प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है किंतु फिल्म निर्माता और निर्देशक अनुराग कश्यप का कहना है कि सिनेमा भी समाज का दर्पण है। भारतीय सिनेमा अपने सौ वर्ष पूर्ण कर और अधिक जवान हुआ है। इन सौ वर्षों की यात्रा में हमने भारतीय सिनेमा के विविध रूप तथा स्वरूपों को देखा जिसमें एक दौर ऐसा भी था जब स्त्रियों की भूमिका पुरुष अदा किया करते थे और आज एक वह भी दौर है जब पूरी फिल्म ही एक महिला को केंद्र में रखकर बनाई जा रही है। “ज़माना बदलता रहेगा, फिल्मों में प्रयोग भी होते रहेंगे लेकिन फिल्मों में साहित्य का असर  भी कभी कम नहीं होगा।  चर्चित उपन्यासों और कालजयी रचनाओं पर आधारित फिल्में हर दौर में पसंद की जाती रही है। यही वजह है कि निर्माता-निर्देशक उपन्यासों को टटोलते रहते हैं और उन पर फिल्म बनाना पसंद करते हैं। बहुत हद तक यह सही भी है क्योंकि इससे वे दर्शक जिन्हें साहित्य की रचनाओं का ज्ञान नहीं है और उपन्यासों को पढ़ने में ज्यादा रुचि लेते नहीं दिखाई देते तथा वे दर्शक जो हमेशा से उपन्यासों को पसंद करते है वे भी बड़े पर्दे पर इन साहित्यिक रचनाओं पर आधारित फ़िल्मों को देखकर रोमांचित होते हैं”।

मूक सिनेमा के दौर के बाद भारतीय सिनेमा के दौर को देखें तो उसमें हिंदी साहित्य के इतिहास की ही भांति हमें अलग-अलग दौर दिखाई देगें । 30 से 40 का दशक आदर्शवादी सिनेमा का 40 से 50 का दशक स्वतंत्रता के लिए जूझते लोगों के यथार्थ जीवन का तो 50 के बाद का दशक दौर मोहभंग और मनोरंजन का रहा। किंतु 90 का दशक भारतीय सिनेमा के लिए स्वर्णकाल कहा जा सकता है और इसके बाद वर्तमान दौर साहित्य की ही भांति  स्त्री विमर्श का दौर कहा जा सकता है। 100 सालों में हमारे सिनेमा ने कई रंग रूप बदले।  सिनेमा हमेशा दादा साहब फाल्के का ऋणी रहेगा जैसे हिंदी साहित्य आचार्य शुक्ल का है।

सिनेमा अपने आप में ही एक क्रांति है।  सूचना प्रसार की क्रांति है, जनसंपर्क की क्रांति है, अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति में बदलने की क्रांति है। किंतु कई बार ये अभिव्यक्तियाँ तथा क्रांतियां इतनी मुखर रूप में हमारे सामने आती है कि वो नग्न यथार्थवाद का रूप धारण कर लेती है और फिर उसे आम जन को पचा पाने में बड़ी तकलीफ देह स्थितियों का सामना करना पड़ता है ।  अभिव्यक्ति यदि सर्जनात्मक और रचनात्मक हो तो वह सदा बहुउपयोगी ही साबित होती है,जिस तरह विज्ञान। सिनेमा और साहित्य को लेकर यूरोप के कुछ चिंतकों का कहना है कि अब किताबों की जरूरत ही नहीं रहेगी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।  लोग साहित्य से भी जुड़े रहे और सिनेमा से भी।  बल्कि  सिनेमा ने ही साहित्य का लबादा ओढ़ लिया।  साहित्य पर आधारित फिल्मों की एक लम्बी श्रखंला है।  किसान-कन्या से लेकर काय पो चे  तक के सफ़र में साहित्य ने फिल्मों को अच्छी सिनेमाई सामग्री दी है।  यदि उसी नजरिये से “सिनेमा को देखा जाए तो सिनेमा को समाज की कोशिकाओं में बहने वाले रक्त की संज्ञा दी सकती है। कहा जाता है कि भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र देखकर बालक मोहनदास गांधी रो पड़े थे और राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा से प्रेरित होकर उन्होंने आजीवन सत्य बोलने का व्रत भी लिया था। वास्तव इस फिल्म ने ही मोहनदास से महात्मा गांधी बनाने की दिशा में पहला कदम रखने हेतु प्रेरित किया था।  स-समाज, न-नवीन, म-मोड़ अर्थात सिनेमा ने समय-समय पर समाज को नया मोड़ देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है”।  (साहित्य सिनेमा और समाज डॉ. पुनीत बिसारिया-संवाद 24)

