प्रत्येक इतिहास अपने आप को दोहराता है। यह दोहराव केवल स्थितियों या चरित्रों का नहीं, बल्कि आपसी विचारों का होता है। जो अपने अनुकूल घटित होते हुए स्थितियों और चरित्रों को ढालता हैं। विगत समय को देखा जाय तो चुनावी परिप्रेक्ष्य में लगातार साम्प्रदायिकता का मुद्दा उठाया जा रहा है। ध्रुवीकरण की राजनीति अपने चरम पर है, जिसमें सन 1992 की घटना की गूँज आज भी रह-रह कर कानों में  सुनाई पड़ती है।  ऐसे में साहित्यिक रचनाओं के पुनर्पाठ की आवश्यकता भी बढ़ जाती है। जिससे कि हम अपने समाज के सच को सबके सामने रख सकें, समाज में हो रही कुरीतियों को नजर में रख कर सबक सिखा सकें।  बाबरी विध्वंस की पूरी डाक्यूमेंट्री के रूप में मौजूद दूधनाथ सिंह का अद्भुत अनुशीलन है – आखिरी कलाम!

            वर्तमान माहौल में जब चिन्तनशील विवेक के लिए जगह सिमटी जा रही हो, जब चारों ओर अन्ध आस्थाओं का घना कुहरा छाया हो, जब मीडिया-प्रक्षेपित धर्म और संस्कृति की धुन्ध में साम्प्रदायिकता का डरावना शोर सुनाई पड़ रहा हो, जब सत्ता-बल, धन-बल और पशु-बल संगठित हो रहे हों, तब सामाजिक विचारशील व्यक्ति क्या करे ? चुप्पी साध ले ? लेकिन यह तो आत्महत्या होगी। इतना ही नहीं, यह मनुष्य की सर्जनात्मक क्षमता में अविश्वास ही भरेगा । आखिर मनुष्य अपनी आदिम बर्बर अवस्था से, इतिहास की अनेक-अनेक बाधाओं को दूर करता यहाँ तक पहुँचा ही है। फिर यह कैसे मान लिया जाए कि वह यहीं अवरूद्ध ठहरा रह जाएगा। इस संदर्भ में प्रख्यात आलोचक प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल का मन्तव्य हैं कि ‘‘लेखक काल, चेतना और तर्क की हदबंधियों से बाहर होकर भ्रम, विस्मृति और विसंगतियों के बीच अपनी तलाश जारी रखता है।’’1 ऐसे ही विचारशील व्यक्तियों में से एक हैं- दूधनाथ सिंह। जिन्होंने अपने उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ के माध्यम से इस प्रक्रिया को गतिशील बनाए रखा है। ‘आखिरी कलाम’ हिन्दूवादी राजनीति के प्रारम्भिक चरण को देश के लिए घातक बताते हुए जिस तरह उस दौर को दर्जकरता है, वह बड़ा जीवन्त है। किस तरह शुद्ध भारतीय, स्वदेशी और भारतीयता के आवरण में संघ देश के शीर्षस्थ शैक्षणिक संस्थाओं में प्रविष्ट हुआ और कैसे अपने सामाजिक संघर्षों की धार कुन्द की, इसका बड़ा वैज्ञानिक विश्लेषण इस उपन्यास में है।“2 अतः यह उपन्यास सही समय पर एक सही सर्जनात्मक हस्तक्षेप है।

अपनी सम्पूर्ण औपन्यासिक संरचना में ‘आखिरी कलाम’ हिंदू फासीवादी खतरे की पृष्ठभूमि में एक ऐसी जीवन्त परिकल्पना है एक ऐसी जद्दोजहद है जोधर्म, धर्मनिरपेक्षता, जनतन्त्र, मीडिया,मुसलमान ,वामपंथ से लेकर लोहियावादी राजनीति तक का विस्तार लिए है। लेकिन उपन्यासकार सर्वाधिक मुखर है हिन्दू धर्म की मनुष्यविरोधी संरचना को बेपर्दा करने तथा धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के उस आधार को उजागर करने में जो उसकी विफलता के लिए जिम्मेदार हैं।  अयोध्या में कारसेवकों की आक्रामकता व बाबरी मस्जिद के आसन्न ध्वंस पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों से उसका सीधा चुनौतीपूर्ण सवाल करते हैं- “कहाँ है तुम्हारे वर्ग-मुक्त मानस की जनता ? यह मस्जिद-मस्जिद का सवाल नहीं . .  यह मनुष्य होने या न होने का सवाल है।’’3

