हिन्दी साहित्य के अविस्मरणीय एवं लोकप्रिय लेखक प्रेमचन्द जी ने हिन्दी में कहानी और उपन्यास को सुदृढ़ नींव प्रदान की और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी चित्रण से देशवासियों का दिल जीत लिया। ऐसे में हिन्दी कथा-साहित्य के इतिहास में प्रेमचन्द का आविर्भाव एक ऐतिहासिक एवं युगान्तकारी घटना के रूप में स्मरणीय है। इतिहास और साहित्य में कभी-कभी ही ऐसी प्रतिभाएँ जन्म लेती हैं जो अपने युग को नई दिशा की ओर मोड़कर विकास के नई ऊचाईयों की ओर ले जाती है।
प्रेमचन्द मूलतः रचनाकार थे। उन्होंने साहित्य प्रतिपादन के लिए स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना नहीं की, किन्तु उनके कुछ भाषणों या व्याख्यानों के पुस्तक रूप में प्रकाशित हो जाने से हम उनके विचारों एवं सिद्धान्तों को प्रत्यक्ष रूप में देख सकते हैं। जैसे- ‘साहित्य का उद्देश्य’, ‘विविध प्रसंग’, ‘कुछ विचार’, ‘प्रेमचन्द के विचार’ आदि। प्रेमचन्द निश्चित ही कोई क्रमबद्ध साहित्य-शास्त्र नहीं दे पाये और उनका चिन्तन भी अधिकांशतः गद्य-साहित्य यथा-उपन्यास, कहानी तक ही अधिक सीमित रहा, लेकिन उन्होंने परम्परागत भारतीय काव्यशास्त्र तथा यूरोपीय साहित्य चिन्तन को आत्मसात् करके कथा का एक आधुनिक भारतीय शास्त्र देने का प्रयत्न अवश्य किया, जिसकी सार्थकता एवं प्रासंगिकता को चुनौती देने वाला कोई विकल्प अभी तक सामने नहीं आ सका है।
उल्लेखनीय है कि प्रेमचन्द साहित्य के माध्यम से मानव का उद्धार करना चाहते हैं तथा राष्ट्रीय चिन्तन को आधार बनाते हुए मानवता की बात करते हैं। इसी मानवतावाद को ध्यान में रखते हुए डाॅ. रामविलास शर्मा कहते हैं- ‘‘प्रेमचन्द का मानवतावाद उन्नीसवीं सदी के अनेक साहित्यकारों के मानवतावाद से भिन्न था। वह टॉलस्टाय जैसे महान लेखकों के मानवतावाद से भी भिन्न थे। वह राजनीति और संस्कृति की समस्या को गरीब जनता के दृष्टिकोण से देखने- परखने और हल करने के आदी थे।’’
कुछ आलोचक जैसे- डाॅ. नगेन्द्र एवं नन्ददुलारे बाजपेयी प्रेमचन्द को यथार्थवादी मानने से इंकार कुछ विद्वान उन्हें यथार्थवादी घोषित करते हैं। परन्तु ध्यातव्य यह है कि प्रेमचन्द ने आदर्शवाद एवं यथार्थवाद की कटु आलोचना की। उनके अनुसार- ‘‘Realism हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और हमारी क्रूरताओं का नग्न चित्र होता है। वास्तव में Realism हमको Pessimist बना देता है, मानव चरित्रों से हमारा विश्वास उठ जाता है। हमको चारों तरफ बुराई दिखाई देने लगती है। दूसरी ओर वह Idealism के सन्दर्भ में कहते हैं कि Idealism हमें ऐेसे चरित्रों से परिचित कराता है जिनके हृदय पवित्र होते हैं, जो स्वार्थ और वासना से रहित होते हैं जो साधु-प्रकृति के होते हैं। यद्यपि ऐसे चरित्र व्यवहार कुशल नहीं होते, उनकी सरलता उन्हें व्यवहारिक विषयों में धोखा देती है।’’
अब प्रश्न यह उठता है कि जब प्रेमचन्द अपने साहित्य को पूर्णता यथार्थवादी या आदर्शवादी मानने से इनकार कर देते हैं तब उनका साहित्य विचारधारा के किस धरातल पर खड़ा होता है? प्रेमचन्द अपने ‘उपन्यास’ नामक लेख में इस विषय पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि ‘‘हम वही साहित्य (उपन्यास) उच्चकोटि का समझते हैं जहाँ Realism और Idealism का समन्वय हो। उसे आप Idealistic Realism आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कह सकते हैं।’’