भारतीय सिनेमा के प्रारम्भिक दौर में धार्मिक ग्रंथों का चित्रांकन हुआ करता था।  सत्य हरिश्चंद्र, भक्त प्रहलाद, लंका दहन, कालिय मर्दन, अयोध्या का राजा, सैरन्ध्री आदि इसका उदहारण है। सिनेमा के चौथे दशक मन ही समकालीन साहित्य के रचनाकारों की ओर ताकने की शुरुआत हो चुकी थी।  जिसमें मंटो की लिखी कहानियों पर आधारित फिल्मे जैसे- किसान-कन्या, मिर्जा ग़ालिब और बदनाम आदि खूब प्रसिद्ध हुई।  मंटो के आलावा प्रेमचंद और उपेन्द्रनाथ अश्क का साहित्य भी सिनेमा से जुड़ा।  इसके बाद ख्वाजा अहमद अब्बास, पाण्डेय बैचन शर्मा उग्र, मनोहरश्याम जोशी, अमृतलाल नागर, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, राही मासूम रजा, कवि प्रदीप, हरिवंशराय बच्चन, कैफ़ी आजमी, शैलेन्द्र और शकील बदायूंनी ने भी समय-समय पर हिंदी सिनेमा में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।  हिंदी,उर्दू तथा बाकी अन्य भाषाओँ की साहित्यिक कृतियों की आत्मा भी सिनेमा में डालने की कोशिश हुई है ।

सिनेमा साहित्य और किसान के संबंधो को यदि जोड़कर देखे तो साहित्य में ‘फाँस’ के इतर प्रेमचंद, रेणु, मन्नू भंडारी, धर्मवीर भारती और चंद्रधर शर्मा गुलैरी जैसे तमाम बड़े रचनाकार याद आते हैं।  किसान जीवन पर बनी फिल्मों के चल निकलने का एक कारण इन जैसे बड़े रचनाकारों का साहित्यिक कृतियों को भी जाता है जिन्होंने अपने आस-पास की व्यवस्था से अनुभव करके अथवा उन्हें अपने जीवन में कहीं न कहीं यथार्थ रूप में भोगने के कारण भी सफल साहित्यिक कृति के रूप में पाठकों के सामने एकपक्ष रखा। प्रेमचंद के ‘गो-दान’, सदगति, दो बैलों की कथा रेणु के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी की रचना ‘यही सच है’, ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ तथा शैवाल की कहानी पर आधारित फिल्म ‘दामुल’, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ तथा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ एवं राजेन्द्र सिंह बेदी के उपन्यास पर बनी ‘एक चादर मैली सी’ जैसी साहित्यिक कृतियाँ भले उन्हें एक सफल साहित्यकार के रूप में समाज में प्रतिष्ठित करती हो किंतु इन साहित्यों पर बनी फिल्मों के असफल हो जाने के कारण साहित्यकारों तथा उनकी रचनाओं से समाज में एक दूरी का भाव पैदा होने लगा था। इन रचनाओं पर बनी फिल्मों के असफल हो जाने से फिल्मकारों के मन में भी एक भय तथा मिथ्य धारणा घर कर चुकी थी कि साहित्यिक कृतियों पर  बनी फिल्मों का कोई आर्थिक महत्व नहीं है।

साहित्य और सिनेमा के अंतरसंबधों पर गुजराती फिल्म समीक्षक बकील टेलर ने बेहद सारगर्भित टिप्प्णी की है। उनका कहना है कि साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म अपने-आप में अच्छी हो, ऐसा नहीं होता। वास्तविकता यह है कि साहित्यिक कृति का सौंदर्य शास्त्र और सिनेमा का सौंदर्य शास्त्र अलग-अलग है और सृजक भी साहित्य कृति के पाठक के रूप में साहित्यिक आस्वाद तत्वों पर मुग्ध होकर उनका सिनेमेटिक रूपांतरण किये बगैर आगे बढ़ जाते हैं।

