लोक-संस्कृति लोक-मानस की सहज अभिव्यक्ति है। लोक-संस्कृति ही किसी जाति या प्रदेश के अस्तित्व की परिचायक है जिससे उसके संपूर्ण विश्वास एवं परपंराएँ प्रतिबिंबित होती हैं। लोक-संस्कृति की व्यापक अवधारणा के अंतर्गत लोक-साहित्य, लोक-गीत एवं लोक-वार्ता की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। अतः विद्वानों ने लोक-साहित्य, लोक-गीत एवं लोक-वार्ता की महत्ता द्वारा ही लोक-संस्कृति की मानव-जीवन में सार्थकता को सिद्ध किया है। वस्तुतः लोक-तत्त्व अथवा लोक-संस्कृति के विविध पक्ष विविध संदर्भों से युक्त हो लोक-संस्कृति की संपूर्ण अवधारणा को सृजित करते हैं। “जिस प्रकार किसी वृक्ष का बीज धरती की गहराइयों में न जाने कहाँ-कहाँ से पोषण प्राप्त कर वर्धमान होता है और कालांतर में एक विशालकाय सघन शाखाओं से युक्त वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार लोकवार्ता का कोई स्रोत किसी एक स्थान पर फूटकर बहुविध सांस्कृतिक धाराओं से समन्वित होकर विशाल जनजातियों की लोक-सांस्कृतिक धरोहर बन जाता है।”1 लोक जीवन की इन विशेषताओं से युक्त लोक संस्कृति की ऐसी विशाल संकल्पना की महत्ता अनादि काल से आज तक ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।
लोक-संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम लोक-साहित्य है। लोक-साहित्य में लोक गीत ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं समृद्ध हैं। लोक गीतों के माध्यम से जन-जीवन के समस्त पक्षों के दर्शन तो हो ही सकते हैं साथ ही इनके दर्पण में विशिष्ट जन-समुदायों की भावनाओं को भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हर जाति अथवा जन समाज के अपने गीत होते हैं जिनमें उस समाज के जीवनानुभूति की अभिव्यंजना की जाती है। वस्तुतः “लोक गीत साहित्य की अमूल्य और अनुपम निधि हैं। इनमें हमारे समाज की एक-एक रेखा, सामयिक बोध की एक-एक अवस्था, सामूहिक विजय-पराजय, प्रकृति की गतिविधि, वृक्ष, पशु-पक्षी और मानव के पारस्परिक संबंध, बलि, पूजा, टोने-टोटके, आशा-निराशा, मनन और चिंतन सबका बड़ा ही मनोहारी वर्णन मिलता है।”2 इस प्रकार के लोक-गीतों का सृजन हृदय द्वारा होता है। “सुख के गीत उमंग के भोर से जन्म लेते हैं जबकि दुःख के गीत खोलते लहू से पनपते हैं और आँसुओं के साथी बनते हैं।”3 अनेक लोक-गीत जीवन-सत्य, सौंदर्य एवं परोपकार की भावनाओं का चित्राण करके मनुष्य में निहित उदात्त भावनाओं को जगाते हैं। लोक-गीतों द्वारा युद्ध, शांति, प्रेम, घृणा, त्याग, स्वार्थ आदि विविध भावों के रंगों द्वारा जीवन को सुखमय बिताने का रहस्य भी प्रकट होता है। इस प्रकार लोक-संस्कृति के गीतात्मक रूप द्वारा युग-युगांतर की अनुभूतियों, सुख-दुख के भावों एवं जीवनानुभवों को अभिव्यक्ति मिलती है। अतः लोक-संस्कृति परिवेश, समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में विशेष महत्त्व रखता है।