दूधनाथ सिंह ने उपन्यास का जो ताना-बाना बुना है, उसके समूचे में तत्सत् पांडेय की आत्मग्लानि से भारी यह बड़बड़ाहट पहले पन्ने से लेकर उन आखिरी पन्नों तक फैली हुई है, जिन पर कारसेवकों का तांडव, फौजी बूटों का आतंक, कर्फ्यू का सन्नाटा और दिसंबर की कड़ाके की ठंड एक साथ मौजूद नजर आती है हैं। उपन्यास इसी शोर और सन्नाटे का मिला-जुला करूण संगीत है जिसे सुनते हुए ऐसा लगता है कि हिंसक कार-सेवकों की भीड़ में तत्सत पाण्डेय, सर्वात्मन और बिल्लेश्वर निरीह निरुपायों की तरह फँस गए हैं जिसका परिणाम आचार्य जी के जीवन के अंत से होता है- ‘‘मुझे घर ले चलो सर्वात्मन। आचार्य जी के मुँह से आर्तभाव से निकला। फिर एक हिचकी।’’ खगेन्द्र ठाकुर

 ‘आखिरी कलाम’ का मूल कथ्य बताते हैं उनकी मान्यता हैं- “भारतीय समाज और राजनीति के बढ़ते हुए रूढि़वाद,अंधविश्वास और धर्मतांत्रिक राजनीति के अभिमानों के फलस्वरूप बढ़ता हुआ उन्माद और उसके प्रभाव से पैदा हुआ आतंक।’’4

            यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस उपन्यास में साम्प्रदायिकता का विखंडन नहीं है। दो घटनाएँ हैं- पुस्तकालय कांड और बाबरी मस्जिद का ध्वंस। दोनों में कारसेवक हैं। ‘‘कार-सेवक कौन थे ? कहाँ-कहाँ से आए थे ? उन्हें कौन इकट्ठा करके लाया था ? उन्हें भोजन कौन करा रहा था? वे क्या सिर्फ भीड़ थे या नेतृत्व चालित समूह ? उनके नेतृत्व का तात्कालिक और दीर्घकालिक एजेंडा क्या था ? उन्हें उत्तेजित, उन्मादित कौन कर रहा था ? मस्जिद तोड़ने के लिये औजार उनके पास कहाँ से आए ? वे मंदिर बनाने में जुटे थे या मस्जिद तोड़ने ? मंदिर तो बना नहीं फिर मस्जिद क्यों तोड़ दी गई ? सवालों का काफिला है पर लेखक उससे? मुँह चुराता है। ट्रेन से लौटते कारसेवकों की हरकतें तो पूरी परिघटना की पूँछ है। इसके पीछे भयानक विचार है- धार्मिक और जातिगत श्रेष्ठता के सिद्धान्त की स्थापना और ब्राह्मणों द्वारा पेशवाराज  की स्थापना का स्वप्न। पर आप आधा-अधूरा, संपादित, लेखक द्वारा सेंसर्ड दृश्य देखिए। उसकी कलात्मकता पर ताली बजाइए। कला की आड़ में छद्म बौद्धिकता कैसे मनुष्यता को पीछे ले जाने का तर्क जुटाती है, उसी का नमूना है- ‘आखिरी कलाम’।’’5