किसान की जमीन ही साहित्य कलाओं की जमीन होती है और गेंहू की तरह कलाक्षेत्र की तरह फसल उगती हैं। पर्ल एस.बक की गुड अर्थ  महान रचना है और उस पर भी फिल्म बनी है। गुड अर्थ चीन के भूमिहीन किसानों की व्यथा-कथा है और नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित है। इसी तरह की रचना प्रेमचंद ने भी की और प्रेमचंद का होरी आज भी तमाम पाठकों के सपनों में आता है। महबूब खान भी ‘जजमेंट ऑफ़ अल्लाह’ से प्रभावित होकर ‘औरत’ नाम से फिल्म बनाते हैं। जिन्हें बाद में 1956 ई. में मदर इंडिया के नाम से दुबारा फिल्माया जाता है। प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर बनी फिल्म ‘हीरा-मोती’ भारतीय सिनेमाई पटल पर किसान जीवन के नजरिये से मील का पत्थर मानी जाती है।

विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’, मनोज कुमार की ‘उपकार’ तथा इंदिरा गांधी के समय की ‘वारिस;, ‘गर्म हवा’ और रिचर्ड एस.बरे की फिल्म ‘गांधी’ में भी किसान जीवन को नजदीक से याद किया जा सकता है। जहाँ ‘उपकार’ फिल्म का किसान नायक आवश्यक पड़ने पर फौजी बन जाता है तो ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म का नायक शम्भु (बलराज सहनी ) प्रेमचंद के होरी के सदृश दिखाई देता है। शम्भु भी कर्ज तथा प्राकृतिक आपदाओं के चलते पागल सा हो जाता है और अंत में अपनी ही जमीन की एक मुट्ठी मिटटी भी अपने साथ नहीं ले जा पाता। ‘दो बीघा जमीन’ हमें भारतीय किसान जीवन की सम्पूर्ण त्राशदियों से अवगत कराती है। साहित्यिक कृतियों के तथा भारतीय सिनेमा में  दर्शाए गए किसान जीवन की विडम्बनाओं तथा विद्रूपताओं के इत्तर हमारे ही देश का कृषि मंत्रालय तक़रीबन 12 हजार करोड़ रुपये कृषि क्षेत्र के रख-रखाव के लिए निर्धारित करता है। फिर भी जनसंख्या के अनुपात में उपजाऊ भूमियों  का समाप्त होना विकास तथा व्यवस्था के आँकड़ों की पोल खोलता है।

साहित्य और सिनेमा में किसान का स्वरूप हमारे दैनिक जीवन के ही यथार्थों की ही एक कहानी है। कोई भी मनुष्य जब अपने आस-पास के इस तरह के वीभत्स परिवेश तथा वातावरण को देखता है तो उसका व्यथित होना स्वाभाविक है। सबसे बड़ा आदमखोर सरकार ही हुआ करती है। कोई जंगली जानवर नहीं। किसानों की व्यथा को लेकर मैथिलीशरण गुप्त किसान शीर्षक से ही एक पूरी कविता रच डालते है –

 गुप्त जी लिखते हैं-

“हेमंत में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है

पावस निशाओं में तथा हसैता शरद का सीम है

हो जाये अच्छी भी फसल पर लाभ कृषकों को कहाँ

खाते,खबाई, बीज ऋण से है रंगे रक्खे जहाँ ।”

इसे कहानी कहे, व्यथा कहे या त्रासदी। एक दौर वह भी था जब हम सोने की चिड़िया कहलाये जाते थे और आज भी हमें कृषि प्रधान देश का दर्जा है किंतु उसी कृषि प्रधान देश का अन्नदाता किसान आत्महत्या करने को विवश हो रहा है। भारत में किसानों की  आत्महत्या की  स्थिति 1990 ई. के बाद और भयावह हुई है। प्रति वर्ष 10 हजार से भी अधिक किसानों की आत्महत्या होने की रिपोर्ट दर्ज करवाई जाती है और साहित्य में भी इसका यथा समय चित्रण होता रहा है । आदिवासी साहित्यकार अनुज लुगुन आत्महत्या के विरुद्ध नाम से कविता में लिखते हैं –