लोक-संस्कृति लोक मानव एवं जीवन का सच्चा प्रतिरूप है। इसके अंतर्गत लौकिक रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाजों आदि का मुख्य रूप से चित्रण किया जाता है। इसके अतिरिक्त लोक-संस्कृति परिवार, ग्राम, समुदाय और समाज के परस्पर संबंधों की भी जानकारी देता है। समय-समय पर होने वाले पर्व, उत्सव, त्योहार, मेलों आदि के माध्यम से लोकाभिरुचि की व्याख्या प्रस्तुत करता है। इस प्रकार लोक-संस्कृति में विविध जातियों की परंपराएँ एवं आचार-विचार सुरक्षित रहते हैं। वहीं दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से लोक-संस्कृति की उपयोगिता यह भी है कि इसके माध्यम से जन-साधारण अपने उत्तरदायित्वों को समझते हुए कर्त्तव्य का ठीक-ठाक पालन करना सीखते हैं। लोक-कथाओं और गाथाओं को सुनने से उनमें नायकों की कर्त्तव्यनिष्ठा, सहिष्णुता एवं नेतृत्व की भावनाएँ जागृत होती है। यही नहीं लोक-गीत उनकी बाल-सुलभ कल्पना को अभिव्यक्त करके उनमें सृजनात्मकता, वीरता, शौर्य आदि की भावनाएँ उत्पन्न करता है। उनके सौंदर्य बोध एवं कलाप्रियता में संवृद्धि करता है। इसके साथ-साथ लोक-संस्कृति संसार में व्याप्त विविध जंगली, पार्वत्य, आदिम जातियों से संबंधित जानकारी भी देती है। अतः मानव शास्त्रवेता के लिए इस प्रकार का मौखिक साहित्य अत्यंत उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। लोक-संस्कृति सामाजिक रिश्ते-नातों और रिवाजों का वर्णन कर समाजशास्त्र के अध्ययन हेतु भी अपार सामग्री प्रदान करता है।
आज सूचना-क्रांति एवं जनसंचार का युग है। ऐसे में लोक-संस्कृति का दृश्य-श्रव्य रूप लोक-नाट्य जन-संपर्क का एक आकर्षक माध्यम बन सकता है। इसके माध्यम से समाज में नशाबंदी, दहेज-प्रथा, जाति-प्रथा, सांप्रदायिकता आदि से संबंधित विविध जानकारियाँ जन-समाज के सम्मुख पहुंचकर जन-जागृति का पंचम लहराया जा सकता है। लोक-नाट्य नैतिक शिक्षा के संदर्भ में भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। वस्तुतः लोक-नाट्य द्वारा समाज में निहित नैतिकता की जानकारी मिलती है जिससे जनसमाज को नव दिशा प्राप्त होती है।
लोक-संस्कृति का ऐतिहासिक एवं भौगोलिक महत्त्व भी देखा जा सकता है। लोक-संस्कृति की गाथाओं में स्थानीय इतिहास का पुट बहुत ही गहन रूप में होता है जिनके विश्लेषण द्वारा विलुप्त एवं विस्मृत होते जा रहे ऐतिहासिक सूचनाओं का रहस्य उद्घाटित किया जा सकता है। वहीं लोक-गीतों में प्रकृति, वन, नदी आदि के विविध भौगोलिक चित्र भी प्राप्त होते हैं। लोक-संस्कृति के अंतर्गत धार्मिक एवं दार्शनिक भावों की भी अभिव्यक्ति निहित रहती है। लोकमानस में प्रचलित व्रत, पूजा, उपासना, तंत्र-मंत्र धार्मिक विधि-विधान आदि की जानकारी हमें लोक-साहित्य के अध्ययन से ही प्राप्त होती है। लोक-जीवन में प्रसारित पौराणिक एवं स्थानीय देवी-देवताओं के पूजा-विधान के अध्ययन द्वारा लोक-धर्म का स्वरूप स्पष्ट होता है। इस प्रकार लोक-संस्कृति मानवीय धर्म का सच्चा मार्गदर्शक है। विविध लोक-कथाएँ धर्म-बोध एवं लोक-रुचि को सदैव आकर्षित करती रही हैं साथ ही समाज के शिष्ट वर्ग को भी उन्होंने कम प्रभावित नहीं किया है। इन कथाओं के माध्यम से एक ओर जहाँ धर्म-प्रचारकों ने अपने धर्म को लोक-बोध के स्तर पर वर्णित किया हैं वहीँ दूसरी ओर साहित्य साधकों ने अपनी भाव-व्यंजना को लोकोन्मुखी बनाया है। साहित्य में विषय और भाव की ताज़गी के साथ ही काव्यरूपों के विकास में भी लोककथाओं के प्रभावस्वरूप नवीनता उभरती रही हैं।”4
