की कहानी और लेखक के साथ अन्याय है। इसलिए निर्देशक की नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वह लेखक संग एक लम्बी बातचीत कर और दोनों की रजामंदी समन्वय भाव से ही फिल्म की पटकथा का निर्माण करें और फिल्म का निर्माण किया जा सके।

वैश्वीकरण व दर्शकों की मांग का दबाव

आज साहित्य और सिनेमा दोनों पर ही वैश्वीकरण का प्रभाव पड़ा है। साहित्य पर प्रवासी साहित्य  में  सम्पूर्ण विश्व में सभी भाषाओं का प्रचार प्रचुर मात्रा में हुआ है। जिससे एक बड़े फलक पर विश्व के तुलनात्मक साहित्य को भी एक बड़ी आधार भूमि मिल पाई है। वैश्वीकरण के कारण ही आज हम कई देशों के साहित्य, संस्कृति और उसके दुर्लभ ज्ञान को हम सरलता पूर्वक जान पाए हैं और वैश्वीकरण के कारण आज सिनेमा में भी अत्यधिक बदलाव आयें हैं। “वर्तमान दौर में दो बातें भारतीय सन्दर्भ में केन्द्रीय महत्त्व की रही है। एक भूमंडलीकरण के दबाव से उपजी आर्थिक उदारतावाद की नीतियों का बढ़ता वर्चस्व। दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक राजनीति के हाशिए पर जाने और सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी के केन्द्रीय जगह हासिल करने में लगातार मिलती कामयाबी।”[vi] ये हकीकत है कि भारतीय सिनेमा पर और साहित्य आधारित सिनेमा रूपांतरण पर भूमंडलीकरण के साथ यहाँ के राजनितिक,अंधराष्ट्रवादी भावना और बदलते परिप्रेक्ष्य का प्रभाव बढ़ रहा है। सिनेमा का तकनीकी विकास हुआ है, पश्चिम से हमने फिल्म निर्माण के कई सॉफ्टवेयर आज आयात किये हैं और यही नहीं 80 के दशक से ही आज तक वैश्वीकरण के कारण ही कई ग्राफिक एडिटिंग सॉफ्टवेर हमने आयत किये और आज अत्याधुनिक सिनेमा बनाने में समर्थ हो पाये हैं और सिनेमा विकसित होता जा रहा है। अगर आज हम देखें तो पाएंगे कि ‘फिल्म और अन्य कलाओं में बहुत अंतर रहा है। जैसे चित्रकला, संगीत, साहित्य और नाट्य-कलाओं के सृजन और प्रस्तुति में कम धन का खर्चा होता है। मगर इसके विपरीत फिल्म में बहुत धन खर्च होता है और अगर दर्शक ही फिल्म नहीं देखेंगे तो फिल्म किसी काम की नहीं रहेगी इसलिए फिल्म दर्शक के लिए भी बनाई जाती है। कई बार होता है निर्देशकों की पहली ही फिल्म चल नहीं पाती और वे इतने घाटे में चले जाते हैं कि लम्बे समय तक उन पर उसका असर रहता है और जो फिल्म में फाइनेंसर है उसको भी पैसा निकलना होता है। इस वजह से फिल्म में बाजारवाद, दर्शक और वैश्विककरण का प्रभाव पड़ता है और कई बार ये प्रभाव इतना नकारात्मक होता है की मूलकथा ही गायब हो जाती है।’[vii] इसलिए निर्देशक की ये जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वो बाज़ार, दर्शक, मनोरंजन, वितरक और मुख्य बात की फिल्म की मूल कथा को बचाकर रखे।