“वे तुम्हारी आत्महत्या पर अफ़सोस नहीं करेंगे

आत्महत्या उनके लिए दार्शनिक चिंता का विषय है

यह उनके लिए चिंता का विषय नहीं होगा

वे जानते है गेंहू की कीमत लोहे से कम है

और इस वक्त वे लोहे की खेती में व्यस्त है ।।”

साहित्य में किसान जीवन पर विविध रूपों में साहित्य सृजना की गई हैं। मसनल कविताएँ, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि। किसान की दुर्दशा सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व की एक समस्या के रूप में दिखाई देती। आधी से भी ज्यादा आबादी किसान जीवन के लिए निर्धारित किये गए सिर्फ एक दिन 23 दिसंबर पर अपनी – अपनी लेखनी  से मायाजाल रचने लगते हैं और उनके इस मायाजाल में रोते बिलखते किसान उनकी बेवा औरत और अबोध बच्चे सभी शामिल हैं।

साहित्य में प्रेमचंद की कहानी  ‘पूस की रात’ किसान जीवन से यथार्थ धरातल लेती हुई ‘कफ़न’ कहानी तक पहुँचती है। ‘कफ़न’ का पूर्वार्ध ‘पूस की रात’ और ‘पूस की रात’ का उत्तरार्द ‘कफ़न’ किसान का वास्तविक रूप दिखाता है। सम्पूर्ण मानव जाति का दोज़ख भरने वाले स्वयं ही गरीबी, कर्ज और भुखमरी में जीता है। उसकी उस भूख, गरीबी और कर्ज का साझेदार कोई भी नहीं बनना चाहता। किसान जीवन पर लिखे गए नाटकों की अगर बात की जाए तो सातवाँ दशक आते-आते जहाँ कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद जैसे आंदोलनों के बाद नई कविता नाम से आंदोलन शुरू हो रहा था। वहीं नाटकों में जगदीश चन्द्र माथुर नया नाटक नाम से नाटकों के लिए एक पूरा युग निर्माण कर चुके थे। “नई कविता और नया नाटक पश्चिम का अस्तित्ववादी दर्शन साथ लाया”। नयी कविता की भांति नया नाटक भी प्रगतिवाद के विरोध में खड़ा दिखाई देता है। इसमें भी दो वर्ग हैं उच्च मध्यम वर्ग का रचनाकार मार्क्सवाद से प्रभावित है जो किसान, मजदूर की गरीबी पर रोता था । दूसरा गरीब वर्ग था जो मजदूरी पर जीता था। “मार्क्सवाद नाट्यकार भारत भूषण अग्रवाल प्रारम्भ में मार्क्सवाद से प्रभावित थे। लेकिन अंत में कम्युनिस्ट नहीं रहे। तार सप्तक के प्रथम संस्करण में वह लिखते हैं कि – मार्क्सवाद को आज के समाज के लिए रामबाण मनाता हूँ, कम्युनिस्ट हूँ। दुसरे संस्करण में लिखते हैं – कम्युनिस्ट नहीं हूँ। अब तो लगता है की जब कहता था तब भी नहीं था”।

भारतीय पौराणिक आख्यानों में सीता का जन्म भी भूमि से हुआ माना जाता है। कथाविस्तार के अंतर्गत रजा जंक जब लम्बे समय से वर्षा ना हो पाने के कारण अकाल जैसी स्थिति का सामना करते हैं तो ऋषियों और मुनियों के द्वारा कहने पर वे स्वयं हल जोतते हैं। इस प्रकार वर्षा आती है और हल जोतने की प्रक्रिया में भूमि से उन्हें सीता की प्राप्ति होती है। किसान के लिए उसकी  फसल भी उसकी प्रेमी सामान ही है। वह भी पृथ्वी तनया और भूमिजा की उपाधि से जानी जाती है। आदिवासी किसान बीज बोने के समय से लेकर फसल कटाई तक गीत गाते हुए भी देखाई देते हैं। ‘उपकार’  फिल्म में अभिनीत किसान जीवन पर बना गीत –

“मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती

मेरे देश की धरती ……. ।”