लोक-संस्कृति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। इसके माध्यम से भिन्न जातियों, स्वभाव एवं संप्रदाय वाले राष्ट्रों को भावनात्मक एकता के सू़त्र में बांधा जा सकता है। आज का प्राणी बौद्धिक विकास में उलझकर व्यक्तिवादी बनता जा रहा है। उसमें अहं का भाव प्रबल हो गया है। ऐसे में लोक-संस्कृति के भावात्मक संस्पर्श द्वारा उसे बुद्धि एवं भावना के समन्वय की महत्ता बताई जा सकती है जिससे उसका संपूर्ण जीवन प्रभावित होगा। वस्तुतः हमारा अपार क्रांतिपरक एवं उत्थानपरक साहित्य लोक-संस्कृति में ही अनुस्यूत है। अतः सांस्कृतिक पुनर्जागरण एवं सामाजिक प्रगति हेतु इन्हें जागृति का उपयुक्त माध्यम बनाया जा सकता है। इस प्रकार लोक-संस्कृति के स्वर व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर एक विस्तृत है जिसमें लोक-संस्कृति की महत्ता स्वयं ही सिद्ध हो जाती है।
लोक-संस्कृति का महत्त्व साहित्य के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। लोक-संस्कृति का लिपिबद्ध रूप लोक-भाषा में प्राप्त होता है जिससे भाषा परिनिष्ठित एवं जीवंत बनती है। लौकिक रीति-रिवाजों की पूर्ण जानकारी के अभाव में लोक-भाषा युक्त साहित्य की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। लोक-संस्कृति के अध्ययन द्वारा ही लौकिक भाषा एवं साहित्य को जीवंतता मिलती है। टी॰ एस॰ इलियट, मार्क ट्वेन, टालस्टाय, गोर्की, सूर, तुलसी, जायसी, निराला, प्रेमचंद आदि के साहित्य में प्रयुक्त भाषा लौकिक शब्दावली को ही अभिव्यक्त कर विशिष्ट सुंदरता का विधान करती है। डॉ इवान वेंटेज का इस संदर्भ में कहना है कि “लगभग सारे साहित्य के मूल स्रोत जन-साधारण के विश्वास, उनकी कथाएँ, उनके गीत हुआ करते हैं और वर्तमान समय के साहित्य का उद्गम उनके संस्कार और रीति-रिवाज़ हैं।”5 इसके अतिरिक्त नवीन अलंकरण प्रवृत्ति के साथ-साथ लोक-साहित्य ने कई छंद रूपों का निर्माण किया है। अतः साहित्यिक एवं छांदसिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से भी लोक-साहित्य का अपना पृथक् महत्त्व है।
मन में उठते भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम भाषा है। भाषा के दो रूप प्रचलित हुए – लिखित एवं मौखिक। समाज-विकास के आरंभिक समय में भाषा का मौखिक रूप अधिक प्रचलित था I जब मनुष्य के वागेन्द्रियों द्वारा उच्चरित शब्दों का दूसरे व्यक्तियों के समक्ष ज्यों का त्यों संजोकर मौखिक रूप में विचार रखना संभव नहीं हुआ तब शब्दों को लिपिबद्ध कर उनका लिखित रूप प्रचलन में आया। संभवतः भाषा के इस लिखित एवं लिपिबद्ध रूप से ही साहित्य का सृजन होता है I साहित्य हित भाव से परिपूर्ण हो अपनी समस्त प्रेरक भूमि मानव-जीवन एवं उनमें विस्तृत संस्कारों से ही ग्रहण करता है। साहित्यकार या रचनाकार अपनी कृति के अंतर्गत विविध लोक-तत्त्वों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समावेश करता है। साहित्य के विविध रूप जिन जातीय विशेषताओं पर प्रतिष्ठित होते हैं वे विशेषताएँ लोक समुदाय के जीवन से ही संबद्ध होती हैं। वहीं साहित्य में आया परिवर्तन भी लोक-संस्कृति की परंपरा को प्रभावित करता है। अतः लोक-संस्कृति एवं साहित्य में अन्योन्याश्रित संबंध देखा जा सकता है।
लोक-साहित्य लोक-भाषा से संबद्ध एक व्यापक संकल्पना है। लोक-साहित्य एवं लोक-भाषा का यदि आपसी संपर्क टूट जाए तो साहित्यिक भाषा अवरुद्ध जलवाली नदी की परित्यक्त धार के समान दिशाहीन हो जाती है। उसके अपने प्रतिमान ग़लत दिशा की ओर उन्मुख हो जाते हैं। अतः लोक-भाषा एवं साहित्य के सामंजस्य से ही लोक-संस्कृति की उपयुक्त दिशा बन सकती है। मूलतः लोक-संस्कृति में विविध देशों और प्रदेशों का अद्भुत सौंदर्य और माधुर्य विद्यमान रहता है। इस संस्कृति के पीछे शिष्ट साहित्य की एक लंबी परंपरा चली आ रही है जो शिष्ट साहित्य से कहीं बड़ी भी है और उससे अविच्छिन्न भी। शिष्ट-साहित्य भी लोक-साहित्य की ही उपज है। इस संदर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि -“भारतीय साहित्य का अधिकांश भाव लोक-साहित्य पर आधारित था। कहना व्यर्थ है कि वहाँ के लोक कथानकों का अध्ययन बहुत सहज नहीं है। न जाने कितनी बार वह साहित्य ऊपर स्तर के ग्रंथों से प्रभावित हुआ है और कितनी बार उसने उसे प्रभावित किया है।”