इसी प्रकार प्रेमचन्द ने नए युग के अनुरूप साहित्य की परिभाषा देते कहा है कि ‘‘साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ की गयी हैं, पर मेरे विचार में सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के या काव्य के उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।’’ प्रेमचन्द का मानना है कि साहित्यकार अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से अपने विषय को जितनी ऊँचाई तक ले जाएगा, उसके व्यक्तित्व में निजता की पहचान मिटती जाएगी और रचना में सामाजिक सच्चाईयों के साथ स्वदेशानुराग की भावना भी शामिल होगी। वहीं सच्चिदानन्द अज्ञेय का मानना है कि ‘‘रचनाकार अपने अहम को रचना के माध्यम से मुक्त करता है।’’ पर प्रेमचन्द जी रचना में अहम का प्रतिषेध मानते हैं। जिसके सम्बन्ध में रामविलास शर्मा कहते हैं कि- ‘‘प्रेमचन्द ऐसे अहमवादी नहीं थे कि उनके अहम के उद्धार का एक साधन कृतियों की रचना ही हो। वे अहम को मानवता में विलीन कर देना मानते हैं।’’
प्रेमचन्द साहित्य को परिभाषित करते हुए साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं। साहित्य की यह परिभाषा जीवन के विविध रूपों तथा कार्य- प्रणाली के उद्घाटन की माँग करती है। इसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्रियाकलाप अन्तर्निहित है। इन राजनीतिक, आर्थिक, तथा धार्मिक क्रिया कलापों का साहित्य से अनूठा संबंध है। समाज के विकास के साथ-साथ राजनीतिक क्रियाकलाप भी विकसित होते चले जाते हैं और यही विकसित होते राजनीतिक क्रियाकलाप साहित्य चिन्तन दृष्टि को रेखांकित करते हैं। मुंशी प्रेमचन्द का मानना है कि- ‘‘साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।’’
प्रेमचन्द का मानना था कि साहित्य में अनुभूति की तीव्रता हो, जीवन की सच्चाई हो, उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, जो आध्यात्मिक-मानसिक तृप्ति प्रदान करे, शक्ति और गति प्रदान करे, संकल्प और चारित्रिक दृढ़ता उत्पन्न करे तथा सुसुप्त ना करे, जाग्रत करे। और इतना ही नहीं, वह (साहित्य) मानव-जीवन से सम्बंधित समस्त समस्याओं पर भी विचार करता है, उनको हल करने का प्रयत्न करता है। मात्र आलोचना, जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। इसीलिए प्रेमचन्द कहते हैं कि साहित्य का लक्ष्य जीवन का सही रास्ता बताना है, जिससे उनकी पवित्रता एवं महानता बनी रहे- ‘‘साहित्य का उद्देश्य जीवन के आदर्श को उपस्थित करना है, जिसे पढ़कर हम जीवन में कदम-कदम पर आने वाली कठिनाइयों का सामना कर सकें। अगर साहित्य से जीवन का रास्ता न मिले, तो ऐसे साहित्य से लाभ ही क्या? जीवन की आलोचना कीजिए, चाहे चित्र खीचिएँ, आर्ट के लिए लिखिए, चाहे ईश्वर के लिए, मनोरहस्य दिखाइए, चाहे विश्वव्यापी सत्य की तलाश कीजिए, अगर उसमें हमें जीवन का अच्छा मार्ग नहीं मिलता तो उस रचना से हमारा कोई फायदा नहीं। साहित्य न चित्रण का नाम है न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का। ऊँचे और पवित्र विचार ही साहित्य की जान है।’’
साहित्य की उपर्युक्त परिभाषा से ऐसी ध्वनि निकलती है कि वह मानो ‘नीतिशास्त्र’ का पर्यायवाची हो। प्रेमचन्द साहित्य और नीतिशास्त्र का लक्ष्य एक मानते हैं। अन्तर केवल उपदेश की विधि में है। ‘नीतिशास्त्र’ का सम्बन्ध मस्तिष्क की तर्कशक्ति से है, जबकि साहित्य का हृदय भावों से। प्रेमचन्द कहते हैं कि- ‘‘नीतिशास्त्र और साहित्यशास्त्र का एक ही लक्ष्य है- केवल उपदेश की विधि में अन्तर है। नीतिशास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, तो साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है।’’
इस प्रकार साहित्य भावों के द्वारा मनुष्य को उसके मौलिक तथा अकृत्रिम यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है- ‘‘मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। जमाने के छल-प्रपंच या और परिस्थितियों के वशीभूत होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्ठा करता है, उपदेशों से नहीं, नसीहतों से नहीं। भावों को स्पन्दित करके, मन के कोमल तारों पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामंजस्य उत्पन्न करके।’’