     आज यह केवल एक गीत के बोल मात्र बनकर रह गए है। हमारे भारतीय किसान कम से कम सिनेमा के इतने आभारी तो रह ही सकते हैं कि इन्हें भी रजतपट पर अपनी स्थितियों तथा दुखों को साझा करने वाला कोई उनका हमसफ़र बना। ‘रोटी’,’ माँ’, ‘मदर इण्डिया’,’ दो बैलों की कथा’,’जमीन’, ‘उपकार’, ‘गंगा-जमुना’, ‘खानदान’ से लेकर ‘लगान’ तक के फ़िल्मी सफ़र में धरती के लाल किसान सच्चे देश भक्त दिखाई देते हैं। लेकिन ‘पिपली लाइव’ तक आते-आते किसानों की समस्या भी मूवी-मसाला बनकर रह जाती है। पॉपुलर सिनेमा के एड वेचरर्स स्कोप की तलाश में तब खुदखुशियाँ भी होने लगी थी और बाजार में भी किसानों की खुदख़ुशी बिकने लगी थी। किसानों की मौत की खबरें लाख-करोड़ो में बिकने लगी और इस तरह इसका भी अपना यूटोपिया नजर आया। पहले की ज्यादातर फिल्मों में कुछ आपराधिक तथा उपद्रवी तब किसानों की फसलों में आग लगा देते थे लेकिन अब रियल लाइफ में सियासी रोटियाँ भी सिकने लगी है। शायद इसीलिए अज्ञेय अपनी कविता में लिखते है कि –

“एक आदमी रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी सेकता है

और तीसरा आदमी वह है जो

न रोटी बेलता है और न सेकता है

मैं पूछता हूँ वह तीसरा आदमी कौन है?

मेरे देश की संसद मौन है।”

सौ वर्ष का भारतीय सिनेमा बॉक्स ऑफिस पर चन्द दिनों में ही जहाँ करोड़ो कमाने लगा है वहीं किसान जीवन पर बनी फ़िल्में भी इन सौ करोड़ क्लबों से अधूरी नहीं रही है। किंतु अफसोस की बात यह है कि उन किसानों को इस सौ करोड़ का चौथा हिस्सा भी उनकी फसल के माध्यम से प्राप्त नहीं पाया। अपनी सृजनशीलता व वक्त के थपेड़े सह सकने की क्षमता के कारण ही हिंदी फिल्मों ने एक उघोग का दर्जा हासिल किया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है।  भारतीय सिनेमा उद्योग दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है।  जहाँ प्रतिवर्ष एक हजार से भी अधिक फ़िल्में बनती है और यह सिनेमा बहुत हद तक हमारे समाज से भी प्रभावित है।  भारतीय सिनेमा ने कई सामाजिक आन्दोंलनों को जन्म दिया है। इस सिनेमा में बच्चों से लेकर बूढों, तक अमीर से लेकर गरीब तक, नवविवाहिता से लेकर प्रौढ़ा और विधवा तक सभी के लिए गीतों का भरमार है। बच्चों के लिए देश भक्ति से ओत-प्रोत ‘नन्हा-मुन्हा रही हूँ देश का सिपाही हूँ बोलो मेरे संग जय हिंद–जय हिन्द’ या फिर इतिहास की झलकियाँ प्रस्तुत करते हुए ‘आओ बच्चो तुम्हे दिखाई झांकी हिंदुस्तान की इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान’ की जैसे गीत है तो वहीं नवविवाहिता, प्रौढ़ा तथा बुर्जर्गों के लिए भी तरह तरह के गीत बनाए गए हैं। किंतु किसानों को लेकर बनाये गए गीतों की संख्या ऊंट के मुँह में जीरा के सामान दिखाई देती है। साहित्य तथा सिनेमा से इत्तर हमारी राजनीति ने भी किसानों की दुर्दशा पर व्यंग्य ही कसा है और उन्हें मरनासन्न हालत में लाकर खड़ा कर दिया है व एक अनाम विद्वान का कहना है ‘साहित्यकार क्रांति नहीं करता किंतु क्रांति का मार्ग अवश्य प्रशस्त करता है और यहीं प्रशस्तीकरण राजनीति में इंदिरा गांधी तथा लाल बहादुर शास्त्री ने किया।  जब इंदिरा गांधी ने हरित क्रांति पर बल दिया और इससे पूर्व लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ जैसे नारे से भारतीय किसान जीवन में चेतना भरने का काम किया है।