             कारसेवकों के मनोविज्ञान को समझने के लिए उपन्यास में वर्णित आचार्य और सर्वात्मन के वार्तालाप दृष्टव्य है। सर्वात्मन जब आचार्यजी को ये बताते हैं कि ये ‘‘कारसेवक हैं, अयोध्या जा रहे हैं।’’6 तो उसके प्रत्युतर में आचार्यजी कारसेवकों पर टिप्पणी करते हुए सर्वात्मन को बताते हैं कि ‘‘अच्छा . . हाँ, वहाँ ‘कारज’ है। जानते हो सर्वात्मन, यह शब्द कैसे बना है ? ‘कार्य’ से। फिर ‘कारज’, फिर ‘ज’ खतम। और तब उसमें ‘सेवक’ लगा। सिख गुरूओं ने सबसे पहले इसे चलाया। उसमें अपनी आस्था का निर्माण भी था और उसमें लगे हुए आत्मबलिदान भी देना पड़ सकता था। यों यह शब्द पवित्र हुआ। लेकिन हर पवित्र चीज़ अपवित्र भी तो हो सकती है। आप एक ही पानी में बार-बार हाथ धोएँगे तो वह मैला तो होगा ही। और फिर ‘कारज’ का वही अर्थ नहीं होता जो ‘कार्य’ का होता है। शब्द सिर्फ रूप में तद्भव नहीं होते, अर्थ में भी हो जाते हैं। कोई ‘पवित्र कारज’ नहीं बोलता। ‘कारज’ किसी बेबसी या जि़द या अन्ध श्रद्धा के शुभ सम्पादन या समापन को भी कहते हैं। ‘कारज’ होता है अन्तिम छुटकारा पाने के लिए। ‘कारज’ हमारे यहाँ ‘तेरही’ को भी कहते हैं, जब भटकता हुआ आत्मन् इस लोक से मुक्त होता है। ‘कारज’ किसी प्रयत्न के अन्त को कहते हैं। वह साध्य है और कारसेवक उसके साधन। निमित्त मात्र। ‘कारज’शुभ-अशुभ दोनों होता है। . . ये कारसेवक किस तरह के ‘कारज’ को जा रहे हैं ?’’7 कारसेवकों के लिए कारसेवा अर्थात् बाबरी-मस्जिद विध्वंस किसी उत्सव से कम नहीं था। ‘जयश्रीराम जयश्रीराम’ की। ‘‘एक मार्शल धुन पर ये बोल निकालते हुए कारसेवक अन्धाधुन्ध नाच रहे थे। इतनी ठंड में भी पसीने से थक-बक,उनके माथे पर बँधे हुए ‘जैश्रीराम’ के जोगिया पट्टे भीगकर गीले हो गए थे।’’8 इन कारसेवकों की उत्पत्ति कब हुई ? कोई पता नही । लेकिन व्ही अपने आप को कहते है आजादी के बाद। इसकी जानकारी लेखक आचार्यजी और माधवानंद की बातचीत के माध्यम से देता है।

       उपन्यास में लेखक कारसेवकों की स्थिति के माध्यम से वर्णन करता है कि धर्म का कठमुल्लापन व्यक्ति को किस सीमा तक उन्मादी बना देता है और वह किस सीमा तक घातक हो सकता है। लेखक के अपने शब्दों के अनुसार ‘‘बसों के आगे-पीछे भगवा बितान खींचकर बाँधे गए थे और लगातार नारों की गूँज उठ रही थी- कुछ इस तरह जैसे अन्दर ‘जैश्रीराम’ बै्रंग का बारूद हो, जो कभी अचानक बसों की छतों पर भी लोग थे जो भीतर के नारों को तुक और लय में आकाश तक उठा रहे थे। अब ये नारे छतफाड़ नहीं, आसमान-फाड़ थे, जिनको भगवा शब्दावली में ‘गगनभेदी’ कहते हैं।’’9 चारों ओर उत्तेजक कनफोड़ू नारों की चीख-पुकार है- ‘‘धर्म-संघ की है ललकार/ सुन ले दिल्ली सरकार/ राम लला की जै/ सिया माई की जै . .’’10

अधिकांशतः लोगों में अपने धर्म के प्रति अंध भक्ति, अंधश्रद्धा होती है जिसका लाभ धर्म के बड़े-बड़े ठेकेदार उठाते हैं और वे इस षडयंत्र के द्वारा सत्ता की डोर अपने हाथों में रखते हैं। ऐसे लोग भली-भाँति जानते हैं कि धर्म एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा वे बहुत बड़े जनसमुदाय पर अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार कर, अपनी मर्जी से उसका प्रयोग कर सकते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में तत्सत पांडेय सर्वात्मन को कहते हैं- ‘‘मैं जब यहाँ से शुरू करता हूँ कि धर्म एक षडयंत्र है तो जाहिर है,धर्म-निरपेक्षता का क्या मतलब। और सच यह है सर्वात्मन, कि धर्म एक वृहद्,अनजाना षडयंत्र है मानवता के खिलाफ। धर्म एक ठगी है, धर्म डराता है। अंधत्व प्रदान करता है। धर्म कहता है ‘अंधे होकर चलो, तुम्हारी लाठी मैं हूँ। धर्म में अब कुछ भी ऐसा नहीं जिसे हासिल किया जा सके। धर्म मनुष्य की सांसारिक, मनोवैज्ञानिक कमजोरी को भुनाता है। जो आज के नैतिक सवाल हैं, धर्म के बिना भी हल किए जा सकते हैं।’’11 लेकिन धार्मिक उन्माद इतना फैल चुका है कि इसमें समाज के सभी वर्ग अन्धे हो गए हैं। ‘आखिरी कलाम’ का प्रमुख पात्र तत्सत पांडेय धर्म का पूरी तरह मजाक बनाते हुए धर्म के बारे में कहते हैं- ‘‘यह छूआछूत का एक रोग है जो भारतीयों में कुछ ज्यादा ही फैला है। भारतीय बुद्धिजीवी तो इसे राजरोग की तरह पालते हैं। उन्होंने कहा कि यह एक विश्व-विश्रुत जालसाजी है जिसकी खिलाफ़त को पागलपन करार दिया जाता है। भीख माँगने से लेकर यातना देने और हत्या तक इसका इस्तेमाल किया जाता है।’’12 और यह सब ऐसा इसलिए होता है। कि यहाँ सभी कारसेवक इस रोग से ग्रसित हैं जिसकी पुष्टि फोन पर बात करने के लिए लाइन में लगे हुए एक कारसेवक के कथन से (सर्वात्मन के साथ बातचीत के दौरान) स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है- ‘‘अपने घर खबर करने के लिए। कि सही-सलामत पहुँच गया हूँ और कारसेवा पूरी करके ही लौटूँगा।’’13