              आज सिनेमा और साहित्य दोनों पर वैश्वीकरण का प्रभाव है। सिनेमा में जहाँ दीन-दुनिया की वजह से वैश्वीकरण का प्रभाव है उसी तरह साहित्य पर भी इसका प्रभाव विदेशी साहित्य, अनुवाद, तुलनात्मक साहित्य, प्रवासी साहित्य और अन्य क्षेत्रों पर भी इसका व्यापक असर पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार के चलते उसको ध्यान में रखकर सिनेमा में निरंतर परिवर्तन आ रहे हैं और यही नहीं बाजार के साथ भी दर्शक की मांग बढ गई हैं। आज समाज की स्थिति की समझ और निरीक्षण के कारण दर्शक की डिमांड आज सिनेमा से बढ़ गई है। आज सिनेमा में लड़ाई, एक्शन, मनोरंजन, कहानी, संवेदना सभी चीजें सिनेमा पर प्रभाव डालती हैं और साहित्य पर भी वैश्वीकरण के प्रभाव और सिनेमा के दर्शक की आज की डिमांड आदि सभी को ध्यान में रखा जाता है। वास्तव में आज साहित्य और सिनेमा पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। इसलिए आज साहित्य और सिनेमा के प्रारूप निरंतर समय अनुसार बदलाव और संशोधन के अवसर, सभी चीजें बड़ी शिद्दत से बनती हैं। इसलिए दोनों पर वैश्विक स्तर और दर्शक की मांग का भी दबाव बना रहता है। इसका समाधान यही है। कि सिनेमा में आज से जुड़ी सार्थक चीजों को जोड़ा जाये जो जरूरी हैं और दर्शक की आज वक्त की मांग को भी ध्यान में रखा जाये। कि इन सबसे इतर हटकर विशेष रूप से ये ध्यान दिया जाये। सिनेमा में, फिल्म की मूल कहानी की हत्या नहीं होनी चाहिए और उसके साथ ही सारे प्रयोग के साथ मूल कथा संरक्षण का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। जिससे सभी गुणों के साथ एक निपूर्ण सिनेमा का निर्माण करने का प्रयास किया जाये। क्योंकि ये दबाव तो फिल्मकार पर रहेगा ही मगर इसके बावजूद भी अगर एक अच्छे सिनेमा के निर्माण का जतन करते हैं तो धीरे-धीरे सहित्य और सिनेमा में सार्थक परिवर्तन आयेंगे। जो दोनों के लिए सकारात्मक परिवर्तन हैं।

रूपांतरित विधा का प्रभाव

हमने ‘तहरीर’ के रूपांतरण पर उपरोक्त विस्तृत रूप से चर्चा की। वास्तव में अब सवाल ये उठता है। कि लेखक द्वारा लिखी कहानी पर फिल्म का निर्माण किया जा रहा है। क्या वो रूपांतरित सिनेमा में उतना प्रभावित है जितना कि मूल कहानी में था। जितना अस्वादन जितना आनंद पाठक कहानी को पढ़कर ले रहा था? क्या उतना ही प्रभाव फिल्म को देखने के बाद दर्शक पर पड़ रहा है? जिस प्रकार पाठक जब कहानी का अध्ययन करता है तो उसके मन में कहानी की घटनाओं के चित्र बनने लगते हैं। वो अपने मन में एक अद्भुत चलचित्र के माध्यम से देखता है और जब ये कहानी साहित्य से फिल्म रूपांतरण के उद्देश्य से उठाई जाती है तो उसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है। कि सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है। जो हर वर्ग के दर्शक के पास अपने प्रभाव के साथ पहुँचता है। लेकिन जो कहानी पाठक के मन में पठन के बाद एक अद्भुत चलचित्र बना रही थी। क्या सिनेमा उस पर खरा उतर पाया है? क्योंकि सिनेमा में निर्देशक अपने, यथार्थ के और दर्शक की मांग के अनुसार कहानी को प्रभावी बनाने के लिए उसमें अपने कुछ प्रयोग करतेहैं। मगर जब कहानी पूरी रूपांतरित हो जाती है। तब पता चलता है कि कहानी का प्रभाव ज्यादा था, जो निर्देशक ने अपने अनुसार जो प्रयोग किये हैं उसमें वो सफल हो पाया है या नहीं। सबसे बड़ा सवाल ये है कि फिल्म भी उतनी प्रभावी है जितनी की वो मूल कथा थी। ज्यादा प्रयोग के चलते कहानी की सारी मूल कथा वस्तु से भी दर्शक भटक गया है। क्योंकि प्रभावी बनाने से कतई भी ये नहीं है कि निर्देशक मूलकथा की भी हत्या कर दे। इसका उपयुक्त समाधान ये हो सकता है। जैसा कि उपर्युक्त में चर्चा भी की गई है कि निर्देशक को फिल्म के आरम्भ या जब भी उसे भटकाव महसूस हो तो उसे लेखक या कहानी को पुन: देखना चाहिए या लेखक से उसके द्वारा वर्णित की संवेदना को समझना चाहिए फिर कदम आगे बढ़ाने चाहिए । रूपांतरण “साहित्य और फिल्म की रचना-प्रक्रिया पर विचार करते हुए सत्यजित रे कहते हैं- मैं किसी कहानी या उपन्यास को उसके कुछ तत्वों की वजह से चुनता हूँ; जो मुझसे अपील करते हैं। पटकथा लिखने की प्रक्रिया में उसकी कथा वस्तु संभवत: परिवर्तित की जाए, लेकिन अधिकांश मूल तत्व सुरक्षित रखे जाएँगे।”[viii] जैसा कि उपरोक्त उद्धरण में चर्चा भी की गई है कि निर्देशक कुछ अपनी स्वतंत्रता तो अपने दायरे तक लेता है। मगर सत्यजित रे ने उसके प्रति ईमानदारी को भी बताया है। वास्तव में रूपांतरण के गुर बताते हुए मनोहर श्याम जोशी भी लिखते हैं कि ‘रूपांतरण में घटनाएँ घटती हुई दिखनी चाहिए। सहायक पात्र और कहानी के इर्द-गिर्द उपकथानक बुन डालने चाहिए सभी घटनाओं को क्रमवार रूप से लगा देना चाहिए ताकि घटनाएँ  पिरोने के बाद नाटकीयता उत्तरोतर बढती नजर आयें। इस गुर का ‘तीसरी कसम’ कहानी में भरपूर उपयोग किया है। रूपांतरण में संवादों को रोजमर्रा की बोलचाल के अधिक निकट लाने की कोशिश करें।’[ix]  इस प्रकार रूपांतरण सिनेमा और ज्यादा प्रभावी बन सकता है और जो कथा साहित्य से ली गई है उसकी मूल कथा का भी बचाव किया जा सकता है।