किसानों की व्यथा उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब उसकी पकी-पकाई फसल किसी प्राकृतिक आपदा के करण चौपट हो जाती है।  किसानों का यह दुःख उन्हें और परेशान करता है।  कई बार प्राप्त दवाइयों के अभाव में फसलों को कीड़े लग जाने के करण उन्हें खुद ही खुद की फसल को रौंदना पड़ जाता है।  उनका यह दुःख के. चिन्नापा भारती के उपन्यास ‘शक्कर’ मे भली-भांति चित्रित हुआ है।  जहाँ भारती कहते हैं कि “लहलाती फसल पर जब कीड़ा लग जाता है और सारी फसल बरबाद हो जाती है तो किसान कितना दुखी और परेशान हो जाता है। अपने हाथो से उगाई फसल को अपने सामने सुखाते, बरबाद होते देखकर उसका दिल कितना व्यथित हो जाता है।  उसके मन में कैसा हाहाकार मच जाता है, उसकी आशाएं और अरमान कैसे मिट्टी में मिल जाते हैं, गन्ने की फसल उगाने वाले किसानों की क्या दुर्दशा होती है , गायक अपने मधुर और जोशीले स्वर में यह सब गाता जा रहा था।  सुनाने वाले आत्मविस्मृत हो गए।  उन्हें लगा कि अपने जीवन की करुण कहानी सुन रहे हैं। उनका दिल भर आया”।   सिनेमा की शुरुआत और प्रेमचंद का इस दुनिया जाना दोनों में ज्यादा लंबा अन्तराल नहीं है।  इसीलिए शायद प्रेमचंद अपने साहित्यिक पत्रों में सिनेमा की भी बातें करते हैं। प्रेमचंद ने स्वयं मजदूर फिल्म के लिए संवाद लिखे थे।  इस फिल्म में एक देशप्रेमी मिल मालिक की कथा थी , किंतु सेंसर बोर्ड को यह भी रस नहीं आया और एक समय के लिए इस फिल्म पर रोक  भी लगाई गई। इस फिल्म में प्रेमचंद ने स्वयं भी छोटी सी भूमिका अदा की।

साहित्य और सिनेमा की तुलना करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं – “साहित्य के भावों की जो उच्चता भाषा की जो प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है वह हमें वहां नहीं मिलती। उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना है।  सुरुचि या सुन्दरता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं।  व्यापार, व्यापर। व्यापार में भावुकता आई और व्यापार नष्ट हुआ।  वहां तो जनता की रूचि पर निगाह रखनी है और चाहे संसार का संचालन देवताओं के ही हाथों में क्यों न हो, मनुष्य पर निम्न मनोवृति का राज्य होता है , जिस शौक से लोग ताड़ी और शराब पीते हैं उसके आधे शौक से दूध नहीं पीते।  इसकी दवा निर्माता के पास नहीं। जब तक एक चीज की मांग है, वह बाजार से आयेगी कोई उसे रोक नहीं सकता। अभी वह जमाना बहुत दूर है जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा। लोक-रूचि जब इतनी परिष्कृत हो जायेगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीजों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि दिखाई पद सकती है” और साहित्य और सिनेमा के इत्तर प्रेमचंद के साहित्य संबंधित उद्देश्य निबंध को लिया जाये तो वे कहते हैं -“ साहित्य उसी रचना की कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग और असर डालने का गुण।  साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसके जीवन की सच्चाईयां और अनुभूतियाँ व्यक्त की गई हो”। इसके आलावा वे इसी निबंध में लिखते हैं – साहित्य में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सच्चाइयों का दर्पण हो।