इसी प्रकार साहित्य जाति के चरित्र-निर्माण में बहुत बड़ा हिस्सा बटाता है। साहित्यिक आदर्शों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए प्रेमचन्द कहते हैं- ‘‘किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और वाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किए हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे में न ढलते, तो राम न रहते। सीता भी उसी साँचेे में ढलकर सीता हुई।’’ इस प्रकार प्रेमचन्द साहित्य को मानवीय उत्थान का साधन मानते हैं और अपने पूर्व की महान सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करते हैं।
उल्लेखनीय यह है कि साहित्य का उद्देश्य केवल जीवन की आलोचना, जीवन की सच्चाईयों का उद्घाटन एवं सामाजिक समस्याओं अथवा व्यक्ति केन्द्रित समस्याओं का चित्रण ही नहीं है अपितु प्राकृतिक एवं लोकोत्तर रहस्यों की तलाश करना भी होता है। इस प्रक्रिया में वह (मानव) आनन्दित, अहलादित होता है। एक प्रकार से कहा जाए तो मानव जीवन की उस वास्तविक आनन्द की तलाश करता है जो मानवेत्तर जगत से परे है। इस आनन्द को प्राप्त करने की विधियाँ या मार्ग कई प्रकार के हो सकते हैं। साहित्य भी इनमें से एक माध्यम है। प्रेमचन्द कहते हैं- ‘‘जीवन का उद्देश्य ही आनन्द है। मनुष्य जीवन पर्यन्त आनन्द की खोज में पड़ा रहता है।’’ यहाँ आनन्द से अभिप्राय मात्र मनोरंजन अथवा भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति से नहीं है। प्रेमचन्द आनन्द को मानसिक तृप्ति के रूप में देखते हैं और इसी से आनन्द का आधार सुन्दर और सत्य बताते हैं। ‘‘किसी को वह (आनन्द) रत्न द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लम्बे-चैड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में, लेकिन साहित्य का आनन्द इस आनन्द से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुन्दर और सत्य है। वास्तव में सच्चा आनन्द सुन्दर और सत्य से मिलता है, उसी आनन्द को दर्शाना, वही आनन्द उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य है।’’ इसीलिए साहित्य की परिभाषा जीवन, आनन्द और सत्य और सुन्दर के मेल से बनती है। जो कुछ सत्य और सुन्दर है, वही साहित्य है।
साहित्य-प्रयोजन के सम्बन्ध में प्रेमचन्द की धारणा बिल्कुल स्पष्ट थी। वे ‘कला, कला के लिए’ के स्थान पर ‘कला जीवन के लिए’ सिद्धान्त-वाक्य में विश्वास करते थे। उनके (प्रेमचन्द) के साहित्य-सम्बन्धी चिंतन दृष्टियों में यह प्रमुख है कि साहित्य का सर्वोच्च आदर्श यह होता है कि उसकी रचना केवल कला के लिए न हो, ‘कला, कला के लिए’ का समय वह होता है जब देश सम्पन्न और सुखी हो। आज देश को भाँति-भाँति के राजनीतिक एवं सामाजिक बंधन जकड़े हुए है, दुःख और दरिद्रता के भीषण दृश्य दिखाई देते हैं, तब इस आदर्श का पालन कठिन है। आज यूरोप में भी विचार-प्रधान एवं विचार के प्रचार के लिए ही साहित्य लिखा जा रहा है। कला के सम्बन्ध में प्रेमचन्द के विचारों में कुछ असंगतियाँ भी दिखाई देती है, कहीं वे ‘कला के लिए कला’ का स्पष्ट समर्थन करते हैं तो कहीं सैद्धान्तिक रूप से उसका महत्व प्रतिपादित कर मात्र वर्तमान में उसकी उपादेयता स्वीकार करते हैं तो कहीं उसका खंडन भी करते हैं। एक स्थान पर ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त को साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श घोषित करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं- ‘‘साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना कला की पूर्ति के लिए की जाए। ‘कला के लिए कला’ के सिद्धान्त पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती।’’
उल्लेखनीय यह है कि मुशी प्रेमचन्द ‘कला कला के लिए’ का वही अर्थ नहीं लेते जो अन्य विद्वानों ने लिया है। वे इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि- ‘‘वह साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलम्बित हो। ईर्ष्या और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं। इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के कोई रचना हो ही नहीं सकती।’’