6 लोक-संस्कृति की अजस्र धारा ही शिष्ट या लोक-साहित्य को प्राणतत्व प्रदान करती है। वस्तुतः “जब जब साहित्य शिष्ट कहे जाने वाले अभिजात वर्ग में सीमाबद्ध हो गया है – उसका रस सूख गया है। साहित्य में फिर से प्राणों का रस भरने के लिए तब तब सच्चा साहित्यकार गाँवों की ओर या विराट जनसमूह की ओर मुड़ा है।”7
साहित्य ही लोक-संस्कृति का प्रचारक एवं संरक्षक है। अतः लोक-संस्कृति को आत्मसात् किए बिना साहित्य की अंतर्वस्तु तक नहीं पहुँचा जा सकता और न ही उसमें निहित आनंद का अनुभावन किया जा सकता है। इस संदर्भ में कुछ विद्वानों का कहना है कि कबीर, सूर, तुलसी आदि के साहित्य का आनंद बिना लोक-सांस्कृतिक दृष्टि के लिया ही नहीं जा सकता बल्कि दृष्टि से ही लिया जा सकता है। प्रथम बार यदि विद्वानों के इस तर्क पर ध्यान दिया जाए तो तर्क उचित प्रतीत होता है किंतु वास्तविकता यह है कि जन-सामान्य इन साहित्यों का आनंद बाह्य संस्कृति के स्तर पर ही लेते हैं। किंतु यदि लोक-संस्कृति के समस्त तत्त्वों को आत्मसात कर गहन दृष्टि से इस साहित्य का पुनः मनन किया जाए तो साहित्य से नवीन तत्त्वों की ही प्राप्ति होगी। अतः साहित्य में समाहित ऐसे गहन अर्थों की आनंदानुभूति हेतु लोक-तात्त्विक दृष्टि आवश्यक है।
किसी देश अथवा जाति के सामाजिक विकास से उस जाति विशेष की संस्कृति प्रभावित रहती है। समाज के द्वारा विकसित सांस्कृतिक धारा से दो प्रमुख रूपों का सृजन होता है – सांस्कृतिक धारा का प्रथम रूप साहित्य में परिवर्तित हो जाता है तथा दूसरे रूप से दैनिक-व्यवहार, क्रियाकलाप, विश्वास, प्रथाएँ विकसित होती हैं। सांस्कृतिक प्रवाह से सृजित साहित्य परिनिष्ठित एवं शास्त्राीय साहित्य होता है जबकि दूसरे रूप द्वारा लोक-साहित्य या लोक-संस्कृति का सृजन माना गया है। इन दो धाराओं के मध्य एकाध छोटी-बड़ी अंतर्धाराएँ विद्यमान रहती हैं जो कि शिष्ट साहित्य को लोक-संस्कृति से संपृक्त कर साहित्य को एक ओर उदात्त रूप प्रदान करती है I वहीं दूसरी ओर इस प्रकार के आदान-प्रदान के संदर्भ में त्रिलोचन पांडेय कहते हैं कि -“मानव मस्तिष्क के तथाकथित चेतन और अचेतन स्तरों के बीच विभिन्न मनोवृत्तियों की जो अनेक तरंगें उठती रहती हैं अथवा विचारों की भी अनेक धाराएँ प्रवाहित होती हैं वे ऊर्ध्वमुखी एवं अधोमुखी दोनों प्रकार की होती हैं। ये तरंगे लगातार चेतन के विभिन्न प्रवाहों को अचेतन की ओर तथा अचेतन के प्रवाहों को चेतन की ओर संप्रेषित करती रहती हैं। उन्हीं ऊर्ध्वमुखी तथा अधोमुखी प्रवाहों में उनके उपादानों का निरंतर आदान-प्रदान होता रहता है।”8