दूधनाथ सिंह ने अपने उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ में हिंदूत्व के उभार के फलस्वरूप हिंदू नेताओं की क्रूर नीतियों का वर्णन किया है जो कारसेवकों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर बहुत बड़े जनसमुदाय को वोट बैंक में बदलना चाहते हैं। ‘ललकार दिवस’ के दिन एक भाई जी उन्मादी कारसेवकों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है तभी भीड़ में एक व्यक्ति दूसरों को पीछे धकेलता हुआ कहता है- ‘‘अरे हट, अभी तो हम ‘पावर’ में हैं। अगर अब नही तो फिर कब ? कल को ‘पावर’ चला जाएगा तो सारी रथयात्रा, सारी कारसेवा धरी रह जाएगी। अरे, तू किसके आर्डर से गऊ बना शास्तर बखान रहा है . . हट्। फिर वह आएगा वह मुल्ला हरामजादा . . इस बार तेरी ‘राम की पैड़ी’ लाल हो जाएगी।’’ दूसरे शब्दों में कहें तो जो कारसेवक आम लोगों को लूटते हैं तंग करते हैं उन्हें रोकने की बजाय राजनीति शह देती है ताकि उनकी आड़ में वे अपने अनुचित कार्यों को भी बेहिचक पूरा कर सकें। अतः कारसेवकों के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से सत्ताधारी लोगों की स्वार्थ नीतियाँ काम कर रही हैं। तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा यह कहना कि ‘‘मैं कारसेवकों पर गोली नहीं चलवाऊँगा’’14

वस्तुतः साम्प्रदायिकता फैलाने में धर्म के विकृत रूप का सहारा लिया जाता है क्योंकि एक तो धर्म के अंतर्गत एक बहुत बड़ा जनसमूह आ जाता है, दूसरा उस जनसमूह की अपने धर्म पर अंधी श्रद्धा होती है। यही कारण है कि ‘आखिरी कलाम’ में कारसेवकों की भीड़ का सत्ताधारी लोग अपने स्वार्थ हित के लिए प्रयोग करते हैं। प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल इसका कारण धर्म नहीं बल्कि उसको संचालित करने वाले स्वार्थांध लोगों को मानती हैं और अपनी आलोचनात्मक पुस्तक ‘समकालीन कथा साहित्य: सरहदें और सरोकार में लिखती हैं कि ‘‘खतरनाक धर्म नहीं, धर्म को अपने हक में भुनाने वाले शातिर इरादे हैं। दूसरे,अपने आप में धर्म इतना संहारक भी नहीं कि अकेला विनाश का तांडव करता फिरे। सत्ता और समर्थन पाए बिना वह महत्वहीन है, पिछवाड़े पड़ी गुठली या छिलके की तरह। इसलिए धर्म और राजनीति एक-दूसरे का संबल पाकर अपने को बचाने और टिकाने की कूटनीति है।’’15 मनुष्य के भीतर जड़-धार्मिकता सुप्त-असुप्त अवस्था में विद्यमान होती है। परंतु जब कोई प्रतिधर्मी उसे उन विकृतियों के बारे में अवगत करवाता है, तो वह उसे अपने धर्म का अपमान समझकर, उसके विरूद्ध खड़ा हो जाता है। यही कारण है कि ‘आखिरी कलाम’ उपन्यास में उन्मादी कारसेवक बाबरी मस्जिद गिराने को आतुर दिखाई पड़ते हैं और अंततः गिरा कर ही अपने अहं की तुष्टि करते हैं।

बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद अयोध्या में कर्फ्यू लगाया गया। लेकिन यह कर्फ्यू केवल अयोध्यावासियों के लिए ही था। उपन्यासकार के शब्दों में, ‘‘कर्फ्यू था,कर्फ्यू नहीं था। सुबह छह बजे के लगभग भी काफी अंधेरा था। सरयू गाढ़े कोहरे में दफ़न थी। पुल भी घने कोहरे में डूबा हुआ था। लेकिन पुल पर और ‘राम की पैड़ी’ के सामने और फैज़ाबाद जाने वाली सड़क पर हजारों लोग ‘जयश्रीराम’ के नारे लगाते हुए चल रहे थे। बीच-बीच में मिलिट्री ट्रकों की कोहरे में डूबी हेडलाइट दीख पड़ती। सर्वात्मन बाँध से चलकर पुल की ढ़लान से मुख्य सड़क पर आया। ठठ् की ठठ् भीड़ दक्खिन, फैज़ाबाद की ओर जार रही थी। बीच-बीच में वे ट्रकों के लिए रास्ता छोड़ देते, लेकिन फ़ौजियों को देखते ही नारे लगाना और तेज़ कर देते। अद्भुत फ़्लैग-मार्च और अद्भुत कफ़्र्यू था, जिसमें न तो कोई गोली चल रही थी, न वे लोग छिपने की जगह ढ़ूँढ़ रहे थे। हाँ,अयोध्या के लोग घरों में ज़रूर बन्द थे। उनके लिए कर्फ्यू निश्चित ही था।’’16 वहाँ के बड़े जंक्शनों को जाने वाली सभी ट्रेनों पर कारसेवकों का कब्जा हो गया था। जिसकी जानकारी रमाशंकर द्वारा तब दी जाती है, जब सर्वात्मन,रमाशंकर को आचार्यजी को अस्पताल पहुँचाने के लिए एंबुलेंस या ट्रेन पर प्रबन्ध करने के लिए आग्रह करता है। सर्वात्मन के मुख से ट्रेन का नाम सुनते ही रमाशंकर की उँगली हवा में उठी, ‘‘हाँ, कल रात से तो बड़े जंक्शनों को जानेवाली सभी ट्रेनें ‘कारसेवक एक्सप्रेस’ हो गई हैं। और ऊपर-नीचे-ठसाठस। लाशें और घायल और जैकारे- सब एक साथ लदकर जा रहे हैं। कौन रोक सकता है, सरकार ही निकम्मी है। और निकम्मी भी क्या, सब मिली-भगत है।’’17

भले ही आम आदमी चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय से हो या अल्पसंख्यक समुदाय से, यदि वह साम्प्रदायिक हजूम का हिस्सा बनता है तब भी उसी की क्षति होती है और यदि नहीं बनता तब भी नुकसान उसी का होना होता है।‘आखिरी कलाम’ उपन्यास में अयोध्या में रहने वाले मुस्लिम लोगों की न केवल मस्जिद गिरा दी जाती हैं बल्कि उनकी बस्तियाँ भी जला दी जाती हैं। उपन्यास के अन्त में जब कारसेवक अपने काम को अंजाम देकर रेल द्वारा अपने गन्तव्य स्थान पर वापिस जाते हैं तो रास्ते में वे रेल को रोककर खेतों में काम करने वाले, गरीब लोगों को, शहर के लोगों को न केवल तंग करते हैं अपितु उनको लूटने, उनके साथ बदसलूकी करने, उनकी झोंपडि़याँ जलाने आदि कार्यों को भी प्रशंसनीय ढ़ंग से करते हैं। यहाँ तक कि स्टेशन मास्टर को भी नहीं बख्श्ते,उसे थप्पड़ तक मार देते हैं।