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रेमचन्द के लिए ‘कला के लिए कला’ का अर्थ कलावादियों का अर्थ नहीं है। वे उसे मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति समझते हैं। और इसी कारण सामयिक तथा शाश्वत साहित्य का प्रश्न सामने आता है। समसामयिक साहित्य और शाश्वत साहित्य के बारे में लिखते हुए प्रेमचन्द कहते हैं कि सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियाँ सामयिक साहित्य में कभी लोप नहीं हो जाती। और जब तक वे मौलिक प्रवृत्तियाँ उसमें विद्यमान हैं वह मिट नहीं सकता। चाहे उसका विषय कोई सामयिक समस्या हो और चाहें कोई शाश्वत सत्य। प्रेमचन्द उदाहरण देते हुए कहते है- ‘‘…टाम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है, पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें वह व्यापकता है कि हम लोग भी उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं। पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय में तबदीलियाँ नहीं होती। हर्ष और विस्मय क्रोध और द्वेष, आशा और भय आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत है।’’
अतः वे कलावादियों की तरह लेखक को देश-काल के बंधन से मुक्त करते, जब तक वह देशकाल का नहीं बनता, तब तक सर्वदेशीय और सर्वकालीन भी नहीं बन सकता। प्रेमचन्द लिखते हैं- ‘‘साहित्यकार बहुधा अपने देश-काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके रूदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है।’’
लेकिन प्रेमचन्द ने सामयिकता का मात्र ऊपरी स्पर्श नहीं किया था। जैसा डाॅ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘‘उनका (प्रेमचन्द) का उद्देश्य सामयिकता व देश-काल की विशेषता से परे नहीं था, उसका साहित्य सामयिकता की सतह को छूने वाला साहित्य नहीं था, उसमें गहराई से डूबने वाला देश काल की विशेषताओं के परस्पर संबंध को चित्रित करने वाला साहित्य था। इसीलिए वह इतना सशक्त और प्रभावशाली है।’’
प्रेमचन्द का साहित्य उपयोगितावादी साहित्य है। साहित्य जीवन के लिए होता है, वह जीवन के सत्य को प्रकाशित करता है। वह सौन्दर्य-वृद्धि भी करता है और जीवन के यथार्थ को सौन्दर्य में भी बदल देता है। उसे मनोरंजन का मनबहलाव के अर्थ में ग्रहण करने पर हम प्रेमचन्द की साहित्य की वास्तविकता से दूर चले जाएँगे। यहाँ प्रेमचन्द की उपयोगितावादी दृष्टि भारतेन्दु की उपयोगितावादी दृष्टि से भिन्न है। जहाँ भारतेन्दु हांस्य और नुक्कड़ के माध्यम से जन-जीवन तक अपनी बात पहुँचा देना चाहते हैं, वहीं प्रेमचन्द इस मत का विरोध करते हुए कहते हैं- ‘‘साहित्य का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाड़ो और मदारियों, विदूषक और मसकरों का काम है।’’ इस प्रकार कला और उपयोगिता के संबंध में प्रेमचन्द लिखते हैं- ‘‘मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ। निस्संदेह कला का उद्देश्य सौंदर्य की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनन्द की कुंजी है, पर ऐसा कोई रूचिगत, मानसिक तथा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो।’’
यहाँ भी आनन्द को प्रमुखता दी गई है। कला की उपयोगिता आनन्द से निमित्त भी है। जो साहित्यकार कला को उपयोगिता के दृष्टिकोण से ग्रहण करता है वही युग-धर्म को निबाहता है। ऐसा करने से वह मानव जाति को जीवन-आनन्द की ओर ले जाता है। आनन्द तक पहुँचना ही मानव जाति का लक्ष्य है।
इसके साथ-साथ प्रेमचन्द साहित्य के लक्षण की भी चर्चा करते हैं। प्रेमचन्द लिखते हैं- ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो जों हमें गीत, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलायें नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’