साहित्य का सृजन सोद्देश्य किया जाता है। उद्देश्य की पूर्ति करने पर साहित्य में निहित विचार परंपरा को जन्म देते हैं। वहीं दूसरी ओर लोक-समाज में निहित विचारों तथा परंपरा में तर्क-वितर्क का कोई स्थान नहीं होता बल्कि आस्था एवं विश्वास के आधार पर लोक-संस्कृति विकसित होती जाती है। “साहित्य मूलतः साक्षरता, निर्धारित पाठ तथा मौखिक उक्तियों के साथ जुड़ा रहता है। जहाँ साक्षरता समुन्नत होती है वहाँ ‘लोक’ का ह्रास दिखाई देता है जबकि समृद्ध लोक-संस्कृति “साक्षरता के अपेक्षाकृत निम्न स्तर का प्रमाण होती है।”9 साहित्य सोद्देश्य लोक-संस्कृति से जब संपर्क साधती है तो दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। ऐसे में एक ओर साहित्य लोक-विश्वासों से परिपूर्ण हो उठता है तो दूसरी ओर साहित्य के माध्यम से लौकिक-संस्कारों से परिष्करण एवं संवर्धन का कार्य किया जाता है। साहित्यकार लोक-तत्त्वों को ही ग्रहण कर महाकाव्य का सृजन करते हैं। भारत में वाल्मीकि कृत ‘रामायण’, व्यास कृत ‘महाभारत’, तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’, जायसी कृत ‘पद्मावत’ आदि इस तथ्य के सुंदर उदाहरण हैं। इस प्रकार साहित्य एवं लोक-संस्कृति की आपसी संबद्धता को देखा जा सकता है। इसी संदर्भ में डॉ॰ इंदिरा जोशी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहती हैं कि -“साहित्य एक व्यापक तत्त्व है और लोक-तत्त्व की व्याप्ति का विस्तार भी कम नहीं है। यदि साहित्य को मानव-मन की अनुभूतियों का इंद्रधनुषी प्रतिबिंब कहें तो उसमें परिव्याप्त लोक-तत्त्व को, उसकी सूक्ष्मतम अंतरंग सतरंगिणी आशा का मूल कहा जाना चाहिए। साहित्य में लोक-तत्त्व की यह परिव्याप्ति इतनी अंतरंगिणी और सूक्ष्म है कि उसमें सतत विद्यमान रहने पर भी वह प्रायः अप्रतीत बनी रही है। ….. वस्तुतः साहित्य अपने आविर्भाव के आदिकाल में लोकतत्व के अत्यंत सान्निध्य में रहा था या वैज्ञानिक दृष्टि से कहें तो उसमें तादात्म्य किए हुए था। …… साहित्य एवं लोक-तत्त्व आविभाज्य तत्त्व हैं और साहित्य में लोकतत्व की परिव्याप्ति भी शाश्वत एवं चिरस्थायी सत्य है।”10
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि साहित्य एवं लोक-संस्कृति में अन्योन्याश्रित संबंध है। साहित्य लोक-जीवन एवं संस्कृति से पृष्ठभूमि प्राप्त कर एक ओर उसके संरक्षक एवं व्यवस्थापक होने का पद संभालता है। वहीं दूसरी ओर लोक-संस्कृति जब सामाजिक-सांस्कृतिक स्रोतों से संबद्ध होती है तो उसके विविध अंग साहित्यिक कृतियों से प्रभावित होते हैं। लोक-तात्त्विक विश्लेषण से युक्त होने पर ही साहित्य का रूप उदात्तता के चरम शिखर पर पहुँच पाता है। अतः साहित्यकार अपनी कृति को प्रौढ़ता प्रदान करने तथा लोक-जीवन से संबद्ध करने हेतु समाज में व्याप्त लोक-तत्त्वों को आत्मसात करता है। वहीं लोक-संस्कृति के तत्त्वों में परिवर्तन आने पर साहित्यिक कृति भी परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार लोक-संस्कृति का साहित्य से एवं साहित्य का लोक-संस्कृति से गहन संबंध है।
संदर्भ
- लोक साहित्य का अध्ययन – त्रिलोचन पांडेय, पृष्ठ-233
- कन्नौजी लोक-गीत – संतराम अनिल, पृष्ठ-44
- धरती गाती है – देवेन्द्र सत्यार्थी, पृष्ठ-107
- मध्ययुगीन रोमांचक आख्यान – डॉ॰ नित्यानंद तिवारी, प्राक्कथन
- हिमालय की लोक-कथाएँ – रेवरेंड ओकले और तारादत्त गेरोला, भूमिका, पृष्ठ-1
- विचार और वितर्क – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ-21
- हिंदी साहित्य: प्रेरणा और प्रवृत्तियाँ – शिवनंदन प्रसाद, पृष्ठ-17
- लोक-साहित्य का अध्ययन- त्रिलोचन पांडेय, पृष्ठ-143
- संत साहित्य में लोक तत्त्व – सुनीता शर्मा (अप्रकाशित शोध-प्रबंध), पृष्ठ-65
- हिंदी उपन्यासों में लोक तत्त्व – डॉ॰ इंदिरा जोशी, पृष्ठ-3