हिंदू भी इन भावों से बचे नहीं रह पाते, जो कारसेवक रूपी हजूम का हिस्सा नहीं बनते। इसलिए सर्वात्मन जब उन्मादी माहौल में सहारा ढूढ़ने का प्रयत्न करता है तो उसे कहीं कोई सहायता नहीं मिलती। न आम आदमी उसकी कोई सहायता कर पाता है, न प्रशासन। एक खंडहरनुमा मस्जिद में रूकने पर,बिल्लेश्वर के मन में डर प्रकट होता है कि जब वे घरों को जला सकते हैं तो उनके लिए टूटी-फूटी मस्जिद को गिराना कौन-सी बड़ी बात है। बीमार तत्सत पांडेय को लेकर वे मारे-मारे फिरते हैं ताकि कोई सवारी मिल जाए या फिर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा जा सके। इस स्थिति में सर्वात्मन सोचता है-‘‘अयोध्या के इस नरक से किसी तरह बाहर जाने को मिले। चाहे कहीं- किसी गाँव, किसी झोंपड़ी, किसी गली-कूचे में, जहाँ सामान्य मनःस्थिति वाले निरीह और निर्भय और भोले-भाले, दुखी-सुखी लोग हों, जहाँ कोई अपना बिस्तर छोड़ दे . .जहाँ कोई दौड़कर तपता जलाए और हाथ-पैर गर्म हों . . जहाँ यह लगे कि हम जिंदा हैं और मुर्दों और प्रेतों और अय्यारों और चिंघाड़ते पागलों के बीच नहीं हैं।’’18  इस प्रकार की स्थिति में भय व असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होना स्वाभाविक है।

अतः कह सकते हैं कि ‘‘आखिरी कलाम’ हिन्दूवादी राजनीति के प्रारम्भिक चरण को देश के लिए घातक बताते हुए जिस तरह उस दौर को दर्ज करता है,वह बड़ा जीवन्त है। किस तरह शुद्ध भारतीय, स्वदेशी और भारतीयता के आवरण में संघ देश के शीर्षस्थ शैक्षणिक संस्थाओं में प्रविष्ट हुआ और कैसे उसने सामाजिक संघर्षों की धार कुन्द की, इसका बड़ा वैज्ञानिक विश्लेषण उपन्यास में है।’’19  आज जब बाबरी मस्जिद के ध्वंस और ‘गुजरात 2002’ के बाद साम्प्रदायिक फासीवाद एक दुःस्वप्न नहीं वास्तविकता बन गया है, तब उन कारकों की पहचान जरूरी है जिनसे यह मानस बनता है। ‘आखिरी कलाम’ जहाँ धर्मोन्मादी फासीवाद का निर्माण प्रक्रिया से साक्षात् कराता है वहीं इसके मूल उत्स पर प्रहार का भी आह्वान करता है।

‘आखिरी कलाम’ में कथाकार ने भारतीय समाज के भीतर अनेक मिथकों के महत्त्व और उनके व्यवहार को, उनके अनुशीलन को विस्तार से दर्शाया गया है। इसमें किसी एक को केंद्र में रखने के बजाय पूरी उस समय की सामाजिक स्थिति परिस्थिति के साथ साथ भारतीय संस्कृति पर बात की गयी है। यह उपन्यास व्यापक सामजिक-राजनितिक मुद्दों,जैसे- सामंतवाद,अन्याय, हिंसा,

 सत्ता की राजनीति और सामजिक भेदभाव पर तो सवाल खड़े करता ही है, पर इसके अलावा भारतीय लोक-समाज में मिथकों के व्यवहार की भी इसमें पर्याप्त चर्चा भी की गई है। इसलिए ऐसा लगता है कि, ‘आखिरी कलाम’ उपन्यास को समाज में व्याप्त मिथकों के महत्त्व और लोक-व्यवहार की दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता है।

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सन्दर्भ :

1-  डॉ० रोहिणी अग्रवाल, इतिवृत्त की संरचना और संरूप, पृ० 19

2-  ज्योतिष जोशी, उपन्यास की समकालीनता, पृ० 167

3-  दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 150

4-  खगेन्द्र ठाकुर, उपन्यास की महान परम्परा, पृ० 178

5-  अरूण प्रकाश, उपन्यास के रंग, पृ० 68-69

6-  दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 107

7-  दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 107

8-  दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 304

9 – दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 127

10- दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 109

11- दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 150

12-  दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 229

13-  दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 346

14- दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 412

15- डॉ० रोहिणी अग्रवाल, समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार, पृ० 56

16- दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 408

17- दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 412

18- दूधनाथ सिंह, आखिरी कलाम, पृ० 395

19- ज्योतिष जोशी, उपन्यास की समकालीनता, पृ० 167

                                  डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा
                        अंतर्राष्ट्रीय हिंदी शिक्षण विभाग
                               केंद्रीय हिंदी संस्थान ,आगरा

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