बदलते यथार्थ का पटकथा और फिल्मांकन पर प्रभाव

आज समय निरंतर बदल रहा है। तकनीक विकसित हो रही है। दर्शकों की मांग भी समय के अनुरूप बढ़ रही है जिसका सीधा प्रभाव आज के सिनेमा के पटकथा लेखन पर पड़ रहा है और पटकथा लेखक के द्वारा रची पटकथा के द्वारा फिल्मांकन पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि सिनेमा पटकथा का ही अनुसरण करता है। आज समय  मशीनी युग है और दर्शक भी पूर्ण रूप से जागरूक है। इसलिए न तो दर्शक को पागल समझा जा सकता है और न तकनीक से समझौता किया जा सकता है। जिसके कारण आज सिनेमा पर इस भाग-दौड़ वाली जिन्दगी, आधुनिकता का और आज के परिवेश का सभी का फिल्मों पर बराबर प्रभाव पड़ा है। जो समाज को भी बदलते समय का बदलता सिनेमा दे रहा है। इसलिए हम इनका प्रभाव आज के सिनेमा पर देख सकते हैं। कि जहाँ सिनेमा को फिल्म तैयार करने में कई वर्ष लगते थे। आज कई फिल्म 1 से 2 माह के भीतर तैयार हो जाती हैं। फिर आज न जाने क्यों साहित्याधारित सिनेमा निर्माण करने से निर्देशक बचते हैं। जबकि साहित्य से ही सिनेमा की शुरुआत एक अच्छे दौर में तालमेल से  होने के बावजूद भी साहित्य सिनेमा से आज अछूता है। इसके दो ही कारण समझे जा सकते हैं या तो वे सिनेमा के योग्य साहित्य की कथाओं को नहीं समझते या पूँजीवाद का उनके सर पर बुखार है या समान्तर सिनेमा का वह सिर्फ नाम ही जानते हैं काम नहीं। वास्तव में प्रसिद्ध की दौड़ में वे इतने अंधे हो चुके हैं कि उनको उद्योग और प्रसिद्धि के आलावा साहित्य की कला कतई नहीं दिखती है। वे केवल सिनेमाई लेखको ही अपने सिनेमा का लेखक मानते हैं और साहित्य के लेखक का उनके नजरिये में कोई स्थान नहीं है।

सन्दर्भ ग्रंथ सूची :-

  1. कुमार डॉ. विपुल (2014), साहित्य और सिनेमा अंत:संबंध और रूपांतरण, दिल्ली : मनीष पब्लिकेशन, पृष्ठ 105
  2. जोशी मनोहर श्याम (2000), पटकथा लेखन एक परिचय, नई दिल्ली : राजकमल, पृष्ठ 17
  3. पांडे राजेन्द्र (2006), पटकथा कैसे लिखें, नई दिल्ली : प्रकाशक राधाकृष्ण, पृष्ठ 55
  4. सिन्हा कुलदीप (2007), फिल्म निर्देशन, नई दिल्ली : प्रकाशक राधाकृष्ण, पृष्ठ 32
  5. अग्रवाल प्रहलाद, सम्पादक (2009), हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक, प्रगतीशील वसुधा एवं प्रहलाद अग्रवाल,इलाहाबाद, प्रकाशक साहित्य भंडार, पृष्ठ 157
  6. पारख जवरीमल्ल (2006), हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र, लक्ष्मी नगर दिल्ली- 94, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, पृष्ठ 94
  7. कुमार डॉ. विपुल (2014), साहित्य और सिनेमा अंत: संबंध और रूपान्तरण, दिल्ली: मनीष पब्लिकेशन, पृष्ठ 85
  8. जोशी मनोहर श्याम, (2000) पटकथा लेखन एक परिचय, नई दिल्ली : राजकमल, पृष्ठ 24
नीरज छिलवार

 

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