इसके साथ-साथ प्रेमचन्द सौन्दर्य-प्रेम पर जोर देते हैं और सौंदर्य कौन-सी वस्तु है? इसका उत्तर उदाहरण देते हुए बताते हैं- ‘‘यह प्रश्न निरर्थक सा मालूम होता है क्योंकि सौंदर्य के विषय में हमारे मन में कोई शंका-सन्देह नहीं। हमने सूरज का उगना और डूबना देखा है, उषा और संध्या की लालिमा देखी है, सुन्दर सुगन्धित फूल देखे हैं, मीठी बोलियाँ बोलने वाली चिड़ियाँ देखी है, कल-कल निनादिनी नदियाँ देखी है, नाचते हुए झरने देखे हैं- यही तो सब सौन्दर्य है।’’ लेकिन यह सौन्दर्य-भावना शारीरिक नहीं है। उसका स्वरूप मानसिक है जो हमारे हृदय का संस्कार करता है। सौन्दर्य को देखकर हम मुग्ध होते हैं, उत्तेजित नहीं।
साम्प्रदायिक-सद्भावना को साहित्य का लक्ष्य बताते हुए प्रेमचन्द साहित्य को दूषित करने वाले विचार को निन्दनीय ठहराते हैं- ‘‘जो साहित्य जीवन के उच्च आदर्शों का विरोधी हो, सुरुचि को बिगाड़ता हो अथवा साम्प्रदायिक सद्भावना में बाधा डालता हो, ऐसे साहित्य को यह परिषद हरगिज प्रोत्साहित न करेगी।’’ अतः साहित्यकार को उच्च भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति करनी चाहिए। प्रेमचन्द लिखते हैं कि- ‘‘साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। वह हममें वफादारी, सच्चाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और ममता के भावों की पुष्टि करता है। जहाँ ये भाव है, वहीं दृढ़ता है और जीवन है, जहाँ इनका अभाव है, वहीं फूट, विरोध, स्वार्थपरता है, द्वेष, शत्रुता और मृत्यु है।’’
इस प्रकार प्रेमचन्द यथार्थ और आदर्श के चिंतनशील सामाजिक-विषय को भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाने वाला विषय न मानकर (दर्शन न मानकर) उनका समाज के हित में समन्वय करते हैं। ‘‘वे साहित्य को समाज का दर्पण के साथ दीपक भी मानते हैं जिसका काम प्रकाश फैलाना है।’’
भाषा और साहित्य का परस्पर संबंध है इसीलिए साहित्य दृष्टि के साथ भाषिक दृष्टि का विवेचन महत्वपूर्ण है। इस प्रकार प्रेमचन्द एक ऐसी भाषा का विकास करना चाहते थे, जिसमें हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, स्थानीय व ग्रामीण आदि सभी शब्दों का व्यवहार हो तथा साहित्यिक रचनाओं में भी उनको यथास्थान प्रयुक्त किया जाए जिससे वो सामान्य जनता के हृदयगत भावों को जगाने में सहायक हो सके। उनके विचार से ऐसी भाषा जिसे बहुत थोड़े ही लोग समझ व पढ़ सकते हों, भारस्वरूप हो जाती है। वह जनता के आन्तरिक भावों को छूने में पूर्णतया सक्षम नहीं हो सकती है। वास्तव में जो भाषा सामान्य जनता के आन्तरिक भावों को व्यक्त करने की क्षमता रखती है वही लोकभाषा कही जा सकती है। ऐसी भाषा ही सफल साहित्यिक भाषा भी हो सकती है। प्रेमचन्द के शब्दों में- ‘‘ऐसी भाषा, जिसे लिखने और समझने वाले लोग थोड़े ही हो, मसनुई, बेजान और बोझिल हो जाती है। जनता का मर्म-स्पर्श करने की, उन तक अपना पैगाम पहुँचाने की उनमें कोई शक्ति नहीं रहती।’’
उनकी मान्यता यह थी कि भाषा या जुबान ऐसी हो कि जिसे सब समान रूप से सोच और समझ सकें। वो मानवता को गुलामी के घेरे, रूढ़ियों एवं स्वनिर्मित समस्याओं से मुक्त देखना चाहते थे। इस मुक्ति के लिए भाषाई एकता की जरूरत थी। इसीलिए उन्होंने दक्षिण भारत हिन्दी प्रसार-सभा में राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याओं पर विस्तार से प्रकाश डाला और स्पष्ट शब्दों में कहा- ‘‘जिस दिन आप अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व तोड़ देंगे और अपनी एक कौमी भाषा बना लेंगे, उसी दिन आपको स्वराज के दर्शन हो जाएँगे।… राष्ट्र की बुनियाद राष्ट्र की भाषा पर टिकी है।… भाषा ही वह बन्धन है, जो चिरकाल तक राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधे रहती है और उसका शीजरा बिखरने नहीं देती।’’