साहित्य और सिनेमा से अलग नाटक तथा उनका नुक्कड़ नाटकों के रूप में मंचन भी काफी मार्मिक है।  साहित्य  की तमाम विधाओं में नाटक अधिक प्रभाव पूर्ण होते हैं।  किसान समस्याओं पर आधारित भी कई नाटक लिखे गए हैं। जिसमें राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ भी उल्लेखनीय है। यह नाटक भारतीय किसान की त्रासदी और उसके संघर्ष की कहानी है।  यह हमारी 75 सालों की आजादी के यथार्थ को भी सामने लाता है। गांधी ने कहा, अम्बेडकर और गांधी द लास्ट सैल्युर जैसे व्यवस्था विरोधी और यथार्थवादी नाटकों के पहचाने जाने वाले नाटककार राजेश कुमार का यह नया नाटक है। ‘सुखिया मर गया भूख से’ नाटक की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है।  एक गरीब किसान की भूख से मृत्यु हुई है और इस घटना के सच को दबाने तथा उसे पलटने के लिए नौकरशाही सता द्वारा जो कुचक्र रचा जाता है। वही इस नाटक की आधार भूमि बना है यह नाटक सच्ची घटना पर आधारित है।  नाटक का प्रधान पात्र सुखिया किसान भूख से मर गया है और कार्यालय को 24 घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। सुखीराम उर्फ़ सुखिया वर्तमान किसान का भी प्रतिनिधित्व करता नजर आता है और प्रेमचंद के होरी की भांति वह भी कर्ज में डूबकर खेतीहर किसान से मजदूर बन जाता है ।  नाटक का अंत कबीर की पंक्तियों के साथ होता है –

“हम ना मरिबे मरिहे संसारा,हमको मिलिहे लड़वानहारा ।

हमको मिलिहे लड़वानहारा,हम ना मरिबे अब न तरबे  ।

करके सारे जतन भूख से लड़बे,जब दुनिया से भूख मिटावा।

तब मारिके हम सुख पावा ।।”

राजेश कुमार के नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ इत्तर एक अन्य नाटक ‘बीस बीस साठ’ उदय कुमार द्वारा लिखित यह नाटक भी कर्ज के बोझ तले कराहते मजदूरों और किसानों की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है। किसान का घर, जमीन, पशु सभी पर पूंजीपति महाजनों द्वारा कब्ज़ा कर लिया जाता है और वे अभी महाजन के यहाँ बंधुआ मजदूर बनने को मजबूर हो जाता है। नाटक की शुरुआत का युग बदला, समय बदला, नहीं बदली तो वह है किसानों की तक़दीर और इसकी शुरुआत भी एक गीत से होती है।

हिंदी गद्य साहित्य के महान रचनाकारों में पंडित विश्वम्भरनाथ कौशिक, बाबू प्रतापनारायण मिश्र, जैनेन्द्र, वृन्दावन लाल वर्मा आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। “सामाजिक उपन्यासों में देश में चलने वाले राष्ट्रीय तथा आर्थिक आंदोलनों का भी आभास बहुत कुछ रहता है। तअल्लुकदारों के अत्याचार, भूखे किसानों की दारुण दशा के बड़े चटकीले चित्र प्राय उनमें पाए जाते हैं। उन्हें यह भी देखना चाहिये कि अंग्रेज राज्य जमने पर भूमि की उपज या आमदनी पर जीवन निर्वाह करने वाले (किसानों, जमीदारों) की और नगर में रोजगारियों या महाजनों की परस्पर क्या स्थिति हुई…….. । जिस प्रकार उनकी दशा उन्न्त होती आई और भूमि से संबंध रखने वाले सब वर्गों की क्या जमीदार, क्या किसान, क्या मजदूर…..” ।

हिंदी साहित्य के तमाम बड़े रचनाकारों की साहित्यिक रचनाओं पर आधरित सिनेमा भले ही औसतन रहा हो किंतु “देश का नव निर्माण का जो उत्साह तथा अपने भविष्य सुखद होने की जो आशा थी, वे उस दौर की फिल्मों में बार-बार व्यक्त हुई है । ‘साहब बीबी और गुलाम’, ‘कागज के फुल’ और ‘दो बीघा जमीन’ जैसे त्रासद अंत वाली फिल्मे बहुत कम है” ।  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले तथा दूसरे दशक में राजनैतिक धरातल से उठती मोहभंग की गंध सिनेमा के दरवाजे तक भी दस्तक देती है और यही कारण है कि इस पूरे दौर में कोई ऐसी एक फिल्म नहीं बन सकी जो शासक वर्ग के प्रति अपने मूल-भूत सवालों को भी उठाती दिखाई दे। इसके पीछे एक बड़ा कारण सिनेमा की सेंसर व्यवस्था भी थी। इसके उलट छठे दशक में ‘मदर इण्डिया’ एक लोक प्रिय फिल्म के साथ इस धारणा का प्रचार करती है की नया शासक वर्ग तथा जमीदार और सूदखोरों के वह खिलाफ है। कमोबेश यही मंतव्य राजकपूर की फिल्मों का भी है। ‘आवारा’, ‘जागते रहो’, ‘बूट पालिस’, ‘अब दिल्ली दूर नही’, ‘श्री 420’ जैसी तमाम फिल्में एक ऐसा हल प्रस्तुत करती है जो व्यवस्था के बने–बनाये तथा स्वीकारे जाने योग्य ढांचे में ही फिट बैठता हो। ‘जागते रहो’ फिल्म उन करोड़ों गरीब हिन्दुस्तानियों के जीवन चक्र को दर्शाती है जो पहले से ही अभावों और अँधेरे में जीने के लिए अभिशप्त। इनका प्रतीक वह गरीब है जो ‘दो बीघा जमीन’ और ‘जागते रहो’ में है। ये सभी फिल्मे इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि लोगों में सुखद भविष्य की आशा जगाती है वरन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह तत्कालीन समाज की वास्तविक दशा यथार्थ भी सामने लाती है”।