प्रेमचन्द भाषा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘भाषा बोलचाल की भी होती है और लिखने की भी। बोलचाल की भाषा तो मीर अम्मन और लल्लूलाल के जमाने में भी मौजूद थी पर उन्हें जिस भाषा की दाग बेल डाली, वह लिखने की भाषा थी और वही साहित्य है। बोलचाल से हम अपने करीब के लोगों पर अपने विचार प्रकट करते हैं- अपने हर्ष-शोक के भावों का चित्र खींचते है। साहित्यकार वही काम लेखनी द्वारा करता है। हाँ उसके श्रोताओं की परिधि बहुत विस्तृत होती है और अगर उसके बयान में सच्चाई है, तो शताब्दियों और युगों तक उसकी रचनाएँ हृदयों को प्रभावित करती रहती है।’’ उल्लेखनीय है कि प्रेमचन्द भाषा को साध्य मानते है या साधन, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं कि- ‘‘भाषा साधन है, साध्य नहीं। अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की ओर ध्यान दें और इस पर विचार करें कि जिस उद्देश्य से यह निर्माण कार्य आरम्भ किया गया था, वह क्योंकर पूरा हो। वही भाषा, जिसमें आरम्भ में ‘बागोबहार’ और ‘बैताल-पचीसी’ की रचना ही सबसे बड़ी साहित्य सेवा थी अब इस योग्य हो गयी है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान के प्रश्नों की भी विवेचना की जा सके और यह सम्मेलन इस सच्चाई की स्पष्ट स्वीकृति है।’’
इसलिए प्रेमचन्द की कला की यह सरलता, सादगी, चोट करने वाली, ये जो बेबाकपना ये सादगी, सरलता, ईमानदारी, सच्चाई जो यथार्थबोध था।… वह लाजवाब था। इसलिए प्रेमचन्द की ये जो साफगोई है, यह सपाटता नहीं है। इस साफगोई के पीछे सुलझी हुई साफ जीवन दृष्टि है जिसमें लोगों को दर्शन की ऊँचाई और उदात्तता नहीं मिलती है लेकिन फिर भी वह ज्यादा सही है।
मुंशी प्रेमचन्द की साहित्य सम्बन्धी दृष्टि के विवेचन के पाश्चात् उनके साहित्यिक मान्यताओं की कुछ सीमाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। इनके साहित्यिक सीमाओं की परिधि अनेक विद्वानों द्वारा निर्धारित की गई है। ‘‘कुछ आलोचकों की तो यहाँ तक राय है कि प्रेमचन्द साहित्य में अपने उपन्यासों के लिए ही अमर रहेंगे, कहानियों के लिए नहीं।’’ इसी प्रकार सच्चिदानन्द वात्स्यायन के अनुसार- ‘‘यों तो एक हद तक प्रेमचन्द के साहित्य में यह भी दोष है कि उनके देहाती, निम्नवर्गीय पात्रों का चित्रण तो खरा और सर्वांगीण सच्चा है पर शिक्षित मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय पात्रों का चित्रण सतही और अविश्वास्य है।’’ इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने भी कुछ आक्षेप लगाये हैं। लेकिन मुशी प्रेमचन्द पर लगाये गये तमाम आरोपों के बावजूद उनका साहित्य साम्य अथवा मध्यमार्गीय है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द ने साहित्य में न केवल अपने समय को पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित व स्पंदित किया अपितु आदर्श को भी समाज के समक्ष रखा, जो भारतीय लेखन-चिंतन का मूल आधार है। प्रेमचन्द ने जहाँ एक ओर अंध-परंपराओं पर चोट की वहीं सहज मानवीय संभावनाओं और मूल्यों को भी खोजने का प्रयास किया। इसी वजह से उनके साहित्य की अमर रचनाओं व कृतियों का अमिट धरोहर बन गया जो भारतीय साहित्य के गौरव के रूप में जाना जाता है।

संदर्भ ग्रंथ –

  1. आस्था और सौन्दर्य – रामविलास शर्मा
  2. प्रेमचंद रचना संचयन – सं. निर्मल वर्मा, प्रकाशक – साहित्य अकादमी
  3. कुछ विचार, प्रेमचंद, पृष्ठ सं. – 3
  4. हिंदी साहित्य का आधुनिक परिदृश्य – अज्ञेय, पृष्ठ सं. – 9
  5. साहित्य का उद्देश्य – प्रेमचंद, पृष्ठ सं. – 140
  6. प्रेमचंद और भारतीय समाज – डॉ. नामवर सिंह, पृष्ठ सं. – 187, राजकमल प्रकाशन

 

ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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