साहित्य और सिनेमा का अटूट संबंध बदलते ज़माने के साथ ओर भी प्रगढ़ होता जायेगा तथा ये फिल्मों में होते प्रयोग से भी स्वयं को कालजयी बनाएगा। यही वजह है कि निर्देशक, निर्माता आजकल उपन्यासों को टटोलना और उन पर फिल्म बनाना पसंद करते हैं। इसका एक सार्थक प्रयास यह भी होता है कि वे दर्शक जिन्हें इन साहित्य  की रचनाओं का बहन नहीं रहता है। वे भी उससे जुड़ना पसंद करते हैं। साहित्य और सिनेमा दोनों ही समाज को जोड़ने तथा उसे बदलने की कुव्वत रखते हैं। यह सत्य है कि सिनेमा साहित्य से अधिक प्रभावशाली और आमजनता तक सरलता से पहुँचने वाला माध्यम है। साहित्य के चिन्तक, लेखक और आलोचक हमेशा ही सिनेमा को साहित्य का हिस्सा मानने से हिचकते रहे हैं। जबकि यह भी जानते हैं कि सिनेमा का आरम्भ साहित्य से होता है। यहाँ यह कहना सर्वथा उचित है कि साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के पूरक हैं। “भारत में बननी वाली पहली फीचर फिल्म भी आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक भारतेंदु हरिश्चन्द्र के नाटक ‘हरिश्चन्द्र’ से प्रेरित थी”।

हिंदी साहित्य में हिंदी साहित्यकारों का सुनहरा दौर सातवें दशक  में नजर आता है। जिसमे उपन्यासकार कमलेश्वर का अहम योगदान रहा तथा उपेन्द्र नाथ अश्क और अमृतलाल नागर जैसे साहित्यकार दिखाई देते हैं जो सिनेमा की भाषा को जरुरत के अनुसार बड़े बेहतरीन ढंग से अभिव्यक्त करते हैं । मन्नू भंडारी की कहानी ‘ यही सच है’ पर आधारित फिल्म ‘रजनीगंधा’ काफी लोकप्रिय हुई जिसमे हिंदी फिल्मों को नयी डगर के समान्तर सिनेमा का नाम भी प्रदान करती है । “हिंदी सिनेमा को शिखर पर ले जाने वाले साहित्य को पुष्पवित-पल्लवित करना जरुरी है। आज हिंदी फिल्मे, हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर विश्वस्तर पर हिंदी का पताका फहरा रही है। ऐसे में जरुरत है इसकी पुनव्याख्या करने की। तभी हिंदी सिनेमा कुछ नकारात्मकता के बाद भी अपने मजबूत सकारात्मक पक्षों के बल पर अपनी खोई विरासत को पा सकेगा और अपनी जड़ों को सिंचित कर पायेगा। इसके लिये कलमकारों को भी अपनी कलम को उस ओर मोड़ने की जरुरत है जहाँ भारतीय समाज उठता-जागता है। कलमकारों को फिर अपनी कलम उस ग्रामीण समाज की ओर मोड़ना होगा जहाँ आज भी बहुसख्यंक समाज रहता है । तभी हिंदी भाषा और साहित्य के संबंधों से भारतीय सिनेमा नया आकार ले पायेगा”।

तेजस पूनिया
स्नातकोत्तर पूर्वार्द्ध
राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय

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